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मंगलवार, जून 22, 2021

प्राचीन यूनान में ईश्वर के आँसू कहलाने वाले हीरे की कहानी मध्यप्रदेश में लिखी जा रही है...!"

पाठकों आज से विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए आर्टिकल लिखना प्रारंभ कर रहा हूं । आज का विषय सामान्य अध्ययन अंतर्गत मध्य प्रदेश खनिज हीरा से संबंधित है।
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विद्यार्थियों के लिए विशेष रूप से यह आर्टिकल लिखा गया है। यह आर्टिकल केवल भारतीय डायमंड इंडस्ट्री अर्थात हीरा उद्योग के संबंध में संक्षिप्त जानकारी के तौर पर युवाओं के लिए प्रस्तुत है। 
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यूनानी मान्यता अनुसार ईश्वर का आंसू है हीरा
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हीरा एक ऐसा कार्बनिक पदार्थ है जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता की वजह से बहुमूल्य रत्न होने के दर्जे पर सदियों से कायम है। प्राचीन यूनानी सभ्यता ने हीरे को उसकी पवित्रता को और उसकी सुंदरता को देखते हुए ईश्वर के आंसू तक की उपमा दे दी है ।
    विश्व में भारत और ब्राज़ील के अलावा अमेरिका में भी हीरे का प्राकृतिक एवं कृत्रिम उत्पादन किया जाता है।
भारत के गोलकुंडा में सबसे पहले हीरे की खोज की गई थी और वह भी 4000 वर्ष पूर्व। ब्रिटिश हुकूमत के दौरान  ही भारत भारत का कोहिनूर हीरा ब्रिटिश खजाने में जा पहुंचा था। जी हां मैं उसी कोहिनूर हीरे की बात कर रहा हूं जो महारानी के मुकुट  में लगा हुआ है वह हीरा गोलकुंडा की खदान से ही हासिल किया गया था। भारत में उड़ीसा छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश में हीरे की मौजूदगी है। सबसे ज्यादा मात्रा में इस रत्न की मौजूदगी मध्य प्रदेश में है। अगर बक्सवाह कि हीरा खदानों ने काम करना शुरू कर दिया तो विश्व में भारत हीरा उत्पादन में श्रेष्ठ  स्थान पर होगा। एक अनुमान के मुताबिक रुपए 1550 करोड़ वार्षिक राजस्व आय का स्रोत होगी यह परियोजना।
    हीरे को यूनान सभ्यता के लोग ईश्वर के आंसू कहा करते थे और आज भी यही माना जाता है। पिछले कुछ दिनों से ईश्वर के इन आंसुओं की कहानी मध्यप्रदेश में लिखी जा रही है। हालांकि यह कहानी 20 साल पहले शुरू हुई थी और 2014 से 2016 तक चला  इसका मध्यातर । 2017 के बाद से इस डायमंड स्टोरी का दूसरा भाग शुरू हो चुका है। इतना ही नहीं धरना प्रदर्शन पर्यावरण के मुद्दे वन्य जीव संरक्षण जैसे कंटेंट इसमें सम्मिलित हो रहे हैं। कुल मिला के संपूर्ण फीचर फिल्म सरकार की मंशा को देखकर लगता है वर्ष 2022 तक इस फिल्म का संपन्न हो जाने की संभावना है। छतरपुर जिले की बकस्वाहा विकासखंड में 62.64 हेक्टेयर जमीन किंबरलाइट चट्टाने मौजूद है और जहां यह चट्टानें मौजूद होती हैं वहां हीरे की मौजूदगी अवश्यंभावी होती है। इन चट्टानों से हीरा निकालने के लिए लगभग 382 हेक्टेयर जमीन उपयोग में लाई जाएगी।.
   किंबरलाइट चट्टानों की पहचान आज से लगभग 20 वर्ष पूर्व ऑस्ट्रेलियन कंपनी द्वारा की गई थी। कहते हैं कि 3.42 करोड़ कैरेट के हीरे बक्सवाहा के जंगलों से निक लेंगे ।
   शासकीय सर्वेक्षण के अनुसार 215875 पेड़ बक्सवाहा के जंगलों में मौजूद है।
पन्ना में उपलब्ध 22 लाख कैरेट हीरे में से 13 लाख कैरेट हीरे निकाल लिए गए हैं तथा कुल 9 लाख  कैरेट हीरे अभी शेष है उन्हें नाम और वर्तमान में बक्सवाहा के जंगल में अनुमानित हीरे इस खनन की तुलना में 15 गुना अधिक होगी।
  buxwaha बक्सवाह  की हीरा खदानों से हीरा निकालने के लिए ऑस्ट्रेलिया की कंपनी रियो टिंटो को 2006 में टेंडर दिया हुआ था और इस कंपनी ने 14 साल पहले इस टैंडर को हासिल किया लगभग 90 मिलियन रुपए खर्च भी किए। कंपनी को प्रदेश सरकार ने 934 हेक्टर जमीन पर काम करने का ठेका दिया था। जबकि रियो टिंटो के द्वारा काम समेटने के बाद 62.64 हेक्टेयर भूमि से हीरे निकालने के लिए 382 हेक्टेयर जंगल को साफ करना पड़ेगा। जैसा पूर्व में बताया है कि उक्त क्षेत्र में 215875 वृक्षों को काटा जाएगा यदि यह क्षेत्र 934 सेक्टर होता तो इसका तीन से चार गुना अधिक वृक्षों को काटना आवश्यक हो जाता । मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के इन ज़िलों  जैसे पन्ना और छतरपुर में पानी की उपलब्धता की कमी रही है जिसकी पूर्ति के लिए अस्थाई और कृत्रिम तालाब बनाने की व्यवस्था कंपनी द्वारा की जावेगी।
   वर्तमान में हीरा खनन करने के लिए आदित्य बिरला ग्रुप ने 50 साल के लिए बक्सवाहा के 382 हेक्टेयर जंगल में काम करने का टेंडर हासिल किया है। आदित्य बिरला ग्रुप की कंपनी  एक्सेल माइनिंग कंपनी द्वारा प्रस्तावित परियोजना में कार्य किया जाएगा।
   बक्सवाहा की खदानों में काम करने के लिए 15.9 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत प्रतिदिन होगी जबकि बुंदेलखंड क्षेत्र में पानी का अभाव सदा से ही रहा है। इस संबंध में कंपनी क्या व्यवस्था करती है यह आने वाला भविष्य ही बताएगा। पेड़ों के कटने के बाद वैकल्पिक व्यवस्थाएं क्या है इस पर भी सवालों का उत्तर मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में लंबित याचिका के माध्यम से प्राप्त हो ही जाएगा। अन्य परिस्थितियों के असामान्य ना होने की स्थिति में इस परियोजना की विधिवत शुरुआत 2022 तक संभावित है।  पर्यावरणविद यह मानते हैं कि प्राकृतिक वनों के काटने के बाद इस क्षेत्र में मौजूदा वाटर टेबल का स्तर गिर जाएगा। साथ ही वन्यजीवों के जीवन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इस संबंध में पर्यावरणविद और स्थानीय युवा सोशल मीडिया खास तौर पर ट्विटर पर अभियान चला रहे हैं। जबकि मीडिया रिपोर्ट के अनुसार बक्सवाहा से संबंधित डीएफओ का कहना है कि-" इस परियोजना से स्थानीय लोगों को रोजगार की उम्मीदें बढ़ी है वे इस परियोजना का विरोध नहीं करते।"
    एक्टिविस्टस द्वारा लगातार पर्यावरण संरक्षण को लेकर प्रतीकात्मक आंदोलन शुरू कर दिए गए हैं। 
हीरे को तापमान गायब कर सकता है
    हीरे के बारे में कहा जाता है कि अगर इसे ओवन में रखकर 763 डिग्री पर गर्म किया जाए तो हीरा गायब हो सकता है। वैसे ऐसी रिस्क कोई नहीं लेगा। हीरे के मालिक होने का एहसास ही अद्भुत होता है।
ग्रेट डायमंड इन द वर्ल्ड - जब हीरे का एक कण अर्थात उसका सबसे छोटा टुकड़ा भी मूल्यवान होता है तब ग्रेड डायमंड कितने बहुमूल्य होंगे इसका अंदाजा लगाना ही मुश्किल है। कहते हैं कि दक्षिण अफ़्रीका और ब्राजील की खदानों से विश्व के महानतम हीरों को निकाला और तराशा गया है।
दुनिया का सबसे बड़ा हीरा कलिनन हीरा (Cullinan Diamond) है जो 1905 में दक्षिण अफ्रीका की खदान से निकाला गया। 3106 कैरेट से अधिक भार का है जो ब्रिटेन के राजघराने की संपत्ति के रूप में उनके संग्रहालय में रखा है ।
तक ढूंढ़ा गया दुनिया का सबसे दूसरा बड़ा अपरिष्कृत हीरा 1758 कैरेट का हीरा  सेवेलो डायमंड (Sewelo Diamond) । जिसका अर्थ है दुर्लभ खोज।
    औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश राजघराने को यह भ्रम था कि भारत का कोहिनूर हीरा अगर क्राउन में लगा दिया जाए तो ब्रिटिश शासन का सूर्यास्त कभी नहीं होगा। बात सही की थी कि सूर्योदय ब्रिटिश उपनिवेश में कहीं ना कहीं होता रहता था । परंतु राजघराने में यह मिथक उनकी राजशाही के अंत ना होने के साथ जोड़कर देखा जाने लगा। और महारानी ने अपने मुकुट पर कोहिनूर जड़वा लिया ।
   भारत का एक सबसे अधिक वजन वाला हीरा ग्रेट मुगल गोलकुंडा की खान से 1650 में  प्राप्त हुआ। जिसका वजन 787 कैरेट का था ।
  इस हीरे का आज तक पता नहीं है कि यह हीरा किस राजघराने में है एक अन्य हीरा जिसे अहमदाबाद डायमंड का नाम दिया गया जो पानीपत की लड़ाई के बाद ग्वालियर के राजा विक्रमजीत को हराकर 1626 में बाबर ने प्राप्त किया था। इस दुर्लभ हीरे की अंतिम नीलामी 1990  में लंदन के क्रिस्ले ऑक्सन हाउस हुई थी।
द रिजेंट नामक डायमंड, सन 1702 में गोलकुंडा की खदान से मिला हीरा 410 कैरेट के वजन का था। कालांतर में यह हीरा नेपोलियन बोना पार्ट  ने हासिल किया। यह हीरा अब 150 कैरेट का हो गया है जिसे पेरिस के लेवोरे म्यूजियम में रखा गया है।
  विकी पीडिया में दर्ज जानकारी के अनुसार  ब्रोलिटी ऑफ इंडिया का वज़न 90.8 कैरेट था।  ब्रोलिटी कोहिनूर से भी पुराना  है, 12वीं शताब्दी में फ्रांस की महारानी ने खरीदा। आज यह कहाँ है कोई नहीं जानता। एक और गुमनाम हीरा 200 कैरेट  ओरलोव है  जिसे १८वीं शताब्दी में मैसूर के मंदिर की एक मूर्ति की आंख से फ्रांस के व्यापारी ने चुराया था। कुछ गुमनाम भारतीय हीरे: ग्रेट मुगल (280 कैरेट), ओरलोव (200 कैरेट), द रिजेंट (140 कैरेट), ब्रोलिटी ऑफ इंडिया (90.8 कैरेट), अहमदाबाद डायमंड (78.8 कैरेट), द ब्लू होप (45.52 कैरेट), आगरा डायमंड (32.2 कैरेट), द नेपाल (78.41) आदि का नाम शामिल है ।

