रीता विश्वकर्मा लेखिका |
शौचालय जैसी बुनियादी सुविधा की कमी के
कारण लोगों को खुले में शौच जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। निश्चय ही यह देश और
समाज के लिए एक बड़ी समस्या है। 2011 की जनगणना के मुताबिक देश
भर में 53 प्रतिशत घरों में आज भी शौचालय नही है। ग्रामीण
इलाकों के 69.3 प्रतिशत घरों में शौचालय
नही है। महात्मा गांधी शैाचालय को सामाजिक बदलाव के रूप में देखते थे। गांधी जी ने
हमेशा स्वच्छता पर जोर दिया उनका कहना था कि स्वच्छता स्वतन्त्रता से ज्यादा जरूरी
है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी साफ सफाई को लेकर स्वच्छ भारत अभियान पर काफी जोर देते
रहे है। सरकार का ऐलान इस दिशा में एक सार्थक कदम माना जा रहा है।
गांधी जी को एक प्रेरणा मानते हुए गत् 2 अक्टूबर 2014 से स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया गया। ढलती शाम और घूंघट से मुँह ढके
बहू-बेटियाँ गांव से दूर खेतों की तरफ जाती हुई जब दिखती हैं तो हर संवेदनशील
व्यक्ति का सिर शर्म से झुक जाता है। तमाम लड़कियाँ और महिलाएँ शौच जाने के लिए
सांझ गहराने का इंतजार करती है, ताकि शौच के लिए जा सके।
यही नहीं सुबह होने से पहले और शाम ढलने के बाद ही ये अंधेरे जंगल में शौच के लिए
जा सकती हैं। यह स्थिति सिर्फ गावों की ही नही बल्कि शहर की छोटी व गरीब बस्तियों
की भी है जहाँ महिलाओं को शौच से निवृत्त होने के लिए सुनसान जगह एवं अंधेरे का
इन्तजार करना पड़ता है। पुरूषों को रेल की पटरियो, नदी-नालों, झाडियों तक भटकना पड़ता है।
आकडों के अनुसार आबादी के तकरीबन 68 साल बाद आज भी भारत में 62 करोड़ लोग यानी लगभग आधी आबादी खुले में शौच के लिए जाती है खासकर महिलाओं बच्चियों द्वारा खुले में शौच करने की मजबूरी हमारे लिए बेहद शर्मदिंगी की बात है। तमाम प्रयासों के बावजुद भारत में आज भी 12 करोड़ शौचालयों की कमी है हालांकि निराशा के इस आलम में एक राहत की बात है कि शौचालय बनाना सरकार की अब सर्वोच्च प्राथमिकता बन गई है।
आकडों के अनुसार आबादी के तकरीबन 68 साल बाद आज भी भारत में 62 करोड़ लोग यानी लगभग आधी आबादी खुले में शौच के लिए जाती है खासकर महिलाओं बच्चियों द्वारा खुले में शौच करने की मजबूरी हमारे लिए बेहद शर्मदिंगी की बात है। तमाम प्रयासों के बावजुद भारत में आज भी 12 करोड़ शौचालयों की कमी है हालांकि निराशा के इस आलम में एक राहत की बात है कि शौचालय बनाना सरकार की अब सर्वोच्च प्राथमिकता बन गई है।
आँकड़े जो भी दर्शायें, परन्तु शौचालय के बारे मे गाँव-देहात ही नहीं शहरी
क्षेत्ऱ भी काफी पीछे है। नगर पंचायतों/पालिकाओं में सर्वेक्षण किया जाये तो यह
सुस्पष्ट हो जायेगा कि शौचालयो के निमार्ण को लेकर नब्बे प्रतिशत से अधिक परिवारों
के लोगों को कोई फिक्र ही नहीं है। ठीक इसी तरह के हालात ग्रामीण क्षे़त्रों की
है। वहां तो सोच ही नहीं है, तब शौचालय किस तरह निर्मित
होंगे।
इन परिवारों के लोग डीण्टीण्एचण् पर
दूरदर्शन के कार्यक्रम देखेंगे। खास तौर पर विद्याबालन ब्राण्ड अम्बैस्डर वाला
विज्ञापन-जहाँ सोच वहाँ शौचालय के डायलाग जुबान पर रहेंगे, लेकिन मजाल क्या कि इस पर अमल करें। एक से पूँछा तो
गांव वालों ने कहा कि यह देहात है, अब भी नदी-नालों के किनारे, खेतों की मेड़ की आड़ तथा
बाग-बगीचों की खुली हवा मे शौच करना हमारे यहाँ की पुरानी परम्परा है। शौचालय मे
