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सोमवार, दिसंबर 18, 2017

ॐ का कंठ संगीत में महत्व : एक प्रयोग


इसके आगे भौतिक और सौर विज्ञानी इसके उदगम तक जा पहुँचे । सूर्य की घूर्णन प्रक्रिया से ॐ के सृजन को NASA - National Aeronautics and Space Administration ने आइडेंटीफाई किया ।
ॐ के अनुनाद से वाणीगत मधुरता के लिए आप स्वयम एक प्रयोग करें 30 दिन में आपको अपनी भाषा में लयात्मकता एवम उसके उत्पन्न करने के लिए ध्वनि आघात की आवृत्ति का स्वयम बोध होगा ।
 Balbhavan में संगीत के विद्यार्थियों को मेरा  निर्देश है कि वे 5 से 10 बार इस का अनुनाद का अभ्यास करें । डॉ शिप्रा सुल्लेरे की देखरेख में बच्चे ॐ का अभ्यास करतें भी हैं । कुछ घर में करतें है ।
 इससे ध्वनि  फेफड़ों जीभ और वोकल काड के आटो सिंक्रोनाइज शरीररूपी मशीन से उत्पादित होगी जो आकर्षक और गेयता के काफी नजदीक होगी ।
 आप  वेस्टर्न गीतों में गायिकाओं की ध्वनि को  महसूस करें तो पाएंगे कि आवाज़ हमारी गायिकाओं से एकदम भिन्न हैं मेनिष्ट हैं जबकि भारतीय गायिकाओं की आवाज़ मूलतः फेमिनिस्ट ही होती है । अधिकतर गायिकाएं किसी न किसी रूप में A U M के संयुक्त शब्द ॐ का उदघोष करने के कारण फेमिनिस्ट ही होती हैं ।
   कर्नाटक राबिंद संगीत में भी यही ॐ स्वर साधना में ही शामिल होता है ।
    सुधिजन हम इस  प्रयोग को कराते हैं Bal Bhavan Jabalpur में जो एक कोशिश है  छोटे बच्चों के साथ
इससे जो परिणाम मिलेंगे
1 बच्चों की आयु अनुसार बदली वोकलकाड के कारण गायन में प्रतिकूल प्रभाव न होगा
2 फेफड़ों  वोकलकाड एवम जीभ में सिंक्रोनाइज़ेशन स्थापित हो जाने से ध्वनि का उत्पादन अभ्यास के एवम मस्तिष्क के आदेशानुसार ही होगा ।
3 ॐ के अभ्यास के दौरान ध्वनि  नाभिकीय संचरण करने से आरोह अवरोह स्वराघात के मामले में नाभि तक के नियंत्रण के कारण गायकी ताल से न कटेगी और न ही सुरों में भटकाव होगा ।
       ये प्रयोग है हमने एक वर्ष में पाया कि बाल  संगीत साधक अपेक्षा के अनुरूप गायन को निखार पाते हैं । जो बच्चे घर में धार्मिक कारणों से अथवा आलस की वजह से ॐ का घोष नहीं कर पाते उनको नियमित स्वराभ्यास की ज़रूरत होती है ।
उम्मीद है आप इसे शेयर कर नए स्वर साधकों को मदद करेंगे ।

