24.9.22

चावल निर्यात पर प्रतिबंध से डब्ल्यूटीओ में हड़कंप

*चावल निर्यात पर प्रतिबंध से विश्व व्यापार संगठन में मची अफरा-तफरी*
   विगत तिमाही में भारत सरकार ने आयात निर्यात को विनियमित करते हुए भारतीय बाजार की स्थिति के मद्देनजर ब्रोकन चावल के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया था। आप जानते ही हैं कि विश्व बाजार में खाद्य आपूर्ति के मामले में भारत का योगदान पहले पांच नंबरों में आता है। चावल की वैश्विक खपत को देखते हुए आप को आश्चर्य होगा कि भारत से विगत 2021 में चावल का निर्यात 150 देशों में 9.6 बिलियन डॉलर्स  का रहा है। वर्तमान वित्तीय वर्ष में प्राकृतिक कारणों से घरेलू उत्पादन में चावल का उत्पादन 13% कम रहा है। इससे भारत का आंतरिक बाजार प्रभावित हुआ है। भारत में चावल निर्यात में पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया है बल्कि केवल ब्रोकन चावल के निर्यात पर प्रतिबंध लगाया है और सामान्य चावल पर 20% की एक्सपोर्ट ड्यूटी लगाई गई है। इतना करने मात्र से विश्व व्यापार संगठन में लगभग 150 देशों के प्रतिनिधियों ने यह कहकर हंगामा खड़ा कर दिया कि भारत के इस कदम से विश्व की खाद्य आपूर्ति व्यवस्था नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रही है। इस मुद्दे को लीड करने में अमेरिका और सेनेगल सबसे आगे है। अमेरिका का यह भी कहना है कि -" ऐसे प्रतिबंधों से यह अर्थ निकाला जाता है कि भारत अत्यधिक प्रॉफिट कमाना चाहता है।"
   परंतु विश्व में फूड सिक्योरिटी , आपूर्ति और सप्लाई चैन के मामले में भारत का सदा ही पॉजिटिव नजरिया रहा है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि केवल निर्यात को सर्वोपरि रखा जावे निर्यात को सर्वोपरि रखने से हमारी आर्थिक व्यवस्था भी प्रभावित होती है फिर भी आंतरिक समस्याओं को देखते हुए हमें आवश्यक है कि हम कुछ ऐसे निर्णय लें जो भले ही नुकसानदेह हो परंतु जनता के लिए लाभकारी हो। भारत में 125 करोड़ से अधिक आबादी के लिए ब्रोकन राइस की उपलब्धता हमेशा आवश्यक और प्राथमिकता वाली होती है। यदि हम ऐसे अत्यंत उपयोगी खाद्य सामग्री को विश्व में बाटेंगे तो भारत में ब्रोकन राइस की कीमत आसमान को छू लेगी और आम आदमी तक इसकी उपलब्धता में नकारात्मक रूप से प्रभाव पड़ेगा। डब्ल्यूटीओ में इस मुद्दे को उठाकर विश्व के 150 देशों ने भारत को भेजने की कोशिश की परंतु भारतीय प्रतिनिधि ने स्पष्ट रूप से सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए स्पष्ट कर दिया कि-" भारत का संकल्प है की सप्लाई चेन को मेंटेन रखें लेकिन आंतरिक आवश्यकताओं को अनदेखा नहीं किया जा सकता। जैसा कि आप सब जानते हैं कि इस वर्ष प्राकृतिक कारणों से भी भारत में खाद्यान्न का उत्पादन अपेक्षाकृत कम हुआ है अतः ऐसे कदम उठाना राष्ट्रहित में आवश्यक है और कोई भी सरकार अपने लोगों को भूखा रखकर निर्यात को सर्वोपरि कैसे रख सकती है?
   विश्व व्यापार संगठन की एक और अहम समस्या है कि विश्व व्यापार संगठन तेल उत्पादक देशों द्वारा निर्मित तेल के कृत्रिम अभाव कम उत्पादन पर हमेशा चुप रहा है। और आप देखते हैं कि विश्व बाजार में आए दिन क्रूड ऑयल कि वैश्विक आपूर्ति में मूल्यों में वृद्धि होती रहती है। और क्रूड आयल एक अत्यधिक लाभ कमाने का उत्पादक देशों के लिए महत्वपूर्ण साधन बन गया है। इससे दक्षिण एशियाई देशों ही नहीं बल्कि विश्व के उन तमाम देशों अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ता है जो तेल उत्पादक देशों से तेल का आयात करते हैं । इसके पूर्व भी आपने देखा होगा कि कनाडा के प्रधानमंत्री ने भारत में सब्सिडी को टारगेट करते हुए भारत के विरुद्ध आवेदन विश्व व्यापार संगठन के मुख्यालय में जमा किए। इसके अलावा कई देश विशेष तौर पर यूरोपियन देश भारत के खिलाफ विश्व व्यापार संगठन में नकारात्मक वातावरण निर्मित करने की कोशिश करते रहे हैं।
   भारत की आयात निर्यात पॉलिसी सदा से ही सकारात्मक रही है। जबकि कोविड-19 के दौरान कच्चे केमिकल की आपूर्ति के संदर्भ में  अमेरिका द्वारा प्रतिबंध की कोशिश की थी। कोरोना वैक्सीन बनाने के लिए भारत को जिस केमिकल की जरूरत थी उस पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगा  दिया था। परंतु अंतरराष्ट्रीय दबाव एवं भारत की क्षमता को देखते हुए अमेरिका के तत्सम में नवनिर्वाचित हुए राष्ट्रपति जो बाइडन को अपनी निर्णय पर पुनर्विचार करना पड़ा। वर्तमान में भारत की स्थिति रशियन तेल आपूर्ति व्यवस्था के कारण सामान्यतः ठीक है। विश्व खाद्य आपूर्ति अर्थात आयात निर्यात को डब्ल्यूटीओ ने सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखा तो है परंतु यूरोपियन देश भारत में उत्पादित खाद्यान्नों पर सब्सिडी देने तक पर सवाल उठाते हैं। भारत की फेडरल और राज्य सरकारों द्वारा कृषि उत्पादन को उत्कृष्ट बनाने की जद्दोजहद करते हुए राजकोष से सब्सिडी प्रदान करती है। इस कारण भारत में कृषि उत्पाद की गुणवत्ता तथा मात्रा में वृद्धि देखी जा रही है। और यही विकास यूरोपियन देशों के पेट का दर्द बना हुआ है।
   तेल संकट से जूझ रहा यूरोप इन दिनों भारत के आंतरिक कारणों से चावल पर लगाए गए प्रतिबंध से भयभीत भी नजर आ रहा है।
   डब्ल्यूटीओ को यह बात समझनी चाहिए कि अगर तेल की कीमतों पर नियंत्रण रहा तो विश्व के अविकसित विकासशील देशों की आर्थिक व्यवस्था धीरे धीरे सुदृढ़ होगी परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि इस मुद्दे पर विश्व व्यापार संगठन एक पक्षीय दृष्टिकोण अपनाता है। तेल की कीमतों पर सदा चुपचाप रहना  और भारत द्वारा उत्पादित खाद्य सामग्रियों के संदर्भ में अत्यधिक मुखर देशों की बात सुनना डब्ल्यूटीओ की सबसे बड़ी भूल है।
   