घुटन होती है। रही बात सरकारी इमदाद की तो उसका सदुपयोग कर लिया गया है। गाँव के
सरपंच और ग्रामीणों ने मिलकर शौचालय निर्माण में मिलने वाले सरकारी अनुदान का लाभ
ले लिया है। गाँव शौचालयों से संतृप्त है, जिसे सरकारी अभिलेखों में भी देखा जा सकता है।
कहना पड़ा पुरानी परम्परा, सरकारी अनुदान......आदि का सदुपयोग तो ठीक है लेकिन
जरा सोंचो जब सब कुछ पुराने ढर्रे पर ही चलेगा तब 21वीं सदी का नारा स्वच्छता-सफाई आदि को लेकर सरकार का अभियान
कितना सफल होगा। इसके अलावा खुले में शौच जाना महिला-पुरूष दोनोें के लिए शर्म की
बात तो है, साथ ही इससे होने वाली
बीमारियों के प्रति वह लोग क्यों नहीं सोचते। किसी ने कहा शौचालय अनुदान लेने
वालों ने उस पैसे की दारू हलक से उतारकर सोचने-समझने की क्षमता खो दिया है। यही
नहीं गाँव के सरपंच से मिलकर ये लोग तो मनरेगा का पैसा भी दारू में खर्च कर देते
हैं। रही बात सोच की तो इन्हें क्या पड़ी है कि बहू-बेटियाँ खुले में शौच करें या
फिर उनके साथ बहुत कुछ ऐसा-वैसा (अप्रिय एवं दुःखद अश्लील) हो जिसका बयान जुबान
द्वारा नहीं किया जा सकता।
कस्बों/शहरों व बस्तियों के भी हालत कुछ
इसी तरह के हैं। यहाँ परिवारों के पुरूष मुखिया ‘दारूबाज’ होने की वजह से सब पैसा नशा
करने में ही खर्च कर देते हैं। घर की बहू-बेटियाँ क्या कर रही हैं और क्या करना
चाहिए उन्हें इससे कुछ भी लेना-देना नहीं। शाम होते ही ये पुरूष घर की दिहाड़ी
कामकाजी महिलाओं से पैसे मांगकर ‘नशा’ करते है। पैसा न दे पाने की स्थिति में ये पुरूष अपनी
बहू-बेटियों को गालियों से अलंकृत करने के साथ-साथ उनका दैहिक उत्पीड़न करते हैं।
शौचालय की बात तो दूर इन नशेड़ियों को शर्म नहीं आती कि उनके परिवार की महिलाएँ शौच
के लिए कस्बाई आबादी के ऐसे स्थानों पर जाती हैं, जहाँ पहले से ही दरिन्दों, वहशियों एवं कामलोलुप की टोलियाँ उनके साथ जबरिया ‘मुँह काला’ करने की फिराक में रहती हैं। और ऐसा होता भी है, जो प्रायः मीडिया की सुर्खियों में रहता है। फिर भी ‘शौचालय’ निर्माण के प्रति जागरूक नहीं हो रहे हैं। गाँव, देहात शहर और कस्बों के 90 प्रतिशत इलाकों में हालात एक जैसे हैं। कारण क्या हो सकता
है? परिवार के पुरूष/महिला मुखिया में शिक्षा का अभाव, आर्थिक तंगी, नशाखोरी, बेरोजगारी, निठल्ला एवं निकम्मापन.....? हालांकि कई नगर पंचायतों, नगर पालिकाओं में कुछ संगठनों द्वारा सार्वजनिक
शौचालयों का निर्माण कराया गया है, लेकिन इनका उपयोग बाहरी यात्री, स्थानीय दुकानदार, व्यवसाई एवं पैसे वाले लोग
ही करते हैं।
होना क्या चाहिए- खुले में शौच जाने की
प्रथा का अन्त यदि जन जागरण से न समाप्त हो, तब कानून बनाकर उल्लघंन करने वालों को दण्डित किया जाए। इस तरह होने से 50 प्रतिशत से अधिक सेक्स क्राइम पर तात्कालिक प्रभाव से
अंकुश लग जाएगा। जहाँ बहू-बेटियों की इज्जत सही-सलामत रहेगी वहीं स्वच्छ वातावरण
होने की वजह से संक्रामक बीमारियों के फैलने की सम्भावना भी कम हो जाएगी। ‘शौचालय’ निर्माण न कराने वालों पर अर्थदण्ड लगाए जाने का प्रावधान हो, साथ ही सरकारी अनुदान राशि बढ़ाए जाने की भी जरूरत है, क्योंकि महँगाई की वजह से भी शौचालय के निर्माण में
बाधाएँ आ रही हैं। मेरा अपना मानना है कि बगैर सख्त काननू के देश के अशिक्षित समाज
में भय नहीं होगा और न ही सरकार का कोई ऐसा अभियान जिसमें सर्व समाज का हित निहित
हो सफल ही हो सकता है।