हीरो की तराशी :- बहुमूल्य रत्न हीरा कुशल कारीगरों द्वारा तराशा जाता है। विश्व के 90% हीरो की तराशी का काम जयपुर में ही होता है।
हीरो का सौंदर्य और उनकी पवित्रता हीरों का दुर्गुण यह है। विश्व साम्राज्य होने के बावजूद ब्रिटेन की महारानी में कोहिनूर का लालच कर बैठीं । तो मिस्टर चौकसी रत्न के धंधे में अपनी नैतिकता खो बैठा।
    आज से लगभग 10 वर्ष पहले मेरे मित्र  कुशल गोलछा जी ने मुझे एक डायमंड दिया और कहा कि इसे आप खरीदिए । उस जमाने में लगभग ₹30000 की कीमत का वह डायमंड मेरी क्रय क्षमता से कई गुना अधिक था। मेरे कॉमन मित्र श्री धर्मेंद्र जैन से मैंने उसे खरीदने मैं असमर्थता दिखाइए। श्री गोलछा ने कहा आप हजार या पांच सौ देते रहिए पर आप यह हीरा पहने रहिये।
    परंतु बिना लालच किए मात्र 1 महीने लगभग हीरे 18 कैरेट सोने की  अंगूठी जड़ा हीरा मुझे आज भी याद आ रहा है। दो-तीन साल पहले जब कुशल जी से उस हीरे के वर्तमान मूल्य पर चर्चा हुई  तब उनने कहा था- अब उस हीरे की कीमत कम से कम ₹100000 तो होना ही चाहिए। आपको ले लेना था इसमें कोई शक नहीं कि हीरा सदा के लिए होता है आज भी वह हीरा याद आता है परंतु हीरे के बारे में मेरा हमेशा से एक ही नजरिया रहा है कि उसकी पवित्रता बेईमान बना देती है, और यह सब ऐतिहासिक रूप से सत्य है।

