Ad

सोमवार, जुलाई 13, 2015

संजीव कुमार : ख़्वाबों से हक़ीक़त तक : फिरदौस खान

 एक ज़माने से देश के कोने-कोने से युवा हिंदी सिनेमा में छा जाने का ख़्वाब लिए मुंबई आते रहे हैं. इनमें से कई खु़शक़िस्मत तो सिनेमा के आसमान पर रौशन सितारा बनकर चमकने लगते हैं, तो कई नाकामी के अंधेरे में खो जाते हैं. लेकिन युवाओं के मुंबई आने का यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहता है. एक ऐसे ही युवा थे संजीव कुमार, जो फ़िल्मों में नायक बनने का ख़्वाब देखा करते थे. और इसी ख़्वाब को पूरा करने के लिए वह चल पड़े एक ऐसी राह पर, जहां उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना था. मगर अपने ख़्वाब को पूरा करने के लिए वह मुश्किल से मुश्किल इम्तिहान देने को तैयार थे. उनकी इसी लगन और मेहनत ने उन्हें हिंदी सिनेमा का ऐसा अभिनेता बना दिया, जो ख़ुद ही अपनी मिसाल है.
संजीव कुमार का जन्म 9 जुलाई, 1938 को मुंबई में हुआ था. उनका असली नाम हरि भाई ज़रीवाला था. उनका पैतृक निवास सूरत में था. बाद में उनका परिवार मुंबई आ गया. उन्हें बचपन से फ़िल्मों का काफ़ी शौक़ था. वह फ़िल्मों में नायक बनना चाहते थे. अपने इस सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने रंगमंच का सहारा लिया. इसके बाद उन्होंने फ़िल्मालय के एक्टिंग स्कूल में दाख़िला ले लिया और यहां उन्होंने अभिनय की बारीकियां सीखीं. उनकी क़िस्मत अच्छी थी कि उन्हें 1960 में फ़िल्मालय बैनर की फ़िल्म हम हिंदुस्तानी में काम करने क मौक़ा मिल गया. फ़िल्म में उनका किरदार तो छोटा-सा था, वह भी सिर्फ़ दो मिनट का, लेकिन इसने उन्हें अभिनेता बनने की राह दे दी.
              1965 में बनी फ़िल्म निशान में उन्हें बतौर मुख्य अभिनेता काम करने का सुनहरा मौक़ा मिला. यह उनकी ख़ासियत थी कि उन्होंने कभी किसी भूमिका को छोटा नहीं समझा. उन्हें जो किरदार मिलता, उसे वह ख़ुशी से क़ुबूल कर लेते. 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म शिकार में उन्हें पुलिस अफ़सर की भूमिका मिली. इस फ़िल्म में मुख्य अभिनेता धर्मेंद्र थे, लेकिन संजीव कुमार ने शानदार अभिनय से आलोचकों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा. इस फ़िल्म के लिए उन्हें सहायक अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर अवॊर्ड मिला. 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म संघर्ष में छोटी भूमिका होने के बावजूद वह छा गए. इस फ़िल्म में उनके सामने महान अभिनेता दिलीप कुमार भी थे, जो उनकी अभिनय प्रतिभा के क़ायल हो गए थे. उन्होंने फ़िल आशीर्वाद, राजा और रंक और अनोखी रात जैसी फ़िल्मों में अपने दमदार अभिनय की छाप छोड़ी. 1970 में प्रदर्शित फ़िल्म खिलौना भी बेहद कामयाब रही. इस फ़िल्म ने संजीव कुमार को बतौर अभिनेता स्थापित कर दिया. इसी साल प्रदर्शित फ़िल्म दस्तक में सशक्त अभिनय के लिए वह सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़े गए. फिर 1972 में प्रदर्शित फ़िल्म कोशिश में उन्होंने गूंगे बहरे का किरदार निभाकर यह साबित कर दिया कि वह किसी भी तरह की भूमिका में जान डाल सकते हैं. इस फ़िल्म को संजीव कुमार की महत्वपूर्ण फ़िल्मों में शुमार किया जाता है. फ़िल्म शोले में ठाकुर के चरित्र को उन्होंने अमर बना दिया.