मंगलवार, दिसंबर 12, 2017

और यूँ उत्सव मनाया आनंद गोत्रीयों ने

पलपल इंडिया , जबलपुर. से साभार
 'ओशो ट्रेल' के कारण ओशो के महाप्रयाण के 27 साल बाद मध्यप्रदेश के जबलपुर में 'ओशो अवतरण दिवस' खास बन गया, जिसका चर्चा सोशल मीडिया के जरिए देश-दुनिया तक फैल गया. सुबह 10 बजे एक सैकड़ा से अधिक ओशो प्रेमी ओशो संबोधि स्थली भंवरताल स्थित मौलश्री वृक्ष के तले एकत्र हुए. वहां से ओशो ट्रेल योगेश भवन नेपियर टाउन पहुंची, जहां 'ओशो हॉल' के दर्शन कर ओशो के निवास-काल की स्मृतियां साकार की गईं. तीसरे चरण में 'निःशुल्क ओशो ट्रेल' महाकोशल कॉलेज पहुंची, जहां 'ओशो चेयर' के दर्शन कर सभी ओशो प्रेमी मंत्रमुग्ध हो गए. इसी के साथ ओशो ट्रेल देवताल स्थित ओशो संन्यास अमृतधाम पहुंची, जहां ओशो सेलिब्रेशन की मस्ती में चार चांद लग गए. सभी ने ओशो ध्यान शिला के दर्शन किए. फिर सभी 'ओशो मार्बल रॉक' के दीदार करने भेड़ाघाट पहुंचे, जहां आयोजक संस्था विवेकानंद विज्डम इंटरनेशनल पब्लिक स्कूल ने स्वागत किया.
ओशो ट्रेल जब भेड़ाघाट ने भंवरताल कल्चरल स्ट्रीट पहुंची तो ओशो के महासूत्र हंसिबा, खेलिबा, धरिबा ध्यानम और उत्सव आमार जाति, आनंद आमार गोत्र धरती पर साकार हो गए. सभी ओशो ट्रेल के यात्री ओशो के व्हाइट रोब ब्रदरहुड ध्यान की मस्ती में गहराई तक डूब गए. इसके बाद एक-दूसरे से गले मिलकर बाहर प्रेम का प्रसाद बांटा. ये पल यादगार बन गए. ओशो ट्रेल को रोमांचक पर्यटन यात्रा बनाने में विवेकानंद विज्डम इंटरनेशनल पब्लिक स्कूल के संचालक डॉ.प्रशांत कौरव और सुदेशना अभियान के मोटिवेटर सुरेन्द्र दुबे की विशेष भूमिका रही. इसके अलावा ओशो आश्रम के स्वामी अनादि अनंत ने ध्यान प्रयोगों के माध्यम से अविस्मरणीय भूमिका निभाई.
देवताल में केक काटकर बर्थडे मनाया
ओशो सन्यास अमृतधाम में ओशो का बर्थडे केक काटकर मनाया गया. इस दौरान सतोरी सभागार में ध्यान हुआ. प्रवचन हुए. नृत्य की मस्ती में सभी ने गोते लगाए. ओशो संन्यासियों ने ओशो ट्रेल की भूरि-भूरि सराहना की. साथ ही इसे एक ऐतिहासिक पहल निरूपित किया. सुदेशना अभियान व विवेकानंद विज्डम इंटरनेशनल पब्लिक स्कूल के संचालक डॉ.प्रशांत कौरव ने संकल्प लिया कि ओशो ट्रेल आगे भी समय-समय पर आयोजित करके जबलपुर में आचार्य रजनीश के 59 वर्षीय कुल जीवनकाल में से सबसे ज्यादा 19 वर्ष निवासकाल की स्मृतियों व स्थलियों का दर्शन कार्यक्रम जारी रखा जाएगा. इससे देश-विदेश में जबलपुर का महत्व बढ़ेगा, पर्यटक आकर्षित होंगे. भविष्य में ओशो ट्रेल में रायसेन कुचवाड़ा और गाडरवारा को भी शामिल करने का निर्णय विचाराधीन है.
ओशो की छोटी बहन, बहनोई व भांजे ने आयोजन को दी गरिमा
सबसे खास बात यह रही कि ओशो ट्रेल के साथ शुरूआत से लेकर समापन तक जबलपुर के आचार्य रजनीश यानी ओशो की सगी छोटी बहन मां निशा भारती, बहनोई हरक भाई व उनके पुत्र साथ रहे. तीनों ने ओशो सेलिब्रेशन में शामिल होकर आनंदलाभ लिया. राजेन्द्र चन्द्रकांत राय और लक्ष्मीकांत शर्मा सहित अन्य वरिष्ठ नागरिकों ने ओशो ट्रेल को ओशो प्रेमियों और शहर जबलपुर के लिए बड़ी सौगात माना.
इनका सहयोग रहा
योगेश भवन में आर्ट ऑफ लिंविग के टीचर और भवन स्वामी ऋतुराज असाटी और महाकोशल कॉलेज में डॉ.अरुण शुक्ला का सहयोग उल्लेखनीय रहा. ओशो आश्रम में स्वामी आनंद विजय, स्वामी शिखर व स्वामी राजकुमार सहित अन्य ने सहयोग दिया. कार्यक्रम के दौरान शुभम कौरव, अनुश्री, मां किरण, अंजु, ज्योति, अमित परनामी, शक्ति प्रजापति और विनोद सराफ सहित अन्य ने सहयोग के साथ ओशो के जीवन से जुड़ी जगहों का दर्शन कर रोमांच का अनुभव किया. ओशो ट्रेल का कभी भुलाया न जा सकने वाला नेरेशन सुदेशना अभियान के मोटिवेटर सुरेन्द्र दुबे रोमांचक अंदाज, आवाज और अल्फाजों के जरिए किया. भंवरताल में स्वामी राजकुमार ने ओशो साहित्य का स्टॉल लगाकर ओशो की पुस्तकों के प्रेमियों को मनपसंद साहित्य उपलब्ध कराया.
ओशो ट्रेल को मिला संस्कारधानी का अभूतपूर्व स्नेह
बात 50 की थी 90 लोग हो गए, बस एक करना थी 3 करना पडी, भोजन की व्यवस्था 50 लोगों की थी दोपहर में डेढ़ सौ और रात में 350 सौ लोग बढ़ गए, ओशो के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में ओशो ट्रेल का आयोजन शहर के अब तक के इस तरह के आयोजनों में बेहद सफल आयोजन रहा. ट्रेल की पहली खासियत थी समय पर शुरू होना और दूसरी खासियत थी लोगों का बहुत अधिक रिस्पांस, आयोजकों ने शहर से मिले स्नेह के लिए आभार जताया है.
ओशो ट्रेल की सफलता के बाद विवेकानंद ग्रुप ऑफ़ इंस्टिट्यूशन विवेकानंद जयंती पर एक और कार्यक्रम की प्रस्तावना रख रहा है जिसका नाम है कहे शिकागो सुने जबलपुर इस कार्यक्रम में सबसे रचनात्मक सुझाव एवं सहयोग आमंत्रित किये हैं.

