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शनिवार, मई 17, 2014

मोदी विजय पर एक ग़ैर सियासी टिप्पणी “सम्मोहक चाय वाला...!”

 गुजरात के बड़नगर रेल्वे-स्टेशन पर  एक चाय बेचने वाले का बेटा .जो खुद चाय बेचता.. शीर्ष पर जा बैठा भारतीय सांस्कृतिक आध्यात्मिक और धार्मिक आख्यानों में चरवाहे कृष्ण वनचारी राम.. को शीर्ष तक देखने वालों के लिये कोई आश्चर्य कदाचित नहीं . विश्व चकित है.. विरोधी भ्रमित हैं .. क्या हुआ कि कोई अकिंचन शीर्ष पर जा बैठा .. ! भ्रम था उनको जो मानते हैं.. सत्ता धनबल, बाहुबल और छल से पाई जाती है... ! क्या हुआ कि अचानक दृश्य बदल गए .. लोगों को क्या हुआ सम्मोहित क्यों हैं.. इस व्यक्ति का सम्मोहक-व्यक्तित्व सबको कैसे जंचा.. सब कुछ  ज़ादू सरीखा घट रहा था.. मुझे उस दिन आभास हो गया कि कुछ हट के होने जा रहा है.. जब उसने एक टुकड़ा लोहे का मांग लौह पुरुष की प्रतिमा के वास्ते चाही थी. संकेत स्पष्ट था ... एक क्रांति का सूत्रपात का जो एक आमूलचूल परिवर्तन की पहल भी रही है.
                    कितना महान क्यों न हो प्रेरक किंतु जब तक प्रेरित में ओज न हो तो परिणाम शून्य ही होना तय है. इस अभियान में मोदी जी के पीछे कौन था .... ये सवाल तो मोदी जी या उनके पीछे का फ़ोर्स ही बता सकता है किंतु मोदी में निहित अंतस के फ़ोर्स पर हम विचार कर सकते हैं कि मोदी में एक ज़िद थी खुद को साबित करने की. नरेंद्र मोदी जी ने बहुत आरोह अवरोह  देखे हैं.. चाय की केतली कप-प्लेट और चाय ले लो चाय की गुहारना उनके जीवन का पहला एवम महत्वपूर्ण पाठ्यक्रम था. दो वर्ष का हिमालय प्रवास आध्यात्मिक उन्नयन के लिये था जो उनका दूसरा महत्वपूर्ण पाठ्यक्रम कहा जा सकता है.  
तभी तो उनकी , उनके  अन्य प्रतिस्पर्धियों किसी तरह की तुलना गैरवाज़िव हो चुकी है. राहुल जी को निर्माण के उस कसाव से न गुज़रने की वज़ह से उनमें पूरे इलेक्शन कैंपेनिंग में सम्मोहित करने वाला भाव चेहरे पर नज़र न आया. न ही केज़रीवाल न कोई और भी ... आप वीडियो क्लिपिंग्स देखें तो नमो की संवादी शैली आपको मोहित करती लगेगी ऐसा असर तत्कालीन प्रधानमंत्री त्रय  श्रीयुत अटलबिहारी बाजपेई, चंद्रशेखर जी एवम  स्व.इंदिरा जी छोड़ा करते थे . मुझे अच्छी तरह याद है अटलजी, इंदिरा जी और श्री चंद्रशेखर जी जिनको सुनने जनमेदनी स्वेच्छा से उमड़ आती थी. डेमोक्रेटिक संदर्भ में देखा जावे तो – अच्छा, वक़्ता के वक्तव्य में केवल शब्द जाल का बुनकर हो ऐसा नहीं है. आवाम अपने लीडर में परिपक्क्वता देखना चाहती है . उसके संवादों में खुद का स्थान परखती है. उसका सामर्थ्य अनुमानती है तब चुनती है. मेरे इर्द-गिर्द कई लोग आते हैं जो चुगली करता है निंदा करता है उससे मेरा रिश्ता न जाने क्यों टूट जाता है जो कर्मशील होता है उसे पढ़ लेता हूं उसपर विश्वास करता हूं.. मुझ सरीखे करोड़ों होंगे जो कर्मशीलता को परखते होंगें .
कर्मशीलता का संबंध आत्मिक उत्कंठा से है जो भाव एवम बुद्धि की धौंकनी में तप कर जब शब्द बनती है और ध्वनि पर सवार होकर विस्तारित होती है तो एक सम्मोहन पैदा होता है. आरोप,चुगलियां, हथकण्डे, अनावश्यक (कु) तर्कों से सम्मोहन पैदा ही नहीं होता. प्रज़ातांत्रिक संदर्भों में सम्मोहन पैदा करने वाला केवल कर्मठ ही हो सकता है.  अन्य किसी में सामर्थ्य संभव ही नहीं. वक्ता के रूप में मैने भी सैकड़ों बार देखा है श्रोताओं को सम्मोहित करना आसान नहीं . इसके लिये वक्तव्य के कंटेंट में फ़ूहड़ता और मिथ्या अस्वीकार्य कर दी जाती है. मुझे याद नहीं कि इंदिरा जी, बाजपेई जी, चंद्रशेखर जी, के भाषणों में लांछनकारी शब्द रहे थे. उनके संवाद शांत और अनुशासित हुआ करते थे. अटल जी बोलते तो एक एक शब्द अगले शब्द के प्रति जिग्यासु बना देता था. और फ़िर शब्दावली जब पूरा कथन बनती कथन जब पूरा भाषण बनते तो पांव पांव घर लौटते पूरा भाषण मानस पर अंकित हो जाता था. ऐसा लगता था कि किसी राजनीतिग्य को नहीं किसी विचारक को सुन कर लौट रहा हूं. अस्तु कर्म अनुशीलन और चिंतन से ओतप्रोत अभिव्यक्ति का सम्मोहन नमो ने बिखेरा और इसी फ़ोर्स ने एक विजय हासिल की है... आप मेरी राय से असहमत भी हो सकते हैं .. पर मेरी तो यही राय है.

