3.8.15

कुत्ता बन्दर से अलहदा है बॉस....!



 कुत्ता
 बन्दर 
मेरी कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं इन कुत्तों से न ही युधिष्टिर की तरह लगाव . कुत्ते कुत्ते हैं इंसान इंसान . बन्दर बन्दर होता है गदहा गदहा ... अब भला इन पर  अनावश्यक रूप चर्चा क्यों की जाए. पर जब बारबार ये दावे होते हैं कि कुत्ता स्वामी-भक्त होता है बात मेरे गले नहीं उतरती . इसके पीछे कई कारण हैं .
उनमें से एक वाकया भी महत्वपूर्ण कारण है जो  मुझे याद आ रहा है
हुआ यूं कि  .... एक बार डिंडोरी जाते वक्त शहर से निकलते ही आस्थावश मैंने नाश्ते के लिए रखे केले बंदरों को खिलाने की गरज से कार से बाहर फैंके संयोगवश एक छोटे बन्दर के हाथ केला लग गया. आसपास शक्तिशाली से दिखने वाले बंदरों नें मेरी तरफ देखा अवश्य किन्तु छोटे बन्दर के हाथ से किसी ने भी केला छीना नहीं.
यात्रा जारी थी कुंडम  के पहले मेरे  मित्र साहू जी के ढाबे पर अपने घर का नाश्ता करने का मेरी नियमित अभ्यास था . साहूजी के ढाबाकर्मी ताज़ी सौंधी चाय ले आते साहूजी स्वयं मीठी बुन्देली में मुझसे बात करना नहीं चूकते .
तभी दो कुत्ते नज़दीक आए बफादार सरकारी मुलाजिम की मानिद दम हिला रहे थे . हमने भी परांठे के दो हिस्से किये . फैंक दिए उनके आगे . दौनों टुकड़ों पर दमदार कुत्ते ने हक़ ज़माया . कमजोर वाले ने झपटना चाहा तो दमदार गुर्राया .
कुत्ते जो अपनी बिरादरी के सगे नहीं होते वे आपके वफादार कैसे हो सकते हैं .
  वास्तविकता ये है कि कुत्ते कुत्ते होते हैं . वो अपरिचित परिस्थिति व्यक्ति आकृति को अनुकूल न समझ कर भौंकते हैं उस पर हमला करतें हैं . आप हो कि गदहे की तरह भेजा स्तेमाल न कर पाए ... कि कुत्ते आत्म-भय वश भौंकतें हैं न कि स्वामी भक्ति में .
गिरीश”मुकुल”
Jabalpur  

  

28.7.15

एक सदी का अवसान

कलाम साहब ने कहा था - मेरी मृत्यु पर अवकाश घोषित न हो आप उस दिन अधिक कार्य करें .
मानवता के पुजारी एवं शताब्दी के युगयोगी ने साबित किया कि कितना सहज है धारा से शिखर की यात्रा मगर उससे भी सहज और सरल है "सहज और सरल" होना । मेरे देश के बच्चे जो उनसे मिले हैं निसंदेह भाग्यशाली थे । हमारे कानों में बस मिसाइल मैं के सन्देश अनवरत जारी रहेंगे । हम घंटो सोचते रहें तो भी शब्द नहीं मिल रहे । सदियों लिखेंगे तो भी अनोखा व्यक्तित्व  के बारे में लिख न पाएंगे । समंदर की स्याही से कल्पतरु की कलम से अनंत आकाश पर लिखी जाती रहेगी उनकी अमरगाथा तब भी हम पूर्ण न लिख पाएंगे । भला आकाश जैसे महान के बारे में लिखने की शक्ति मुझ में तो नहीं

27.7.15

अभिव्यक्ति के अधिकार का पुनरावलोकन ज़रूरी है ?


