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सोमवार, सितंबर 15, 2014

आभार ए बी पी न्यूज़ : हिंदी ब्लागिंग को पहचानने के लिये किंतु सवाल शेष रह गये


                       हिंदी भाषा  को लेकर ए बी पी न्यूज़ पर आज़ एक उत्सव का आयोजन बेशक चिंतन को दिशा दे गया. चिंतन में  पहला सवाल हिंदी के उत्सव के मनाने न मनाने को लेकर विमर्श में सबने कहा कि -" हिंदी के लिये उत्सव मनाना चाहिये हिंदी विपन्न नहीं हुई है संवाहकों संवादकर्ताओं की विफ़लता है."


मेरी मान्यता इससे ज़रा सी अलग है हिन्दी जब तक रोटी की भाषा न बनेगी तब तक मैं सोचता हूं  हिन्दी दिवस हिन्दी सप्ताह हिन्दी पखवाड़े हिन्दी माह के बेमानी है. ये अलग बात है कि हमारे प्रधान सेवक हिंदी में अपनी बात रख रहे हैं. फ़िर भी मैं हिंदी उत्सव तब मनाऊंगा   जबकि  हिंदी विकीपीडिया वाले हिन्दी के सन्दर्भों जब तक टांग अड़ाना बंद करेंगेदेश के वकील हिंदी में  रिट पिटीशन और डाक्टर नुस्खे हिन्दी  में लिखेंगे तथा कर्ज़ के लिये आवेदन हिंदी में भरवाए जाएंगे हां तब तक  कम से कम मैं तो उत्सव न मनाऊंगा. यहां स्पष्ट करना चाहता हूं कि मैं भारतीय भाषाओं के महत्व के लिये उतना ही उत्तेजित हूं जितना कि हिंदी के लिये. 

                    भाषा की समृद्धि का आधार  है भाषा और  रोटी का समीकरण . भाषा यदि रोटी से जुड़ी हो तो उसका प्रवाह सहज होता है .
ए.बी.पी. न्यूज़ पर हुई  बहस में  बाज़ार के सवाल पर  नीलेश मिश्र एवम कुमार विश्वास से सहमत हूं  कि बाज़ार की वज़ह से अगर हिंदी आम बोल चाल की भाषा बनी रहती है तो अच्छा ही है.  यद्यपि मुझे हिंदी को  ज्ञान की भाषा न बनाने के विदेशी भाषा के दबाव पर चर्चा की कमी खली । ए बी पी न्यूज़ पर  सुधीश पचौरी इस बिंदू के नज़दीक आते नज़र आए परंतु फ़टफ़टिया चैनल्स के पास समयाभाव होता है. जिसकी वज़ह से शायद किसी भी प्रतिभागी ने  क़ानून , चिकित्सा, अर्थ-विज्ञान , समाज अथवा अन्य विषयों से  हिंदी के बढ़ते  अंतराल पर कोई चर्चा नहीं की ?  

 ए बी पी न्यूज़ ने  अपने वादे के मुताबिक हिंदी को सम्मानित दर्ज़ा दिलाने की  दिलाने की निरंतर कोशिश करने वाले ब्लॉगर्स यानी चिट्ठाकारों को सम्मानित करने के लिए ए  बी पी न्यूज़ का हिंदी के सभी चिट्ठाकारों स्वागत किया.  सम्मानित हुए अन्य ब्लॉगरों में दिल्ली की रचना (महिलाओं के मुद्दों पर लेखन), दिल्ली के पंकज चतुर्वेदी (पर्यावरण विषयपर लेखन इन्डिया वाटर पोर्टल), दिल्ली के मुकेश ‍तिवारी (राजनीतिक मुद्दों पर लेखन),  दिल्ली के प्रभात रंजन (हिन्दी साहित्य और समाज पर लेखन)  अलवर के शशांक द्विवेदी (विज्ञान के विषय पर लेखन),  मुंबई के अजय ब्रम्हात्जम (सिनेमा, लाइफ़ स्टाइल पर लेखन), इंदौर के प्रकाश हिंदुस्तानी (समसामायिक विषयों पर ब्लॉग), फ़तेहपुर के प्रवीण त्रिवेदी (स्कूली शिक्षा और बच्चों के मुद्दों पर ब्लॉग) और लंदन की शिखा वार्ष्णेय (महिला और घरेलू विषयों पर लेखन) शामिल हैं.