                    उन्होंने 1974 में प्रदर्शित फ़िल्म नया दिन नई रात में नौ किरदार निभाए. इसमें उन्होंने विकलांग, नेत्रहीन, बूढ़े, बीमार, कोढ़ी, हिजड़े, डाकू, जवान और प्रोफ़ेसर का किरदार निभाकर अभिनय और विविधता के नए आयाम पेश किए. उन्होंने फ़िल्म आंधी में होटल कारोबारी का किरदार निभाया, जिसकी पत्नी राजनीति के लिए पति का घर छोड़कर अपने पिता के पास चली जाती है. इसमें उनकी पत्नी की भूमिका सुचित्रा सेन ने निभाई थी. इस फ़िल्म के लिए संजीव कुमार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया. अगले ही साल 1977 में उन्हें फ़िल्म अर्जुन पंडित के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला.
                                                    उनकी अन्य फ़िल्मों में पति पत्नी, स्मगलर, बादल, हुस्न और इश्क़, साथी, संघर्ष, गौरी, सत्यकाम, सच्चाई, ज्योति, जीने की राह, इंसाफ़ का मंदिर, ग़ुस्ताख़ी माफ़, धरती कहे पुकार के, चंदा और बिजली, बंधन, प्रिया, मां का आंचल, इंसान और शैतान, गुनाह और क़ानून, देवी, दस्तक, बचपन, पारस, मन मंदिर, कंगन, एक पहेली, अनुभव, सुबह और शाम, सीता और गीता, सबसे बड़ा सुख, रिवाज, परिचय, सूरज और चंदा, मनचली, दूर नहीं मंज़िल, अनामिका, अग्नि रेखा, अनहोनी, शानदार, ईमान, दावत, चौकीदार, अर्चना, मनोरंजन, हवलदार, आपकी क़सम, कुंआरा बाप, उलझन, आनंद, धोती लोटा और चौपाटी, अपने रंग हज़ार, अपने दुश्मन, आक्रमण, फ़रार, मौसम, दो लड़कियां, ज़िंदगी, विश्वासघात, पापी, दिल और पत्थर, धूप छांव, अपनापन, अंगारे, आलाप, ईमान धर्म, यही है ज़िंदगी, शतरंज के खिलाड़ी, मुक्ति, तुम्हारे लिए, तृष्णा डॊक्टर, स्वर्ग नर्क, सावन के गीत, पति पत्नी और वो, मुक़द्दर, देवता, त्रिशूल, मान अपमान, जानी दुश्मन, घर की लाज, बॊम्बे एट नाइट, हमारे तुम्हारे, गृह प्रवेश, काला पत्थर, टक्कर, स्वयंवर, पत्थर से टक्कर, बेरहम, अब्दुल्ला, ज्योति बने जवाला, हम पांच कृष्ण, सिलसिला, वक़्त की दीवार, लेडीज़ टेलर, चेहरे पे चेहरा, बीवी ओ बीवी, इतनी सी बात, दासी, विधाता, सिंदूर बने ज्वाला, श्रीमान श्रीमती, नमकीन, लोग क्या कहेंगे, खु़द्दार, अय्याश, हथकड़ी, सुराग़, सवाल, अंगूर, हीरो और यादगार शामिल हैं. उन्होंने पंजाबी फ़िल्म फ़ौजी चाचा में भी काम किया. कई फ़िल्में उनकी मौत के बाद प्रदर्शित हुईं, जिनमें बद और बदनाम, पाखंडी, मेरा दोस्त मेरा दुश्मन, लाखों की बात, ज़बरदस्त, राम तेरे कितने नाम, बात बन जाए, हाथों की लकीरें, लव एंड गॊड, कांच की दीवर, क़त्ल, प्रोफ़ेसर की पड़ौसन और राही शामिल हैं. संजीव कुमार के दौर में हिंदी सिनेमा में दिलीप कुमार, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन और शम्मी कपूर जैसे अभिनेताओं का बोलबाला था. इन अभिनेताओं के बीच संजीव कुमार ने अपनी अलग पहचान क़ायम की. उन्होंने अभिनेता और सहायक अभिनेता के तौर पर कई यादगार भूमिकाएं कीं.
                                   वह आजीवन अविवाहित रहे. हालांकि कई अभिनेत्रियों के साथ उनके प्रसंग सुर्ख़ियों में रहे. कहा जाता है कि पहले उनका रुझान सुलक्षणा पंडित की तरफ़ हुआ, लेकिन प्यार परवान नहीं चढ़ पाया. इसके बाद उन्होंने हेमा मालिनी से विवाह करना चाहा, लेकिन वह अभिनेता धर्मेंद्र को पसंद करती थीं, इसलिए यहां भी बात नहीं बन पाई. हेमा मालिनी ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर पहले से शादीशुदा धर्मेंद्र से शादी कर ली. धर्मेंद्र ने भी इस विवाह के लिए इस्लाम क़ुबूल किया था. यह कहना ग़लत न होगा कि ज़िंदगी में प्यार क़िस्मत से ही मिलता है. अपना अकेलापन दूर करने के लिए संजीव कुमार ने अपने भतीजे को गोद ले लिया. संजीव कुमार के परिवाए में कहा जाता था कि उनके परिवार में बड़े बेटे के दस साल का होने पर पिता की मौत हो जाती है, क्योंकि उनके दादा, पिता और भाई के साथ ऐसा हो चुका था. उनके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. जैसे ही उनका भतीजा दस साल का हुआ 6 नवंबर, 1985 को दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई. यह महज़ इत्तेफ़ाक़ था या कुछ और. ज़िंदगी के कुछ रहस्य ऐसे होते हैं, जो कभी सामने नहीं आ पाते.
                                     बहरहाल, अपने अभिनय के ज़रिये संजीव कुमार खु़द को अमर कर गए. जब भी हिंदी सिनेमा और दमदार अभिनय की बात छिड़ेगी, उनका नाम ज़रूर लिया जाएगा.
___________________
तुम पुकार लो, तुम्हारा इन्तज़ार है,
तुम पुकार लो
ख़्वाब चुन रही है रात, बेक़रार है
तुम्हारा इन्तज़ार है, तुम पुकार लो

