पूरे शहर को मेरी कमियाँ गिना के आ
जितना भी मुझसे बैर हो, दूना निभा के आ ।
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कब से खड़ा हूं
ज़ख्मी-ज़िगर हाथ में लिये
सब आए तू न आया , मुलाक़ात के लिये !
तेरे दिये ज़ख्मों को
तेरा ईंतज़ार है –
वो हैं हरे तुझसे
सवालत के लिये !!
चल दुश्मनी का ही सही रिश्ता निभा ने आ
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रंगरेज हूँ हर रंग की तासीर से वाकिफ
जो लाता है दुआऐं मैं हूँ वही काज़िद ।
शफ़्फ़ाक हुआ करतीं हैं झुकी डालियाँ मिलके
इक तू ही मेरी हकीकत न वाकिफ .
आ मेरी तासीर को आज़माने आ .
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