बुधवार, सितंबर 10, 2014

मर्मस्पर्श (कहानी)

       "गुमाश्ता जी क्या हुआ भाई बड़े खुश नज़र आ रहे हो.. अर्र ये काज़ू कतली.. वाह क्या बात है.. मज़ा आ गया... किस खुशी में भाई..?"
        "तिवारी जी, बेटा टी सी एस में स्लेक्ट हो गया था. आज  उसे दो बरस के लिये यू. के. जाना है... !" लो आप एक और लो तिवारी जी.. 
       तिवारी जी काज़ू कतली लेकर अपनी कुर्सी पर विराज गये. और नक़ली मुस्कान बधाईयां देते हुए.. अका़रण ही फ़ाइल में व्यस्त हो गए. सदमा सा लगता जब किसी की औलाद तरक़्की पाती, ऐसा नहीं कि तिवारी जी में किसी के लिये ईर्षा जैसा कोई भाव है.. बल्कि ऐसी घटनाओं की सूचना उनको सीधे अपने बेटे से जोड़ देतीं हैं. तीन बेटियों के बाद जन्मा बेटा.. बड़ी मिन्नतों-मानताओं के बाद प्रसूता... बेटियां एक एक कर कौटोम्बिक परिपाटी के चलते ब्याह दीं गईं. बचा नामुराद शानू.. उर्फ़ पंडित संजय कुमार तिवारी आत्मज़ प्रद्युम्न कुमार तिवारी. दिन भर घर में बैठा-बैठा किताबों में डूबा रहता . पर क्लर्की की परीक्षा भी पास न कर पाया. न रेल्वे की, न बैंक की. प्रायवेट कम्पनी कारखाने में जाब लायक न था. बाहर शुद्ध हिंदी घर में बुंदेली बोलने वाले लड़का मिसफ़िट सा बन के रह गया. किराना परचून की दुक़ान पर काम करने वाले लड़कों से ज़्यादा उसकी योग्यता का आंकलन न तो तिवारी जी ने किया न ही दुनियां का कोई भी कर सकता है. शुद्ध हिंदी ब्रांड युवक था जो उसकी सबसे बड़ी अयोग्यता मानी जाने लगी. तिवारी जी एक दिन बोल पड़े- संजय, तुम्हारे जैसो नालायक दुनियां में दिन में टार्च जला खैं ढूढो तो न मिलहै. देख गुमाश्ता, शर्मा, अली सबके मौड़ा बड़ी बड़ी कम्पनी मैं चिपक गए और तैं हमाई छाती पै सांप सरीखो लोट रओ है. आज लौं. सुनत हो शानू की बाई.. हमाई किस्मत तो लुघरा घांईं या हो गई.. मोरी पेंशन खा..है और  हम हैं सुई ..
भीख मांग है.. पंडत की औलाद जो ठहरो. एम ए पास कर लओ मनौं कछु काबिल नै बन पाओ जो मौड़ा
                                             शानू की मां बुदबुदाई.. "को जानै का का गदत बक़त रहत हैं.मना करो हतो कै सिरकारी स्कूल में न डालो नै माने कहत हते सरकारी अदमी हौं उतई पढ़ै हों.. लो आ गयो न रिज़ल्ट..अब न बे मास्साब रए न स्कूल.. अब भोगो एम ए पास मौड़ा इतै-उतै कोसिस भी करत है तो अंग्रेजी से हार जाउत है."
      अब तुम कछू कहो न.. बाम्हन को मौड़ा है.. कछु कर लै हे.. मंदिर खुलवा दैयो..
"तैं सुई अच्छी बात कर रई है. मंदर खुलावा हौं.. मंदर कौनऊ दुकान या 
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                         धीरे धीरे सब तिवारी दम्पत्ति के जीवन में तनाव   कढ़वे करेले की मानिंद घुलने लगा. पीढ़ा तब और तेज़ी से उभर आती जब कि गुमाश्ता जी टाइप का कोई व्यक्ति अपनी औलाद की तरक़्क़ी की काज़ू-कतली खिलाता. शानू का नाकारा साबित होना निरंतर जारी है. उधर एक दिन तिवारी जी को दिल की बीमारी से घेर लिया. काजू-कतलियां.. रोग का प्रमुख कारण साबित हो रहीं थीं.. अब तो प्रद्युम्न तिवारी को काज़ू-कतली से उतनी ही  घृणा होने लगी  थी जितना कि चुनाव के समय उम्मीदवारों को आपस में घृणा हो जाती है. 
                     शाम घर लौटेते तिवारी जी के पांव तले शानू गिरा पैरों को धोक देते हुए बोला- पिताजी, मैंने शिक्षा कर्मी की परीक्षा पास कर ली. अब व्यक्तिगत -साक्षात्कार शेष है. शुद्ध हिंदी बोलने वाले विप्र पुत्र को विप्र ने हृदय से लगा लिया. आंखें भीग गईं. सिसकते सुबक़ते बोले - जा, काज़ू कतली ले आ कल सुबह आफ़िस ले जाऊंगा..
सानू- पिताजी, अभी नहीं,  व्यक्तिगत -साक्षात्कार के बाद परिणाम आ जाए. तिवारी जी ने सहमति स्वरूप सहमति वाली मुंडी मटका दी.
                घटना ने परिवार को उत्साह से सराबोर कर दिया . बहनों-बेटियों नातेदारों को फ़ोन करकर के सूचित किया तिवारी जी को लगा कि उनको दुनिया भर की खुशियां मिल गईं. 
