गुजरात के बड़नगर रेल्वे-स्टेशन पर एक चाय बेचने वाले का बेटा .जो खुद चाय बेचता.. शीर्ष पर जा बैठा भारतीय सांस्कृतिक आध्यात्मिक और धार्मिक आख्यानों में चरवाहे कृष्ण वनचारी राम.. को शीर्ष तक देखने वालों के लिये कोई आश्चर्य कदाचित नहीं . विश्व चकित है.. विरोधी भ्रमित हैं .. क्या हुआ कि कोई अकिंचन शीर्ष पर जा बैठा .. ! भ्रम था उनको जो मानते हैं.. सत्ता धनबल, बाहुबल और छल से पाई जाती है... ! क्या हुआ कि अचानक दृश्य बदल गए .. लोगों को क्या हुआ सम्मोहित क्यों हैं.. इस व्यक्ति का सम्मोहक-व्यक्तित्व सबको कैसे जंचा.. सब कुछ ज़ादू सरीखा घट रहा था.. मुझे उस दिन आभास हो गया कि कुछ हट के होने जा रहा है.. जब उसने एक टुकड़ा लोहे का मांग लौह पुरुष की प्रतिमा के वास्ते चाही थी. संकेत स्पष्ट था ... एक क्रांति का सूत्रपात का जो एक आमूलचूल परिवर्तन की पहल भी रही है.
कितना महान क्यों न हो प्रेरक किंतु जब तक प्रेरित में ओज न हो तो परिणाम शून्य ही होना तय है. इस अभियान में मोदी जी के पीछे कौन था .... ये सवाल तो मोदी जी या उनके पीछे का फ़ोर्स ही बता सकता है किंतु मोदी में निहित अंतस के फ़ोर्स पर हम विचार कर सकते हैं कि मोदी में एक ज़िद थी खुद को साबित करने की. नरेंद्र मोदी जी ने बहुत आरोह अवरोह देखे हैं.. चाय की केतली कप-प्लेट और चाय ले लो चाय की गुहारना उनके जीवन का पहला एवम महत्वपूर्ण पाठ्यक्रम था. दो वर्ष का हिमालय प्रवास आध्यात्मिक उन्नयन के लिये था जो उनका दूसरा महत्वपूर्ण पाठ्यक्रम कहा जा सकता है.
तभी तो उनकी , उनके अन्य प्रतिस्पर्धियों किसी तरह की तुलना गैरवाज़िव हो चुकी है. राहुल जी को निर्माण के उस कसाव से न गुज़रने की वज़ह से उनमें पूरे इलेक्शन कैंपेनिंग में सम्मोहित करने वाला भाव चेहरे पर नज़र न आया. न ही केज़रीवाल न कोई और भी ... आप वीडियो क्लिपिंग्स देखें तो नमो की संवादी शैली आपको मोहित करती लगेगी ऐसा असर तत्कालीन प्रधानमंत्री त्रय श्रीयुत अटलबिहारी बाजपेई, चंद्रशेखर जी एवम स्व.इंदिरा जी छोड़ा करते थे . मुझे अच्छी तरह याद है अटलजी, इंदिरा जी और श्री चंद्रशेखर जी जिनको सुनने जनमेदनी स्वेच्छा से उमड़ आती थी. डेमोक्रेटिक संदर्भ में देखा जावे तो – अच्छा, वक़्ता के वक्तव्य में केवल शब्द जाल का बुनकर हो ऐसा नहीं है. आवाम अपने लीडर में परिपक्क्वता देखना चाहती है . उसके संवादों में खुद का स्थान परखती है. उसका सामर्थ्य अनुमानती है तब चुनती है. मेरे इर्द-गिर्द कई लोग आते हैं जो चुगली करता है निंदा करता है उससे मेरा रिश्ता न जाने क्यों टूट जाता है जो कर्मशील होता है उसे पढ़ लेता हूं उसपर विश्वास करता हूं.. मुझ सरीखे करोड़ों होंगे जो कर्मशीलता को परखते होंगें .
कर्मशीलता का संबंध आत्मिक उत्कंठा से है जो भाव एवम बुद्धि की धौंकनी में तप कर जब शब्द बनती है और ध्वनि पर सवार होकर विस्तारित होती है तो एक सम्मोहन पैदा होता है. आरोप,चुगलियां, हथकण्डे, अनावश्यक (कु) तर्कों से सम्मोहन पैदा ही नहीं होता. प्रज़ातांत्रिक संदर्भों में सम्मोहन पैदा करने वाला केवल कर्मठ ही हो सकता है. अन्य किसी में सामर्थ्य संभव ही नहीं. वक्ता के रूप में मैने भी सैकड़ों बार देखा है श्रोताओं को सम्मोहित करना आसान नहीं . इसके लिये वक्तव्य के कंटेंट में फ़ूहड़ता और मिथ्या अस्वीकार्य कर दी जाती है. मुझे याद नहीं कि इंदिरा जी, बाजपेई जी, चंद्रशेखर जी, के भाषणों में लांछनकारी शब्द रहे थे. उनके संवाद शांत और अनुशासित हुआ करते थे. अटल जी बोलते तो एक एक शब्द अगले शब्द के प्रति जिग्यासु बना देता था. और फ़िर शब्दावली जब पूरा कथन बनती कथन जब पूरा भाषण बनते तो पांव पांव घर लौटते पूरा भाषण मानस पर अंकित हो जाता था. ऐसा लगता था कि किसी राजनीतिग्य को नहीं किसी विचारक को सुन कर लौट रहा हूं. अस्तु कर्म अनुशीलन और चिंतन से ओतप्रोत अभिव्यक्ति का सम्मोहन नमो ने बिखेरा और इसी फ़ोर्स ने एक विजय हासिल की है... आप मेरी राय से असहमत भी हो सकते हैं .. पर मेरी तो यही राय है.