सोमवार, दिसंबर 11, 2017

आज ओशो ट्रेल कर ओशो प्रेमी करेंगे प्रेम का इज़हार

पलपल जबलपुर. साभार प्रेस कॉन्फ्रेंस रपट
प्रेसवार्ता का दृश्य 

ओशो ट्रेल के प्रति संस्कारधानी में लगातार बढ़ रही उत्सुकता को दूर करने विवेकानंद विजडम इंटरनेशनल पब्लिक स्कूल के डायरेक्टर और इस ट्रेल के आयोजक प्रशांत कौरव ने एक पत्रकार वार्ता की. उनके साथ ही पत्रकार एवं सुदेशना गुरु सुरेन्द्र दुबे एवं अन्य आयोजको ने बताया की इस आयोजन के प्रति शहर वासियों और ओशोप्रेमियों में जितनी उत्सुकता है उसी तरह वे भी इस ट्रेल को लेकर बेहद उत्साहित हैं. उन्होंने कहा की यह उनका नहीं बल्कि शहरवासियों का है एक आयोजन हैं.
अब भी महसूस की जाती है ओशो की चेतना रूपी सूक्ष्म उपस्थिति
श्री कौरव ने बताया कि सत्ताइस साल पूर्व 19 जनवरी 1990 को ओशो इस संसार से भौतिक रूप से महाप्रयाण कर गए लेकिन समग्र अस्तित्व में उनकी चेतना रूपी सूक्ष्म उपस्थिति सतत महसूस की जा रही है, उनकी 750 से अधिक पुस्तकें और ऑडियो, वीडियो प्रवचन व चित्ताकर्षक स्टिल फोटोग्राफ्स देश-दुनिया में फैले करोड़ो ओशो प्रेमियों और जिज्ञासुओं के सम्मोहन का केन्द्र बने हुए हैं. ओशो का जबलपुर से 1951 से 1970 के मध्य यानी लगभग 2 दशक तक बेहद गहरा लगाव और जुड़ाव रहा.
जबलपुर को होम टाउन मानते थे ओशो
श्री कौरव ने बताया कि स्वयं ओशो ने अपने जीवनकाल में जबलपुर को अपने होम-टाउन का दर्जा दिया. उनका कथन था कि जबलपुर मेरा पर्वतस्थल है, जहां मैं सर्वाधिक ध्यानस्थ और आनंदित हुआ. यही वजह है कि जबलपुर को ओशो-सिटी की गरिमा हासिल है. अवतरण-ग्राम कुचवाड़ा के राजा नामक बालक और पैतृक-ग्राम गाडरवारा के रजनीश चन्द्रमोन जैन नामक युवक को इस ओशो-नगरी जबलपुर में ही पहले जातिमुक्त रजनीश चन्द्रमोहन, फिर क्रांतिकारी पत्रकार, लेखक, संगठनकर्ता, विचारक व युगकबीर-वक्ता रजनीश और आगे चलकर दर्शनशास्त्र के अनूठे व लोकप्रिय प्राध्यापक आचार्य रजनीश बतौर पहचान मिली. सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जबलपुर में प्रवासकाल के दौरान ही आचार्य रजनीश से विश्वविख्यात ओशो होने की संभावना के बीज का अंकुरण हुआ. 21 मार्च 1953 को जबलपुर के भंवरताल पार्क स्थित मौलश्री वृक्ष के तले उन्हें संबोधि की उपलब्धि हुई. इस दौरान उनका निवास स्थान नेपियर टाउन स्थित योगेश-भवन था. संबोधि के पूर्व आचार्य रजनीश को जबलपुर के नर्मदा तटीय संगमरमरी भेड़ाघाट ने सर्वाधिक आकर्षित किया, उन्होंने इसे संसार में अपना सबसे प्रिय स्थान कहा है. इसके अलावा खामोश वादियों से घिरी नैसर्गिक स्थली लघुकाशी देवताल की शिला पर ध्यानस्थ होना उन्हें अतिशय प्रिय था, जो अब ओशो संन्यास अमृतधाम के भीतर संरक्षित है. जबलपुर प्रवास के दौरान आचार्य रजनीश महाकोशल कॉलेज में दर्शनशास्त्र की कक्षाएं लेने के बाद एक मनपसंद ‘‘विश्राम-कुर्सी‘‘ पर आसीन हुआ करते थे, जो अब धरोहर बतौर कॉलेज लायब्रेरी में सुरक्षित है.
विवेकानंद विज्डम इंटरनेशनल पब्लिक स्कूलभेड़ाघाट की अनूठी पहल
इस तरह साफ है कि एक प्रतिभाशाली मानव आचार्य रजनीश से भगवत्तापूर्ण महामानव ओशो होने तक के सफर में जबलपुर का अमूल्य योगदान रहा. इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए भेड़ाघाट स्थित ओशो की देशना पर आधारित अनूठी शिक्षण संस्था विवेकानंद विज्डम इंटरनेशनल पब्लिक स्कूल ने ‘‘ओशो ट्रेल: रोमांचक पर्यटन यात्रा ओशो-नगरी की‘‘ नामक अनूठे प्रकल्प के 11 दिसम्बर, 2017 से श्शुभारंभ का संकल्प लिया है, जिसके पीछे जबलपुर में देशी-विदेशी पर्यटन को बढ़ावा देने की महत्वपूर्ण सोच भी समाहित है.
ओशो ट्रेल: टाइमलाइन