होंठ पे लिये हुए, दिल की बात हम
जागते रहेंगे और, कितनी रात हम
होंठ पे लिये हुए, दिल की बात हम
जागते रहेंगे और, कितनी रात हम
मुख्तसर सी बात है, तुम से प्यार है
तुम्हारा इन्तज़ार है, तुम पुकार लो

दिल बहल तो जायेगा, इस ख़याल से
हाल मिल गया तुम्हारा, अपने हाल से
दिल बहल तो जायेगा, इस ख़याल से
हाल मिल गया तुम्हारा, अपने हाल से
रात ये क़रार की बेक़रार है
तुम्हारा इन्तज़ार है,
___________________
(लेखिका :- फिरदौस खान  स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं)   

रविवार, जुलाई 12, 2015

अंतरात्मा की आवाज़

मत कहो
अंतरात्मा की आवाज़ सुनो
मैंने सुनी हैं ये आवाजें
बहुत खतरनाक हैं भयावह हैं
तुम हिल जाओगे
बचाव के रास्ते न चुन पाओगे
पहले तुम
अंतरात्मा की आवाज़ सुनो
गुणों चिंतन करो
आगे बढ़ो मुझे न सिखाओ
न मैं बिना गले वाला हूँ
मेरे पास सुर हैं संवाद है
आत्मसाहस है
जो जन्मा है मेरे साथ
बोलूंगा अवश्य अंतर आत्मा की आवाज़ पर
तुम सुन नहीं पाओगे
मेरी अंतरात्मा से निकलीं
आवाजें जो तुम्हारी हैं
भयावह भी जो तुम्हारी छवि खराब करेगी
तुम्हारे बच्चे डरेंगे मुझे इस बात की चिंता है ...
**गिरीश बिल्लोरे “मुकुल”  