संचार माध्यमों से  ज्ञात हो रहा है कि  कुछ हस्तियों ने  याकूब मेनन की फांसी पर दया का अनुरोध आपको प्रेषित किया है . साथ ही कुछ लोग माननीय सर्वोच्च  न्यायालय के निर्णय पर टिप्पणी तक की है .
माननीय सर्वोच्च  न्यायालय के निर्णय पर टिप्पणीयाँ एक नकारात्मक स्थिति निर्मित करतीं हैं .
 इस देश की अस्मिता अखंडता को चुनौती देना न्याय व्यवस्था के तहत जारी निर्णयों को सार्वजनिक फोरम पर उठाना सर्वथा न्यायिक-व्यवस्था एवं संवैधानिक व्यवस्था को निरुत्साहित करने की कोशिश है .
        किसी भी राष्ट्रद्रोह में शामिल किसी भी हिस्से के अपराध को उतना ही जघन्य माना जाना चाहिए जितना की मुख्य षडयंत्रकारी माना जाना चाहिए  . स्पष्ट है कि देशद्रोह के मैकैनिज़म में शामिल हो कोई भी पुर्जा चाहे तो अपराध को कारित होने से रोक सकता है . याकूब अगर प्रथम दिन से ही चाहता तो वह इस जघन्य अपराध को रोक सकता था . लिहाजा वो टाइगर मेनन के सामान ही दोषी है . जैसा पूरे मुकदमें  में प्रस्तुत एवं  साबित हुआ . अत: प्रोसीज़रल चूकों को आधार पर अथवा किसी भी अन्य कारण प्रस्तुत समस्त दया याचिकाएं स्वीकार्य योग्य नहीं हैं .
      जब अपराध की स्वीकारोक्ति एवं पुष्टि हो चुकी है तब मर्सी आवेदन न केवल उचित है बल्कि न्यायहित में नहीं है .
        अगर आप अन्य किसी देश के नागरिक होते तो क्या होता -  
        भारत में अभिव्यक्ति के अधिकार का इतना भयंकर दुरुपयोग कि लोग राजद्रोह को भी भावनात्मकता से जोड़ दिया जाता है . पूरी कानूनी कार्यवाई पूरी हो जाने के बाद भी छिद्रान्वेषण किया जा रहा है. जबकि पडौसी मुल्क में ही देखें आज़ादी की लड़ाई के लिए आगे आए लोगों को रात अँधेरे घरों से अगवा कर ख़त्म कर दिया जाता है . भारत में कम से कम ये स्थिति तो नहीं हैं

        भारत में जब जहीन लोग इस तरह क काम में सक्रीय पाए जाते हैं तो लगता है कि अभिव्यक्ति के अधिकार का पुनरावलोकन ज़रूरी है ? भारतीय संवैधानिक इंतज़ाम के सन्दर्भ में कोई भी टिप्पणी जिससे  विश्व में गलत सन्देश जा रहा हो . 

26.7.15

अंतस में खौलता लावा


चेहरे पर मुस्कान का ढक्कन
धैर्य की सरेस से चिपका
तुम से मिलता हूँ ....!!
तब जब तुम्हारी बातों की सुई
मेरे भाव मनकों के छेदती
तब रिसने लगती है अंतस पीर  
भीतर की आग  –
तब पीढ़ा का ईंधन पाकर
तब युवा हो जाता है यकायक “लावा”
तब अचानक ज़ेहन में या सच में सामने आते हो
तब
चेहरे पर मुस्कान का ढक्कन
धैर्य की सरेस से चिपका
तुम से मिलता हूँ ....!!
मुस्कुराकर ....... अक्सर .........
मुझे ग़मगीन न देख
तुम धधकते हो अंतस से
पर तुम्हें नहीं आता –
चेहरे पर मुस्कान का ढक्कन
धैर्य की सरेस से चिपकाना ....!!
तुममें –मुझसे बस यही अलहदा है .
तुम आक्रामक होते हो
मैं मूर्खों की तरह  टकटकी लगा   
अपलक तुमको निहारता हूँ ...
और तुम तुम हो वही करते हो जो मैं चाहता हूँ ......
धधक- धधक कर खुद राख हो जाते हो
फूंक कर मैं ........
फिर उड़ा देता हूँ .........
अपने दिलो-दिमाग से तुम्हारी देह-भस्म
जो काबिल नहीं होती भस्म आरती के ...
                       #गिरीश बिल्लोरे “मुकुल”


24.7.15

खुद ही रंगरेज़ हूँ खुद का मैं रंग हूँ ...!