ओशो ट्रेल के तहत प्रातः 10 बजे ओशो ट्री, मौलश्री भंवरताल पार्क से शुरूआत के बाद ओशो-हाॅल, योगेश-भवन नेपियर टाउन ले जाया जाएगा. इन दोनों जगहों पर ओशो की चेतना को अनुभूत करने के बाद यात्रीगण भेड़ाधाट की तरफ प्रस्थान करेंगे, जहां पुण्यसलिला मां नर्मदा के तट पर स्थित ओशो-मार्बल का दर्शन-लाभ लजीज लंच के साथ होगा. भेड़ाघाट में ही स्थित विवेकानंद विज्डम इंटरनेशल पब्लिक स्कूल की विजिट के बाद ओशो ट्रेल का प्रवेश ओशो संन्यास अमृतधाम देवताल में होगा, जहां ओशो-राॅक के दर्शन कराए जाएंगे. 11 दिसम्बर ओशो का अवतरण दिवस है, जिसके उपलक्ष्य में आयोजित आनंदोत्सव में सभी यात्रीगण सहभागी होने का सौभाग्य अर्जित कर सकेंगे. इसके बाद सभी यात्रियों को उस महाकोशल कॉलेज स्थित ओशो चेयर के दर्शन कराए जाएंगे, जिसके काॅरीडोर और क्लास-रूम में कभी आचार्य रजनीश के कदम पड़ा करते थे. ओशो ट्रेल का समापन कल्चरल स्ट्रीट में होगा, जहां ओशो छविदर्शन चित्रप्रदर्शनी और व्हाइट रोब ब्रदरहुड के जरिए ओशो के संदेश ‘‘उत्सव आमार जाति, आनंद आमार गोत्र‘‘ को साकार किया जाएगा. हाईटी-टेस्टी स्नैक्स ग्रहण करने के बाद सभी यात्री अपने-अपने गंतव्य की ओर रवाना होंगे.
यानि सोमवार 11 दिसम्बर 2017 को सुबह 10 बजे ओशो ट्री मौलश्री भंवरताल पार्क से ओशो ट्रेल का शुभारंभ होगा.....सवा 11 बजे तक ओशो हाॅल योगेश भवन नेपियर टाउन का दीदार करने के बाद ओशो ट्रेल ओशो को संसार में सबसे प्रिय रहे पुण्यसलिला मां नर्मदा के सुंदरतम-स्थल भेड़ाघाट की तरफ रवाना होगी.....1.15 बजे ओशो ट्रेल ओशो संन्यास अमृतधाम देवताल की तरफ रवाना होकर आश्रम में दोपहर 2 से 3.30 बजे तक आयोजित होने वाले ओशो अवतरण दिवस आनंदोत्सव में शामिल होगी.....4.30 बजे तक महाकोशल काॅलेज, सिविल लाइन्स में संरक्षित अद्वितीय ओशो चेयर का दर्शन करने के साथ ही शाम पौने 5 बजे ओशो ट्रेल ओशो छविदर्शन और व्हाइट रोब ब्रदरहुड के लिए कल्चरल स्ट्रीट पहुंचेगी. यहां 6.30 बजे तक सांस्कृतिक संध्या का आयोजन ओशो के ‘‘उत्सव आमार जाति, आनंद आमार गोत्र‘‘ जैसे प्रेरणादायी संदेश को साकार करते हुए किया जाएगा.
ओशो ट्रेल एक रोमांचक पर्यटन यात्रा
ओशो और जबलपुर अपने लांचिंग पेड जबलपुर से दार्शनिक और आध्यात्मिक उडान भरकर विश्व-गगन पर छाए क्रांतिदृश्टा संस्कारधानी के गौरव आचार्य रजनीश यानी विष्वविख्यात महान शख्सियत ओशो से संबंधित स्थानीय स्थलों का दर्शन आनंदायक, अविस्मरणीय और अनूठा होगा. सुदेशना यही है कि हम जबलपुर से जुड़ी ओशो की स्मृतियों व स्मारकों को संजोकर अधिकाधिक देशी-विदेशी पर्यटकों को अपने प्यारे श्शहर जबलपुर की तरफ आकर्षित करने में सफल होंगे.
ओशो ट्रेल: मुख्य आकर्षण
1- ओशो ट्री- मौलश्री भंवरताल...आमंत्रण ओशो की दिलकश संबोधि-स्थली का.
2- ओशो हाॅल- नेपियर टाउन योगेश-भवन...आमंत्रण ओशो की तरंगों से ओतप्रोत निवास-स्थान का.
3- ओशो मार्बल- नर्मदा तट भेड़ाघाट...आमंत्रण ओशो की संसार में सबसे मनपसंद नयनाभिराम जगह का.
4- ओशो रॉक- अमृतधाम देवताल...आमंत्रण ओशो की पसंदीदा ध्यान में डुबोने वाली नैसर्गिक खामोश वादियों का
5- ओशो चेयर- महाकोशल काॅलेज सिविल लाइन्स...आमंत्रण ओशो की गरिमामय अध्यापन-स्थली का.
6- ओशो छविदर्शन और व्हाइट रोब ब्रदरहुड-कल्चरल स्ट्रीट जबलपुर...आमंत्रण ओशो के महासूत्र ‘‘उत्सव आमार जाति-आनंद आमार गोत्र‘‘ का.
ओशो ट्री
जबलपुर के भंवरताल पार्क में मौलश्री का वह परम-पावन वृक्ष संरक्षित है, जिसके तले 21 मार्च 1953 को आचार्य रजनीश को संबोधि की उपलब्धि हुई थी. इसे अब ‘‘ओशो ट्री‘‘ के रूप में जाना जाता है. नगर पालिक निगम, जबलपुर ने भंवरताल पार्क का रेनोवेशन करते हुए ओशो संबोधि स्थली मौलश्री को चातुर्दिक अत्यंत रमणीय और चित्ताकर्शण स्वरूप दे दिया है. गोलाकार जलप्रवाह के मध्य फेंस से घिरा मौलश्री महावृक्ष पूर्ण सुरक्षित है. ओशो के देश-दुनिया में फैले करोड़ों प्रेमियों के लिए इस स्थान का वैसा ही महत्व है, जैसा कि तथागत गौतम बुद्ध के अनुयायियों के लिए बोधिगया बिहार का है. इसीलिए ‘‘ओशो टेल‘‘ का शुभारम्भ-स्थल यही है.
ओशो हॉल