शुक्रवार, जुलाई 03, 2015

हर अपराधी के भीतर एक पीड़ित छुपा होता है- श्री श्री रविशंकर

वर्षों से कलहग्रस्त दक्षिणी अमेरिका देश कोलंबिया ने शांति के बल को नमन किया। शांति कायम करने के लिये इस देश में किये गये शांति कार्यों की गूंज कोलंबियन संसद में गूंजी और वहां की संसद के सभापति ने देश के सर्वोच्च पुरुस्कार से श्री श्री रविशंकर को सम्मानित किया। इसके अलाव वे पहले ऐसे एशियन भी बन गए हैं जिन्हें दक्षिण अमेरिका के एक और देश पेरू ने भी तीन-तीन सम्मानों से सम्मानित किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी ट्विटर के जरिए श्री श्री को इस सम्मान की बधाई दी।
                             कोलंबिया ने शांति प्रयासों के लिए दिया सर्वोच्च सम्मान

श्री श्री ने इस सम्मान लेते  हुए कहा कि -"मैं वादा करता हूं कि मैं कोलंबिया की कलह को शांत करने के लिये मेरी क्षमता के अनुरूप कार्य अवश्य करुंगा। यह पुरुस्कार श्री श्री की संस्था, आर्ट ऑफ लिविंग के माध्यम से कोलंबिया में किये गये कार्यों के लिये दिया गया है। हिंसामुक्त और तनावमुक्त विश्व निर्माण के प्रति संकल्प को दोहराते हुये, श्री श्री ने यह पुरुस्कार उन लोगों को समर्पित किया, जो अहिंसा के लिये कार्य कर रहे हैं। श्री श्री ने कहा कि जब शांति और न्याय के बीच कलह हो तो इन दोनों को मिलाने का कार्य बहुत बड़ा कार्य होता है। केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ही इस स्थिति से निपटा जा सकता है ।"
 कोलंबिया के शीर्ष नेताओं ने इस सम्मान से सम्मानित होने पर श्री श्री को बधाई दी । सब का कहना था कि हमें श्री श्री के विश्वभर में शांति स्थापना के लिये किए गए कार्यों और उनके विश्व पर पड़े सकारात्मक प्रभावों पर गर्व है। श्री श्री को अपने पूर्व में लिखे पत्र में श्री फेबियो राऊल आमिन सलेम, संसद के अध्यक्ष ने कहा था, ‘‘कोलंबिया में शांति के लिये आपके 8 वर्षों में किये गये कार्यों को हमारे उत्साहित राष्ट्र ने पहचाना, हमारे देश में आर्ट ऑफ लिविंग की उपस्थिति के लिये हम आपके आभारी है। हम आपकों हिंसामुक्त समाज, के निर्माण में सहायता करने के लिये आमंत्रित करते हैं।
                     पेरू में भी सर्वोच्च सम्मान पाने वाले पहले एशियन बने श्री श्री