रविवार, जून 13, 2021

वच्छ गोत्रीय नार्मदीय ब्राह्मणों की कुलदेवी मां आशापुरी देवी

कुल देवी मां आशापूर्णा देवी असीरगढ़            जिला बुरहानपुर मध्य प्रदेश
    "श्रुतियों एवं परंपराओं के अनुसार असीरगढ़ महाभारत काल में बना असीरगढ़ ब्राह्मण समाज के बिल्लोरे वंश जिनके पूर्वजों के सहोदर शरगाय शर्मा और सोहनी परिवारों की कुलदेवी आशापूर्णा देवी की स्थापना भी असीरगढ़ फोर्ट की दीवार पर एक छोटे से मंदिर के रूप में अवस्थित है।"
       ज्ञात ऐतिहासिक विवरण
आदिकाल से भारत का इतिहास केवल श्रुति परंपरा पर आधारित रहा है अतः लिखित इतिहास के आधार पर जात जानकारियों से सिद्ध होता है कि असीरगढ़ का किला 9 वी शताब्दी के आसपास निर्मित हुआ है।
    यह जानकारी हमारे कुटुंब के पूर्वजों ने हमारे नजदीकी पूर्वज यानी आजा के पिता ने  पुत्र यानी आजा और  आजा के पिता और उनके भाइयों को बताया है। असीरगढ़ फोर्ट का निर्माण कब हुआ इसका कोई वैज्ञानिक परीक्षण ईएसआई नहीं कराया या नहीं इस बारे में सोचने की जरूरत है क्योंकि इसके तक आज तक प्रमाणित नहीं हो पाए हैं और ना ही ऐसा कोई प्रतिवेदन राज्य सरकार ने कभी दिया या जारी किया हो।
   आइए हम उपलब्ध जानकारियों के अनुसार जाने कि यह किला इन जानकारियों के आधार पर किसने बनाया और कहां स्थित है?
   इतिहासकार इसे दक्षिण का मार्ग कहते हैं। जबकि मान्यता के अनुसार यह हमारी ऐतिहासिक धरोहर है और यहां पर 5000 वर्ष से भी पहले महाभारत काल में किले का निर्माण किया गया।  ताप्ती और नर्मदा के तट पर स्थित बुरहानपुर के उत्तर में स्थित किस किले की भौगोलिक स्थिति 21.47°N तथा 76.29° E की लोकेशन पर स्थित है । यह बुरहानपुर से 22 किलोमीटर दूर स्थित है तथा इसकी ऊंचाई 780 मीटर है समुद्र तल से यह 70.1 मीटर ऊंचाई पर स्थित स्थान है। जो 60 एकड़ भूमि पर बनाया गया है। 1370 ईस्वी  में बनवाए गए इस किले का निर्माण आसा अहिर नामक एक विदेशी शासक ने करवाया था ऐसा प्रचारित है । कालांतर में आसा अहीर या असाहिर ने नासिर खान नाम के अपने एक अधीनस्थ व्यक्ति को किले के संरक्षण का कार्य सौंपा। परंतु किले पर कब्जा जमाने की नासिर खान ने कल्पना की और सबसे पहले उसने राजा असाहिर का समूल अंत कर दिया।
किले की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इसके लिए के दो मार्ग निर्मित किए गए थे एक मार्ग दक्षिण पश्चिम दिशा में तथा दूसरा मार्ग गुप्त मार्ग है जो सात गुप्त रक्षण व्यवस्था से रक्षित  है। किस किले पर नौवीं से बारहवीं शताब्दी का राजपूतों, 15वीं शताब्दी तक फ़ारूक़ी की राजाओं के अलावा मुगल मराठा निजाम पेशवा और खुलकर के अलावा औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों का शासन रहा है अंग्रेजों की छावनी के रूप में यह किला उपयोग में लाया जाता रहा है। इस किले में अकबर ने भी कुछ दिन निवास किया था । बाद में उन्होंने यह किला छावनी के रूप में परिवर्तित कर दिया तथा किले का प्रबंधन  एक सूबेदार अब्दुल सामी को शॉप कर वापस दिल्ली आए थे । मैंने अपने किसी लेख में लिखा था कि दक्कन का प्रवेश द्वार दिल्ली से महाकौशल प्रांत होते हुए बहुत सहज एवं बाधा हीन रहा है किंतु गोंडवाना साम्राज्य की कर्मठता और राष्ट्रप्रेम की बलिदानी भावना के आगे मुगल सम्राट अकबर का बस नहीं चल सका। क्योंकि मुसलमान आक्रमणकारियों एवं विदेशियों के लिए दक्षिण भारत जीतना हमेशा से ही उनका सपना रहा है वह 12 वीं शताब्दी वीं शताब्दी से ही इस कोशिश में लगे हुए थे। अतः बार बार कोशिशों के बाद इस किले पर कब्जा करना उनके लिए आसान हो गया।
औरंगजेब का इस किले से गहरा नाता है औरंगजेब जब दक्षिण विजय से भारत का शहंशाह बनना चाहता था तब वह लौटकर इस किले का भी विजेता बन गया यह घटना 1558 से 1559 के मध्य की है। कहते हैं कि युद्ध से लौटने के बाद  उसने अपने पिता शाहजहां आगरा में बंदी बनाया  और खुद शासक बन बैठा। यह कहना सर्वथा गलत है कि औरंगजेब ने मंदिरों का उद्धार किया है। असीरगढ़ के किले कि तलछट पर दीवार में बने आशापुरा माता की प्रतिमा पर उसने किसी भी तरह की कोई धार्मिक सहिष्णुता नहीं प्रदर्शित की ना ही वहां के लिए पहुंच मार्ग विकसित किया। बल्कि यह कहा जाता है कि मुगल सेना के लिए किले के ऊपरी भाग में मस्जिद का निर्माण अवश्य कराया। यह इस किले का सौभाग्य ही था कि किले में स्थित शिव प्रतिमा का विखंडन एवं मंदिर का विलीनीकरण औरंगजेब नहीं कर पाया।
आदिलशाह जो 17वीं शताब्दी में अकबर के अधीन हो चुका था ने यह किला अर्थात असीरगढ़ का किला अकबर को सहर्ष सौंप दिया था।
     कुल मिलाकर इस किले का ज्ञात इतिहास ईसा के बाद 9 वीं शताब्दी से मिलता है।
   इस किले पर मौजूद मंदिर मस्जिद चर्च अवशेष यह बताते हैं कि निश्चित रूप में यह किला विभिन्न राजसत्ताओं के अधीन रहा है ।
      परंतु दीवार पर मां आशापूर्णा देवी का स्थान हम नार्मदीय ब्राह्मण के वत्स गोत्रियों बिल्लोरे, शकरगाएं, सोहनी और शर्मा कुलों की कुलदेवी इस किले के आधार तल पर स्थान विराजमान हैं ।
  यह कहा जाता है कि नार्मदेय ब्राम्हण समाज ने अपने अस्तित्व के साथ अपनी कुलदेवी के स्थान को गुजरात के कच्छ क्षेत्र से मध्य प्रदेश के बुरहानपुर में स्थापित किया। ये वच्छ गोत्रीय नार्मदीय ब्राह्मण थे । सौभाग्य से इसी कुल में मेरा भी जन्म हुआ है।
   अधिकांश पाठक स्वर्गीय शरद बिल्लोरे  को जानते हैं । वह मेरे कुल गोत्र के ही सदस्य थे। उनके सबसे बड़े भाई श्री शैलेंद्र श्री अशोक उसके बाद श्री शरद श्री शिव अनुज और सबसे छोटे भाई सुरेंद्र जी है हरदा तहसील के रहटगांव में रहने वाले इस परिवार की बड़ी बहू को बार-बार स्वप्न में तथा एहसास में आशापूर्णा देवी ने आदेशित किया कि मेरा निवास स्थान असीरगढ़ किले की दीवार पर है वहां मेरे सभी बच्चों का आना जाना सुनिश्चित किया जाए। सभी भाइयों को जब यह बात बताई गई तो यह तय किया गया कि प्रत्येक 25 दिसंबर को वहां जाकर सह गोरियों को इकट्ठा किया जावे तदुपरांत वर्ष 1996 से यह प्रक्रिया प्रारंभ कर दी गई तब से अब तक हजारों की संख्या में वच्छ गोत्रियों का समागम वहां होता है। वर्ष 2020 में यह पूजा अति संक्षिप्त कर दी गई थी कोविड-19 के कारण परंतु सामान्य समय में बिल्लोरे सोहनी,शकरगाए, शर्मा, सरनेम वाले नार्मदीय ब्राह्मणों का समागम होता है। वच्छ गोत्रीय  चाहे वे विश्व के किसी भी कोने में क्यों ना रहे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सामूहिक पूजन एवं भंडारे का हिस्सा बनते हैं।
    नार्मदीय-ब्राह्मण समाज के विभिन्न लोगों का मध्य प्रदेश में आगमन हुआ तब उन्हें अपनी कुलदेवी के लिए उचित स्थान की जरूरत थी कहते हैं । इससे यह भी सिद्ध होता है कि हम रामायण काल में मध्य प्रदेश यानी मध्य भारत में नर्मदा के तट पर आ चुके थे। राजा मांधाता ने हमारे पूर्वज युवा बटुकों को राजाश्रय तथा हमें यज्ञ आदि कर्म के योग्य बनाया। यज्ञी या यज्जी नारमदेव जो नार्मदीय ब्राह्मणों का अपभ्रंश है विवाह भी राजा मांधाता ने कराया ऐसी श्रुति का मुझे ज्ञान है।
आप सब जानते ही हैं कि आदिकाल से भारतीय कौटुंबिक व्यवस्था में  एक कुलदेवी को पूजने की परंपरा की परंपरा है। इससे यह सिद्ध होता है कि हर कुल अपनी परंपराओं को अपनी कुलदेवी की निष्ठा के साथ पूजा करते हुए आने वाली पीढ़ी को यह बताता है कि आप किस कुल से संबद्ध हैं।

हमारी कुलदेवी का मूल स्थान गुजरात में कच्छ क्षेत्र में स्थित है। अपने चुनावी मुहिम के दौरान भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी गुजरात के इस मंदिर में जाकर माथा टेक चुके हैं।
कथा एवं श्रुतियों के मुताबिक-" गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र आज भी भारत में अमर है और भटक रहे हैं इसके प्रमाण के रूप में यह माना जाता है कि वे रात्रि में असीरगढ़ के किले में उपस्थित होकर शिव के मंदिर में पूजा करते हैं और एक गुलाब का फूल भी चढ़ाते हैं। सामान्यतः शिव पर अर्पित करने वाले पुष्प सफेद होते हैं किंतु असीरगढ़ किले में चढ़ाए जाने फूलों में पीले फूल धतूरा पुष्प रक्त गुलाब होता है।
2015 से अब तक स्थानीय लोगों के संस्मरण
वर्ष 2015 से वर्तमान में स्थानीय लोग क्रम से है अज्जू बलराम रामप्रकाश बिरराय आदि ने अद्भुत प्राणी जिसे वे अश्वत्थामा मानते हैं से मिलने का जिक्र किया है। पाला नामक बुजुर्ग कहते हैं कि वे लकवा ग्रस्त तभी हुए हैं जब उनकी मुलाकात अश्वत्थामा की हुई। 1984 के मीडिया कटनी से बात करते हुए राम प्रकाश ने मीडिया कर्मी को बताया कि कुछ अजीबोगरीब पैरों के
निशान यहां देखे गए हैं।
  अभी हमारे संज्ञान में मात्र इतनी ही तथ्य आ सके हैं। 
*कुलदेवी मां आशापुरा देवी को समर्पित इस आर्टिकल बहाने हम यह कोशिश कर रहे थे यह हमने कब आशापुरा माता को असीरगढ़ किले स्थापित किया अथवा कोई और लोग हैं जिन्होंने मां आशापुरा को गुजरात से यहां अर्थात असीरगढ़ किले में प्राण प्रतिष्ठित किया है। अगर यह ज्ञात होता कि हम माता के स्वरूप को स्थापित करने वाले हैं तो यह सुनिश्चित हो जाएगा  नार्मदीय ब्राम्हण मध्यप्रदेश में कब आए। वैसे राजा मांधाता  (6777BCE से 5577 BCE ) कालखंड में हम ओमकारेश्वर  रहे थे ।
परंतु यहां यह तथ्य उल्लेखनीय है कि- असीरगढ़ के किले का निर्माण महाभारत काल में हुआ। उसके उपरांत ही हम या अन्य कोई आशापूर्णा देवी की स्थापना कर पाए होंगे। वर्तमान में मैं कुलदेवी के आशीर्वाद से एक कृति का लेखन कर रहा हूं जिसमें सातवें मन्वंतर के 28वें चतुर्युग का वैज्ञानिक एवं ज्योतिषीय गणना के आधार पर कालखंड निर्धारित किया जा रहा है। इससे यह साबित कर पाएंगे कि 4.567 करोड़ वर्ष पूर्व बनी इस पृथ्वी में भारत का निर्माण कब हुआ और युगों की अवधारणा क्या है। इसमें अब तक ज्ञात स्थिति के अनुसार मनु का कालखंड 14500 से 11200 ईसा पूर्व रहा है। वेदों की रचना 11500 से 10500 ईसा पूर्व में हुई है। जबकि उपनिषद संहिता ब्राह्मण अरण्यक इत्यादि का निर्माण 10,500 से 6777 ईसवी पूर्व हुआ है। त्रेता युग की अवधि 6777 से 5577 ईसा पूर्व जबकि  राम रावण का युद्ध 5677 में संपन्न हुआ। द्वापर युग के संबंध में अपनी कृति में हमने 5577 से 3173 ईसा पूर्व का कालखंड निर्धारित करने का प्रयास किया है। और महाभारत का युद्ध 3162 ईसा पूर्व में संपन्न हुआ है।
इस रिसर्च का उद्देश्य केवल प्रजापिता ब्रह्मा मनु तथा वेदों के निर्माण काल के निर्धारण के अलावा राम  कृष्ण के अस्तित्व को प्रकाश में लाना। अगर हम किसी से भी पूछे के हमारा इतिहास कब से है तो उत्तर में हमें यह जानकारी मिलती है कि ईशा के ढाई हजार साल पूर्व से हमारी संस्कृति का उत्थान हुआ है। जबकि ऐसा नहीं है भारतीय संस्कृति का प्रवेश द्वार हम ईसा मसीह के 20000 वर्ष पूर्व निर्धारित करने की कोशिश कर रहे यह अकारण नहीं है यह सत्य भी है।