जबलपुर के नेपियर टाउन क्षेत्र में भंवरताल के नजदीक ही वह ऐतिहासिक मकान ‘‘योगेश भवन‘‘ स्थित है, जहां 1951 से 1970 की अवधि में आचार्य रजनीश निवास करते थे. जिस सभागार में उन्होंने प्रारंभिक स्तर पर अपनी तरफ खिंचे चले आने वाले अध्यात्म-प्रेमियों को प्रवचन के साथ शिथिल ध्यान के प्रयोग कराए, उसे ही अब ओशो हॉल कहा जाता है. इस मकान में रहते हुए आचार्य रजनीश ने अनेक पुस्तकों का अध्ययन किया. ओशो हॉल की सभी अलमारियां उनकी मनपसंद किताबों से भरी थीं. जब उन्होंने जबलपुर को अलविदा कहकर मुंबई प्रस्थान किया तो उनकी सारी किताबें ट्रकों में भरकर मुंबई पहुंचा दी गईं. ओशो संबोधन से पहले भगवान रजनीश के रूप में ख्यातिलब्ध हुए जबलपुर के आचार्य रजनीश के ओशो हॉल में निवास-काल की स्मृति अत्यंत महत्वपूर्ण है. इसीलिए इसे ओशो ट्रेल में दूसरा स्थान दिया गया है.
ओशो मार्बल
जबलपुर की शान भेड़ाघाट कलकल निनादिनी मां नर्मदा के अमरकंटक से लेकर खम्बात की खाड़ी तक के बीच समूचे प्रवाह-पथ में सबसे खूबसूरत रेवातट है. यही वजह है 1951 से 1970 तक जबलपुर निवास-काल के दौरान आचार्य रजनीश को इस जगह ने सम्मोहित कर लिया था. वे विश्वप्रसिद्ध जलप्रपात धुआंधार को खूब निहारते थे. कभी-कभी लम्हेटा राॅक्स और जिलेहरीघाट के किनारे ध्यान में डूब जाया करते थे, लेकिन भेड़ाघाट की संगमरमरी शिलाओं पर बैठकर ध्यानस्थ होना उन्हें अतिशत प्रिय था. यहां आज भी ओशो की तरंगें व्याप्त हैं. अपने सम्मोहक व्यक्तित्व के लिए दुनियाभर में विख्यात हुए ओशो को भेड़ाघाट की सुंदरता से सम्मोहित कर लिया था, इसीलिए ओशो मार्बल को ओशो ट्रेल में तीसरा स्थान दिया गया है. इसके साथ ओशो की देशना पर आधारित विश्व की एकमात्र शिक्षण-संस्था भेड़ाघाट स्थित विवेकानंद विज्डम इंटरनेशनल पब्लिक स्कूल का भी पूरक-दर्शन श्शामिल किया गया है.
ओशो रॉक
जबलपुर के उपनरीय क्षेत्र गढ़ा अंतर्गत लघुकाशी देवताल में अत्यंत नयनाभिराम पर्वतीय उपत्यकाओं के मध्य ओशो संन्यास अमृतधाम स्थित है. यहां एक शिला-विशेश पर आचार्य रजनीश सर्वाधिक ध्यानस्थ हुए. इसीलिए उसे ‘‘ओशो राॅक‘‘ की गरिमा हासिल है. ओशो आश्रम, ओशो संन्यास अमृतधाम देवताल के संचालक स्वामी आनंद विजय आचार्य रजनीश के सबसे नजदीकी संन्यासियों में से एक हैं, जिन्होंने अपने सद्गुरू ओशो के इशारे को समझकर ओशो ध्यान शिला के समीप आश्रम विकसित किया. ओशो ने स्वयं कहा था कि जबलपुर मेरा पर्वतस्थल है, जहां मैं सर्वाधिक आनंदित हुआ....इस दृश्टि से ‘‘ओशो राॅक‘‘ अत्यंत महत्वपूर्ण है. इसीलिए इसे ओशो ट्र्रेल में चौथा स्थान दिया गया है.
ओशो चेयर
जबलपुर के सिविल लाइन्स क्षेत्र में सबसे पुराना राबर्टसन कॉलेज स्थित है, जो अब महाकोशल और साइंस काॅलेज में विभाजित हो गया है. दर्शनशास्त्र के उद्भट विद्वान आचार्य रजनीश यहीं अध्यापन कराते थे. खाली समय में वे शीशम की लकड़ी से बनी एक शानदार आराम कुर्सी पर ध्यानस्थ हो जाया करते थे. वह कुर्सी अब ‘‘ओशो चेयर‘‘ बतौर बेशकीमती धरोहर बन गई है. महाकोशल कॉलेज की लायब्रेरी में उसे पूरे सम्मान के साथ सहेजा गया है. ओशो चेयर के समीप एक अलमारी में ओशो साहित्य भी संग्रहित है.महाकोशल कॉलेज में फिलाॅसफी के प्रोफेसर रहते हुए आचार्य रजनीश की ख्याति देश-दुनिया में फैलने लगी थी. उनसे मिलने दूर-दूर से जिज्ञासुओं का जबलपुर आगमन होने लगा था. इस दौरान आगंतुकों से ज्यादातर मुलाकातें मनपसंद आराम-कुर्सी पर बैठकर ही की गईं, इसीलिए ओशो चेयर रूपी अनमोल विरासत को ‘‘ओशो ट्रेल‘‘ में पांचवा स्थान दिया गया है.
जबलपुर में ओशो ट्रेल क्यों?
11 दिसम्बर 1931 से 19 जनवरी 1990 तक, कुल 59 वर्ष के जीवनकाल में से 1951 से 1970 तक, कुल 19 वर्ष ओशो जबलपुर में रहे. यह अवधि ननिहाल रायसेन कुचवाड़ा में 1931 संे 1939 तक, कुल 9 वर्ष, पैतृक ग्राम गाडरवारा में 1939 से 1951 तक, कुल 11 वर्ष, मुंबई 1970 से 1974 तक, कुल 4 वर्ष पुणे 1974 से 1981 तक, कुल 7 वर्श और अमेरिका 1981 से 1985 तक, कुल 4 वर्ष और अंततः विश्वभ्रमण और पुणे वापिसी काल 1985 से 1990 तक, कुल 5 वर्ष के मुकाबले सर्वाधिक रही है. इससे साफ है कि ओशो ने विश्वगगन पर अपने लांचिंग-पेड, अपनी कर्मभूमि जबलपुर का नाम रोशन किय इसीलिए ओशो और जबलपुर के परस्पर गहरे जुड़ाव को ओशो ट्रेल के जरिए रेखांकित करने का कत्र्तव्य पूरा किया गया है. ओशो ट्रेल को निरंतरता देकर जबलपुर में अधिकाधिक ओशो प्रेमी देशी-विदेशी पर्यटकों को आकर्षित किया जाए, यही इस प्रकल्प के पीछे मूल सुदेशना है.