श्री श्री रविशंकर आध्यात्मिक गुरु और आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक ऐसे पहले एशियन भी बन गए  हैं, जिन्हें दक्षिण अमेरिका के पेरु देश ने भी तीन पुरुस्कारों से सम्मानित किया है।
·       उनके सामाजिक कार्यों और शांति कार्यों को देखते हुये पेरु की नेशनल कांग्रेस ने उन्हें ‘‘डिप्लोमा डि ऑनर से सम्मानित किया।
·       एंडियन पार्लियामेंट (बोलिविया, कोलंबिया, एक्युडोर और पेरु) ने उन्हें सर्वोच्च पुरुस्कार मेडाला डे ल इंटिग्रेशियन एन एल ग्रेडो डि ग्रान ऑफिशियल से जर्नल सेक्रिटेरियट लिमा, पेरु में सम्मानित किया गया। 
·       3. एना मारिया सोलार्जैनो,लिमा के मेयान ने भी श्री श्री को सम्मान से सम्मानित किया।
इस अवसर पर एंडियन सांसद, ब्रैंडो तापिया ने कहा कि, ‘‘हर किसी को इस विश्वविख्यात आध्यात्मिक गुरु को जानने का अवसर मिलना चाहिये, जिसने हर एक व्यक्ति के जीवन को बेहतर बनाने के लिये सहायता की है, जिसने एक बेहतर समाज, जो कि सम्मान, एकता और प्रसन्नता से भरा बनाने के लिये सेवा की है।
पुरुस्कार प्राप्त करते हुये श्री श्री ने कहा, ‘‘हमें मिलकर काम करना चाहिये ताकि यह पूरा महाद्वीप हिंसा और तनावमुक्त हो सके।‘‘ उन्होंने अपना भाषण स्पेनिश में अध्यक्ष और कांग्रेस के सभी सदस्यों को धन्यवाद देते हुये आरंभ किया और अंत ‘‘नमस्ते‘‘ कहकर किया और इसका अर्थ उन्होंने बताया‘‘मैं आपका हूं। उन्होंने कहा कि हमें तीन स्तर पर संबंध बनाने की आवश्यकता है। पहला स्वयं के साथ, दूसरा समाज के साथ और तीसरा प्रकृति के साथ।
श्री श्री ने एफएआरसी के सदस्यों को गांधीवादी सिध्दांत अपनाने के लिये मनाया
श्री श्री रविशंकर से मिलने के बाद क्यूबा के एफएआरसी (फ्यूरजस आर्मदस रिवाल्यूशनरीज़ डे कोलंबिया) नेताओं में ऐतिहासिक हृदय परिवर्तन हुआ। अपने तीन दिवसीय क्यूबा प्रवास के दौरान श्री श्री ने, एफएआरसी के नेताओं से अनेक राउंड्स में मुलाकात की, जिसमें पिछले तीन वर्षों से जारी शांति गतिरोध को समाप्त कर विश्वास कायम करने के शांति बहाली के लिये प्रयास पर खास जोर रहा। एफएआरसी ने श्री श्री से शांति प्रक्रिया में सक्रिय भाग लेने का अनुरोध किया था। श्री श्री ने कहा, ‘‘इस पूरी कलह में हर कोई पीड़ित है और हर अपराधी के भीतर एक पीड़ित छुपा होता है, जो कि सहायता के लिये पुकार रहा होता है।
समाचार स्रोत :- डॉ. पी . श्रीराम 


बुधवार, जुलाई 01, 2015

झुर्रियों वाले चेहरे पे गज़ब की रौनक

संगमरमर को काट के निकलीं
बूंद निकली तो ठाट से निकलीं 
🌺🌺
शाम की बस से बेटी लौटी है !
मिलने सखियों को ठाट से निकली !!
🌺🌺
बंद ताबूत में थी इक चाहत” !
एक आवाज़ काठ से निकली !!
🌺🌺
बद्दुआएं लबों पे सबके है -
नेकियां किसकी गांठ से निकली !!
🌺🌺
एक है रब सभी को है यकीं 
गोली फिर किस के हाथ से निकली ?
🌺🌺
झुर्रियों वाले चेहरे पे गज़ब की रौनक
मोहल्ले भर में ईदी, वो बाँट के निकली !!
🌺🌺
 शाम की बस से बेटी लौटी है !
 मिलने सखियों से ठाट से निकली !!

🌺🌺

रविवार, जून 28, 2015

हिंसा क्यों.....?


