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मंगलवार, जुलाई 25, 2023
रविवार, जून 18, 2023
अफगानी तालिबान को बुद्ध याद आए ...!
मुल्ला उमर अब एक इतिहास बन कयामत के फैसले का इंतज़ार कर रहा है, उधर तालिबान कुछेक पुराने कामों पर पुनर्विचार कर रहा है. इस क्रम में 5वीं सदी में बने बामियान के बुद्ध इनको याद आ रहे हैं हैं. बामियान में दो बुद्ध मूर्तियाँ 2001 तक मोजूद थीं. मूर्तियों में पहली बड़ी मूर्ती 55 फीट जिसे सलसल कहा गया तथा दूसरी मूर्ती समामा जो 37 फीट की थी. इन पहाड़ियों में अनेकों गुफाएं हैं जिनका उपयोग यात्री गण (व्यापारी एवं बौद्ध भिक्षुक तथा अन्य लोग ) आश्रय स्थल के रूप में करते थे.
इससे पहले कि हम इस विषय पर कुछ बात करें सबसे पहले बुद्ध का बामियान से सम्बन्ध कैसे बना इस इतिहास पर एक दृष्टि डालते हैं.
*बामियान में बुद्ध प्रतिमाओं का इतिहास*
माना जाता है कि सिल्क रोड जिसकी लम्बाई 65000 किलोमीटर है का निर्माण 130 ईसा पूर्व किया गया था. यह मार्ग चीन से भारत होते हुए अफगानस्तान, ईरान(बैक्ट्रिया जिसे बाख़्तर या तुषारिस्तान, तुख़ारिस्तान और तुचारिस्तान भी कहा गया है ) , तुर्की होते हुए यूरोप पहुंचता है. इस मार्ग का निर्माण किसने कराया इस की पुष्टि हेतु कोई स्पष्ट साक्ष्य नहीं हैं.
इस मार्ग ने अंतर महाद्वीपीय संबंध को स्थापित किया है. सिल्क रुट का चीन, भारत, मिस्र, ईरान, अरब और प्राचीन रोम की महान सभ्यताओं के विकास पर गहरा असर पड़ा।
इस मार्ग से व्यापार के अलावा, ज्ञान, धर्म, संस्कृति, भाषाएँ, विचारधाराएँ, भिक्षु, तीर्थयात्री, सैनिक, घूमन्तू जातियाँ, और बीमारियाँ भी फैलीं। व्यापारिक नज़रिए से चीन रेशम, चाय और चीनी मिटटी के बर्तन भेजता था, भारत मसाले, हाथीदांत, कपड़े, काली मिर्च और कीमती पत्थर भेजता था और रोम से सोना, चांदी, शीशे की वस्तुएँ, शराब, कालीन और गहने आते थे। हालांकि 'रेशम मार्ग' के नाम से लगता है कि यह एक ही रास्ता था वास्तव में बहुत कम लोग इसके पूरे विस्तार पर यात्रा करते थे। अधिकतर व्यापारी इसके हिस्सों में एक शहर से दूसरे शहर सामान पहुँचाकर अन्य व्यापारियों को बेच देते थे और इस तरह सामान हाथ बदल-बदलकर हजारों मील दूर तक चला जाता था। शुरू में रेशम मार्ग पर व्यापारी अधिकतर भारतीय और बैक्ट्रियाई थे, फिर सोग़दाई हुए और मध्यकाल में ईरानी और अरब ज़्यादा थे। रेशम मार्ग से समुदायों के मिश्रण भी पैदा हुए, मसलन तारिम द्रोणी में बैक्ट्रियाई, भारतीय और सोग़दाई लोगों के मिश्रण के सुराग मिले हैं।
इस रोड माध्यम से एशियाई अखंड भारत से सर्वाधिक व्यापार हुआ करता था। किंतु हिंदूकुश पहाड़ी के क्षेत्र में जनजाति कबीलो द्वारा व्यापारियों के साथ लूटपाट की जाती थी। भारतीय एवं चीनी व्यापारियों ने इन लोगों को भी अपने व्यापार का साझीदार बनाया। बौद्ध मत के प्रचार प्रसार से प्रभावित होकर हिंदूकुश पहाड़ी के क्षेत्र में लोगों ने बुद्ध की दो बड़ी प्रतिमाएं स्थापित कर दी इससे व्यवसायिक एवं सांस्कृतिक एकात्मता का सिलसिला भी प्रारंभ हो गया। कहते हैं कि कुषाणों ने बुद्ध की प्रतिमाओं को स्थापित कराया था ताकि भारतीय एवं चीनी व्यापारियों के साथ संबंध प्रगाढ़ हो सके ।
विश्व धरोहर को पुन: 2022 संरक्षित करने की पेशकश करने की इच्छा नए तालिबान ने की है, जबकि तालिबान का पुरोधा मुल्ला उमर इन मूर्तियों को खत्म करके बेहद प्रसन्न हुआ था.