शनिवार, दिसंबर 09, 2017

ओशो और सामाजिकता 02


पिछले आलेख के  बाद पब्लिक रिएक्शन से साफ हो गया कि धारणा स्थापित कर दी गई है कि ओशो का सामाजिकता से कोई सरोकार नहीं  था ।
मन ही मन  हँसने के अलावा कोई बात मेरे पास शेष कुछ  नहीं रहा । पर समाधान आवश्यक है ।
मित्रो मुझे लगा था कि संक्षिप्त आलेख से समाधान हो जाएगा । पर लगता है ओशो महाशय मुझे छोड़ेंगे नहीं स्वाभाविक हैं रजनीश और गिरीश के बीच डीएनजैन कॉलेज वाला नाता तो है इस नाते ही सही समाधान करने आज फिर एक आलेख लिखना तय किया  ।
सबकी मान्यता है  कि प्रतिष्ठित सामाजिक नियमों निर्देशों को जो भी अस्वीकार  उसे असामाजिक माना जाए ? 
       तो फिर मुझे एक  सवाल का उत्तर दीजिये दीजिये - विवाह संस्था के प्रति वे असहमत थे पर नर-मादा संबंध पर उनकी कोई असहमति भरी टिप्पणी नहीं की
        उनके बाद देखिये भारतीय  न्याय व्यवस्था ने लिव इन संबंधों को भाषित कर दिया । लिव इन रिलेशनशिप तो समाजी विवाह संस्था के विपरीत वाला छोर है न ? तो क्या उत्तर है आपका ?
   आदिम व्यवस्था में झुंड हुए होंगे फिर कबीले फिर शनै: शनै: विवाह संस्था आदि से विकसित हुए अर्थात परिवर्तन हुआ न  जिसे हम सामाजिकता कहतें हैं उस सामाजिकता को  हम ने स्वीकारा
विकास के अनुक्रम में परिवर्तन होते हैं रिचुअल्स में आदतों कार्यप्रणाली जीवन शैली में बदलाव हुए हम सब उनको स्वीकार करते भी हैं  । सामाजिक वर्जनाओं के विरुद्ध बात करने वालों को समकालीन अस्वीकृति मिलती है पर कालांतर में स्वीकृति मिलती है ।
  एक बदलाव देखें कि आज राम जैसे रसूखदार आदर्श व्यक्तित्व ने सीता जी जैसी महान महिला को वन क्षेत्र जाने का आदेश आज दिया जाता तो डॉमेस्टिक वायलेंस का मुद्दा बन जाता है सामाजिकता के किस स्वरूप को स्वीकृति दें ये सोच रहा हूँ ।
  अर्थात हमें बदलाव को स्वीकृति देनी ही होगी । रजनीश की बातें तब अस्वीकृत योग हो सकतीं थी  पर उनके अनुयायियों की संख्या से लगता है कम्यून संस्कृति को लोगों की मान्यता है यही तो उनकी यानि ओशो की अपनी सामाजिकता है । जिसे एक समूह मानता है ।
गटागट की गोली वाले दादाजी का असीम स्नेह था उनपर रजनीश ने भी कभी परसाई जी को अपमानित नहीं किया । उस दौर में जाने कितनी विभूतियां थीं कुछेक नाम महेश योगी, पंडित केशव पाठक जी, ऊंट जी, जिनसे  आचार्य का सहज नाता था ।
अब बताएं कि कोई और सवाल शेष है यदि है तो और भी लिखूंगा ।

ओशो की सामाजिकता 01


   
जबलपुर वाले ओशो की सामाजिकता पर सवाल खड़ा हुआ . मेरी नज़र  में प्रथम दृष्टया ही  प्रश्न गैरज़रूरी  सा है ऐसा मुझे इस लिए लगा क्योंकि लोग अधिकतर ऐसे सवाल तब करतें हैं जब उनके द्वारा किसी का समग्र मूल्यांकन किया जा रहा हो तब सामान्यतया लोग ये जानना चाहतें हैं की फलां  व्यक्ति ने कितने कुँए खुदवाए, कितनी राशि दान में दी, कितनों को आवास दिया कितने मंदिर बनवाए . मुझे लगता है  कि सवाल कर्ता ने उनको   व्यापारी अफसर नेता जनता समझ के ये सवाल कर  रहे हैं . जो जनता  के बीच जाकर  और किसी आम आदमी की / किसी ख़ास  की ज़रूरत पूरी  करे ?
ओशो ऐसे धनाड्य तो न थे बाद में यानी अमेरिका जाकर वे धनाड्य हुए वो जबलपुर के सन्दर्भ में ओरेगान  प्रासंगिक नहीं है. पूना भी नहीं है प्रासंगिक
     पर ओशो सामाजिक थे समकालीन उनको टार्च बेचने वाले की उपाधि दे गए यानी वे सामाजिक थे इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा...?
सामाजिक वो ही होता है जिससे सत्ता को भय हो जावे .. टार्च बेचने वाले की उपाधि सरकारी किताबों के ज़रिये खोपड़ियों  में ठूंस दी गई थी . स्पष्ट है कि समकालीन व्यवस्था कितनी भयभीत थी. 

