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मंगलवार, जुलाई 20, 2010

भय बिन होत न प्रीत


                         

https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhl67Z48NMQgTEwrzPrfEgrNuLBUwWvAVFwDBh2_XZp4RzNyUi2mACcURQNCYO0_9KwV9nPO1HrU6IyPWbawBPpAJs4SltxKl0ahbSBDPlHDuwxeB5WjZertiSQJnSSSljd_QN3EIL5LyR2/?imgmax=800
भय बिन होत न प्रीत एक गहन विमर्श का विषय है. सामान्य रूप से सभी स्वीकार लेते हैं . स्वीकारने की  वज़ह है
    http://pix.com.ua/db/art/misc/art_of_antiquity/b-503064.jpg
  1. भय के बिना कोई भी अनुशासन की डोर से बंध नहीं सकता:- जी हां, यह एक पुष्टिकृत [प्रूव्ड] सत्य है. अगर दुनिया भर में व्यवस्था को चलाने के लिये कानूनों के उल्लंघन की सज़ा के प्रावधान न होते तो क्या कोई इंसान कानून को मानता ? कदापि नहीं अधिकारों और कर्तव्यों के साथ साथ सर्व  जन हिताय दण्ड का प्रावधान इस लिये किया गया है कि आम आदमी अपने हित के लिये दूसरों के अधिकारों पर अतिक्रमण न करे. कानून के साथ दिये गये दाण्डिक प्रावधानों से समाज में एक भय बनता है जो अनुशासन को जन्म देता है.  
  2. भय सामाजिक-सिस्टम को संतुलित रखता है  एवम सुदृढता करता है :-  समाज के रिवाज़ नियम उसके आंतरिक ढांचे को संतुलन एवम सुदृढता [स्ट्रैबिलिटी] देता है.   समाज के संचालन के लिये में रीति-रिवाज़ बनाये गये हैं जो देश-काल-परिस्थितियों के अनुसार तय होते हैं सामाजिक-व्यवस्था के लिये ज़रूरी हैं.... जैसे परिवार के पालन-पोषण की जिम्मेदारी माता-पिता दौनों की समाज़ ने तय की हुई है यदि कोई भी एक निडर होकर इस व्यवस्था को तोडने की कोशिश करेगा तो परिवार टूट सकता है यदि इस बात का भय न हो तो प्रेम-के धागों से बंधा परिवार छिन्न-भिन्न हो जाता है. यानि परिवार के टूटने के भय से सभी को एक सूत्र में बाधे रखता है. संतुलन एवम सुदृढता   का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है ?
  1. प्रकृति के अनुशासन को तोडने से आने वाले संकटों का भय- जिसका  जिक्र हम और आप निरंतर मीडीया में देखतें हैं दून की वादियों में सुन्दर लाल जी बहुगुणा का आंदोलन याद करते हुये मैं कहना चाहती हूं कि संकटों के भय  से अगर हम भयभीत न होते तो हमारे ह्रदय में पर्यावरण के प्रति प्रीत न जागती .सही तो कहा है किसी ने भय बिन होत न प्रीत
  2. रामयण काल में समुद्र का भयभीत होना  :- समुद्र से रास्ता मांगते राम को समुद्र ने न तो तब तक रास्ता सुझाया जब तक कि उसे दण्डित करने का भय न दिखाया गया . आज़ विग्यान  के दौर मे यह बात मानी जाये या न माने जाये किंतु एक संदेश ज़रूर माना जायेगा भय बिन होय न प्रीत
सभी चित्र गूगल बाबा से सभार  

सोमवार, जुलाई 19, 2010

नया एग्रीगेटर: हमारी वाणी

हिन्दी चिट्ठाकारिता के इतिहास में स्मूथ संकलकों की बेहद ज़रूरत है, मैथिली जी के द्वारा अचानक एग्रीगेटर ब्लागवाणी को बन्द कर दिया, उधर चिट्ठाजगत की सहजता से न खुल पाने की मज़बूरी, से ब्लाग जगत की आंतरिक खल बली में तो कुछ बदलाव आया किंतु वास्तव में एक दूसरे से सम्पर्क के सेतु से वंचित हुए ब्लागर ...! इस आपसी सम्पर्क बाधा को समाप्त करने एक नया संकलक ”हमारीवाणी
का आगमन स्वागत योग्य तो है किंतु भय है कि कहीं इसे अधबीच में रुकावटों का सामना न करना पड़े अस्तु यदि इस हेतु कोई शुल्क भी लिया जाए तो मेरी नज़र में कोई ग़लत बात नहीं.   ताकि संकलक के संचालकों को कोई आर्थिक दबाव न झेलना पड़े .... जो भी हो हम तो खुद पंजीकृत इस
वज़ह से भी हो गये कि चलेगा यह संकलक हमारी शुभ कामनाएं संकलक के संचालकों को 
आज तक इसमें शामिल ब्लाग्स

इसमें शायद आपकी चर्चा भी हुई है

मित्रो सादर अभिवादन स्वीकारिये ........... मेरी पठन सूची में यूं तो बहुत से ब्लाग है लेकिन रविवार जिन चिट्ठों के साथ गुज़रा वे ये थे .......... पूरे हफ़्ते की खुराक आज़ एक साथ ले ली मैनें ... परन्तु सच कहूं ईमानदारी से कम ही पढ़ पाया............. सच है कि अधिक लिंक को एक साथ पढ़ना कठिन काम है फ़िर भी आपसे अनुरोध है कि इनको एक बार अवश्य देखिये ............ अपना अभिमत दीजिये लेखक के प्रति आपका स्नेह सच कोई भी कमाल कर देगा.............

रविवार, जुलाई 18, 2010

मन निर्जन प्रदेश

बिना तुम्हारे
मन एक निर्जन
प्रदेश
जहां दूर दूर तक कोई नहीं
बस हमसाया
तुम्हारी यादें और
आवाज़ बस
चलो इसी सहारे
चलता रहूंगा तब तक जब तक कि तुम से
न होगा मिलन
________________________________

सोमवार, जुलाई 12, 2010

एक गीत..............बहुत पुराना ...............एकल से युगल ..........एक प्रयोग ... .....

आज ज्यादा कुछ नहीं बस एक गीत ----------------बोल बहुत पसन्द हैं मुझे...................पहले मैने गाया इंदौर मे...........



और फ़िर  रचना ने युगल बनाया नासिक से .(125 बार साथ मे ..प्रयास करके )...............



प्रयोग सफ़ल रहा या नही ये तो आप ही बता पायेंगे--------------------------(ध्यान रहे----- हमने गाना सीखा नही है और कोई तकनिकी ज्ञान भी नहीं है हमें,पर प्रयोग करने में पीछे नहीं हटते)

बुधवार, जुलाई 07, 2010

बाक़ी रह जाती है ।

दिन में सरोवर के तट पर
सांझ ढ्ले पीपल "
सूर्य की सुनहरी धूप में
या रात के भयावह रूप में
गुन गुनाहट पंछी की
मुस्कराहट पंथी की बाकी रह जाती है बाकी रह जाती है ।
हर दिन नया दिन है
हर रात नई रात
मेरे मीट इनमे
दिन की धूमिल स्मृति
रात की अविरल गति
बाकी रह जाती है बाकी रह जाती है
सपने सतरंगी
समर्पण बहुरंगी
जीवन के हर एक क्षण
दर्पण के लघुलम कण
टूट बिखर जाएँ भी
हर कण की "क्षण-स्मृति"
हर क्षण की कण स्मृति
बाकी रह जाती है बाकी रह जाती है


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