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     आज़ का दौर खुशियों और कपूर के लिये अनूकूल नहीं. हौले हौले पर्सनल इंटरव्यू का दिन आया . अब तक पराजित हुए शानू ने पूछा - पिताजी, यदि आज़ मैं न चुना गया तो.. ?
पिता ने कहा -बेटा, शुभ शुभ बोलो, तुम पक्का सलेक्ट होगे. 
शानू ने कहा- पर   मान लीजिये न हो पाया तो .......
 तो .. तो ठीक है.. घर मत आना.. आना तब जब बारोज़गार हो.. हा हा.. अरे बेटा कैसी बात करते हो.. 
            "घर मत आना" संजय के मर्म पर चिपका हुआ द्रव्य सा था... जो बार बार युवा नसों में बह रहे लहू में ज़रा ज़रा सा घुलता.. और संजय उर्फ़ शानू के ज़ेहन को जब जब भी चोट करता तब तब  संजय सिहर उठता .. शाम को जनपद पंचायत के दफ़्तर में लगी लिस्ट में अपना नाम न पाकर .. संजय ने जेब टटोला जेब में एक हज़ार रुपए थे जो काफ़ी थे जनरल डिब्बे की टिकट और रास्ते में रोटी खरीदने के लिये. घर न पहुंच संजय   गाड़ी में जा बैठा.   गाड़ी की दिशा उसे मालूम थी वो जान चुका था कि वो दिल्ली सुबह दस ग्यारह बजे पहुंच जाएगा. वहां क्या करना है इस बात से अनभिग्य था. 
                                     और इस तरह  शाम संजय कुमार तिवारी के घर वापस न आने से तय हो गया  
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          अल्ल सुबह रेल हबीबगंज रेल्वे स्टेशन पर जा रुकी. टिकट तो इंदौर तक का था पर संजय ने सोचा कि पहले यहीं रुका जाए. फ़िर अगर भाग्य ने सहयोग न किया तो आगे चलेंगे. स्टेशन के बाहर उतरकर शानू ने दो कप चाय पीकर सुबह का स्वागत किया . संकल्प ये था कि कोशिश करूंगा शाम तक कोई मज़दूरी वाला काम मिले तब कुछ खाऊं . दिन भर मशक्क़त के बाद भी काम न मिला तो शाम एक चादर खरीद लाया बस स्टेशन पर  सो गया. उसकी जेब के एक हज़ार रुपये खर्च के ताप से घुल के अब सिर्फ़ तीन सौ हो चुके थे. सामने पराठे वाले से एक परांठा खरीदा. खाया और स्टेशन पर सो गया. शक्लो-सूरत से सभ्य सुसंस्कृत दिखने की वज़ह से जी आर पी वाले ने तलाशी के वक़्त उससे कोई पूछताछ न की. एक ऊंचा-पूरा युवा तेज़स्वी चेहरा लिये सुबह उठा और फ़िर गांव की आदत के मुताबिक निकल पड़ा सुबह की सैर को.
            तय ये किया कि रोटी का इंतज़ाम किया जाए. चाहे मज़दूरी क्यों न करनी पड़े . सैर करते कराते  शक्तिनगर वाले मंदिर के पास पहुंचते ही देव दर्शन की आकांक्षा जोर मारने लगी. आदत के मुताबिक विप्र पुत्र ने शिव के सामने जाकर सस्वर शिव महिम्न स्त्रोत का पाठ किया. उसके पीछे भीड़ खड़ी हो गई. भीड़ में बुज़ुर्गों की संख्या अधिक थी. लाफ़िंग-क्लब के सदस्य सदाचारी युवक को अवाक देख रहे थे. एक बोला-पंडिज्जी, किस फ़्लेट में आएं हैं..?
“हा हा, फ़्लेट, न दादा जी न.. शहर मे आज़ ही आया हूं. मज़दूरी के लिये..”
मज़दूरी......?
जी हां मज़दूरी....... ! और क्या हिंदी मीडियम से एम ए पास करने वाला क्या किसी कम्पनी के क़ाबिल होता है.
            बुज़ुर्गों की पारखी आंखों ने उसे पहचान लिया ... लाफ़िंग क्लब की गतिविधि से  लौटने तक रुकने का कह के सारे बुजुर्ग मंदिर परिसर में खाली मैदान जैसे हिस्से में हंसने का अभ्यास करने लगे. शानू खड़ा खड़ा वहीं से उनकी गतिविधियां देख रहा था. कुछ  बुज़ुर्गों के पोपले  चेहरे  उसे गुदगुदा रहे थे.
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बेकार नाकारा किंतु जीवट शानू अपनी जगह बनाने के गुंताड़े में कस्बे से पलायन तो कर आया पर केवल मज़दूर बनने से ज़्यादा योग्यता उसे अपने आप में महसूस नहीं कर पा रहा था. छलनी हृदय में केवल जीत की लालसा पता नहीं कैसे बची थी . शायद संघर्ष के संस्कार ही वज़ह हों.. सोच मंदिर से जाने के लिये बाहर निकल ही रहा था कि- सारे बूढ़े बुज़ुर्ग उसके  क़रीब आ गये. सबने उसे रोका और मंदिर में पूजा और देखभाल की ज़िम्मेदारी सम्हालने की पेशक़श कर डाली.. 
क्रमश: अगले अंक तक ज़ारी   