*क्या वजह है इस पेशकश की ..!*
दरअसल इस क्षेत्र में स्थित मैंस अनसक इलाके में में तांबे का भंडार है. नए तालिबान अपनी सत्ता चलाने तथा रियाया के लिए रोटी की व्यवस्था करने के लिए धन जुटाना चाहता है. चीन इस के लिए विनियोजन को तैयार है अत: धन कमाने के लिए चीन के सामने तालिबान ने यह पेशकश की है.
*कैसा है भारतीयों के प्रति तालिबानों का नजरिया एवं व्यवहार ..!*
इसमें को दो राय नहीं कि अफगानी अवाम एवं स्वयम तालिबान भारत के साथ अपनापन रखते हैं. वे भारतीयों से जिस गर्मजोशी एवं आत्मीयता से मिलते हैं उतनी गर्म जोशी उनके दिल में पाकिस्तानियों के लिए नहीं हैं. हाल में यू ट्यूब पर कुछ भारतीय व्लागर्स के वीडियो देख कर तो यही लगा.
*कुल मिला कर श्री नरेन्द्र मोदी का रूस के राष्ट्रपति पुतिन को दी गई सलाह है जिसमें वे कहते हैं कि – “आज का दौर युद्धों के लिए नहीं है.*
सोमवार, जून 05, 2023
बालासोर रेल हादसा: दुर्घटना या साजिश ?
सोमवार, मई 15, 2023
शिक्षा परीक्षा, रुजल्ट पर पत्रकार श्री शम्भूनाथ शुक्ला जी
शुक्रवार, मई 12, 2023
एक सच्चा इंसान : तारेक फतेह
जन्म 20 नवम्बर 1949
कराची, सिंध, पाकिस्तान
मृत्यु 24 अप्रैल 2023 (उम्र 73)
राष्ट्रीयता: कनाडाई
जातीयता: पंजाबी
व्यवसाय- राजनैतिक कार्यकर्ता, लेखक, प्रसारक
तारिक फतेह जी से मेरी ट्विटर पर ही संक्षिप्त बातचीत कुछ ही दिनों पहले शुरू हुई थी अक्सर ट्विटर स्पेस पर उनका मिलना अच्छा लगता था। इतना तो स्पष्ट व्यक्ति कभी भी पाकिस्तान जैसे मुल्क में रह ही नहीं सकता।
सनातनी व्यवस्था के प्रति बेहद सकारात्मक रूप से संवेदनशील थे । 13 अप्रैल से 29 अप्रैल 2023 तक मैं स्वयं परेल मुंबई स्थित ग्लोबल अस्पताल में आईसीयू में भर्ती था दुनिया में क्या चल रहा है इसकी जानकारी न मिल सकी। बेहद दुख हुआ यह जानकर....
अनवरत श्रद्धांजलि ओम शांति शांति
गुरुवार, मई 11, 2023
केदारनाथ मंदिर : अलौकिक स्थापत्य का नमूना लेखिका पूर्णिमा सनातनी
"महाराणा के स्व के लिए भीषण संग्राम और पूर्णाहुति : महाबली हाथी रामप्रसाद"
बुधवार, मई 10, 2023
स्मृतियों के गलियारों दैनिक पुलका महोत्सव
बुधवार, मार्च 29, 2023
बुधवार, मार्च 08, 2023
राजनेताओं के लिए गधे कम पड़ गए थे
जबलपुर में रसरंग बरात का अपना 30 साल पुराना इतिहास है। हम भी नए-नए युवा
होने का एहसास दिलाते थे। कार्यक्रमों में येन केन प्रकारेण उपस्थिति और उपस्थिति
के साथ अधकचरी कविताएं कभी-कभी सुनाने का जुगाड़ हो जाता था।
देखा देखी हमने भी राजनीति पर व्यंग करना शुरू कर दिया....