बता दो.. शून्य का विस्फ़ोट हूं..!!

दूरूह पथचारी 
तुम्हारे पांवों के छालों की कीमत
अजेय दुर्ग को भेदने की हिम्मत 
को नमन... !!
निशीथ-किरणों से भोर तक 
उजाला देखने की उत्कंठा ….!
सटीक निशाने के लिये तनी प्रत्यंचा ...!!
महासमर में नीचपथो से ऊंची आसंदी
तक की जात्रा में लाखों लाख

विश्वासी जयघोष आकाश में 
हलचल को जन्म देती
यह हरकत जड़-चेतन सभी ने देखी है
तुम्हारी विजय विधाता की लेखी है.. 
उठो.. हुंकारो... पर संवारो भी 
एक निर्वात को सच्ची सेवा से भरो
जनतंत्र और जन कराह को आह को 
वाह में बदलो...
**********
सुनो,
कूड़ेदान से भोजन निकालते बचपन 
रूखे बालों वाले अकिंचन. 
रेत मिट्टी मे सना मजूरा 
नर्मदा तट पर बजाता सूर बजाता तमूरा
सब के सब
तुम्हारी ओर टकटकी बांधे
अपलक निहार रहे हैं....
धोखा तो न दोगे 
यही विचार रहे है...!
कुछ मौन है
पर अंतस से पुकार रहे हैं..
सुना तुमने...
वो मोमिन है.. 
वो खिस्त है.. 
वो हिंदू है...
उसे एहसास दिला दो पहली बार कि 
वो भारतीय है... 
नको हिस्सों हिस्सों मे प्यार मत देना
प्यार की पोटली एक साथ सामने सबके रख देना 
शायद मां ने तुम्हारे सर पर हाथ फ़ेर
यही कहा था .. है न.. 
चलो... अब सैकड़ों संकटों के चक्रव्यूह को भेदो..
तुम्हारी मां ने यही तो कहा था है न..!!
मां सोई न थी जब तुम गर्भस्त थे..
तुमने सुना था न.. व्यूह-भेदन तरीका
तभी तो कुछ द्वारों को पल में नेस्तनाबूत कर दिया तुमने
विश्व हतप्रभ है...
कौन हो तुम ?
जानना चाहता है.. 
बता दो.. शून्य का विस्फ़ोट हूं
जो बदल देगा... अतीत का दर्दीला मंज़र...
तुम जो विश्वास हो
बता दो विश्व को ...
कौन हो तुम.... !!
कह दो कि -पुनर्जन्म हूं.. शेर के दांत गिनने वाले का....
***********
चलना ही होगा तुमको 
कभी तेज़ कभी मंथर
सहना भी होगा तुमको 
कभी बाहर कभी अंदर
पर 
याद रखो
जो जीता वही तो है सिकंदर 
·        गिरीश बिल्लोरे मुकुल