22.9.22

दिलदार सरदार दमदार सरदार बीएस पाबला

अद्भुत व्यक्तित्व था बीएस पाबला जी का उनसे मुलाकात की वजह हिंदी ब्लॉगिंग में प्रभावी लेखन एवं ब्लॉगिंग के तकनीकी ज्ञान रही है। पाबला जी से मुलाकात दिल्ली में हुए अंतरराष्ट्रीय ब्लॉगर्स मीट में हुई थी। दिल्ली में मिले देश चिट्ठाकार  ऐसे मिले जैसे आपस में बड़ा घरेलू सा रिश्ता हो। मध्य प्रदेश के सहोदर राज्य छत्तीसगढ़ के रायपुर के सभी ब्लॉगर भाई श्री ललित शर्मा जी सहित ब्लॉगर्स से आवाज सुनने का रिश्ता तो था ही पर प्रत्यक्ष मिलते ही सच में ऐसा लगा जैसे हम सच एक ही मोहल्ले में रहने वाली लोग हैं। जबलपुर मूल के समीर लाल कनाडा से बैठे-बठे बहुत तेरी लोगों को ब्लॉगिंग सिखाते तो पाबला जी ब्लॉगिंग में आने वाली तकनीकी समस्याओं का  दुख दर्द मिटाने में पीछे नहीं रहते। अक्सर हम सब समस्याओं का निदान पावभाजी से ही पाते थे। उनका सहयोगी भाव अद्भुत था। 1 दिन में सुबह-सुबह चकित रह गया जब बाबूलाल जी का कॉल आया। 29 नवंबर 2008 अथवा 2009 की बात है यह मेरे लिए बड़ा महत्वपूर्ण दिन है इस  दिन मेरा जन्मदिन होता है पाबला जी ने शुभकामनाएं दी। उन्होंने बड़ी मेहनत से सारे हिंदी चिट्ठाकारों के जन्म पर्वों का लेखा जोखा बना रखा था और ऑफिस जाने के पहले उन सभी को फोन लगाकर बधाई अवश्य देते। एक बार मेरा ब्लॉग ठीक तरीके से काम नहीं कर रहा था। पाबला जी ने अपने तकनीकी ज्ञान से ब्लॉग का ढांचा ही सुधार दिया। और मुझे निर्देश दिया कि आप तुरंत पासवर्ड बदल लीजिए। मैंने बड़े उदासीन भाव से कहा -" पाबला जी पासवर्ड आपके पास है न..?"
पाबला जी ने कहा-" मैं शाम को देखूंगा कि आपने पासवर्ड बदला कि नहीं अभी तो मुझे दफ्तर जाना है। पासवर्ड किसी को भी शेयर नहीं करना चाहिए।"
  पुत्र के असमय निधन से वे दुखी जरूर थे परंतु जीवन को भरपूर शिद्दत से जीते रहे अपने आंसू आंखों में कहां छुपा लिया करते थे इस बारे में वे ही जानते हैं या वाहेगुरु ?
 उनके अकेलेपन को मिटाने का काम उनका डॉगी था जिसे भी प्यार से मैक सिंह बुलाते थे।
   दिलदार सरदार दमदार सरदार बीएस पाबला 21 सितंबर 2021 को हम सब को छोड़ कर अनंत यात्रा में पर निकल पड़े। बी एस पाबला जी को विनम्र श्रद्धांजलि शत शत नमन उनकी अनुपस्थिति हमेशा हमें खलती है।