सफल नहीं रहे....कहां परसाई जी कहां हम.... कहाँ राजा-भोज कहाँ गंगू तेली,,,!
हमने अपनी कविताएं
जेब में रख ली और अभय तिवारी इरफान झांसी सुमित्र जी मोहन दादा यानी अपने मोहन शशि भैया की राह पकड़
ली। गीत लिखने लगे शशि जी के गीत गीत गीले नहीं होते बरसात में की तर्ज पर अपनी
हताशा दर्ज करती गीत मिले हुए अब के बरसात में और ठिठुरते रहे सावनी रात में..!
अथवा सुमित्र जी का गीत “मैं पाधा का राज कुंवर हूं...!”
पूर्णिमा दीदी के गीत अमर दीदी के गीत गहरा असर छोड़ते थे
और अभी भी भुलाए नहीं भूलते। बड़े गजब के गीत लिखते हैं सुकुमार से कवि चौरसिया
बंधु हमारे अग्रज उस दौर की कविताएं बिल्कुल घटिया न थी।
छंद मर्मज्ञ भाई आचार्य संजीव वर्मा सलिल ने तो गीत रचना
में छंद की प्रतिष्ठा को रेखांकित कर दिया था।
जी हां 30-35 बरस पुराना साहित्यिक एनवायरमेंट जबलपुर में
वापस नहीं लौटेगा, कारण क्या है, मुझे
नहीं मालूम पर यूनुस अदीब, पथिक जी रसिक
जी कमाल के गीतकार हैं।
आज आप जिनको पत्रकार कहते हैं वह पत्रकार नहीं कवि और
गीतकार भी थे जी हां मैं जिक्र कर रहा हूं गंगा पाठक जी का। फैक्ट्री से लौटकर
मानसेवी पत्रकार के रूप में गंगा भैया की कविता प्रभावित करने के लिए काफी हुआ
करती थी।
पूज्य रामनाथ अग्रवाल जी के घर की गोष्ठी हो या सुमित्र जी
के ठिकाने पर आनंद का अनुभव होता था भले ही घर देर से लौटने पर यानी लगभग रात 3 बजे तक लौटने पर कितनी फटकार न मिली हो।
दूसरे दिन अखबारों में अपने नाम को तलाशना हमारा शौक बन गया
था। शशि जी ने खूब छापा कवि बना दिया। एक गोष्ठी में शायद वह गोष्टी सुमित्र जी के
जन्मदिन पर थी। मेडिकल निवासी गेंदालाल जी सुमित्रा जी को जरी शॉपी उपहार स्वरूप।
और कहने लगे माला काहे से बनती है जरी से और फूल से - तो गेंदा हम हैं जा जरी लै
लो कमरा उन्मुक्त खिलखिला हट से गूंज गया। तभी
पूज्य मां गायत्री ने खीर खिला दी। सुमित्र
जी और शशि जी ने बताया था कि-" कवि गोष्ठियों को कार्यशाला समझा जाना
चाहिए।"
सच में अब कार्यशालाएं नहीं होती। अनेकांत को छोड़कर कोई भी संस्था निरंतर कवि
गोष्ठी नहीं करती। मध्यप्रदेश लेखक संघ ने कुछ दिन तक मोर्चा संभाला पर कवियों में
भी राजनेता के गुण आ ही जाते हैं कोई बात नहीं मध्य प्रदेश लेखिका संघ ने बहुत
दिनों तक इस परंपरा को आगे बढ़ाया।
सूरज भैया का पढ़ने का तरीका और मानवीय संवेदना ओं को उभार
कर लिखने की प्रवृत्ति अद्भुत है अद्वितीय है।
गणेश नामदेव जी का डायरी खोलने का स्टाइल अभी तक आंखों के
सामने घूमता है। कुछ दिनों बाद तो यह लगने लगा था कि जबलपुर में पुष्प वर्षा करो
तो हर तीसरा फूल किसी ना किसी कवि के माथे पर ही लगता है। फिर धीरे-धीरे कहानी मंच
मिलन मित्र संघ की यादें ताजा हो रही है।
हिंदी मंच भारती ने भी नए स्वर नए गीत कार्यक्रमों का
सिलसिला जारी रखा था। अखंड कवि सम्मेलन इसी जबलपुर में हुआ है। गजब की बात है कि
कवियों का टोटा नहीं पड़ा।
उस दौर में समाचार पत्र भी गजब काम करते थे। तब साहित्यकार