शनिवार, जून 12, 2021

दिशा विहीन होता हिंदी साहित्यकार

साहित्य का सृजन करना और साहित्य की सृजन का अभिनय करना जगह-जगह सृजन करने वालों गिरोहबाज़ी 100 साल से भी कम उम्र के "अल्पवय-हिंदी-भाषा" के साहित्य के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। मुझे मालूम है कि यह टिप्पणी मिर्ची वाला असर पैदा करेगी। पर ध्यान रखिए साहित्यकार होने की नौटंकी मत कीजिए वास्तव में पढ़िए उसके बाद लिखिए । 
  कल आप-हम जब मरखप जाएंगे हमारी संतानें हमारी आत्मा से पूछेगी - "संस्कृत ने बहुत कुछ दिया है.. आपने क्या किया..? 
   यही  होंगे ... अदेह के सदेह प्रश्न..? बहुतेरी हस्तियां मंच पर चुटकुले सुनाती बहुत सारी हस्तियां विषय को अपने शब्दों में नए सिरे से लिख देती हैं.. ! 
   आयोजन और फर्जी जुड़ाव साहित्यिक नेतागिरी साहित्य में राजनीतिक मक्कारियाँ, पक्षपाती लेखन किस दिशा में जा रहा है हिंदी साहित्यकारों का झुंड मुझे तो दूर से भेड़ों का झुंड नजर आ रहा है। अब तो आत्मचिंतन की जरूरत है अब रामधारी सिंह दिनकर को नकारने की जरूरत है अब जरूरत है वर्ग बनाकर वर्गीकरण करके वर्ग संघर्ष पैदा करने वालों के मुंह पर ताला लगाने की वरना वरना साहित्य के सर्जक साहित्य के सृजनकर्ता ना होकर साहित्य के सपोले कहलाएंगे।
फोटो Mukul Yadav से साभार

शुक्रवार, जून 11, 2021

मेलिसा कपूर ने क्यों अपनाया सनातन जीवन प्रणाली को ...?


   यूनाइटेड किंगडम की एक युवती मेलिसा ने भारतीय सनातन जीवन प्रणाली और दर्शन को क्यों स्वीकारा इस बारे में आज आपसे चर्चा करना चाहता हूं। इसके पहले कि आप हिंदू धर्म को एक मेथालॉजी से परिमित 
(Under the Limitation of methodology) कर दें मैं आपको  सनातन इस तरह से देखना चाहिए ताकि आप उसे समझ सके। मेलिसा की मां डेनमार्क से हैं प्रोटेस्टेंट रही हैं जबकि उनके पिता ईस्ट पोलैंड से रहे हैं तथा वह कैथोलिक मत को मानते थे। मेलिसा का जन्म कनाडा में हुआ। और उनका भारतीय सनातन व्यवस्था में प्रवेश विवाह संस्कार के साथ हुआ। 16 संस्कारों में अगर देखा जाए तो सनातन की शुरुआत जन्म के साथ अंगीकृत कराई जाती है। लेकिन मेलिसा ने सबसे पहले भारतीय दर्शन को समझा पढ़ा और बाद में सनातन धर्मी पुरुष से विवाह कर वे सनातन का हिस्सा बन गईं । 
   इनका मानना है कि जब तक मैंने सनातन के बारे में जानकारी हासिल नहीं की थी तब तक मैं सनातन को अर्थहीन और अस्तित्व ही मानती थी। किंतु केरल के दौरे के बाद मुझे इस फिलासफी और जीवन प्रणाली के प्रति आकर्षण पैदा हुआ। उनका मानना है कि सनातन सर्वाधिक रूप से वैज्ञानिक धर्म है अतः उन्होंने अपने संप्रदाय को छोड़कर सनातन धर्म को स्वीकार किया। वे विभिन्न विषयों पर अपने विचार रखती हैं - उनका सबसे पहला वीडियो बालाकोट स्वच्छ भारत अभियान झांसी की रानी नामकरण संस्कार ऋषिकेश यात्रा गोद भराई भारतीय हिंदू गुरुओं के विभ्रम भ्रमित करके धर्म परिवर्तन मोक्ष के रास्ते आदि विषयों के साथ साथ महाभारत रामायण भारतीय पूजा प्रणाली यहां तक कि गर्भावस्था के दौरान जिस तरह से महिला का खानपान पर और उसे मुहैया कराए गए वातावरण पर ध्यान देने के निर्देश या व्यवस्था सनातन में है वह सर्वोपरि है। मेलिसा आयुर्वेद के प्रोटीन कैलोरी युक्त विशेष आहार का एक वीडियो में उल्लेख करती है। एक सुरक्षित प्रेगनेंसी और सफल प्रसव के लिए क्या जरूरी होना चाहिए इन तथ्यों का भी मेलिसा को पर्याप्त ज्ञान है। वे गर्भावस्था के दौरान अपनाई जाने वाली आयुर्वेद
आधारित जीवन प्रणाली को श्रेष्ठ मानती हैं। इसके अतिरिक्त वे बहुत से भारतीय मुद्दों पर चर्चा करती हैं मेलिसा कपूर 30 मार्च 2019 से यूट्यूब पर है और इन्होंने अपने यूट्यूब चैनल का नाम इंग्लिश बहन English Bahan रखा हुआ है जो अब तक 816921 दर्शकों तक दिखा जा चुका है।
   यहां मैं अपनी अभिव्यक्ति में आपको यह बता देना चाहता हूं कि सनातन को जो भी जान लेता है वह उसका अनुयाई और समर्थक हो जाता है। और जो शुरू से यानी जन्म से सनातन धर्म के हैं उन्हें धर्म को समझने की जरूरत है ताकि सनातन जीवन व्यवस्था को बेहद प्रभावी ढंग से अंगीकृत करें ।
    अंततः मैं फिर से कहूंगा कि-मेलिसा कपूर की अभिव्यक्ति से स्पष्ट होता है कि भारतीय दर्शन भारतीय जीवन प्रणाली के प्रति आकर्षण और उसके अनुपालन के लिए भारत को समझना बहुत जरूरी है।
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