19.9.22

रंगमंच की गिरती साख कौन जिम्मेदार

    फोटो गूगल से आभार सहित
     रंगमंच की गिरती साख कौन जिम्मेदार
                          गिरीश बिल्लोरे मुकुल
     Show must go on रंगमंच को पूरी तरह से परिभाषित करने वाला वाक्य है। रंगमंच का अस्तित्व ही प्रदर्शनों पर निर्भर करता है। यह सब जारी है और रहेगा, परंतु चिंतन इस बात पर होते रहना चाहिए कि-" रंगमंच के स्तर में गिरावट न हो सके..!'
आइए हम इसी मुद्दे पर विमर्श करते हैं। यहां रंगमंच को कुछ ढांचे के रूप में नहीं समझा जाए जो केवल नाटकों के प्रदर्शन के लिए होता है बल्कि रंगमंच संपूर्ण प्रदर्शनकारी कलाओं के लिए महत्वपूर्ण एवं आधारभूत आवश्यकता है। इन दिनों मंच के स्वरूप स्वरूप को तकनीकी तौर पर विस्तार और सुदृढ़ता मिल रहा है। इससे उलट प्रस्तुति कंटेंट के संदर्भ में विचार करें तो  ऐसा लगता है कि-" रंगमंच कमजोर हो गए हैं!"
    महानगरों मध्यम दर्जे के शहरों में कला का प्रदर्शन तादाद अथवा संख्यात्मक दृष्टि से बड़ा है परंतु इसके गुणात्मक पहलू को अगर देखा जाए तो गुणवत्ता में गहरा प्रभाव पड़ा है। सबसे पहले  आपको स्पष्ट करना जरूरी है कि हम यहां रंगमंच पर अभी नाट्य प्रस्तुतियों की चर्चा नहीं कर रहे हैं बल्कि मंच पर प्रस्तुत किए जाने वाली अन्य सभी विधाओं की बात की जावेगी जिनमें नाटक, कवि सम्मेलन, कवयत्री सम्मेलन मुशायरे, संभाषण, हास्य, मिमिक्री, संगीत, आदि सभी विधाओं पर विमर्श करना चाहते हैं।
    विगत 10 वर्षों से जो देखा जा रहा है उसने हमने पाया है कि कवि सम्मेलन पूरी तरह से पॉलीटिकल हास्य व्यंग और  फूहड़ श्रंगार पर केंद्रित है।  जबकि संगीत रचनाओं में केवल फिल्मी और कराओके गायन को संगीत की अप्रतिम साधना माना जा रहा है। मिमिक्री और हास्य की श्रेणी में रखे जाने वाले कार्यक्रमों में अश्लीलता और स्तर हीन चुटकुले बाजी के अलावा अच्छे कंटेंट देखने को नहीं मिल रहे हैं। कवि सम्मेलनों की दशा तो बेहद शर्मनाक हो चुकी है। 15 से 20 मिनट तक एक कवि आपसी छींटाकशी का या तो केंद्र रहता है  छींटाकशी करने का प्रयास करता है। शेष 15 से 20 मिनट तक घटिया चुटकुले वह भी ऐसे चुटकुले जो जो हुई या तो तू ही अच्छी होंगी अथवा पॉलिटिकल अथवा द्विअर्थी संवादों पर केंद्रित होते हैं। इसे कवियों की भाषा में टोटके कहा जाता है। मैं तो यही कहूंगा कि 
*मंच कवि खद्योत सम: जँह-तँह करत प्रकाश*
   देश विदेश में अपने नाम का परचम लहराने वाले मंचीय कवि कुमार विश्वास कितने भी महान कवि हो जाएं परंतु वे ओम प्रकाश आदित्य जैसे कवियों को स्पर्श तक  नहीं कर पाए हैं। यह ऑब्जरवेशन है यहां में मनोज मुंतशिर थे अवश्य प्रभावित हूं। कविता के साथ केवल कविता और काव्यात्मकता होती है। टोटकों को जगह देने के लिए कविताएं करने वाले लोग मेरी दृष्टि में कम से कम कभी तो नहीं है हां मनोरंजन का पैकेज अवश्य हो सकते हैं।
   संगीत के आयोजनों में केवल फिल्मी गीतों का लुभावना गुलदस्ता भेंट करने वाली संस्थाएं मेरी दृष्टि में संगीत की सेवा नहीं बल्कि बॉलीवुड गीतों का गुलदस्ता पेश करती नजर आती हैं। यह कार्य तो आर्केस्ट्रा पार्टी का है । नादिरा बब्बर का  नाटक मेरे ह्रदय पर गहरी छाप छोड़ गया। इस प्रकार के नाटकों का प्रदर्शन अब मंच पर क्यों नहीं होता? अधिकांश नाट्य समूह खास विचारधारा से संबद्ध होते हैं। यहां मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि अधिकतर नाटक नकारात्मक आयातित विचारधारा से प्रेरित होते हैं। वही लोग अपने नैरेटिव स्थापित करने के लिए नाट्य सेवा करते हैं। थिएटर किसी एक विचारधारा की बपौती कदापि नहीं है। भरतमुनि का नाट्यशास्त्र स्वयं प्रजापिता ब्रह्मा के ऑब्जरवेशन में लिखा गया है। लेकिन दुर्भाग्य है कि-" थोड़ा सा भी चर्चित होने के पश्चात कुकुरमुत्ता की तरह नाट्य संस्थाएं मध्यम स्तर के शहरों एवं महानगरों में पनपने लगीं हैं।
   विचार संप्रेषण के लिए यह प्रभावी माध्यम भी अब मंच से धारा सही होता नजर आ रहा है।
    प्रदर्शनकारी कलाओं में दर्शकों जुटाने की तकनीकी का सहारा लिया जा रहा है। अब तो केवल मनोरंजन के लिए थिएटर शेष रह गए हैं।
   नृत्य प्रस्तुतियों को देखिए विगत कई वर्षों से मौलिक नृत्य चाहे वह लोकनृत्य हो  क्लासिकल अथवा  सेमीक्लासिकल आप वर्ष भर का किसी भी शहर कार्यकाल उठा कर देख ले आपको नहीं मिलेगा।
   मेरे शहर के, हास्य कलाकार के के नायकर, कुलकर्णी भाई, माईम आर्टिस्ट के ध्रुव गुप्ता जैसे हास्य कलाकारों के सामने कपिल शर्मा जैसा स्टैंडिंग कॉमेडियन इतना प्रभाव कारी सिद्ध नहीं हो रहा है जितना कि संस्कारधानी के उपरोक्त कलाकार प्रभाव छोड़ते थे ।
  क्या कारण है कि मंच का स्तर गिर रहा है?