बुधवार, मई 14, 2014

मेरे करुणाकर बुद्ध तुमको कोटिश: नमन

तस्वीर क्रमांक दो
तस्वीर क्रमांक एक

 आध्यात्मिक-दर्शन ने समकालीन सामाजिक आर्थिक  जीवन शैली को परिवर्तित कर विश्व को जो दिशा दी है उसे वर्तमान संदर्भ में देखने की कोशिश कर रहा हूं संभवतया मुझसे आप असहमत भी हों..  किन्तु बुद्ध को जितना जाना समझा एवम बांचा है उसके आधार पर बुद्ध मेरी दृष्टि  करुणाकर हैं. उनका आध्यात्मिक चिंतन जीव मात्र के लिये करुणा से भरा है. बुद्ध ने आक्रमण को जीवन में अर्थ हीन माना . शाक्य और कोली विवाद के कारण परिव्राज़क बने बुद्ध का तप और फ़िर दिव्यानुभूतीयां इस बात का प्रारंभिक प्रमाण है कि युद्ध विहीन विश्व  की अवधारणा का सूत्रपात करुणाकर बुद्ध ने राजसुख त्याग के किया . इसा के 483 और 563 ईस्वी पूर्व जन्मे करुणाकर बुद्ध का अनुशरण सामरिक तृष्णा वाले राष्ट्रों के लिये अनिवार्यत: विचारणीय है. युद्ध से व्युत्पन्न परिस्थितियां विश्व को अधोपतान की ओर ले जाएंगी यह सत्य है. युद्ध अगले निर्माण का आधार कभी हो ही नहीं सकता. मेरी दृष्टि में युद्ध  चाहे वो धर्म की प्रतिष्ठार्थ हो अथवा राज्य के विस्तार के लिये अस्वीकार्य होना ही चाहिये. 
तस्वीर क्रमांक तीन 
       आप ऊपर की तस्वीरें देखिये तस्वीर क्रमांक दो में देखिये सांची में हम सब लोग बैठकर महिलाओं के लिये सटीक और कारगर कार्यक्रमों की रणनीति तैयार कर रहे थे एक गिलहरी हम सबके इर्दगिर्द घूमती कभी डायरी के पन्ने चखने की कोशिश करती कभी किसी को छूकर जाती कुल मिलाकर निर्भीक होकर हमारे बीच थी . दो-तीन घंटे तक हम सबके साथ खेलती मानो कह रही थी कि यह शांति निलय परिसर है यहां मैं तुम हम सब शांत चित्त हो रचनात्मक हो जाते है.. बस आज़ और कल को इसी की ज़रूरत है..  
       शांति के लिये राज्य को प्रजातंत्र के ढांचे में ढाला गया किंतु हमारी लिप्सा ने प्रजातंत्र को भी रणभूमि में बदल दिया . बुद्ध के वैराग्य का आधार भी आपसी संवाद था ... इस कथा से सब कुछ स्पष्ट होगा
  • एक ऐसी घटना घटी जो शुद्धोदन के परिवार के लिये दुखद बन गयी और सिद्धार्थ के जीवन में संकटपूर्ण स्थिति पैदा हो गयी । शाक्यों के राज्य की सीमा से सटा हुआ कोलियों का राज्य था । रोहणी नदी दोनों राज्यों की विभाजक रेखा थी । शाक्य और कोलिय दोनों ही रोहिणी नदी के पानी से अपने-अपने खेत सींचते थे । हर फसल पर उनका आपस में विवाद होता था कि कौन रोहिणी के जल का पहले और कितना उपयोग करेगा । ये विवाद कभी-कभी झगड़े और लड़ाइयों में बदल जाते थे । जब सिद्धार्थ 28 वर्ष के थे, रोहणी के पानी को लेकर शाक्य और कोलियों के नौकरों में झगड़ा हुआ जिसमें दोनों ओर के लोग घायल हुये । झगड़े का पता चलने पर शाक्यों और कोलियों ने सोचा कि क्यों न इस विवाद को युद्ध द्वारा हमेशा के लिये हल कर लिया जाये । शाक्यों के सेनापति ने कोलियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा के प्रश्न पर विचार करने के लिये शाक्यसंघ का एक अधिवेशन बुलाया और संघ के समक्ष युद्ध का प्रस्ताव रखा । सिद्धार्थ गौतम ने इस प्रस्ताव का विरोध किया और कहा युद्ध किसी प्रश्न का समाधान नहीं होता, युद्ध से किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी, इससे एक दूसरे युद्ध का बीजारोपण होगा । सिद्धार्थ ने कहा मेरा प्रस्ताव है कि हम अपने में से दो आदमी चुनें और कोलियों से भी दो आदमी चुनने को कहें । फिर ये चारों मिलकर एक पांचवा आदमी चुनें । ये पांचों आदमी मिलकर झगड़े का समाधान करें । सिद्धार्थ का प्रस्ताव बहुमत से अमान्य हो गया साथ ही शाक्य सेनापति का युद्ध का प्रस्ताव भारी बहुमत से पारित हो गया । शाक्यसंघ और शाक्य सेनापति से विवाद न सुलझने पर अन्ततः सिद्धार्थ के पास तीन विकल्प आये । तीन विकल्पों में से उन्हें एक विकल्प चुनना था (1) सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लेना, (2) अपने परिवार के लोगों का सामाजिक बहिष्कार और उनके खेतों की जब्ती के लिए राजी होना, (3) फाँसी पर लटकना या देश निकाला स्वीकार करना । उन्होंने तीसरा विकल्प चुना और परिव्राजक बनकर देश छोड़ने के लिए राज़ी हो गए । (साभार विकी पीडिया)
    ॐ शांति शांति शांति