गुरुवार, जून 10, 2021

नुसरत जहां निखिल प्रकरण एवम भारतीय न्याय व्यवस्था में अधिकारों का संरक्षण ।

8 जनवरी 1990  बांग्ला फिल्म अभिनेत्री ने अपने पति निखिल जैन को बिना तलाक दिए बाहर का रास्ता दिखा दिया और अब ये दोनों विवाह के बंधन में नहीं है। मीडिया को दिए गए पत्र में नुसरत जहां ने कहा है कि उनकी डेस्टिनेशन वेडिंग टेक्निकली एक वेडिंग नहीं कही जा सकती।
 टीएमसी सांसद नुसरत ने साफ कर दिया है कि क्योंकि उनकी शादी निखिल से विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत होनी थी किंतु ऐसा ना हो सका इस कारण अब ना तो तलाक की कोई गुंजाइश है और ना ही कोई कानूनी बाध्यता है। 31 वर्षीय अभिनेत्री एवं सांसद के टर्की में हुए कथित विवाह के समाचार पर और अब नई खबरों से ब्लॉग लेखक का निजी कोई आकर्षण नहीं है परंतु कुछ दिनों पहले मलाला यूसुफजई ने जो बयान दिया उसे लेकर खासा विवाद पाकिस्तान मीडिया में आया है। बताओ और सामाजिक विचारक मैं महसूस करता हूं कि इस तरह के बेमेल विवाह अक्सर सफल नहीं होते हैं। अति महत्वाकांक्षा जो दोनों ओर से भरपूर थी पारिवारिक विवाह संस्था को क्षतिग्रस्त करती है यह स्वभाविक है। मलाला यही कहती है आप सहमत हो या ना हो मलाला के कथन से मुझे इत्तेफाक है। सामान्य तौर पर विवाह संस्था और निकाह जिसे मैं व्यक्तिगत तौर पर कॉन्ट्रैक्ट रिलेशनशिप के तौर पर देखता हूं में बड़ा फर्क है । 
     विवाह स्प्रिचुअल रिलेशनशिप की श्रेणी में आता है जबकि निकाह को एक इंस्ट्रुमेंटल रिलेशनशिप के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
      क्योंकि यह वही स्थिति थी जिस के संबंध में मलाला ने अपने विचार व्यक्त किए। मलाला कहती है कि आपसी संबंध खास तौर पर दांपत्य संबंध का आधार निकाहनामा नहीं होना चाहिए। देखा जाए तो कुछ हद तक यह ठीक भी है म्युचुअल अंडरस्टैंडिंग इसमें बहुत मायने रखती है। क्योंकि यह भारतीय कानून के मुताबिक विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत अंतर धर्म विवाह के रूप में चिन्हित नहीं हो पाया अतः सांसद का कथन भी अपनी जगह बिल्कुल सही है कारण जो भी हो ना तो यह निकाह  ना ही यह विवाह था इसे केवल लिव इन रिलेशनशिप के रूप में चिन्हित किया जा सकता है। जहां तक पाकिस्तान में हुए बवाल का संबंध है वह भी स्वभाविक तौर पर उठना अवश्यंभावी था। क्योंकि लिव इन रिलेशनशिप को पाकिस्तान में ऐसा कोई वैधानिक दर्जा प्राप्त नहीं है जो महिला के अधिकार को संरक्षित कर सके। लेकिन भारत में लिव इन रिलेशनशिप को  ज्यूडिशियल सपोर्ट मिला हुआ है और महिलाओं के अधिकार सुरक्षित हैं। इस ब्लॉग पोस्ट के जरिए आपको यह बताना चाहता हूं कि वास्तव में भारत की न्याय व्यवस्था बहुत  ही हंबल और कल्याणकारी है। इस दिशा में  विभिन्न प्रकरणों में पारित आदेशों का अर्थ यह नहीं है कि हमारे माननीय न्यायाधीशों ने लिव इन रिलेशनशिप को बढ़ावा देने की कोशिश की बल्कि यह है कि भारतीय न्याय व्यवस्था चाहती है कि किसी भी भारतीय नागरिक के अधिकारों का संरक्षण होता रहे। 
   नुसरत जहां ने जिस तरह से आरोप अपने लिव-इन पार्टनर निखिल जैन पर लगाए हैं अगर वे कोई सिविल वाद एवं क्रिमिनल पिटीशन या कंप्लेंट करती हैं और परीक्षण में यह सब मुद्दे सही पाए जाते हैं तो एक आम अपराधी की तरह श्री निखिल जैन पर कार्यवाही संभव है। अच्छा होता कि आपसी समझदारी से इस विवाह संस्था को जारी रखा जाता ।
मूल रूप से कलाकार एवं जन नेता श्रीमती नुसरत जहां की फिल्म बंगाल में बेहद पसंद की जाती थी उनमें कुछ फिल्मों के नाम है शोत्रू (2011), खोखा 420 (2013), खिलाड़ी (2013)
      सुधि पाठक जाने यह लेख किसी के सेलिब्रिटी होने के कारण नहीं लिखा गया बल्कि एक सामान्य दृष्टिकोण से लिखा गया है ।

मंगलवार, जून 08, 2021

उसे रुको वह सच बोल रहा है.....! पुख्ता मकानों की छतें खोल रहा है

"रोको उसे वह सच बोल रहा है, पुख़्ता मकानों की छतें खोल रहा है"
     जबलपुर के एक मशहूर सिंगर जिन्हें आप जानते हैं जी हां चाचा लुकमान के शागिर्द शेषाद्री अय्यर ने जब अपने प्रोग्राम में यह शेर पढ़ा कि  "रोको उसे वह सच बोल रहा है, पुख़्ता मकानों की छतें खोल रहा है" बेशक यह शेर बहुत मजबूत है मेरे जेहन की दीवार पर पुश्तैनी खूंटी की तरह लगा हुआ है। सोच रहा था कि पर कभी कोई आर्टिकल लिख कर टांग दूंगा 10 साल पहले से ही याद रखा है शेर को और आज टांग रहा हूं एक टिप्पणी हामिद मीर के साथ हुए हादसे के बहाने बोलने की आजादी पर लिखे गए इस आर्टिकल को..
यह तस्वीर जो आप देख रहे हैं इन दिनों अखबारों में जो वीडियो आप देख रहे हैं पाकिस्तान से आने वाले वीडियो पाकिस्तान के सहाफी जिओटीवी के मशहूर पत्रकार हमिद मीर साहब के है। हामिद मीर एक बेहतरीन तरक्की पसंद और स्पष्ट वादी पत्रकार हैं। उनके आर्टिकल्स इंडियन विदेशों में भी शाया हुआ करते हैं । 
  भारतीय जर्नलिज्म के समानांतर अगर हम अपने हमसाया मुल्क के पत्रकारों के बारे में सोचें तो उन्हें कहने का बात करने का स्वतंत्र अभिव्यक्ति का कोई हक वाज़े तौर पर हासिल नहीं है । यहां अभिव्यक्ति की आजादी पर सवाल उठाने वाले बहुत दूर ना जाए चीन और पाकिस्तान के उदाहरणों से समझने की कोशिश करें कि किस तरह से हर लफ्ज़ पाबंद है।
हर लफ्ज़ पर पाबंदी लगाना इन दोनों मुल्कों की आदत में शुमार है। एक मीडिया इंटरव्यू में  पाकिस्तान के अब्दुल समद याकूब जो रूलिंग पार्टी यानी पीटीआई के ऑफिशियल प्रवक्ता हैं खुलकर कहते हैं कि-" हामिद मीर के साथ जो हुआ वह किसी भी मायने में दुरुस्त नहीं है। हालांकि यह उनकी निजी राय है परंतु वह यह बताते हैं कि प्राइम मिनिस्टर इमरान खान नियाजी जी उनके बेहतरीन दोस्त हैं.. 
    एक अन्य पत्रकार जनाब कस्वर क्लासरा कहते हैं कि हामिद मीर साहब के साथ जो हुआ गलत हुआ लेकिन उन्होंने पाकिस्तानी आर्मी और आईएसआई पर जो इल्ज़ामात लगाए हैं उनके सबूत देना चाहिए था मीर साहब को। इस पर अपना ओपिनियन देते हुए तारेक फतह लगभग हंसते हुए कहते हैं कि एक पाकिस्तानी पत्रकार किस तरह से अपने बचाव में क्या कुछ सबूत ला सकता है ? 
   उधर टैग टीवी के ताहिर गोरा अपने थर्ड ओपिनियन प्रोग्राम में बैरिस्टर हमीद बसानी से इस पर टिप्पणी लेते हैं तो बसानी साहब सीधे तौर पर पाकिस्तानी गवर्नमेंट को फौज को आईएसआई को फासीवाद के खाने में रख देते हैं।
पीटीआई के प्रवक्ता आई याकूब ने जो कहा उससे स्पष्ट हो जाता है कि-" भले ही पाकिस्तान की डेमोक्रेटिक सरकार या उसके प्रधानमंत्री भी कुछ कहना चाहते हैं परंतु नहीं कह सकते"  इसका  मतलब है कि आईएसआई और फौज का दबदबा बोलने की आजादी लिखने की आजादी पर भारी पड़ रहा है यहां तक कि पाकिस्तान के आईन भी।
  खुदा का शुक्र है कि हिंदुस्तान में वह तमाम बातें नहीं है जो हमसाए मुल्क में हैं। हमसाया मुल्क वहां के लोग किन-किन बंदिशों में इसका अंदाजा आप इस तरह लगा सकते हैं। इसी मौजूद पर एक शेर कहने को जी चाहता है
कहने को तो शहंशाह है, अपने वतन का वो...
उसकी ज़ुबाँ पे लटके डालो को  देखिए..!
गिरीश बिल्लोरे मुकुल