    इस बार की पतासाजी करने पर आप स्वयं पाएंगे कि - प्रस्तुति के कंटेंट में नकारात्मक प्रवृत्ति देखी जा रही है। अपने ही शहर के कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूं जैसे कि अब न तो लुकमान जैसे महान गुरु हैं, न ही शेषाद्री या सुशांत जैसे धैर्यवान शिष्य। न ही भवानी दादा जैसे कवियों गीत कारों की रचनाएं जब कुबेर की ढोलक की ताल के साथ मिलकर लुकमान के स्वरों के रथ पर आरूढ़ होकर श्रोताओं की मन मानस पर सरपट होती थी तो भाव से भरा दर्शक श्रोता वाह वाह ही नहीं करता था बल्कि से विजनवास बहुत से लोगों की आंखों आंसुओं के झरने, झरते हुए हमने देखे हैं यह था असर।
     रात को 2:00 बजे कवि गोष्ठियों से लौटकर घर में डांट खाते थे पर हमें संतोष था कि हमने आज महान रचनाकारों से उच्च स्तरीय कविताएं सुनी हैं। हम अक्सर काव्य गोष्ठियों में अपनी कविताई का प्रशिक्षण लेते थे। हमारी शहर में भानु कवि से लेकर रास बिहारी पांडे तक वक्तव्य के मामले में मूर्धन्य वक्ता स्वर्गीय एडवोकेट राजेंद्र तिवारी जिनका अंग्रेजी हिंदी संस्कृत बुंदेली हर भाषा पर कमांड था को सुनकर हम बड़े हुए हैं पर अब मंच पर संभाषण की कला सिखाने वाले लोग नहीं है अगर है भी तो उन्हें दरकिनार रखा जाता है। मंच को चमकीला बनाने और अखबार में छा जाने की आकांक्षा ने मंच पर घातक प्रहार किया है। यह हमारी सांस्कृतिक निरंतरता को बाधित करने का एक सुगठित प्रयास है।
   सामवेद हमारी कलात्मकता का सर्व मान्य प्रतिमान है। मैं नहीं कह रहा हूं कि आप सब इस पर सहमति प्रदान करें परंतु मंच के वैभव को उठाने में उसे परिष्कृत करने में हमारा बड़ा दायित्व बनता है।
  आप सोच रहे होंगे कि- " नहीं हम दोषी नहीं है कलाकार दोषी हैं।"
  तो मैं कहता हूं कि मंच को ऊंचाइयों तक पहुंचाने वाले कलाकार और दर्शक श्रोता दोनों ही हैं, और उसे अर्थात मंच को नुकसान पहुंचाने वाले भी हम ही तो हैं।
    बुंदेली छत्तीसगढ़ी मराठी गुजराती हिंदी पट्टी की अन्य बोलियों के मंचों पर मौलिक कलाओं का प्रदर्शन नहीं हो रहा है। विरले ही बृंदवन समूह, अथवा थिएटर समूह होंगे जो कि ऐसा कुछ कर रहे हैं, न तो अब तीजनबाई है न ही सुमिरन धुर्वे की कदर करने वाला कोई । मालवा निमाड़ भुवाना महाकौशल बुंदेलखंड छत्तीसगढ़ बघेलखंड भोजपुरी जो सांस्कृतिक परंपराओं से प्रेरित गीत संगीत से भरा पड़ा है। परंतु हम केवल अश्लीलता युक्त कंटेंट को आगे बढ़ा रहे हैं। हरियाणा और भोजपुरी गीतों के साथ अभद्र एवं अश्लील नृत्य करते-करते कलाकार महान सेलिब्रिटी बन गए हैं। आप खुद ही तय कर लीजिए कि मंच का पतन हुआ है या मंच की प्रगति हुई है।
  इस क्रम में  वर्तमान में संस्कारधानी का सौभाग्य है कि यहां एक महिलाओं का बैंड है जिसे जानकी बैंड के नाम से जानते हैं इस बैंड की विशेषता यह है कि इसमें  मौलिक स्वरूप में लोक परंपराओं पर केंद्रित गीत संगीत, सेमी क्लासिकल संगीत की प्रस्तुतियां की जाती है। यह बैंड बेहद अल्प समय में संपूर्ण भारत में स्थान बना चुका है।
   थिएटर में संगीत का प्रयोग होना अन की प्रक्रिया है । संपूर्ण नौ रसों का आस्वादन दर्शकों को कभी एक साथ नहीं मिल पाता मंच की अपनी समस्याएं हैं परंतु टेलीविजन से हटकर हमें चंद्रप्रकाश जैसे महान नाट्यशास्त्र के सुविज्ञ का अनुसरण करना चाहिए। काका हाथरसी शैल चतुर्वेदी जैसे कवियों का स्मरण कर लेने मात्र से आज के हास्य कवियों को अपना स्तर समझ में आ जाएगा। माणिक वर्मा केपी सक्सेना को भुला देना मेरी अल्पज्ञता होगी। सुधि पाठको मैं अपने आर्टिकल्स में आप से संवाद करना चाहता हूं और करता भी हूं। मेरे आर्टिकल का यह आशय कदापि नहीं कि हम किसी पर दबाव पैदा कर रहे हैं, या किसी को हम अपमानित करना चाहते हूँ, मैं तो अपने शहर की मित्र संघ मिलन साहित्य परिषद जैसी संस्थाओं का पुनः आह्वान करता हूं कि वे आगे आएं और आने वाली पीढ़ी को बताएं कि हमने तब क्या किया था जब हम मंच पर टॉर्च या गैस बत्ती जला कर कार्यक्रमों की प्रस्तुति करते थे। अपने 32 साल के सांस्कृतिक जीवन में केवल हमने मंच की ऊंचाइयां देखी है तो अब गिरावट भी देख रहे हैं।
   अंततः स्पष्ट करना चाहूंगा कि-" अगर कलाकार हो तो ईमानदारी से कला का प्रदर्शन करो लेकिन उसके पहले अपनी कला की मौलिकता में तनिक भी मिलावट ना आने दो।
    हमें अपने-अपने शहरों से महान कलाकार प्रोत्साहित करने हैं न कि ऐसी कलाकार जो कॉपी पेस्ट करने के आदि हों।
  *बच्चों को भी यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि- "वे बड़े महान कलाकार हैं।, आजकल के अभिभावक अपने बच्चों को कलाकार से ज्यादा सेलिब्रिटी के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं। परंतु मैं आपको स्पष्ट कर दूं कि सब्जी बेचने वाले घरों घर काम करने वाले परिवारों से आए बच्चों में भी प्रतिभागी बिल्कुल कमी नहीं है। मैं अपने सहयोगियों के प्रति कृतज्ञ रहता हूं जो बच्चों में उनकी प्रतिभा को तलाशते हैं और फिर तराश देते हैं।"*
   