मंगलवार, मई 13, 2014

स्वतंत्रता को बीमारी मत बनाईये


साभार : पंजाब केसरी

  
आज़ मैं एक ऐसे मनोरोगी से मिला जिसे किसी की अधीनता स्वीकार्य नहीं. मेरे अधीनस्त अधिकारी है. उसे देखता हूं तो लगता है एक सपाट सा जीवन एक सपाट सी अभिव्यक्ति अतिसंवेदनशील उसे मिसफ़िट कहना ही होगा.  जो भी हो जितना भी पावन हो वह पर आज़ादी को वो बीमारी की तरह स्तेमाल कर रहा है मुझे ऐसा आभास हुआ . पिछले कई दिनों से मैं उनकी हरक़त का मुआयना कर रहा हूं. वो किसी न किसी से कोई न कोई पूर्वाग्रह पाले हुए हैं.  एक अधिकारी से अपेक्षा होती है कि वो अपने अधिकारिता वाले क्षेत्र में के दायित्व का निर्वाह करे . किंतु काम न करना तथा काम का दबाव आते ही स्वतंत्रता का बोध होना अपमे मानवाधिकार का हवाला देते हुए कार्य न करना कुल मिला कर स्वातंत्र्य को एक बीमारी की तरह जीने वाली स्थिति को प्रस्तुत करता है.
                  कुछ लोग अपनी बातों में कहा करते हैं ...    ये कि मुझे अब सहा नहीं जाता मेरी आदत ही यही है, मैं क्या करूं... शुद्ध देशी शब्दावली में इसे ठीठपन ही कहा जाएगा.. पर मेरी दृष्टि में इसे स्वतंत्रता के प्रति लोलुप होकर मनोरोगी हो जाना है.
                 घर से निकते ही हमारा सार्जवनिक जीवन शुरु हो जाता है. और अक्सर सार्वजनिक जीवन घात आघात को सहन करके ही सफ़लता पूर्वक जिया जा जाता है. कुछ लोग जो मानसिक रूप से अति संवेदनशील होते हैं तथा अपने सम्मान के लिये अधिक आसक्त होते हैं वे  घर में एवम  घर से बाहर, असफ़ल ही रहते हैं.  मेरी बेटी एक बार एक प्रतियोगिता में हार से गुमसुम नज़र आई अभिभावक के रूप मे हमारा हस्तक्षेप अत्यंत अनिवार्य था अस्तु  उसके चेहरे पर मुस्कान लाने एवमं उसे यह समझाने में हमें पहली बार बड़ी मशक्कत करनी पड़ी कि हर पराजय जीत की राह खोलती है.. अवसरों को तलाशने की ताक़त देती है. अब बेटी जीत और हार को एक ही तरीके से समभाव से ग्राह्य करती है.
                  किसी स्पर्धा अथवा युद्ध का  अंत "परिणाम" है जो हार, जीत कुछ भी होता है. अक्सर दोनों ही स्थितियों में मानसिक अवस्था उत्तेजित होती है. कायिक-भाषा में अज़ीबोग़रीब बदलाव नज़र आते हैं.  विजेता हर्षित होकर उत्तेजित होता है और पराजित लज्जित होकर कोई भी हार और जीत को खिलाड़ी भाव से ग्राह्य नहीं कर पाते .  
                    चुनाव प्रक्रिया को लें तो हम पाते हैं कि चुनाव अब  स्पर्द्धा न होकर युद्ध हैं..  जय- पराजय का एहसास होने मात्र से जिव्हा  पर समझदारी के अंकुश नहीं रह गए हैं वहीं प्रोवोग करने वालों की भीड़ भी सतत बढ़ रही है.. लोग नींच-ऊंच , क्या व्यक्तिगत लांछन तक लगाने से चूकते नहीं... यानी स्वतंत्रता को बीमारी की तरह भोगा जा रहा है.. क्यों नहीं हम गंभीर अपनी स्वतंत्रता को लेकर  यही सवाल कई दिनों से मेरे सर पर वैतालिक सवाल सा लदा है.. क्या कोई उत्तर है आपके पास .......... ? 

रविवार, मई 11, 2014

ब्लाग सेतु एग्रीगेटर शोध छात्र केवलराम की सफ़ल कोशिश









ब्लागसेतु एक ऐसा नया एग्रीगेटर है जो भारतीय भाषाओं के चिट्ठों के लिये अत्यंत उपयोगी साबित होना तय है . अब से पहले आप जो पार पांच बरस पूर्व से ब्लाग लिख रहे हैं जानते ही होंगे कि हिंदी ब्लागिंग को प्रोत्साहित करने में -
• चिट्ठाजगत.इन • ब्लॉगवाणी • दो सबसे मशहूर एग्रीगेटर थे  मह्त्वपूर्ण अवदान रहा है.  हिंदी के पाठकों तक ब्लाग्स यानी चिट्ठों को पहुंचाना एग्रीगेटर का कार्य होता है. किन्तु काफ़ी श्रमसाध्य एवम खर्चे का मामला होता है.ऐसा नहीं है कि इन दो ब्लाग एग्रीगेटर्स के पहले कुछ न था हिन्दी ब्लागिंग के लिये   नारद हिन्दीब्लॉग्स.ऑर्ग चिट्ठा विश्व • आदि एग्रीगेटर्स का योगदान रहा है जो पाटकों को हिंदी ब्लाग तक भेजने का का काम करते थे.  में "हिन्दी चिट्ठे एवम पाडकास्ट" मेल बाक्स में ताज़ा चिट्ठों की सूचना जारी कर रहा है. चिट्ठाजगत एवम ब्लागवाणी के विकल्प के रूप में दिल्ली के श्री कनिष्क कश्यप ने ब्लागप्रहरी की शुरुआत की .
  इनमे पूर्वोक्त वर्णित वेबसाईट्स के अलावा भी अक्षर ग्राम नेटवर्क के स्वयमसेवी लोगों ने पाठकों तक हिंदी ब्लागस भेजने की कोशिशें की हैथ ही साथ हिंदी में ब्लागिंग के लिये प्रोत्साहित किया 
                       इंडीब्लागर एक मशहूर एग्रीगेटर है जो इन सबसे हटकर ब्लागर्स मीट, ब्लाग का स्टेट्स , पुरस्कार आदि कि सुविधाएं प्रदान करता है. 