पत्रकार भी हुआ करते थे अब यदा-कदा अरुण श्रीवास्तव जैसे साहित्यकार पत्रकार की
तरह नजर आते हैं।
माटी की गागरिया जैसी कविता लिखने वाले भवानी दादा को कौन
भूलेगा। पूजनीय सुभद्रा जी केशव पाठक पन्नालाल श्रीवास्तव नूर के इस शहर में कविता
अब कराह रही है ।
ऐसा नहीं है कि बसंत मिश्रा यशोवर्धन पाठक विनोद नयन कोई
कोशिश नहीं कर रहे हैं या राजेश पाठक प्रवीण ने कोर कसर छोड़ रखी हो। पर पता नहीं
क्या हो गया है वह कार्यशाला नहीं होती जिसे हम गोष्ठी कहते थे। मणि मुकुल जी को
भूलना गलत होगा। साधारण सा व्यक्तित्व साधारण सी कविता मणि मुकुल के अलावा बहन
गीता गीत भी लिखती हैं तो डॉ संध्या जैन श्रुति ने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
विनीता पैगवार, रजनी कोठारी
राजनेताओं के लिए गधे कम पड़ गए थे के लिए इंतज़ार कीजिये
बुधवार, मार्च 01, 2023
सामरिक ताकत बनने से पहले मानव संसाधन का विकास जरूरी है
कॉलेज के दिनों में बढ़-चढ़कर हम अक्सर निशस्त्रीकरण पर बेहद प्रभावशाली ढंग से अपने विचार रखा करते थे। उस दौर में हमारे मस्तिष्क में भी शस्त्र विहीन राष्ट्र की कल्पना अत्यधिक आदर्शवादी ताकि चलते हावी रहा करती थी।
उन दिनों सैन्य शक्ति के संदर्भ में भरत किसी भी गिनती में नहीं आता था। परंतु हमारे मस्तिष्क में हमेशा ही विश्व की भारत के लिए की जाने वाली चैरिटी का ख्याल बना रहता था। आर्थिक दृष्टि से भारत की विकास दर इतनी धीमी थी जितनी थी चीटियां भी धीमी गति से नहीं चलती। तब हम चिंतित जरूर थे परंतु हताश नहीं । तब भारत कई मोर्चों पर युद्ध रत रहा है। सीमा पर हमेशा चीन और पाकिस्तान की हरकतें देश कौन उत्साह विहीन करने की कोशिश करती रही हैं। दूसरा मुद्दा भारतीय जनता की स्वास्थ्य शिक्षा से संबंधित समस्याएं।
एक और कुपोषण रक्त अल्पता औसत आयु में कमी तथा सामाजिक स्वास्थ्य के गिरते हुए समंक हमारे मस्तिष्क को जब जोड़ देते थे वहीं दूसरी ओर शिक्षा का स्तर भी बेहद शर्मनाक था। सोचिए जब हम अपने जॉब में आए तब भी शिक्षा का स्तर और स्वास्थ्य संबंधी आंकड़ों में कोई उत्साहवर्धक परिणाम नजर नहीं आते थे।
खेतों में उपस्थित का अनाज अपर्याप्त था। केयर जैसे संस्थान अमेरिका से प्राप्त खाद्यान्न सहायता के परिवहन का कार्य करती थी। तब यूनिसेफ टीके लगाने के लिए अभी प्रेरक और प्रमुख सहायक एजेंसी के रूप में हमारी के लिए तत्पर हुआ करती थी।
मेरा चिंतन हमेशा से ही समाज में कुछ धनात्मक देखना चाहता था। इसके पीछे एक कारण है वह कारण जानेंगे तो आप समझ जाएंगे कि मैंने एक खास विभाग में नौकरी करना क्यों पसंद किया। ऐसा नहीं कि मेरे पास विकल्प न रही हों। बहुत सारे विकल्प थे पत्रकारिता वकालत और ढेरों सरकारी नौकरियां। पत्रकारिता में मेरे मित्र आज कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं तो वकालत करने वाले साथियों ने तो हाई कोर्टस में न्यायाधीश का रुतबा हासिल कर दिया है। मुझसे मेरे इंटरव्यू में पूछा गया कि-"आपने यह जॉब क्यों पसंद की?"