18.9.22

हिंसा, अहिंसा और हमारा जीवन


भारतीय जीवन दर्शन हिंसा का हिमायती नहीं है। वह तो इतना भी हिंसक नहीं है कि किसी के हृदय को ठेस भी लगे ।
     हमारी  सनातनी परंपराएं हिंसा का समर्थन न करती हैं न करेंगी। अहिंसा जीवन दर्शन का मूल तत्व है। शारीरिक मानसिक और वाचिक हिंसा को विश्व का कोई भी शब्द समाज अंगीकार नहीं करता है।
   यहां हम जीवन दर्शन की चर्चा कर रहे हैं।
लेकिन क्या हमेशा केवल आपको ही अहिंसक रहना है?
ऐसी स्थिति में मेरी सलाह है - "नहीं आदर्श स्थिति में आप अहिंसक रहिए असामान्य स्थिति में जीवन को सुरक्षित और रक्षित करने के लिए अहिंसा की सीमाएं पार करनी ही होगी ।"
      क्या तुम हमेशा अहिंसा का लबादा ओढ़े रहोगे ? यदि तुम्हारे समक्ष हिंसा का वातावरण निर्मित हो गया हो तो?
   यह प्रश्न सामान्य रूप से पूछा जाता है। कदापि नहीं ऐसा होना भी नहीं चाहिए ऐसा होता भी नहीं है। जब कभी भी हम हिंसा पर विमर्श करते हैं तो इसका आशय यह कतई नहीं है कि हमें अहिंसक ही बने रहना है। ईश्वर ने आपको किसी कार्य विशेष के लिए पृथ्वी पर भेजा है। कार्य क्या है इसका आपको तनिक भी आभास नहीं होता परंतु कार्य करना आपका दायित्व होता है और ईश्वर आपसे यह कार्य करा लेता है। कृष्ण ने 5 गांव ही तो मांगे थे पूरा साम्राज्य तो दुर्योधन के पास था। दुर्योधन सृष्टि का सबसे अन्यायी  राजकुमार क्यों बन गया? वस्तुतः दुर्योधन के मस्तिष्क में बचपन से ही कुंठा और हिंसा का बीजारोपण हो चुका था। वह बचपन से ही पांडवों से युद्ध कर रहा था । कृष्ण ने बहुत प्रयास किए।
समकालीन परिस्थितियों में यद्यपि आजकल कृष्ण के पूजक बहुत हैं, पर कृष्ण के अनुसरण कर्ताओं की संख्या समाप्त सी हो गई है। कृष्ण का अनुसरण करने का अर्थ है कि आप हम न्याय प्रिय बने। पूरा कृष्ण बनने को कोई कह भी नहीं रहा है। आजकल तो माता पिता भाई बहन और तथाकथित रिश्तेदार अगर न्याय की बात होती है तो सबसे पहले सबल पक्ष के साथ खड़े नजर आते हैं। इनमें कृष्ण कहां है? निर्बल के बल राम तो बहुत दूर की बात हुई..! उसके बाद का हमारे  महायोगी कृष्ण का कैरेक्टर किसी में नजर नहीं आता।
  अब न तो अर्जुन को संबल देने वाला कृष्ण है और न ही दुर्योधन को समझाने वाला कृष्ण बचा है। कितना भी खोजो नहीं मिलेगा। कृष्ण कभी युद्ध नहीं करते कृष्ण का दायित्व समन्वय स्थापित सुनिश्चित करना  है।
      दुर्भाग्य है कि गीता कंठस्थ होने के बावजूद अपने आपको कंफर्ट ज़ोन में रखने की जद्दोजहद में न्याय का पक्षधर नजर नहीं आता यानी अब कृष्ण नजर नहीं आता। 5000 साल ही तो बीते हैं कृष्ण के युग कलयुग की यात्रा तक। मां कहती थी कि लोग अपने कीर्ति की दुंदुभी बजाने के लिए सर्वाधिक सक्रिय होते हैं। दो तीन दशक पहले कहीं गई यह बात आज भी समीचीन है। चलो मूल प्रश्न पर आते हैं हिंसा अहिंसा और जीवन जी हां हिंसा का अतिरेक अहिंसा की रक्षा कवच रोका नहीं जा सकता।
   तुम अपने कृष्ण स्वयं बन जाओ। बार-बार अहिंसक को यथासंभव समझाओ पर ना समझे तो हिंसक हो जाओ। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि रक्त पात करो..! सड़कों पर खून खून की धाराएं बहा दो! ऐसा मत करो परंतु प्रतिकार अवश्य करो स्पष्ट वादी हो कर अपनी बात रखो। अगर यह ना करोगे तो कायर कहलाओगे। कायरता मोक्ष का रास्ता नहीं है।
  मेरे इस आर्टिकल को युद्ध की प्रेरणा मत समझना बल्कि इसे एक कृष्ण की तलाश का प्रयास समझना, आपको कृष्ण मिलेगा बस तलाशने की जरूरत है। इसका अर्थ यह भी है कि-"आप कृष्ण कि केवल पूजा मात्र न करें, बल्कि कृष्ण का अनुसरण करें और न्याय न्यायिक समीक्षा करें पीड़ित पक्ष को मदद करें । मुंह तक रजाई ओढ़ कर सोना कायरता की निशानी है।
   

15.9.22

मातृत्व एवम न्यायपूर्ण_कुलपालन के पथ से स्वर्ग का रास्ता..!


                💐💐💐
तुम्हारे ईश्वर तुम ईश्वर के साथ ही हैं तुम ईश्वर के साथ कब कब हो बताओ...!
वन वन भटकते रहे कुछ योगियों ने अहर्निश प्रभू से साक्षात्कार की उम्मीद की थी । 20 बरस बीतते बीतते वे धीरे धीरे परिपक्व उम्र के हो गए ! 
कुछ तो मृत्यु की बाट जोह रहे थे । पर प्रभू नज़र न आए । नज़र आते कैसे उनके मन में सर्वज्ञ होने का जो भरम था । श्रेष्ठतम होने का कल्ट (लबादा) ओढ़कर घूम रहे थे । कोई योग में निष्णात था तो कोई अदृश्य होने की शक्ति से संपृक्त था । किसी को वेदोपनिषद का भयंकर ज्ञान था तो कोई बैठे बैठे धरा से सौर मंडल की यात्रा पर सहज ही निकल जाता था । 
  परमज्ञानीयों में से एक ज्ञानी अंतिम सांस गिन रहा था । तभी आकाश से एक  यान आया ।और योगियों के जत्थे के पास की आदिम जाति की बस्ती की एक झोपड़ी के सामने उतरा। 
 यान को देख सारे योगी सोचने लगे लगता है कि यान के चालक को भरम हुआ है। इंद्र के इस यान को कोई मूर्ख देवता चला रहा है शायद सब दौड़ चले  यान के पास खड़े होकर बोले - है देव्, योगिराज तो कुटिया में अंतिम सांसे गिन रहे हैं । आप वहीं चलिए । 
देव् ने कहा- हे ऋषियों, मैं दीनू और उसकी अर्धांगिनी को लेने आया हूँ। 
महायोगी के लिए यम ने कोई और व्यवस्था की होगी । 
ऋषियों के चेहरे उतरते देख देव् ने कहा - इस दम्पत्ति में  पत्नि ने ता उम्र मातृत्व धर्म का पालन किया है । स्वयम विष्णु ने इसे देवत्व सम्मान के साथ आहूत किया । 
और दीनू..?
देव्- उसने सदा ही निज धर्म का पालन किया । मिल बांट कर कुटुंब के हर व्यक्ति को समान रूप से धन धान्य ही नहीं प्रेम का वितरण भी किया । 
अतः मैं देवराज इंद्र की यम से हुई चर्चानुसार आया हूँ ।
पूरी दुनिया भर का ज्ञात अज्ञात अध्यात्म एक पल में समझ में आ गया ऋषियों को । 
 ( न स्वर्ग है नर्क है यहां केवल सांकेतिक रूप से उल्लेखित है ।  मातृत्व और कौटुंबिक न्याय का महत्व समझाने के लिए कथा की रचना की गई है )