पोस्टर कविता : शशांक गर्ग 
हिंसा के बारे में सामान्य सोच ये है कि – हिंसा में  किसी के खिलाफ शारीरिक मानसिक यंत्रणा के लिए शारीरिक बल प्रयोग निरायुध एवं सायुध अथवा  शाब्दिक बल प्रयोग किया जाता है . सत्य ही है ऐसा होता ही इस बिंदु पर किसी की असहमति नहीं यहाँ चिंतन का विषय है -  “हिंसा क्यों ?”
      हिंसा कायिक एवं मानसिक विकृति है . जो भय के कारण जन्म लेती है . भय से असुरक्षा ... असुरक्षा से सुरक्षित होने के उपायों की तलाश की जाती है . तब व्यक्ति के मानस में तीन  बातें विकल्प के रूप में सामने आनी चाहिए –
1.    परिस्थिति से परे हटना
2.    सामने रहकर प्रतिरोध को जन्म देना
3.    आसन्न भय के स्रोत को क्षतिग्रस्त करना  
 प्रथम द्वितीय विकल्प समझदार एवं विचारक चिन्तक उठाते हैं किन्तु सहज आवेग में आने वाले  लोग तीसरे विकल्प को अपनाते हैं . विश्व मिथकों में, इतिहास में ऐसे लोगों की संख्या का विवरण मौजूद  है . इससे मनुष्य प्रजाति में पशुत्वगुण की मौजूदगी की भी पुष्टि होती है . पशु विशेष रूप से कुत्ता जिसे आप स्वामिभक्त मानते हैं महाभारत काल से  तो उसके स्वामिभक्ति के गुण को सर्वोत्तम कहा जाने लगा .
कुत्ता किसी अज्ञात आसन्न आहट से भयभीत होकर भौंकता है आक्रमण भी कर देता है अपने टारगेट पर जिसे आप स्वामीभक्ति मान  बैठें हैं !
हम हिंसा स्वयं में उसी कथित स्वामिभक्त कुत्ते की तरह पालते हैं . दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि हम-“खुद में हिंसा पालते हैं ”... ये क्रम बरसों से जारी है जब से सभ्यता शुरू हुई होगी तब से हाँ शायद तभी से ...! 
हिंसा एक मानवीय गुण है ... जिसे पराभाव के प्रतिकार के रूप में देखा जा सकता है . व्यक्ति एवं  समाज सदा सुरक्षित रहना चाहते हैं . सबसे पहले हम अपना शरीर फिर प्रतिष्ठा और  फिर सम्पति को बचाने की कोशिश करते हैं परन्तु कुछ अति भावुक लोग जो ये समझते हैं कि वे अपने “ब्रह्म” की रक्षा करेंगें क्योंकि उनने उस ब्रह्म को सृजा है वे भी हिंसक हो जाते हैं . शरीर, प्रतिष्ठा और संपदा को बचाना हर व्यक्ति का अधिकार है केवल तानाशाही को छोड़ दें तो हर देश में क़ानून होते हैं इसकी रक्षा के लिए परन्तु जहां तक   अपने “ब्रह्म” की रक्षा का प्रश्न है व्यक्ति/समुदाय  अति संवेदित है इसकी रक्षा को लेकर . अब आप सोचेंगे कि सीधे वार्ता को इस मुहाने पर लाने की ज़रुरत क्यों आन पड़ी..?
          सुधि पाठको आज का दौर बेहद तनाव युक्त है . यहाँ सामाजिक कुरीतियों को सुधारना भी धर्म का विरोध माना जाता है . विकास के इस पड़ाव पर आकर विश्व अपने अपने “ब्रह्म” को लेकर आतंकित महसूस कर रहा है . धर्मों को लेकर बेहद तनाव की स्थिति बनी हुई है . धर्म की न तो सही व्याख्या समझी जा रही है न ही धर्म की सही व्याख्या की जा रही है . जिसका मूल  कारण है  तीव्रता से नकारात्मक संदेशों को जाहिल गंवारों तक पहुंचाना  ताकि उनके मन में खिलाफत का बीजारोपण किया जा सके .  सनातन इसका पक्षधर नहीं है न ही कभी था ... सनातन व्यवस्था है जिसमें विशालता है  प्रजातांत्रिक तत्व हैं .. उसमें आस्था है . बदलाव की सतत गुंजाइश है किन्तु जहां ऐसा नहीं वहां हिंसा की गुंजाइश को नकारना नामुमकिन है . यहाँ यह कहा जा सकता है जो लचीला नहें वो परिवर्तनशील नहीं और जो परिवर्तनशील नहीं वो सहज टूटता है . अर्थात धर्म देश  काल परिस्थिति के अनुसार संयोजित व्यवस्थाएं  हैं . जिनके स्वरुप में सहज ही बदलाव संभव होते हैं . पर आस्थागत परिवर्तन नहीं होते . जब आस्था गत बदलाव नहीं तो “ब्रह्म” के स्वरुप में बदलाव से भयभीत क्यों हुआ जाए . चलिए मैं पत्थर में अपना प्रभू देखता हूँ अथवा निरंकार ये मेरा हक़ है कि मैं किस रूप में देख रहा हूँ “ब्रह्म” को . अगर में शून्य में उसे निहार पा रहा हूँ तो आपको आपत्ति नहीं होना चाहिए अगर पत्थर में जड़ में चेतन में अथवा अन्य किसी रूप में देखना चाहूँ तो न मैं काफिर हूँ न म्लेच्छ .
          झगड़ा बस इस बात  है है न कि कुछ मानते हैं  “ब्रह्म में मैं हूँ “ और कुछ  “मुझमें ब्रह्म है ” मानते हैं .. !
युद्ध जिस “ब्रह्म” के नाम पर जारी है उसे न तो किसी ने देखा है न ही वो स्वयं किसी को दिखा है . जिसे दिखा भी है तो वो ब्रह्म में खो गया आपको उसका गुणानुवाद न कर सका . अगर उस साधक ने  गुणानुवाद किया भी तो  “परा-ध्वनियों” से जो आप हम सब की समझ से परे है .
हममें ब्रह्म या ब्रह्म हममें ये बहस बेमानी है . सच तो ये है कि मानवता की रक्षा के लिए वो सब करो जो आज की परिस्थिति में जायज़ है . रहा ईश्वर की रक्षा का प्रश्न वो हम आपसे अधिक बलवान है . उसे न तो तलवार की ज़रुरत है न जेहाद की न उसके पास कोई स्वर्ग हैं न अप्सराएं जिनके भोग की लालसा खून बहा रहे हो ..... बिना जेहाद के ब्रह्म से मिलो आस्था की सीढ़ियों के ज़रिये चढो वो सहज उठा लेगा जैन मतावलंबीयों की मान्यता से सहमत होना ही होगा कि – “ब्रह्म से मिलना है तो निर्विकार वीतरागी भाव से मिलो हिंसक को ब्रह्म कभी न मिला है न मिलेगा ”           
जब बिना हिंसा के आप प्रभू से मिल सकते हो तो हिंसा क्यों ? 