क्या है ये एग्रीगेटर और क्यों ज़रूरी हैं..?

  चिट्ठों को एकत्र कर तत्काल पाठको तक प्रकाशन की सूचना जारी करने वाली साइटट्स को एग्रीगेटर कहा जाता है. इन्हैं हिंदी में संकलक नाम दिया गया है.   जिनका कार्य है ब्लागस अर्थात चिट्ठों को आम पाठकों तक पहुंचाना . यद्यपि गूगल से बेहतर सर्च इंजन कौन सा होगा पर हिंदी ब्लागिंग के लिये आप  किसी भी शब्द ज़रिये किसी आलेख पर पहुंचना चाहते हैं तो आपको ढेरों रिज़ल्ट मिलेंगे जिनमें वो सब शामिल होगा जो वर्जित है. अत: एग्रीग्रेटर चुनिंदा  पंजीकृत ब्लाग पाठकों तक पहुंचाते हैं.  . 
     ब्लागसेतु 
                           
शोध छात्र केवल राम ने अपनी परियोजना ब्लाग-सेतु पर काम करने के पूर्व सटीक सूक्ष्म कार्ययोजना तैयार की है, और वे पूरी तैयारी से इस काम के लिये मैदान में आए हैं.  उनके एग्रीगेटर पर अधिकतम पांच चिट्ठों के पंजीकरण की सुविधा होगी.  इस पर पाठको के पंजीकरण, वेबकास्टिंग, पाडकास्टिंग से जुड़े ब्लाग्स के लिये सुविधा मुहैया कराई जा रही है. एग्रीगेटर में पाठकों के लिये पृथक से इंतज़ाम होंगे .साथ ही विभिन्न स्टेटस काउंटर्स द्वारा वेबसाइट्स पर होने वाली गतिविधियों को लाइव दिखाया जावेगा. शोधछात्र केवलराम जी बताते हैं कि -" हम फ़ुलप्रूफ़ प्लानिंग के साथ इस परियोजना पर काम कर रहें हैं .. इससे जुड़ कर एग्रीगेटर को ब्लागर्स समृद्ध कर सकते हैं.दस दिन पूर्व से शुरु इस एग्रीगेटर  से ब्लॉग सेतु ब्लॉग एग्रीगेटर में 48 ब्लॉगर और 92 ब्लॉग पंजीकृत हैं और इन ब्लॉगों की कुल पोस्ट संख्या 13634  है
 आप भी जुढ़िये नियम एवम शर्तें ये रहीं ::: "नियम एवम शर्तें "
·          सबसे पहले चिट्ठाकार उस प्लेटफॉर्म का चयन करें जिस पर आप ब्लॉग लिखते हैं.
·          जिस ब्लॉग को आप जोड़ना चाहते हैं सबसे पहले http:// के साथ उस ब्लॉग का लिंक/यूआरएल यहाँ दर्ज करें, फिर शीर्षक लायें पर क्लिक करें. आपके ब्लॉग का शीर्षक और उसके निर्माण की तिथि से सम्बंधित जानकारी स्वतः ही चिट्ठाकार को प्राप्त हो जाएगी.