12.9.22

द्वि पीठाधीश्वर स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती ब्रह्मलीन



 राष्ट्रीय संत स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी सनातन धर्म के सर्वोच्च धर्मसम्राट ज्योतिषपीठाधीश्वर एवं द्वारकाशारदा पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती का 99 वर्ष की आयु पूर्ण 100 वें वर्ष में प्रवेश करने के पश्चात् दिनांक 11 सितंबर 2022 को उनका तपस्या स्थली परमहंसी गंगा आश्रम में देवलोकगमन् हो गया। शंकराचार्य जी का जन्म 24 सितम्बर 1924 को सिवनी जिले के ग्राम दिघोरी में हुआ था। सनातन हिन्दू परम्परा के कुलीन ब्राह्मण परिवार में  पिता श्रीधनपति उपाध्याय एवं माता गिरिजा देवी के यहां जन्मे स्वामी जी का नाम माता पिता ने पोथीराम रखा था। पोथी अर्थात् शास्त्र मानो शास्त्रावतार हों। ऐसे संस्कारशील परिवार में महाराजश्री के संस्कारों को जागृत होते देर न लगी और वे 9 वर्ष के कोमलवय में गृह त्याग कर भारत के प्रत्येक प्रसिद्ध तीर्थस्थान और संतों के दर्शन करते हुए आप काशी पहुंचे। वहां आपने ब्रह्मलीन स्वामी करपात्रीजी महाराज एवं स्वामी महेश्वरानन्द जी जैसे विद्वानों से वेद-वेदान्त, शास्त्र-पुराणेतिहास सहित स्मृति एवं न्याय ग्रन्थों का विधिवत् अनुशीलन किया।
यह वह काल था, जब भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने की लड़ाई चल रही थी। महाराजश्री भी इस पक्ष के थे, इसलिए जब सन् 1942 में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का घोष मुखरित हुआ, तो महाराज श्री भी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और मात्र 19 वर्ष की अवस्था में ‘क्रान्तिकारी साधु’ के रूप में प्रसिद्ध हुए। पूज्य श्रीचरणों को इसी सिलसिले में वाराणसी  और मध्यप्रदेश के जेलों में क्रमश: 9 और 6 महीने की सजाएं भोगनी पड़ीं। महापुरुषों के संकल्प की शक्ति से 1947 में देश आजाद हुआ। अब पूज्य श्री में तत्वज्ञान की उत्कण्ठा जगी।
भारतीय इतिहास में एकता के प्रतीक सन्त श्रीमदादिशङ्कराचार्य द्वारा स्थापित अद्वैत मत को सर्वश्रेष्ठ जानकर, आज के विखण्डित समाज में पुन: शङ्कराचार्य के विचारों के प्रसार को आवश्यक ज्ञान और तत्त्वचिन्तन के अपने संकल्प की पूर्ति हेतु सन् 1950 में ज्योतिष्पीठ के तत्कालीन शङ्कराचार्य स्वामी श्री ब्रह्मानन्द सरस्वती जी महाराज से विधिवत  दण्ड संन्यास की दीक्षा लेकर स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से प्रसिद्ध हुए। जिस भारत  की स्वतन्तत्रता के लिए आपने संग्राम किया था, उसी भारत को आजादी के बाद भी अखण्ड, शान्त और सुखी न देखकर भारत के नागरिकों को दैहिक एवं भौतिक तापों से मुक्ति दिलाने हेतु, हिन्दु कोड बिल के विरुद्ध स्वामी करपात्रीजी महाराज द्वारा  स्थापित  ‘रामराज्य परिषद्’ के अध्यक्ष पद से सम्पूर्ण भारत में रामराज्य लाने का प्रयत्न किया और हिन्दुओं को उनके राजनैतिक अस्तित्त्व का बोध कराया।
ज्योतिष्पीठ के शङ्कराचार्य स्वामी कृष्णबोधाश्रम जी महाराज के ब्रह्मलीन हो जाने पर सन् 1973 में द्वारकापीठ के तत्कालीन शङ्कराचार्य एवं स्वामी करपात्री जी महाराज सहित देश के तमाम संतों, विद्वानों द्वारा आप ज्योतिष्पीठ पर अभिषिक्त किये गये और ज्योतिष्पीठाधीश्वर शङ्कराचार्य के रूप में हिन्दुधर्म को अमूल्य संरक्षण देने लगे।
आपका संकल्प रहा है कि - विश्व का कल्याण। इसी शुभ भावना का मूर्तरूप देने के लिए आपने झारखण्ड प्रान्त के सिंहभूमि जिले में ‘विश्वकल्याण आश्रम’ की स्थापना की। जहां जंगल में रहने वाले आदिवासियों  को भोजन, औषधि एवं रोजगार देकर उनके जीवन को  उन्नत बनाने का आपने प्रयास किया। करोड़ों रुपयों की लागत से विशाल एवं आधुनिक अस्पताल वहां निर्मित हो चुका है, जिससे क्षेत्र के तमाम गरीब आदिवासी लाभान्वित हो रहे हैं।
पूज्यमहाराजश्री ने समस्त भारत की अध्यात्मिक उन्नति को ध्यान में रखकर आध्यात्मिक-उत्थान-मण्डल नामक संस्था स्थापित की थी। जिसका मुख्यालय भारत के मध्यभाग में स्थित मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले में रखा। वहां पूज्य महाराज श्री ने राजराजेश्वरी त्रिपुर-सुन्दरी भगवती का विशाल मन्दिर बनाया है। सम्प्रति सारे देश में आध्यात्मिक उत्थान मण्डल की 1200 से अधिक शाखाएं लोगों में आध्यात्मिक चेतना के जागरण एवं ज्ञान तथा भक्ति के प्रचार के लिये समर्पित हैं। द्वारकाशारदापीठ के जगद्गुरु शङ्कराचार्य स्वामी श्री अभिनव सच्चिदानन्द तीर्थजी महाराज के ब्रह्मलीन होने पर उनके इच्छापत्र के अनुसार 27 मई 1982 को आप द्वारकापीठ की गद्दी पर अभिषिक्त हुए और इस प्रकार आप आदि शङ्कराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों में से दो पीठों पर विराजने वाले पहले शङ्कराचार्य के रूप में प्रसिद्ध हुए।
एतदितिरिक्त देशभर में आपके द्वारा अनेक संस्कृत विद्यालय, बाल विद्यालय, नेत्रालय, आयुर्वेद, औषधालय, अनुसंधानशाला, आश्रम, आदिवासीशाला, कॉलेज, संस्कृत एकेडमी, गौशाला और अन्न क्षेत्र जैसी प्रवृत्तियां संपादित हो रही हैं तथा आप स्वयं भी अनवरत भ्रमण करते हुए संस्थाओं का संचालन व धर्मप्रसार करते रहे।  भगवान् आदिशङ्कराचार्य द्वारा स्थापित पीठों में से दो पीठों (द्वारका एवं ज्योतिष्पीठ) को सुशोभित करने वाले जगद्गुरु शङ्कराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज करोड़ों सनातन  हिन्दु धर्मवलम्बियों के प्रेरणापुंज और उनकी आस्था के  ज्योति स्तम्भ रहे हैं, लेकिन इससे भी परे वे एक उदार मानवतावादी सन्त भी थे। परमवीतराग, नि:स्पृह और राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत एक परमहंस साधु, जिनके मन में दलितों-शोषितों के प्रति असीम करूणा भी रही है।
         ॐ राम कृष्ण हरि:
स्वर समर्पण  बेटी उन्नति तिवारी
शब्द समर्पण श्री सच्चिदानंद शेकटकर
विनम्र श्रद्धांजलि संभागीय बाल भवन जबलपुर