रविवार, जून 06, 2021

सिनेमा के स्वर्णिम युग में मूँगफली का अवदान : के के नायकर

सिनेमा के कलाकार तब देवतुल्य होते थे। उनका आभामंडल बहुत विशाल होता। प्रेमनाथ जबलपुर आते तो अक्सर चाहने वालों से घिरे होते। एक बार मानस भवन में उनसे भेंट हुई। गोपीकृष्ण के नृत्य का कार्यक्रम था। पद्मा खन्ना भी आई हुई थीं। कार्यक्रम के बाद औपचारिक भेंट हुई। मैंने उनसे पूछा, "आपकी अगली फिल्म कौन-सी आ रही है?" उन्होंने इनकार में सिर हिलाया और अपनी भारी- भरकम आवाज में कहा, " बाबू! उम्र हो गयी है। अब हीरो की मार खाने वाले सीन में उठने में बहुत देर लग जाती है। बहुत से शॉट खराब हो जाते हैं।" यह उनसे मेरी पहली और आखिरी मुलाकात थी। यों 'एम्पायर' में वे कभी-कभार दिख जाते थे। वहाँ क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्में भी लगती थीं और तमिल फिल्में देखने अक्सर अम्मा जाया करती थीं।

अम्मा अड़ोस-पड़ोस की किसी महिला के साथ सिनेमा जाने की योजना बनातीं, तो अपन किसी कुशल जासूस की तरह समूची योजना के तह में पहुँच जाते। उन्हें योजना के 'लीक' हो जाने की भनक भी नहीं लग पाती। अपन बिल्कुल ठीक समय पर जाकर चुंगी चौकी में कहीं छिपकर खड़े हो जाते। जैसे ही अम्मा का रिक्शा गुजरता रिक्शे के पीछे-पीछे दौड़ लगाने लगते और सिनेमा हॉल पहुँचकर ऐन टिकिट लेने से पहले प्रकट हो जाते। अम्मा अचंभित हो जातीं। गुस्सा भी करतीं। कोई विकल्प लेकिन बाकी नहीं रह जाता था। इतनी दूर अकेले बच्चे को वापस भी नहीं भेजा जा सकता था। मजबूरी में उन्हें अपनी टिकिट भी खरीदनी पड़ती और सिनेमा देखने का सुख हासिल हो जाता। सिनेमा देखना उन दिनों सबसे बड़ा सुख हुआ करता था।

सिनेमा हॉल में काम करने वाले मैनेजर, ऑपरेटर, बुकिंग क्लर्क, गेट कीपर और यहाँ तक कि सायकिल स्टैंड और कैंटीन में काम करने वाले कर्मचारियों की भी तब समाज में बड़ी इज्जत होती थी। कोई बुकिंग क्लर्क या गेट कीपर किसी के घर आ जाएं तो शाम को पूरे मोहल्ले में यह खबर 'वायरल' हो जाती थी और मेजबान दो-चार दिनों तक सीना तानकर घूमता था। लोग इनसे जबरदस्ती ताल्लुक बनाने के फेर में होते। चलते-पुर्जे किस्म के इंसान मौका मिलने पर जबरदस्ती टिकिट  खिड़की  के पास पहुँच जाते और अपना चेहरा दिखाकर पूछते कि, " बड़े भाई! आपके लिए चाय भिजवा दें?" जवाब इनकार में मिलता तो भी वे हिम्मत नहीं हारते। कहते, "अच्छा तो पान ही खा लें..अब देखिए मना नहीं करना।"  वे उनकी खिदमत में चाय, पान, गुटखा, सिगरेट कुछ न कुछ पेश करके ही दम लेते। दो-चार बार यह सिलसिला दोहराने पर मेल-मुलाकात का कोई न कोई सिलसिला बन ही जाता था। सारी कवायद का एकमात्र उद्देश्य यह होता था कि जब कोई हिट सिनेमा लगे और उसकी टिकिट हासिल करने में पसीने छूट जाएँ तो उनकी थोड़ी-बहुत मदद ली जा सके। तब एमपी-एमएलए की टिकिट हासिल करने में भी वैसी मारामारी नहीं होती थी, जैसी सिनेमा की टिकिट हासिल करने में। 

थर्ड क्लास की टिकिट सात-आठ आने में मिल जाया करती थी। इतने पैसों का जुगाड़ भी तब मुश्किल से होता था। सिनेमा जाना हो तो पैदल ही जाना पड़ता था। साइकिल लेने पर दोहरा खर्च था। एक तो साइकिल का किराया फिर साइकिल स्टैंड का। और कहीं सीट कवर वगैरह चोरी हो गया तो एक और मुसीबत अलग से। जिनकी साइकिल स्टैंड वालों से थोड़ी-बहुत जान पहचान होती, वे बड़े इसरार के साथ कहते कि "बड्डे, जरा सही जगह में लगवा दो।" सही जगह में लगवाने का मतलब यह होता कि एक तो कोई सामान चोरी न हो और दूसरे शो खत्म होने के बाद उसे निकालने में जरा आसानी रहे। सिनेमा छूटने के बाद स्टैंड से साइकिल निकालना तब बहुत बहादुरी का काम हुआ करता था।

सिनेमा देखने की कार्रवाई शो से डेढ़-दो घण्टे पहले ही शुरू हो जाती थी। थिएटर पहुँचने के बाद सबसे पहले पोस्टर देखने का चलन था। कभी-कभी पोस्टर देखना सिनेमा देखने से भी भला लगता था। जब सिनेमा में ठीक वही पोस्टर वाला दृश्य आता तो असीम आनन्द की अनुभूति होती। कोई सखा साथ होता तो दोनों बेसाख्ता कह उठते, "अबे! वोई वाला सीन है बे!" एक पोस्टर अलग बक्से में "आगामी आकर्षण" वाला होता था। बक्से के आगे काँच और उसके आगे अमूमन एक लोहे की जाली लगी होती थी। पोस्टर देखते-देखते नज़र मार ली जाती की कहीं टिकिट वाली लाइन लंबी तो नहीं हुई जा रही है। दो या अधिक लोग साथ होने पर एक व्यक्ति लाइन पर मुस्तैद खड़ा होता और बाकी पोस्टर देखते। लाइन पर लगे जवान को बाद में छोड़ा जाता। कभी-कभी जब उसकी पोस्टर देखने की बारी नहीं आ पाती तो वह आसमान सिर पर उठा लेता और कहता, "याद रखना! अगली दफे तुम लोग लाइन में लगोगे।"

 सिनेमा हॉल के मालिक के पास कुछ छँटे हुए दादा किस्म के लोग पाए जाते थे। इनके पास टिकिट की लाइन ठीक रखने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती थी। वे इस काम को इतनी गम्भीरता से अंजाम देते थे गोया विश्व स्वास्थ्य संगठन ने उन्हें कोरोना की वैक्सीन बाँटने की जिम्मेदारी सौंप रखी हो। वे इतने गम्भीर होते थे कि उनके चेहरे तनाव से खिंचे होते थे, देह ऐंठी हुई होती थी और जरा-सी बात पर भी वे बिफर उठते थे। लेकिन जैसे उद्योग-धंधों में सेफ्टी- ऑर्गेनाइजेशन सिर्फ प्रवचन दे सकता है, कोई कार्रवाई नहीं कर सकता, वैसे ही इनके हाथ भी बंधे हुए होते। कोई नई और हिट फिल्म लगती तो पुलिस वालों को तलब किया जाता था। फ़िल्म "मुझे जीने दो" की याद मुझे बहुत अच्छे से है। अभी लाइन में लगे ही थे कि बारिश शुरू हो गई। उन दिनों आंधी-तूफान आने, बिजली गिर जाने या भूकम्प के झटके आने पर भी सिनेमा की लाइन से हट जाने का रिवाज नहीं था। अपन डटे हुए थे। एक रंगदार बार-बार आता और लाइन में लगे टिकिटार्थियों को चमका जाता। लोगों ने सोचा कि वह सिनेमा वालों का आदमी होगा। थोड़ी देर बाद वह नज़र बचाकर लाइन में घुस गया। पीछे किसी ने ताड़ लिया। उसने इतनी जोर से हल्ला मचाया गोया नई-नवेली दुल्हन के जेवरात लुटे जा रहे हों। बाकी लोग भी समर्थन में आ गए। पुलिस मौका-ए-वारदात पर मौजूद थी। बारिश बढ़ गयी थी। पुलिस वालों ने "निकल स्साले!" कहते हुए छाते से ही उसकी पिटाई कर दी। किसी ने पीछे से त्वरित टिप्पणी की, "और घुस ले बेट्टा!" वह खिसियाया हुआ बाहर निकला और फिर हँसने लगा। तब इस तरह की पिटाई का कोई बुरा नहीं मानता था। कब, कौन, किस बात पर पिट जाए; इसकी कोई गारंटी नहीं होती थी। कहते है कि एक बार तो एक महापौर ही सिनेमा की लाइन में पिट गए थे। पुराने साथी इस वाकये के बारे में जानते होंगे। वे पहलवान के नाम से मशहूर थे। एक तो नेताजी ऊपर से पहलवान। शहर में उनकी धाक थी। शहर के लोग उन्हें जानते थे और उनका रुआब सिनेमा की लाइन में भी चल जाता था। लेकिन सिनेमा सिर्फ शहर के लोग नहीं देखते! गाँव से कुछ नवयुवक आए हुए थे। नेताजी ने अपना रुआब दिखाया तो युवकों ने उन्हें ही तबीयत से कूट दिया। वे बेचारे क्या जानते थे कि कुटने वाला शख्स कौन है?

