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रविवार, सितंबर 18, 2022

हिंसा, अहिंसा और हमारा जीवन


भारतीय जीवन दर्शन हिंसा का हिमायती नहीं है। वह तो इतना भी हिंसक नहीं है कि किसी के हृदय को ठेस भी लगे ।
     हमारी  सनातनी परंपराएं हिंसा का समर्थन न करती हैं न करेंगी। अहिंसा जीवन दर्शन का मूल तत्व है। शारीरिक मानसिक और वाचिक हिंसा को विश्व का कोई भी शब्द समाज अंगीकार नहीं करता है।
   यहां हम जीवन दर्शन की चर्चा कर रहे हैं।
लेकिन क्या हमेशा केवल आपको ही अहिंसक रहना है?
ऐसी स्थिति में मेरी सलाह है - "नहीं आदर्श स्थिति में आप अहिंसक रहिए असामान्य स्थिति में जीवन को सुरक्षित और रक्षित करने के लिए अहिंसा की सीमाएं पार करनी ही होगी ।"
      क्या तुम हमेशा अहिंसा का लबादा ओढ़े रहोगे ? यदि तुम्हारे समक्ष हिंसा का वातावरण निर्मित हो गया हो तो?
   यह प्रश्न सामान्य रूप से पूछा जाता है। कदापि नहीं ऐसा होना भी नहीं चाहिए ऐसा होता भी नहीं है। जब कभी भी हम हिंसा पर विमर्श करते हैं तो इसका आशय यह कतई नहीं है कि हमें अहिंसक ही बने रहना है। ईश्वर ने आपको किसी कार्य विशेष के लिए पृथ्वी पर भेजा है। कार्य क्या है इसका आपको तनिक भी आभास नहीं होता परंतु कार्य करना आपका दायित्व होता है और ईश्वर आपसे यह कार्य करा लेता है। कृष्ण ने 5 गांव ही तो मांगे थे पूरा साम्राज्य तो दुर्योधन के पास था। दुर्योधन सृष्टि का सबसे अन्यायी  राजकुमार क्यों बन गया? वस्तुतः दुर्योधन के मस्तिष्क में बचपन से ही कुंठा और हिंसा का बीजारोपण हो चुका था। वह बचपन से ही पांडवों से युद्ध कर रहा था । कृष्ण ने बहुत प्रयास किए।
समकालीन परिस्थितियों में यद्यपि आजकल कृष्ण के पूजक बहुत हैं, पर कृष्ण के अनुसरण कर्ताओं की संख्या समाप्त सी हो गई है। कृष्ण का अनुसरण करने का अर्थ है कि आप हम न्याय प्रिय बने। पूरा कृष्ण बनने को कोई कह भी नहीं रहा है। आजकल तो माता पिता भाई बहन और तथाकथित रिश्तेदार अगर न्याय की बात होती है तो सबसे पहले सबल पक्ष के साथ खड़े नजर आते हैं। इनमें कृष्ण कहां है? निर्बल के बल राम तो बहुत दूर की बात हुई..! उसके बाद का हमारे  महायोगी कृष्ण का कैरेक्टर किसी में नजर नहीं आता।
  अब न तो अर्जुन को संबल देने वाला कृष्ण है और न ही दुर्योधन को समझाने वाला कृष्ण बचा है। कितना भी खोजो नहीं मिलेगा। कृष्ण कभी युद्ध नहीं करते कृष्ण का दायित्व समन्वय स्थापित सुनिश्चित करना  है।
      दुर्भाग्य है कि गीता कंठस्थ होने के बावजूद अपने आपको कंफर्ट ज़ोन में रखने की जद्दोजहद में न्याय का पक्षधर नजर नहीं आता यानी अब कृष्ण नजर नहीं आता। 5000 साल ही तो बीते हैं कृष्ण के युग कलयुग की यात्रा तक। मां कहती थी कि लोग अपने कीर्ति की दुंदुभी बजाने के लिए सर्वाधिक सक्रिय होते हैं। दो तीन दशक पहले कहीं गई यह बात आज भी समीचीन है। चलो मूल प्रश्न पर आते हैं हिंसा अहिंसा और जीवन जी हां हिंसा का अतिरेक अहिंसा की रक्षा कवच रोका नहीं जा सकता।
   तुम अपने कृष्ण स्वयं बन जाओ। बार-बार अहिंसक को यथासंभव समझाओ पर ना समझे तो हिंसक हो जाओ। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि रक्त पात करो..! सड़कों पर खून खून की धाराएं बहा दो! ऐसा मत करो परंतु प्रतिकार अवश्य करो स्पष्ट वादी हो कर अपनी बात रखो। अगर यह ना करोगे तो कायर कहलाओगे। कायरता मोक्ष का रास्ता नहीं है।
  मेरे इस आर्टिकल को युद्ध की प्रेरणा मत समझना बल्कि इसे एक कृष्ण की तलाश का प्रयास समझना, आपको कृष्ण मिलेगा बस तलाशने की जरूरत है। इसका अर्थ यह भी है कि-"आप कृष्ण कि केवल पूजा मात्र न करें, बल्कि कृष्ण का अनुसरण करें और न्याय न्यायिक समीक्षा करें पीड़ित पक्ष को मदद करें । मुंह तक रजाई ओढ़ कर सोना कायरता की निशानी है।
   

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