9.9.22

अमर शहीद : शंकर शाह-रघुनाथ शाह - डाॅ. किशन कछवाहा

   
उर्दू भाषा में लिखे फैसले का हिन्दी में रूपान्तरण कचहरी अदालत फौजदार जबलपुर।

(मुकदमा-ए-बगावत सिलसिले शंकर शाह व रघुनाथ शाह व दीगर मुद्दई आलम मकसद हकीकत हाल 11 जुलाई 1857 पहली तहसीलदार, जबलपुर...........
बगावत व कत्ल करने, विलायतियों को लूटने व खजाना शहर.........
राजा शंकर शाह व रघुनाथ शाह को सजा-ए-मौत तकसीम की जाती है कि जिन्दा तोप से उड़ा दिया जाये।)

‘‘अपनी आराध्य गढ़ा- पुरवा स्थित कमलासनी माला देवी को अनुनय-विनय के साथ लिखा हुआ पत्र, जो ब्रिटिश शासन के स्थानीय कलेक्टर क्लार्क के हाथ लग गया था, मात्र इसी पत्र के आधार पर पिता-पुत्र शंकर शाह-रघुनाथ शाह को विद्रोह करने के अपराध में तोप के मुँह से बाँध कर उड़ा देने का दण्ड सुना दिया गया था। आराध्या श्री मालादेवी की प्रतिमा में माँ लक्ष्मी कमलासन पर विराजमान हैं। नीचे सिंह बैठा हुआ है, जिस पर देवी जी अपना एक पैर रखे हुये हैं। वहीं दूसरी ओर एक अन्य आकृति विद्यमान है।’’

गौंड राजाओं मदन शाह से लेकर शंकर शाह व रघुनाथ शाह की आराध्य श्री मालादेवी रहीं हैं। अपनी आराध्या देवी की वंदना करते हुये उन्होंने अंग्रेजों का दलन करने की प्रार्थना की थी। ब्रिटिश हुक्मरानों को बखरी में की गयी सघन जांच पड़ताल के बाद एक कागज के टुकड़े पर रघुनाथ शाह द्वारा लिखित कविता की कुछ पंक्तियाँ ही हासिल हो पायी थी जिसे आधार बनाकर विद्रोह करने का इतना बड़ा अत्याचारी कदम ब्रिटिश शासन द्वारा उठाया गया।  उक्त कागज में लिखी कविता की पंक्तियाँ इस प्रकार थी-

‘‘मूँद मुख इंडिन को चुगलों को चबाई खाई,
खूँद दौड़ दुष्टन को शत्रु-संघारिता।
संकर की रक्षा कर, दास प्रतिपाल कर,
दीन की सुन आय मात कालिका।
खायई ले मलेच्छन को झेल नहीं करो अब,
भच्छन कर तत्छन धौर मात कालिका।।’’
इस कविता की इन पंक्तियों का अंग्रेज अधिकारी ने अंग्रेजी में भाषान्तरण कराकर रिपोर्ट में संलग्न किया था। 14 सितम्बर 1857 को पुरवा स्थित आवासीय परिसर को घेरकर शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह सहित 13 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया था।
    गढ़ा-मण्डला के राजवंश ने अपूर्व गरिमा के साथ ईसवी सन् 158 से 1789 तक अर्थात् 1631 वर्ष राज्य किया। इस राजवंश की रानी दुर्गावती भारत ही नहीं संसार की महान तथा प्रमुखतम महिला थीं जिसने अपने समय के राष्ट्र जीवन के यशस्वी कार्यकाल में विकास के साथ ही मुगल आक्रांताओं के आक्रमणों का समुचित जबाव दिया तथा राष्ट्रीय स्वामिमान के लिये सर्वस्व अर्पण करते हुये वीरगति प्राप्त की। 