     जबलपुर के परिपेक्ष्य में कहूं तो प्रोफ़ेसर से आचार्य रजनीश में बदल जाने की प्रक्रिया ही सामाजिक सरोकार प्राथमिक संकेत था. अब आप  विवेकानंद में सामाजिक सरोकार तलाशें तो अजीब बात न लगेगी आपको . 
    कुछ उत्साही किस्म के लोग  . दूध, तेल, नापने के लिए इंचीटेप का प्रयोग करने की कोशिश करतें हैं अलग थलग दिखने के लिए जो  कभी हो ही नहीं सकता . 
    सांसारिक लोग बेचारे होते हैं विद्वानों के प्रयोगों और उनकी अंतर-ध्वनि  को समझ नहीं  पाते हैं बेचारे .
      सम्भोग से समाधि तक पर पाबंदी लगाने की मांग करते सुने जाते थे तब लोग. मैं भी बच्चा था न सम्भोग का अर्थ समझता न समाधि का . घरेलू कपडे सुखाने वाले  तार / रस्सी आदि पर  चिड़िया चिडा के इस मिलन को मेरा बाल मन चिडे द्वारा चिड़िया के प्रति क्रूरता समझता था. और समाधियाँ तो स्थूल रूप में देखीं हीं थी जहां माथा नवाते थे हम लोग .
     बहुत देर बाद समझ पाया अर्थ क्या है .! किशोर होते ही एक बार शिर्डी जाने का अवसर मिला जहां उस समय चाय न मिली .. इतनी तड़प हुई कि आँसू बह  निकले . फिर अचानक पूज्य भैया मेरे लिए चाय की व्यवस्था की  . मैंने भी तीन कप चाय गटक ली ... और अचानक इतनी संतृप्ति मिली कि अब चाय मिले न मिले कोई लालसा शेष नहीं है. 
    तब समझ पाया  मानव उकता जाता है ... ओशो ने अति सर्वत्र वर्जयेत को नकार के साबित किया कि  प्रभू से मिलना है तो पहले तृप्ति पा लो फिर स्वयमेव साधू हो जाओगे और आत्ममंथन करते हुए आत्मज्ञान सहज आत्मसात कर  सकोगे . उनने नज़रिया बदल दिया अनुयाइयों का सामूहिक विचार ही नहीं विजन में बड़े पैमाने पर बदलाव समाज से प्रभावी संवाद था.  क्या ये सामाजिकता नहीं की आत्मानंद के साथ आध्यात्मिकता के पथ पर पद संचरण के लिए प्रकाश की ज़रूरत होती है. संत एवं दार्शनिक   विभ्रम के  अँधेरे पथ पर चलने के लिए सोचतें हैं कि  टार्च बेच दी जाए. ये अलग मसला है कि टार्च की कीमत  गटागट की गोली देने वाले दादा जी ने न बताई .. खैर  
    मित्रो एक दार्शनिक के  सामाजिक सिन्क्रोनाइज़ेशन  के सवाल को न चाहते हुए भी खारिज करता हूँ क्योंकि दार्शनिक  शासक नहीं जो व्यवस्थापन करे वो व्यापारी नहीं कि अपने खजाने का दशांस बाँटें
       जबलपुर वाले आचार्य रजनीश मेरी नज़र  में सम्मोहक वक्ता थे जीवन को परिष्कृत करने की उर्जा से ओतप्रोत से ऊर्जा बाँटते थे. टार्च नहीं बेचते थे ये तो तय है. समूह के  चिंतन को सकारात्मक बनाने का माद्दा रखते थे . वे न बाएँ देखते न दाएं वे सीधे सीधे आत्मोत्कर्ष का पाठ सिखाने के सद्प्रयासों में सक्रीय थे . वे मनुष्यों से  से सीधा संवाद करते थे . अर्थात समाज से संवादी थे अर्थात वे पेड़ों पौधों पहाड़ों को प्रवचन नहीं देते थे ... साफ़ तौर पर सामाजिक ही  थे भाई  ....!!
        लोगों को ऐसा लगता है महात्मा गांधी को तो वे किशोरावस्था में ही नकारने लगे थे जब वे बापू जी  से मिले समाज कल्याण के लिए जेब का पैसा भी दिया वापस भी ले  लिया . पर ऐसा उनने इस लिए किया समाज कल्याण किसी के ज़रिये क्यों करें ?

       वे गांधी जी से असहमत थे या नहीं ये वार्ता का हिस्सा नहीं पर वे निकट की समस्या के संकट के लिए सतर्कता का सन्देश देना चाहते थे ऐसा मैं समझता हूँ. यह भी सामाजिकता है .    