गीत हूँ कि छंद हूँ  मधुप या  मकरंद हूँ
एक हर्फ़ हूँ कहो या कि पूरा ग्रंथ हूँ ...?
..............
सृष्टि के श्रृंगार को सृष्टि ने मुझे रचा
जन्मते ही प्रश्न था – माँ कहो मैं क्यूं रचा ?
आँचरा बिखेर के  – अमिय कलश लगा दिया
प्रश्न करते होंठों को – माँ ने चुप करा लिया .
    तब जाना देह नहीं अंतर्संबंध हूँ ...!
..............
जो चाहा मिल गया अनचाहा छोड़ के
नाते कुछ नवल बने हर अगले मोड़ पे .
जो छूटा जाने दो, नया कुछ तो साथ है
आगे तक लाने में विगत का ही हाथ है
    बाहर शांत सही अंतस से द्वंद्व हूँ...!
..............
अभिनय मैं अभिनेता कथा भी कथानक हूँ
गीतों का शब्द कभी शब्द का नियामक हूँ
संग साथ चलो मेरे हाथ राह में छोडो ...?
जैसी तुम चाहो, वैसी ही धुन जोड़ो   ... ?
    खुद ही रंगरेज़ हूँ  खुद का मैं रंग हूँ ...!
..............
  

  

16.7.15

सियासी का वो चिलमची है सोचिये उसकी आबरू क्या है

दैनिक ट्रिब्यून से साभार 
कौन गुस्ताख पूछने आया
तेरा रास्ता और तू क्या है 
जो हो न पाए कभी पूरी
वो आरज़ू आरज़ू क्या है
सियासी का वो चिलमची है 
सोचिये उसकी आबरू क्या है
मुकुल सच बयान करता है
शोर होता है बता तू क्या है
Girish Billore Mukul

14.7.15

चंद शेर : गिरीश"मुकुल"


बदला ? कोई सवाल   नहीं  क्या लेके करूंगा
दिल जीतने निकला हूँ, दिल जीत ही लूंगा ..!!
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मेरे तुम्हारे बीच में क्या रफ़्तार का नाता ?
तुम तेज़ी से आ रहे हो मैं पर्वत सा खडा हूँ
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आओ कहीं मिल बैठ के बचपन को पुकारें
आएगा क्या हम जैसा ही छिप जाएगा कहीं
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मेरी ख़ाक बिखेर देना  हरियाली ही मिलेगी  
फसले - बहार हूँ, कोई  सेहरा नहीं हूँ मैं  !!
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दामन पे मेरे दाग ! ज़रा बच के निकलना
षडयंत्र तुम्हें तुम्हारे  कहीं याद न आएं  ?

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आँखों में मेरी  झौंक गया किरकिरी सी रेत
फिर आके पूछता है ज़रा रास्ता बताइये ?

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आँखों की किरकिरी हूँ वज़ह कोई तो होगी 
जा गुलबकावली का अर्क खोज के ले आ !

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
जन्म- 29नवंबर 1963 सालिचौका नरसिंहपुर म०प्र० में। शिक्षा- एम० कॉम०, एल एल बी छात्रसंघ मे विभिन्न पदों पर रहकर छात्रों के बीच सांस्कृतिक साहित्यिक आंदोलन को बढ़ावा मिला और वादविवाद प्रतियोगिताओं में सक्रियता व सफलता प्राप्त की। संस्कार शिक्षा के दौर मे सान्निध्य मिला स्व हरिशंकर परसाई, प्रो हनुमान वर्मा, प्रो हरिकृष्ण त्रिपाठी, प्रो अनिल जैन व प्रो अनिल धगट जैसे लोगों का। गीत कविता गद्य और कहानी विधाओं में लेखन तथा पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन। म०प्र० लेखक संघ मिलन कहानीमंच से संबद्ध। मेलोडी ऑफ लाइफ़ का संपादन, नर्मदा अमृतवाणी, बावरे फ़कीरा, लाडो-मेरी-लाडो, (ऑडियो- कैसेट व सी डी), महिला सशक्तिकरण गीत लाड़ो पलकें झुकाना नहीं आडियो-विजुअल सीडी का प्रकाशन सम्प्रति : संचालक, (सहायक-संचालक स्तर ) बालभवन जबलपुर

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