मैं जानता नहीं जानता था कि प्रश्न किस उद्देश्य से किया गया? शायद वह समझ रहे होंगे कि- इससे बेहतर अपॉर्चुनिटी मुझे मिल सकती है। मैंने अपनी बैसाखियों की ओर इशारा करते हुए कहा-" मैडम अगर उस वक्त जब मेरा जन्म हुआ था पल्स पोलियो अभियान चलाया गया होता तो शायद मैं इन बैसाखियों के सहारे नहीं चलता । मैंने सोचा नहीं था कि ऐसा मैं कह पाऊंगा।
पर यही वाक्य शायद उनके हृदय पर गहराई से अंकित हो गया था।
अपनी नौकरी के साथ-साथ लोग सोशियो इकोनामिक डेवलपमेंट के लिए अगर चिंता करने लगेंगे तो तय है कि किसी ना किसी दिन भर आदर्श स्थिति में नजर आएगा ऐसा उस वक्त भी मेरा मानना था और आज भी यही सोचता हूं।
काम करते-करते समझ में आता था कि महिलाओं का प्रसूति के दौरान मरना स्वाभाविक प्रक्रिया है आंकड़े रोके नहीं रुक रहे हैं। कई बच्चे तो पहला जन्मदिन भी नहीं बना पा रहे। जब फैमिली प्लानिंग पर किसी को समझा रहा था तब भीड़ में से एक महिला ने ठेठ देहाती भाषा में मुझे डपकते हुए कहा-" बेकार की बातें मत कीजिए साहब, हमारे परिवार में हम यह सब नहीं कर सकते। परिवार में अब तक कोई भी बच्चा 6 महीने या 1 साल से ज्यादा जिंदा नहीं रहा है हम अगर परिवार कल्याण अपना लेंगे तो शायद हमें मुक्ति भी ना मिल पाए?"
मेरा प्रति प्रश्न था कि क्या आपने घर परिवार में बच्चों के जन्म को लेकर केवल ईश्वर पर भरोसा किया है? उत्तर होना स्वाभाविक था। तब मैंने कहा माताजी अगर आप मुझ पर भरोसा करें आंगनवाड़ी पर भरोसा करें तो शायद इस बार ऐसा ना हो? फिर आप जैसा कहोगी मैं मान लूंगा और यहां तक कह डाला कि-" तुम्हारे साथ चलूंगा सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देने के लिए"
बात का पूरा पूरा असर हुआ आखिर बुजुर्ग महिला अपने कुल के लिए इससे बेहतर और क्या सोच सकती है। इस परिवार पर मेरी विशेष नजर थी। परिवार में हर गर्भवती के रजिस्ट्रेशन और टाइमली टीकाकरण के साथ-साथ आयरन की गोलियां उपलब्ध कराई जाती थी और उसे नियमित रूप से प्रेगनेंसी पीरियड में खाने की मॉनिटरिंग भी सुनिश्चित कर ली थी ।
यहां आइए 30 से 35 वर्ष पुराने भारत की तस्वीर है जो मैंने आपको दिखाई। आप देख नहीं पाते क्योंकि विकास केवल ढांचागत आकृतियों में नजर आता है। विकास को देखने का नजरिया सबसे पुख्ता तौर पर किसी भी देश की वाइटल स्टैटिसटिक्स को देखने का नजरिया ही होता है। जन्म दर मृत्यु दर मातृ मृत्यु दर एनीमिया स्कूल ड्रॉपआउट रेट से लेकर कम्युनिटी मेडिसिन और प्रैक्टिसेज देखने वाला मुद्दा है। मेरे मित्र स्वर्गीय डॉक्टर संजय श्रीवास्तव कहा करते थे कि- 10 परसेंट मरीज मेरे हैं 90% आपके ही आप चाहे तो तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी।"
हुआ भी वही परंतु मुझे महसूस हो रहा था कि तस्वीर बदलने में शिक्षा आड़े आती है उन पर पारिवारिक परंपराएं हावी रहती हैं और इस बात का भय भी कि 4 लोग क्या कहेंगे।