मंगलवार, दिसंबर 05, 2017

गुलज़ार साहब के लिए


गम्भीर रूप से एक्सीडेंट होने के कारण मेरी पोलियो ग्रस्त पैर की फीमर बोन के सबसे ऊपरी भाग की हड्डी टूटी गई थी ।  नवम्बर 1999 की इस घटना के बाद वरिष्ठ अस्थि रोग विशेषज्ञ स्व  डा  बाबुलर  नागपुर के  हॉस्पिटल में मेरा पुनर्जन्म हुआ । माँ भैया आदि  सभी ने बाद में बताया था  कि  स्व डाक्टर बाभुलकर जी ने मेरा ऑपरेशन किया वो सबसे रिस्की था ।  सैंट्रल इंडिया का अबसे अनोखा एवम रिस्की ऑपरेशन किया जो 100% सफल था । ऐसी चर्चा सर्वत्र थी ।
उस समय मेरे सिरहाने संगसाथ होते थे गुलज़ार साहब जैसे लोग भी
एक दिन अस्पताल में किसी कार्ड बोर्ड पर उनके लिए लिखी नज़्म शायद आपको पसंद आए
*गुलज़ार जी के लिए*
रोज़ रात देर तलक
गुलज़ार के हर्फ़ हर्फ़ से बुने
नज़्म गीत जब पढ़ता हूँ
तो लगता है गोया
माँ के नर्म आँचल ने मुझे
ढांप लिया हो
और फिर हौले से पता नहीं कब अविरल रात के बहाव में
में नीँद की नाव पर सवार
सुबह की ओर चला जाता हूँ ।
गुलज़ार जी
होती है सुबह
हर्फ़ हर्फ़ ज़िंदगी जुड़ते बिखरते पल समेटता हूँ ।
तक कर कभी  गीत
सुनता हूँ आपके
जो टूटती जुड़ती ज़िंदगी को
बना देती है
तुम्हारी नज़्म
और फिर हो जाता हूँ गुलज़ार
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

शुक्रवार, दिसंबर 01, 2017

परदेसी पाखियों का आना जाना

#अमेया मेरे भतीजे Ankur Billore की बेटी एक हफ्ते तक हमारी आदत में शुमार थी । कुछ दिनों में अपने दादू का देश छोड़  वापस ट्रम्प दादू के देश फुर्र हो जाएगी । कब आएगी कौन जाने । थैंक्स मीडिया के नए वर्जन को जिसके के ज़रिए मिलती रहेगी । हज़ारों लाखों परिवार बच्चों को सीने पे पत्थर रख भेजते हैं । विकास के इस दौर में गोद में बिठाकर घण्टों बच्चों से गुटरगूँ करते रहने का स्वप्न केवल स्वप्न ही रह जाता है । देश के कोने कोने के चाचे मामे ताऊ माँ बाबा दादा दादी इस परदेशियों के लिए तड़पते हैं मुझे इस बात का मुझे और हम सबको अंदाज़ है ।
 पहली बार रू ब रू मिला वो मुझे पहचान गई  2 बरस का इन्वेस्टमेंट था नींद तब आती थी जब अमेया से नेट के  ज़रिए मस्ती न कर लूं । दिन भर Balbhavan के बच्चों में अमेया मिला करती है ।
प्रवास से देश का विकास ज़रूरी भी है । इस देश में यूं तो कुछ हासिल नहीं होता योग्यताएं सुबकतीं है तो तय ही है बच्चों का प्रवासी पंछी बन जाना ।
साउथ एशिया में भारत के योग्य बच्चे भले ही विदेशों में राजनीतिक रूप से महिमा मंडित किये जाते हैं किंतु किसी बड़बोले सियासी की जुबान पर ये नहीं आया कि बच्चों बाहर मत जाओ हम तुमको तुम्हारी योग्यता का यथोचित सम्मान देने का वादा करते हैं ।
हम ज़रूर ये कहतें हैं मेरा एक बेटा यहां है दूसरा वहां हैं पर हम इस नाबालिग व्यवस्था में रोज़ रात उनकी याद में आंसू से तकिया ज़रूर भिगोते हैं ।
इस दिवाली बेटी के पास चेन्नई में था बेटी की सारी मित्र सामान्य वर्ग से हैं एक मल्टीनेशनल कम्पनी में सब तेज़ दिमाग़ कर्मठ सबसे कहा तुमने अपना ब्रेन आखिर किसी की सेवा में लगाया है वो तुम्हारी वज़ह से जो कमा रहा है उसका 5% भी तुमको नहीं देता क्यों नहीं सरकारी क्षेत्र में
सब की भौंहें तन सी गईं - बेटी ने बड़े सादगीपूर्ण पूर्ण तरीके से कहा - पापा व्यवस्था में प्रतिभा का दमन तो मैंने देखा है इन सबने भी सब सरकारी कामकाज को अच्छे से समझते हैं ।
    आपको समझने की ज़रूरत है ब्रेन क्यों बह के सुदूर सात समंदर पार जा रहा है ?
    यह भी कि कहीं न कहीं प्रतिमा का दमन तो हो रहा है कभी आरक्षण के नाम पर तो कभी भाई भतीजा वाद से , भ्रष्टाचार से सब कुछ स्पष्ट है ।
    मेरे बड़े भाई साहब कहते हैं - घर तो एयर पोर्ट के नज़दीक होना चाहिए ।
मित्रो अमेया अब कब इंडिया आएगी ये मेरा सरदर्द है अब व्यवस्था के सर में दर्द उठना चाहिये कि उसके 87 साल के पितामह से अमेया दूर क्यों है ?
देखें ये टीवी चैनलों पर ध्वनि विचार  प्रदूषण फैलाने वाले इस दिशा में कितना सोचते हैं

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