शुक्रवार, सितंबर 05, 2014

चैनल V के दिल दोस्ती डांस में नवोदित सितारा : आशुतोष बिल्लोरे


 खरगौन जिले के भीकनगांव कस्बे में बतौर  पंडित राजेंद्र बिल्लोरे अपने बेटे को किसी ऐसे अच्छे प्रोफ़ेशन में डालना चाहते थे जिससे बेटे को आर्थिक-समृद्धि एवम  सामाजिक तौर पर  प्रतिष्ठा दे सके. सामान्यरूप से ऐसा मंज़र आम मध्य-वर्ग परिवारों में होता है. किंतु  पिता माता ने आशुतोष की कला को सर्वोपरि रखा और 11वीं के बाद कला-साधना को साधन और अवसर देने के लिये इंदौर जाने की अनुमति दे दी. जहां उन्हैं बी.काम. की पढ़ाई के साथ साथ पर्फ़ार्मिंग कला के विस्तार के अवसर मिले. मध्य-प्रदेश टेलेंट शो, मलवा कला अकादमी, डांस इंडौर डांस, आइ.आइ.एम इन्दौर, डांश का महा संग्राम जैसी प्रतियोगिताओं में बेहद प्रसंशा एवम अव्वल स्थान अर्जित किये. इंदौर में ही जावेद जाफ़री, गीता कपूर, धर्मेष  कुंवर अमर, जैसी हस्तियों ने आशुतोष की कला साधना को सराहा और सतत साधना जारी रखने की सलाह दी.
        आशुतोष ने भारतीय और विदेशी शैली में नृत्य एवं अभिनय को अपनाया. पर अपने जन्म भूमि भीकनगांव में कला-साधकों के लिये लगातार कई शार्ट-टर्म-कोर्स, वर्कशाप आयोजित कीं.
        भीकनगांव के स्कूल शिक्षक का बेटा जब मायानगरी गया तब उसके साथ संकल्प थे , संघर्ष था और थी आत्मविश्वास की पोटली. “दिल दोस्ती डांस” के आडिशन में उसे स्किल्ड कलाकार के रूप में देखा और तुरंत  आफ़र कर दिया. अब तक आशुतोष बिल्लोरे के चैनल v पर छै से अधिक एपीसोड टेलिकास्ट हो चुके और शूटिंग जारी हैं.
आशुतोष का मानना है- “अभी आगे और भी आसमान हैं.. संघर्ष और साधना” से ही उन तक पहुंचा जा सकता है.
जबलपुर से जुड़ाव है आशुतोष का
आशुतोष जबलपुर से जुड़े हैं. उनके मामा श्री विकास टेमले एवम मेरे परिवार से करीबी रिश्ता रखने वाली इस प्रतिभा ने जबलपुर में अपने प्रतिभा-प्रदर्शन का आश्वाशन दिया है.
               आशुतोष का संकल्प है कि वे कोरियोग्राफ़ी को करियर के रूप में आगे अपनाएंगे.