·          अब चिट्ठाकार को अपने ब्लॉग के प्रकार का चयन करना है. इसमें हमने दो श्रेणियां बनायीं है :
·          पहली श्रेणी के अंतर्गत व्यक्तिगत ब्लॉग को रखा गया है. एक ही द्वारा लिखे जाने वाले ब्लॉग को इस श्रेणी में दर्ज कर सकते हैं.
·          दूसरी श्रेणी के अंतर्गत सामूहिक ब्लॉग को रखा गया है. ऐसे ब्लॉग जिनका मोडरेटर कोई एक ब्लॉगर है, लेकिन इन ब्लॉगों में कई ब्लॉगर सदस्य हैं और वह इन ब्लॉगस पर अपनी पोस्टें डाल सकते हैं.
·          जिस ब्लॉग को आप ब्लॉग सेतु से जोड़ने जा रहे हैं उस ब्लॉग पर आपके द्वारा लिखी गयी पहली पोस्ट की तारीख दिए हुए स्थान पर भरें और फिर तारीख की जांच करें पर क्लिक करें.
·          जब  चिट्ठाकार के ब्लॉग की पहली तारीख सत्यापित हो जायेगी, तब ही चिट्ठाकार ब्लॉग को जमा करने का बटन दिखेगा. लेकिन इससे पहले  चिट्ठाकार  को अपने ब्लॉग की श्रेणी का भी चयन करना है, जो कि बहुत महत्वपूर्ण है.
·          अगला चरण आपकी ब्लॉग श्रेणियों का है. यह चिट्ठाकार के ब्लॉग के लिए सबसे महत्वपूर्ण चरण है. यहाँ  चिट्ठाकार  को थोडा समय देना है और बहुत ध्यान से अपने ब्लॉग को उस श्रेणी में जोड़ना है, जिस पर आप ज्यादा लिखते हैं. इसमें मुख्य श्रेणी के बाद उप श्रेणी का चुनाव करना है और अगर उस उप श्रेणी की कोई और उप श्रेणी होगी तो वह भी चिट्ठाकार  को दिख जायेगी. ब्लॉग की श्रेणी इस सूची में नहीं है तो आप हमें सूचित कर सकते हैं. हम उस श्रेणी को भी जोड़ने का प्रयास करेंगे. यह ध्यान रहे कि ब्लॉग सेतु के मुख्य पृष्ठ पर ब्लॉग पाठकों को आपके ब्लॉग की पोस्ट उप-श्रेणी में ही दिखाई देगी. जिससे उसे उस श्रेणी से सम्बंधित और ब्लॉगों तक पहुँचने में आसानी होगी.
·          ब्लॉगसेतु ब्लॉग एग्रीगेटर पर एक चिट्ठाकार अधिकतम पांच ब्लॉग जोड़ सकता है .
·          विशेष :- ब्लॉगसेतु में जोड़े गए हर ब्लॉग और उस पर आने वाली पोस्ट पर नजर रहेगी, अगर कोई ब्लॉग या पोस्ट ब्लॉगिंग के मानकों के अनुसार सही नहीं पाया जाता है तो उस ब्लॉग और पोस्ट से सम्बन्धित सभी प्रकार के निर्णय का अधिकार ब्लॉगसेतु टीम के पास सुरक्षित है.