उसी परम्परा का निर्वाह करते हुये, पराक्रमी दृढ़ निश्चयी इन पिता-पुत्र ने अपने परिवार की परम्परा और गौरव को आँच नहीं आने दी। उन्होंने भारत से अंग्रेजों को निष्कासित करने की हृदय से कामना की थी। भारी भरकम रक्षा व्यवस्था के बीच वयोवृद्ध शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह जिसकी आयु उस 60 और लगभग 40 के आसपास रही होगी, जिसका चेहरा शांत और गम्भीर बना हुआ था, हाथ पैर बाँध दिये गये, तोप के मुँह के पास खड़े थे, तोपें चला दी गयीं।  कहा तो यहाँ तक जाता है कि पहले-दूसरे प्रयास में तोपें चल ही नहीं सकी। अंततः तीसरे प्रयास में तोपें चली। घटना के बाद एक अंग्रेज अधिकारी, जो घटना के समय उपस्थित था, ने बतलाया कि वह भयानक दृश्य था। शरीर को क्षति तो पहुँची थी लेकिन सिर चेहरों पर क्षति के कोई चिन्ह नहीं थे। वह 18 सितम्बर 1857 का कालादिन  था। यह दुष्कृत्य ब्रिटिश शासन के द्वारा घबड़ाहट में किया गया था। 

रानी दुर्गावती का गौंडवाना साम्राज्य चार लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र तक फैला हुआ था। यह साम्राज्य 52 गढ़ों में विमवत था। जबलपुर में अंग्रेजी हुकूमत के दौरान अफसर रहे कर्नल स्लीमन के अनुसार गौंडवाना साम्राज्य 300 ग 225 = 67,500 वर्गमील में था। प्रजा सुखी थी और राज्य संचालन की सुचारू व्यवस्था थी। उनके द्वारा निर्मित कतिपय शेष बचे तालाब आज भी राज्य की सम्पन्नता के प्रतीक बने हुये हैं। 

24 जून 1564 में जबलपुर से 19 किलोमीटर दूर स्थित बारहा ग्राम, नर्रईनाला के समीप वीरांगना दुर्गावती ने अंग्रेजों से लड़ते हुये अपनी आहुति दे दी थी। 

सम्पूर्ण महाकोशल क्षेत्र में सन् 1855 से ही अंग्रेजों द्वारा किये गये कतिपय भूमि सम्बंधी कानूनों में किये गये परिवर्तनों एवं तत्कालीन शासकीय कर्मचारी एवं अधिकारियों द्वारा किये जा रहे दुव्र्यवहार, अत्याचारों एवं दमनात्मक कार्यवाहियों के परिणाम स्वरूप जनता में भारी असन्तोष व्याप्त हो रहा था, जिसकं कारण अंग्रेजी सरकार और उनके कर्मचारियों के खिलाफ उपद्रव भी हो चुके थे।

भिन्न-भिन्न कारणों से भीतर ही भीतर सुलगती असन्तोष की लहर सन् 1857 के देश व्यापी आन्दोलन का सहयोगी कारण बनी। जबलपुर के आसपास के क्षेत्रों में छोटी-छोटी चपातियों का चमत्कार यत्र-तत्र फैल चुका था।

16 जून को जबलपुर छावनी की एक छोटी सी घटना  भविष्य का संकेत दे चुकी थी। एक साधारण सैनिक ने गारद का निरीक्षण कर रहे एडजूटेंट गिलर नामक सैनिक अधिकारी पर बन्दूक से हमला कर दिया। इस घटना से अंग्रेज अधिकारी सशंकित रहने लगे थे। ब्रिटिश सैनिक अधिकारियों के आदेशों की खुले आम अवहेलना होने लगी थी। इसी घटना के बाद एक(1) जुलाई को सागर में विद्रोह हो गया। दो दिन  बाद जबलपुर की 52वीं बटालियन की तीन कम्पनियों अपनी नाराजगी प्रकट कर दी। निरंतर जनजीवन में भी ब्रिटिश शासन के खिलाफ रोष बढ़ता ही जा रहा था। एक गुप्त योजना के माध्यम से आसपास के ठाकुरों, जमींदारों, ताल्लुकेदारों और साहसी नवजवानों की टोलियों ने भी हमले की योजना बना रखी है।

विश्व का सबसे छोटा किला, जिसे गौंडवाना साम्राज्य के दौरान रानी दुर्गावती ने निर्माण कराया गया था, प्रेरणा प्राप्त करने युवकों की टोली यहाँ प्रतिदिन आने लगी थी, यहीं कतिपय निर्णय भी लिये जाने लगे थे।  

पिता-पुत्र को तोप से बाँधकर उड़ा देने की घटना के बाद से ब्रिटिश शासन के अधिकारी भी माहौल को देखकर आशंकित रहने लगे थे। यद्यपि अबतक इन वीर साहसी बलिदानियों की सम्पत्ति राजसात की जा चुकी थी,जिसके कारण इस परिवार को बड़ी कठिनाईयों का भी सामना करना पड़ा था। 52 तालाबों के लिए प्रसिद्ध जबलपुर शहर गौंड राजाओं की प्रजावत्सलता से प्रभावित तो था ही, इस कारण ब्रिटिश शासन के येन-केन प्रकारेण समाप्ति के प्रयासों के लिये होड़ भी लगी हुयी थी।

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
जन्म- 29नवंबर 1963 सालिचौका नरसिंहपुर म०प्र० में। शिक्षा- एम० कॉम०, एल एल बी छात्रसंघ मे विभिन्न पदों पर रहकर छात्रों के बीच सांस्कृतिक साहित्यिक आंदोलन को बढ़ावा मिला और वादविवाद प्रतियोगिताओं में सक्रियता व सफलता प्राप्त की। संस्कार शिक्षा के दौर मे सान्निध्य मिला स्व हरिशंकर परसाई, प्रो हनुमान वर्मा, प्रो हरिकृष्ण त्रिपाठी, प्रो अनिल जैन व प्रो अनिल धगट जैसे लोगों का। गीत कविता गद्य और कहानी विधाओं में लेखन तथा पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन। म०प्र० लेखक संघ मिलन कहानीमंच से संबद्ध। मेलोडी ऑफ लाइफ़ का संपादन, नर्मदा अमृतवाणी, बावरे फ़कीरा, लाडो-मेरी-लाडो, (ऑडियो- कैसेट व सी डी), महिला सशक्तिकरण गीत लाड़ो पलकें झुकाना नहीं आडियो-विजुअल सीडी का प्रकाशन सम्प्रति : संचालक, (सहायक-संचालक स्तर ) बालभवन जबलपुर

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