यह चार लोग कौन हैं मैंने तो आज तक नहीं देखा आपने देखा हो तो बताइए। इसका भय हर मन से हटना जरूरी है। बहुत मेहनत मशक्कत लगती है अच्छी परंपराओं को बरकरार रखने और गलत परंपराओं को समाप्त करने में। एक्सक्लूसिव ब्रेस्टफीडिंग एक रामबाण इलाज है परंतु यह मुद्दा भी बड़ी मुश्किल से समझ में आने लगा है। शहरी दंपत्ति खास तौर पर महिलाएं यहां तक कि डॉक्टर्स भी कोलोस्ट्रम वाला दूध पिलवाने के संदेश को तेजी से प्रोत्साहित नहीं करते हैं , बताएगा इस मुद्दे पर झगड़े भी कर लेता था।
बदलाव के लिए केवल मैं ही जिम्मेदार हूं ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं बदलाव के लिए मेरे जैसे लाखों लोग इसमें शामिल है। जो यह जानते हैं कि मानव संसाधन का विकास बिना वाइटल स्टैटिसटिक्स के आंकड़ों में पॉजिटिव सुधार लाए संभव नहीं है। भारत की स्वास्थ्य सेवाओं में गुणवत्ता तभी से नजर आने लगी थी। कोविड-19 के दौरान जब लोग इस बात के लिए घबराए हुए थे कि हम 10 साल में भी टीका लगा पाएंगे या नहीं तब हम जैसे लोग इस मुद्दे पर किसी तरह का मानसिक टेंशन नहीं लेते थे। वजह थी हमारी मजबूत वर्किंग फोर्स।
और उससे भी बड़ी वजह थी व्यवस्था में आपसी तालमेल। स्वास्थ्य आंगनवाड़ी शिक्षा के साथ-साथ सामुदायिक सहयोग का सिंक्रोनाइजेशन कोविड-19 टीकाकरण की सफलता का प्रमुख रहस्य रहा है।
अब जब कुछ दिनों में मैं सरकार से रिटायर हो जाऊंगा तब भी इस परिवर्तन को देखकर अपने आप को सौभाग्यशाली मानूंगा की किस तरह से हमने एक युग को बदलते देखा है।
मेरी मैदानी वर्कर अक्सर दुखी रहा करती थी कि उनके केंद्र पर महिलाएं नहीं आती। हमने एक प्रयोग शुरु कर दिया और आपस में थोड़ा बहुत चंदा किया तथा हर गर्भवती महिला की गोद भरने की रस्म प्रारंभ की गई। हम महिला को यह बताने में सफल रही थे कि-" हमारा मैदानी केंद्र आपके लिए पिता का घर है।"
इंस्टीट्यूशनल डिलीवरी तक महिलाओं को उनके ससुराल में बांध कर रखना मेरी कल्पना थी। और इस परिकल्पना को आकार देने में हमारे विभाग की कमिश्नर श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव एवं सबके लिए प्रिय एवं आदरणीय आईएएस अधिकारी श्री ने इस योजना को पूरे प्रदेश में लागू कर दिया।
यह एक निजी इनीशिएटिव था जो आगे चलकर विराट रूप लेने वाला था इसका मुझे और मेरी टीम को ज्ञान नहीं था। हमारी केंद्र एक सांस्कृतिक आकर्षण पैदा कर सके जिससे हम अपनी बात पुख्ता तौर पर कहने के लिए समर्थ हो चुके थे।
ऐसा मशीनें नहीं करती हैं मशीनें सटीक काम तो करती है लेकिन संवेदना एवं सुविधाओं के साथ नहीं।
हां मुझे याद आ रहा है जब बीसीजी की वाइल खोलने के लिए 4 बच्चों का होना जरूरी होता था। इस सिस्टम को खत्म करने के लिए जोरदार तरीके से हम लोगों ने अपनी बातें स्टेट सेमिनार में रखी। इससे यूनिफॉर्म इम्यूनाइजेशन कार्यक्रम को ताकत मिली और उम्र के पहले वर्ष में लगने वाले टीके समय पर लगने लगे। पोलियो के मामलों पर भारत ने जिस तरह से चक्रव्यूह रच दिया है उसका तोड़ स्वयं विश्व स्वास्थ्य संगठन के पास भी न होगा क्योंकि भारत के पास मानव संसाधन का एक विराट कोर्स उपलब्ध है।
इस आर्टिकल का उद्देश्य केवल यही है कि अगर आप भारत को विश्व गुरु के रूप में देखना चाहते हैं तो बारीकी से सामाजिक चिंतन की जरूरत है। यूं ही नहीं हो जाता है socio-economic डेवलपमेंट।
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