हिंदी ब्लॉगिंग के बेहद उदीयमान हस्ताक्षर, न्यू मीडिया, तकनीक और साहित्य के बदलते स्वरूप और प्रभाव पर विशेष रूचि एवं अध्ययन, भारतीय साहित्य, संगीत और संस्कृति, धर्म और दर्शन से गहरा लगाव . विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन !
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शनिवार, मई 10, 2014

"जिस तरह हंस रहा हूँ मैं पी के अश्क ए गम कोई दूसरा हंसे तो कलेजा निकल पड़े" कैफ़ी साहब को श्रृद्धांजली


कैफ़ी आज़मी साहब की लाइने हमारे हिंदुस्तान की सौ फ़ीसदी सच्ची तस्वीर है. 2002 आज़ ही के दिन यानी 10 मई को हमसे ज़ुदा हुए कैफ़ी आज़मी साहब तरक्क़ी पसंद शायर की फ़ेहरिश्त में सबसे अव्वल माने जाते हैं.
देखिये उनकी एक नज़्म -
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है,
आज की रात न फ़ुटपाथ पे नींद आएगी,
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो,
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी ।  
   बेशक इस नज़्म की एक पंक्ति को देखिये
दिन पिघलता है इसी तरह सरों पर अब तक,
रात आँखों में खटकती है सियाह तीर लिए ।
      मज़दूरों की कड़ी मेहनत कल सुबह का इंतज़ार करती आंखों का ज़िक्र बड़े सलीके से किया है . फ़िर आपसी वैमनस्यता को रेखांकित करती ये नज़्म-
 ऐ सबा! लौट के किस शहर से तू आती है?
तेरी हर लहर से बारूद की बू आती है!
खून कहाँ बहता है इन्सान का पानी की तरह 
जिस से तू रोज़ यहाँ करके वजू आती है?
धाज्जियाँ तूने नकाबों की गिनी तो होंगी 
यूँ ही लौट आती है या कर के रफ़ू आती है?
अपने सीने में चुरा लाई है किसे की आहें
मल के रुखसार पे किस किस का लहू आती है !
      पाकीज़ा गांवों में कम अक्ल शहरों आने वाली हवाओं  पूछना भारतीय शायरी में ये नज़्म बेज़ोड़ और कालजयी बन पड़ी है. मसलन शायर वो सब कुछ देख लेता है जो अल्लाह यानी ईश्वर को मालूम होता है. उसे एहसास हो ही जाता है कि – कहीं कोई क्रोंच मारा गया है तब नज़्म जन्म लेती है, कविता जन्मती है ग़ज़ल गूंजती है.
          कैफ़ी साहब ने तीखा तंज़ किया है सियासत पर कुछ इस तरह
हाकिमे-शहर, ये भी कोई शहर है
मस्जिदें बन्द हैं, मयकदा तो चले
इसको मज़हब कहो या सियासत कहो
ख़ुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले  