बुधवार, जून 24, 2015

मत पालो किसी में ज़रा सा भी ज्वालामुखी

मैं अपराजित हूँ 
वेदनाओं से 
चेहरे पर चमक 
लब पर मुस्कान 
अश्रु सागर शुष्क
 नयन मौन  
पीढ़ा जो नित्याभ्यास है 
पीढ़ा जो मेरा विश्वास है . 
जागता हूँ 
सोता हूँ 
किन्तु
खुद में नहीं 
खोता हूँ !
इस कारण 
मैं अपराजित हूँ 
जीता हूँ जिस्म की अधूरी 
संरचना के साथ 
जीतीं हैं कई 
स्पर्धाएं और प्रतिघात 
विस्मित हो मुझे क्यों देखते हो ?
तुम क्या जानो 
जब ज्वालामुखी सुप्त है 
लेलो मेरी परीक्षा ...!
याद रखो जब वो फटता है तो 
.......... जला देता है जड़ चेतन सभी को 
मत पालो किसी में ज़रा सा भी ज्वालामुखी 
   

सोमवार, जून 22, 2015

मुझे चट्टानी साधना करने दो

 रेवा तुम ने जब भी
तट सजाए होंगे अपने
तब से नैष्ठिक ब्रह्मचारिणी चट्टाने मौन हैं
कुछ भी नहीं बोलतीं
हम रोज़ दिन दूना राज चौगुना बोलतें हैं
अपनों की गिरह गाँठ खोलते हैं !
पर तुम्हारा सौन्दर्य बढातीं
ये चट्टानें
  हाँ रेवा माँ                                          
ये चट्टानें  बोलतीं नहीं
कुछ भी कभी भी कहीं भी
बोलें भी क्यों ...!
कोई सुनाता है क्या ?
दृढ़ता अक्सर मौन रहती है
मौन जो हमेशा समझाता है
कभी उकसाता नहीं
मैंने सीखा आज
संग-ए-मरमर की वादियों में
इन्ही मौन चट्टानों से ... "मौन"
देखिये कब तक रह पाऊंगा "मौन"
इसे चुप्पी साधने का
आरोप मत देना मित्र
मुझे चट्टानी साधना करने दो
खुद को खुद से संवारने दो !!

 

Ad

यह ब्लॉग खोजें

मिसफिट : हिंदी के श्रेष्ठ ब्लॉगस में