पिछले आलेख के बाद पब्लिक रिएक्शन से साफ हो गया कि धारणा स्थापित कर दी गई है कि ओशो का सामाजिकता से कोई सरोकार नहीं था ।
मन ही मन हँसने के अलावा कोई बात मेरे पास शेष कुछ नहीं रहा । पर समाधान आवश्यक है ।
मित्रो मुझे लगा था कि संक्षिप्त आलेख से समाधान हो जाएगा । पर लगता है ओशो महाशय मुझे छोड़ेंगे नहीं स्वाभाविक हैं रजनीश और गिरीश के बीच डीएनजैन कॉलेज वाला नाता तो है इस नाते ही सही समाधान करने आज फिर एक आलेख लिखना तय किया ।
सबकी मान्यता है कि प्रतिष्ठित सामाजिक नियमों निर्देशों को जो भी अस्वीकार उसे असामाजिक माना जाए ?
तो फिर मुझे एक सवाल का उत्तर दीजिये दीजिये - विवाह संस्था के प्रति वे असहमत थे पर नर-मादा संबंध पर उनकी कोई असहमति भरी टिप्पणी नहीं की
उनके बाद देखिये भारतीय न्याय व्यवस्था ने लिव इन संबंधों को भाषित कर दिया । लिव इन रिलेशनशिप तो समाजी विवाह संस्था के विपरीत वाला छोर है न ? तो क्या उत्तर है आपका ?
आदिम व्यवस्था में झुंड हुए होंगे फिर कबीले फिर शनै: शनै: विवाह संस्था आदि से विकसित हुए अर्थात परिवर्तन हुआ न जिसे हम सामाजिकता कहतें हैं उस सामाजिकता को हम ने स्वीकारा
विकास के अनुक्रम में परिवर्तन होते हैं रिचुअल्स में आदतों कार्यप्रणाली जीवन शैली में बदलाव हुए हम सब उनको स्वीकार करते भी हैं । सामाजिक वर्जनाओं के विरुद्ध बात करने वालों को समकालीन अस्वीकृति मिलती है पर कालांतर में स्वीकृति मिलती है ।
एक बदलाव देखें कि आज राम जैसे रसूखदार आदर्श व्यक्तित्व ने सीता जी जैसी महान महिला को वन क्षेत्र जाने का आदेश आज दिया जाता तो डॉमेस्टिक वायलेंस का मुद्दा बन जाता है सामाजिकता के किस स्वरूप को स्वीकृति दें ये सोच रहा हूँ ।
अर्थात हमें बदलाव को स्वीकृति देनी ही होगी । रजनीश की बातें तब अस्वीकृत योग हो सकतीं थी पर उनके अनुयायियों की संख्या से लगता है कम्यून संस्कृति को लोगों की मान्यता है यही तो उनकी यानि ओशो की अपनी सामाजिकता है । जिसे एक समूह मानता है ।
गटागट की गोली वाले दादाजी का असीम स्नेह था उनपर रजनीश ने भी कभी परसाई जी को अपमानित नहीं किया । उस दौर में जाने कितनी विभूतियां थीं कुछेक नाम महेश योगी, पंडित केशव पाठक जी, ऊंट जी, जिनसे आचार्य का सहज नाता था ।
अब बताएं कि कोई और सवाल शेष है यदि है तो और भी लिखूंगा ।