लाइन में सबसे पीछे खड़ा होने वाला शख्स, दुनिया का सबसे बदनसीब इंसान होता। एक-एक पल उसके लिए बहुत भारी होता था।  उसे लगता था कि वह एक जगह जम गया है, उसके पैरों तले जड़ें उग आई हैं और सामने वाले लोग हैं कि सरक ही नहीं रहे हैं। उजड्ड बारातियों वाली भीड़ में लड़की के बाप की तरह दयनीय होकर वह अपना मुँह लटकाए रखता। इस बीच कोई भला आदमी आता और उसे ढाढ़स बँधा जाता कि इंसान की तरह लाइन भी नश्वर है और उसे कभी न कभी खत्म होना ही है। कोई इंसान कुछ ज्यादा ही भला हुआ तो अपने ठोंगे से उसे एक-दो मूंगफलियां ऑफर कर देता। लाइन में लगा दुखियारा उससे पूछ बैठता, "भैया! आपकी टिकिट हो गयी है?" वह अपनी आँखों से 'हाँ' का इशारा करता और इस तरह गर्व के साथ सीना तानकर आगे बढ़ जाता जैसे कॉमन वेल्थ गेम्स में गोल्ड लेकर आ रहे हों। कभी-कभी जब लाइन अचानक बहुत तेजी से सरकने लगती तो दुखियारे इंसान की आँखों मे चमक आ जाती। उसे लगता कि दुनिया में देर है, पर अंधेर नहीं है। आँखों की यह चमक और चेहरे की मुस्कान बहुत थोड़ी देर रह पाती जब उसे पता चलता कि लाइन इसलिए जल्द सरक रही थी क्योंकि खिड़की बन्द हो गई। थोड़ा शोर होता। 'ब्लैक मार्केटिंग" के लिए सिनेमा वालों को गाली दी जाती। कुछ खिसियाए मुँह घर लौट जाते और कुछ 'ब्लैक' में टिकिट लेकर अंदर चले जाते। दुखियारा इंसान बुदबुदाता नज़र आता, "घोर कलजुग है भाई!"

टिकिट हासिल कर लेने के बाद हॉल के अंदर प्रवेश करने में बड़ी हड़बड़ी होती थी। अंधेरी जगह होने के कारण कुछ सूझता नहीं था। दर्शक नया हुआ तो थर्ड क्लास की टिकिट लेकर फर्स्ट क्लास के गेट में पहुँच जाता और गेट कीपर की डाँट खाता। हड़बड़ी एक तो इसलिए होती कि सीट ठीक-ठाक मिल जाए और दूसरे न्यूज रील भी छूटनी नहीं चाहिए। विज्ञापन भी नहीं। हालाँकि विज्ञापन तब कम ही होते थे। स्थानीय विज्ञापनों के लिए स्लाइड का इस्तेमाल किया जाता था, जो दो तरीकों से बनती थी। एक, फोटोग्राफी वाली तकनीक में नेगेटिव के इस्तेमाल से और दूसरी, खालिस देसी पद्धति से काँच के सहारे। काँच की एक प्लेट में चूना पोत दिया जाता और पेंटिंग के ब्रश की उल्टी तरफ से चूने को खुरचकर अक्षर लिखे जाते थे। रंगों के प्रभाव के लिए रंगीन पन्नियों का इस्तेमाल किया जाता था। ये स्लाइड अक्सर इंटरवेल के बाद फ़िल्म शुरू होने से पहले चलाए जाते थे। दर्शकगण इन्हें भी देखने से नहीं चूकना चाहते थे। तब चीजें दुर्लभ थीं, तो जिज्ञासाएं बहुत हुआ करती थीं। अब जिज्ञासाएं शांत करने की प्रवृत्ति पर तकनीक हावी है तो बच्चे खोज-बीन के स्वाभाविक लुत्फ से वंचित हो गए लगते हैं।अंदर हॉल में लगे पँखे हेलीकॉप्टर की गड़गड़ाहट के साथ चलते थे। इस बात का पता इंटरवेल में चलता था। जैसे ही इंटरवेल होता, फेरीवाले खटाक से अंदर चले आते। उन्हें कोई रोक-टोक नहीं होती थी। समाज में अवसरों का सम्मानजनक बँटवारा था। अब इंटरवेल में चने बेचने का काम भी सिनेमा का मालिक ही करता है। हॉल के दरवाजे पर 'स्वागतम' की जगह वह निहायत ही बेशर्मी के साथ एक फूहड़ तख्ती लटकाए रखता है, जिसमें लिखा होता है, "आउटसाइड फुड इस नॉट अलाउड।" 

एसी वगैरह के चोचले तब नहीं थे। सिनेमा खत्म होता तो हॉल से निकलने वाले दर्शक भीड़ में भी अलग से पहचाने जा सकते थे। कपड़ों का बुरा हाल होता। गर्मियों के दिनों में लोग हाथों में रुमाल घुमाते हुए बाहर निकलते। फिर भी फ़िल्म अच्छी हुई तो चेहरे से नूर टपकता था। फ़िल्म अगर रोने-धोने वाली रही हो तो महिलाओं के चेहरे देखते ही बनते। रुमाल उनके भी हाथों में होते पर उसका प्रयोजन भिन्न होता। थर्ड क्लास में अक्सर कुर्सियों के बदले लम्बी बेंच होती थी तो कुछ लोग सोने के पाक इरादे से ही थिएटर चले आते थे। यह सुविधा फ़िल्म के उतरने से कुछ पहले हासिल होती थी। कटनी के एक सिनेमा हॉल में अपन कोई फ़िल्म देख रहे थे। सेकंड शो। फ़िल्म खत्म हो गई पर सामने की बेंच में एक सज्जन बदस्तूर सोए पड़े थे। मैंने झिंझोड़कर उठाना चाहा, पर कोई प्रतिक्रिया हासिल नहीं हुई। बगल में बैठे एक सज्जन ने उन्हें जोरों की लात लगाई। वे हड़बड़ाकर उठे और बड़ी मासूमियत से पूछा, "अच्छा! फ़िल्म खत्म हो गयी क्या?"

सेंट्रल टॉकीज मिलौनीगंज में थी। सेंट्रल' और 'लक्ष्मी' टॉकीज को उन दिनों खटमल टॉकीज भी कहा जाता था। घरों में भी खटमलों की आपूर्ति यहीं से होती थी। घर मे कोई खटमल दिख जाए तो सिनेमा देखकर आने वाले को दोषी माना जाता। खटिया तब रस्सी वाली होती थी और वे उसमें आसानी से छुप जाते थे। कार्यक्रम के सिलसिले में जब कभी इंदौर जाना होता, अपना बड़ा बुरा हाल होता। वहाँ अपने मित्र हीरालाल जी के यहाँ ठहरना होता। वे श्वेताम्बर जैन हैं। उनके यहाँ जीव हत्या वर्जित है। खटमल उनके यहाँ टैंक की तरह धावा बोलते थे। एकाध बार जवाबी हमला करने की कोशिश की तो हीरालाल कहते, "जीव हैं। उनका राशन कार्ड नहीं बनता। रहने दो।"  इंदौर वाला इंतकाम मैं जबलपुर में लेता। 'खटमल टॉकीज' से लौटने के बाद अगले दिन खटिया बाहर निकाल दी जाती। उसे डंडों से पीटा जाता और गर्म पानी डाला जाता। उन दिनों एक गाना भी चलता था, "धीरे से जाना खटियन में, रे खटमल..।"

बहरहाल, 'सेंट्रल' में  एक बड़ा मजेदार वाकया हुआ। फ़िल्म में घोड़ों वाला एक दृश्य था। घोड़े साधारण नहीं थे। उनके पास पँख थे। वे उड़ने वाले सफेद घोड़े थे। जब वे उड़ने लगे तो दृश्य बड़ा मनोरम था। सफेद-सफेद रुई जैसे बादलों में सफेद घोड़े कभी गुम हो जाते, कभी नज़र आने लगते। ऐसा लग रहा था कि उनकी उड़ान से पर्दा भी हिल रहा है। अद्भुत समाँ बंध गया था। पर्दा सचमुच हिल रहा था। लेकिन वह तब भी हिलता रहा जब घोड़ों वाला दृश्य खत्म हो गया। यह करामात असली घोड़े की थी। टॉकीज के मालिक अपने घोड़े को पर्दे के पीछे बाँधकर रखते थे। उस दिन घोड़े का पैर फँस गया था और वह अपने पैर निकालने के लिए पर्दे को झटकार रहा था। दर्शकों ने सोचा, यह फ़िल्म का 'स्पेशल इफ़ेक्ट' है।