इसी नज़्म में आम बोल चाल के शब्दों के प्रयोग से बहुत गहरी बात कह गए
इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाऊँगा
आज ईंटों की हुरमत बचा तो चले
बेलचे लाओ, खोलो ज़मीं की तहें
मैं कहाँ दफ़्न हूँ, कुछ पता तो चले
        कैफ़ी साहब की इस नज़्म में हमेशा मौज़ूदा हालातों का ज़िक्र रहा है. ऐसे मंज़र हम सब देखते हैं पढ़ते हैं...  पर उनको नसीहत के रूप में शब्द देकर आकृति देना उम्दा साहित्यकर्म की बानगी होती है.. कैफ़ी साहब की शायरी कुछ यूं ही थी.
 बचपन में कभी जब बार मैने उनका गीत होके मज़बूर पहली बार समझ के साथ सुना तो लगा कि वाक़ई उम्दा शायरी में क्या क्या हो सकता है बस एहसास में आना ज़रूरी है उन सब घटनाक्रमों का .. अब आप ही सोचें इस स्थिति-गीत (सिचुएशन सांग) को कैसे महसूस किया होगा कैफ़ी साहब ने. अब के फ़िल्म निर्माता सच भाग्य विहीन या लालची जो चिकनी चमेलियां दिखा सुना कर उस पर न्यौछावर रुपयों को अपनी झोली भरते हैं. ये तो कोठों को प्रबंधित करने वालों जैसी हरक़त हुई.
  बहरहाल क्या फ़ायदा इन सब बातों से.. ज़िक्र कैफ़ी साहब का है तो वही करूंगा वरना अच्छी यादों को लोग ज़ल्द भुलाते देते हैं ...
कैफ़ी आज़मी की इस नज़्म पर एक नज़र
इक यही सोज़-ए-निहाँ कुल मेरा सरमाया है 
दोस्तो मैं किसे ये सोज़-ए-निहाँ नज़र करूँ
कोई क़ातिल सर-ए-मक़्तल नज़र आता ही नहीं
किस को दिल नज़र करूँ और किसे जाँ नज़र करूँ?
तुम भी महबूब मेरे तुम भी हो दिलदार मेरे
आशना मुझ से मगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं
ख़त्म है तुम पे मसीहानफ़सी चारागरी
मेहरम-ए-दर्द-ए-जिगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं
अपनी लाश आप उठाना कोई आसान नहीं
दस्त-ओ-बाज़ू मेरे नाकारा हुए जाते हैं
जिन से हर दौर में चमकी है तुम्हारी दहलीज़
आज सजदे वही आवारा हुए जाते हैँ
दूर मंज़िल थी मगर ऐसी भी कुछ दूर न थी
लेके फिरती रही रास्ते ही में वहशत मुझ को
एक ज़ख़्म ऐसा न खाया के बहार आ जाती
दार तक लेके गया शौक़-ए-शहादत मुझ को
राह में टूट गये पाँव तो मालूम हुआ
जुज़ मेरे और मेरा रहनुमा कोई नहीं
एक के बाद ख़ुदा एक चला आता था
कह दिया अक़्ल ने तंग आके 'ख़ुदा कोई नहीं'

      

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