'मुग़ले-आजम' वाले एक दृश्य ने तो और भी गज़ब ढा दिया था। बादशाह 'अनारकली' से उसकी आखिरी ख्वाहिश पूछते हैं। 'अनारकली' एक दिन के लिए हिंदुस्तान की मलिका बनना चाहती है। बादशाह हिकारत से कहते हैं, "आखिर दिल की बात जुबान पर आ ही गई।" अनारकली कहती है, "वायदा शहजादे ने किया था। मैं नहीं चाहती कि हिंदुस्तान का होने वाला बादशाह झूठा कहलाए।" फिर वह मशहूर डायलॉग होता है, "अनारकली! सलीम तुम्हें मरने नहीं देगा और हम तुम्हें जीने नहीं देंगे।" तो तय यह होता है कि अनारकली सलीम को रुखसत से पहले बेहोशी का लखलखा सुंघाएगी। गाना शुरू हो गया है-

 "जब  रात  है  ऐसी  मतवाली
तो सुब्ह का आलम क्या होगा।"

इधर हुआ यह कि अपन इंटरवल में एक किलो अँगूर खरीद लाए थे। बड़े-बड़े और रसीले। फ़िल्म का आनन्द लेते हुए इत्मीनान से एक-एक अँगूर आहिस्ता-आहिस्ता खाया जा रहा था। हॉल बाहर के मौसम की तुलना में जरा सुकूनदेह था। साथ में घना अंधकार। पृथ्वीराज कपूर, दिलीप कुमार और मधुबाला की लाजवाब अदाकारी। नौशाद साहब का मादक संगीत। माहौल का असर...!! उधर अनारकली ने सलीम को बेहोशी की दवा सुंघा दी है। होश खोने से पहले सलीम को नशा-सा आ रहा है। सीन इतना जबरदस्त है कि मुझे लगा कि मुझे भी नशा आ रहा है। सलीम के साथ -साथ मैं भी झूमने लगा हूँ। यह अद्भुत है! अपने तार शहजादे सलीम के साथ जुड़ गए हैं। क्या यह टेलीपैथी है? जब तक अनारकली को दीवार पर चुनवाया जाता, अपन को समझ में आ गया था कि सारी गड़बड़ किलो भर अँगूर भकोसने की वजह से हुई है। अँगूर ने अपना कमाल दिखा दिया था और उसी दिन अपन को समझ में आया कि शराब को "अँगूर की बेटी" क्यों कहा जाता है। फ़िल्म खत्म हो चुकी थी पर अपन से कुर्सी से उठा नहीं जा रहा था।

अंग्रेजी फिल्मों का जलवा भी कुछ कम न था। अंग्रेजी फिल्मों की एक खासियत यह होती थी कि उनके नाम हिंदी में होते थे। हिंदी में उनके नाम तय करने के लिए सिनेमा हॉल वालों के पास एक रिसर्च टीम हुआ करती थी जो बड़ी मेहनत के साथ इंग्लिश फ़िल्म के लिए हिंदी नाम ढूँढ कर लाती थी। अक्सर इस नाम का मूल नाम से कोई लेना -देना नहीं होता था पर वह हमेशा बड़ा फड़कता हुआ-सा होता था। अंग्रेजी फ़िल्म की दूसरी खासियत यह होती थी कि इसके हीरो-हीरोइन के नाम भी हिंदी में होते थे। सिनेमा देखकर लौटे नौजवान से जब पूछा जाता कि हीरोइन का नाम क्या था, तो जवाब इस तरह मिलता: "पहले भी तो आई है, बड्डे! अपन ने होली में देखी थी न! उसमें जो हीरोइन थी, वही है।" अंग्रेजी फ़िल्म की तीसरी खासियत यह होती थी कि इसकी समीक्षा या प्रशंसा भी हिंदी में की जाती थी। फ़िल्म देखने के बाद किसी के भी मुँह से "इट वाज अ नाइस मूवी ऑफकोर्स" नहीं फूटता था। हर कोई यही कहता, "गज़ब की फ़िल्म थी गुरु! एकदम धाँसू!" अंग्रेजी फ़िल्म देखकर आने वाले कभी भी उसे खराब नहीं कहते थे। यह ज्यादातर 'डिलाइट' में लगती थी या 'एम्पायर' में। 'डिलाइट' वाली फिल्में चालू किस्म की होती थीं और 'एम्पायर' वाली क्लासिक। मैंने अपने कार्यक्रम "इंग्लिश पिक्चर का ट्रेलर" इन्हीं दो सिनेमा हॉल में किए गए ऑब्जर्वेशन के आधार पर तैयार किया था। एक मिमिक्री आर्टिस्ट के रूप में अपना यह कार्यक्रम मुझे बेहद पसंद है। यह दुनिया भर की आवाजों का खेल है और ये बगैर किसी अंतराल के एक के बाद एक बदलती चली जाती हैं।

आखिर में एक पुराने किस्म की कहानी, जो इतनी नई है कि आपने कभी भी नहीं सुनी होगी। हुआ यूँ कि 'भोलाराम का जीव' जब इस दुनिया से उस दुनिया की यात्रा में था तो अचानक दूतों की पकड़ से छूटकर भाग गया। दूतों ने उन्हें एक गठरी में बांध रखा था। जीव की तलाश में दूत मारे-मारे फिर रहे थे। जीव कहीं नहीं मिला तो वे समय काटने के लिए एक सिनेमा हॉल में घुस गए। हाथ में मूँगफली का एक ठोंगा भी था। दूत भले आदमी थे। अंधेरे में अगल-बगल के लोगों को भी मूँगफली के दाने खिलाए। लौटकर आए तो देखा भोलाराम का जीव गठरी में विराजमान है। दूतों को बहुत आश्चर्य हुआ। पूछने पर मालूम हुआ कि हॉल में जिन लोगों को उन्होंने मूँगफली की पेशकश की थी, उनमें से एक भोलाराम भी था। भोलाराम ने इससे पहले अपने जीवन में कभी भी मूँगफली खाते हुए सिनेमा नहीं देखा था।

मूँगफली नामक अन्न की उत्पत्ति हिंदी सिनेमा के चलते ही हुई होगी। हिंदी सिनेमा का रसपान मूँगफली की सहायक-सामग्री के बगैर मुमकिन नहीं था। सेकंड शो के बाद जब थर्ड-क्लास से बाहर निकलना होता था तो नीचे फर्श पर मूँगफली के छिलकों की कालीन बिछी होती थी। उन दिनों आजकल की तरह मैनेजमेंट के कोर्स नहीं होते थे, अन्यथा "सिनेमा हॉल में छिलका प्रबंधन" जैसा कोई शोध जरूर हुआ होता। यह भी पता लगाया जाता कि मूँगफली की सकल वार्षिक पैदावार का कितना हिस्सा सिनेमा हॉल में खपता है और मुल्क की जीडीपी में इसका क्या योगदान है। मूँगफली हमेशा टिकिट लेने के बाद या इंटरवेल में खरीदी जाती थी। अगर पहले से ले ली और टिकिट न मिले तो वह बेकाम, बेस्वाद होकर रह जाती। कुछ कमीने किस्म के दोस्त ऐसे भी होते जो मूँगफली का ठोंगा लाकर भी उसे छिपाए रखते थे। वे दायीं ओर होते तो उसे दायीं जेब में रखते और बायीं ओर होने पर बायीं जेब में। छिलका इतनी सफाई से उतारते कि जरा भी आवाज न हो। पकड़े जाने पर सफाई देते हुए कहते, "भाई खतम हो गयी थी, बस पचासई ग्राम मिली।" बाकी मौकों पर एक गुप्त समझौते के तहत मूँगफली के दाने टूँगने का अवसर उसे ही अधिक देने का चलन था, जो मूँगफली खरीद कर लाता था। इस समझौते का उल्लंघन करने वाले के हाथों में ठोंगे के साथ काले नमक की पुड़िया थमा दी जाती थी, जिससे उसकी गति स्वाभावतः भंग हो जाती। इनकार करने वाले को यह ताना सुनना पड़ता, "अब हम खरीद कर लाए हैं..तुम जरा सा पकड़ भी नहीं सकते!"

"हिंदी सिनेमा और मूँगफली" की कथा में बहुत से आयाम हैं। लोग अपने-अपने अनुभवों के आधार पर इस कथावली को समृद्ध कर सकते हैं। हालाँकि मुझे याद नहीं पड़ता कि हिंदी सिनेमा वालों ने कभी इनका नोटिस लिया हो। "द पीनट वेंडर" नामक एक क्यूबन गाना अलबत्ता पूरी दुनिया में बड़ा मशहूर हुआ जिसे कोई डेढ़ सौ से भी ज्यादा बार रेकॉर्ड किया जा चुका है। हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम दिनों के आनन्द में मूँगफली के अवदान को भुलाया नहीं जा सकता। उन दिनों चार आने की मूँगफली के साथ सिनेमा देखने में जो आनन्द था, वह अब सौ रुपये के 'पॉपकॉर्न' में नहीं मिलता!

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