बुधवार, सितंबर 03, 2014

अदभुत सोचते हैं पी नरहरि जी

नित नया करना सहज़ है लेकिन नित नया सोचना वो भी आम आदमी की मुश्किलों से बाबस्ता मुद्दों पर और फ़िर रास्ता निकाल लेना सबके बस में कहां. जितना मानसिक दबाव कलेक्टर्स पर होता है शायद आम आदमी उसका अंदाज़ा सहज नहीं लगा पाते होंगें. ऐसे में क्रियेटिविटी को बचाए रखना बहुत मुश्किल हो जाता है. किंतु कुछ सख्त जान लोग ऐसे भी हैं जो दबाव को अपनी क्रिएटिविटी के आधिक्य से मानसिक दबाव को शून्यप्राय: कर देने में सक्षम साबित हो जाते हैं.
इनमें से कुछेक नहीं लम्बी फ़ेहरिस्त है.. मेरे ज़ेहन में इस क्रम में आई ए. एस. श्री पी. नरहरी की क्रियेटिविटि का प्रमाण प्रस्तुत है.


       

शनिवार, अगस्त 30, 2014

आदर्श आंगनवाड़ी केंद्र शाहपुर : प्रयासों की सफ़लता की झलक नज़र आ रही है..

आयुक्त श्री दीपक खाण्डेकर को आदर्श केंद्र
में जाकर हार्दिक प्रसन्नता हुई 
  माडल आंगनवाड़ी केंद्र डिंडोरी की गतिविधियों के अवलोकन के लिये 28.08.14 को जबलपुर से  कमिश्नर श्री दीपक खांडेकर ने डिंडोरी  कलेक्टर श्रीमति छवि भारद्वाज़ की क्रियेटिविटी का अवलोकन किया तो यकायक बोल उठे- "बड़ी तारीफ़ सुनी थी.. वैसा ही आदर्श केंद्र है. " उनके इस कथन ने हम सबको और अधिक उत्साहित कर दिया है. इस उच्च स्तरीय भ्रमण दल में श्री कर्मवीर शर्मा मुख्य कार्यपालन अधिकारी जिला पंचायत डिंडोरी, एवम अन्य विभागों के अधिकारी भी थे.. आइये जानें क्यों मोहित हुए श्री खांडेकर ...  


                       एक बरस पहले जब आदिवासी बाहुल्य जिला डिंडोरी का गांव शाहपुर की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता कुमारी रेनु शर्मा और उनकी सहायिका श्रीमति राधा नामदेव सहित सभी स्थानीय बाल विकास कार्यक्रम से जुडीं कार्यकर्ताओं से मैंने अनुरोध किया कि केंद्रों पर प्री-स्कूल गतिविधियां सुचारू रूप से संपादित कराईं जावें  ताक़ि बच्चों की केंद्रों से उपस्थिति कम न हो तो सभी आंगनवाड़ी कर्मी को रास्ता न सूझ रहा था. सभी  बेहद तनाव में थीं कि कैसे सम्भव होगा.. बच्चों को केंद्र में लम्बी अवधि तक बैठाए रखना .. बिना किसी संसाधन भी तो चाहिये.. सभी की सोच एकदम सही थी . मुझे भी इस बात का एहसास तो था कि  बच्चे एक अनोखी और रंगीन दुनियां के साथ बचपन जीना चाहते हैं.  मध्यम उच्च आय वर्गों के बच्चे प्ले ग्रुप में, घर में, संसाधनों एवम सुविधाओं से लैस होकर अपने-अपने बचपन में रंग भर पाते हैं. पर जहां अभाव है .. वहां ..?
वहां कुछ नवाचार ज़रूरी होता है. सीमित साधनों में की गईं असीमित कोशिशें कहीं कहीं असफ़ल भी हो जातीं हैं.  हमने आंगनवाड़ी कार्यकर्ता कुमारी रेनु शर्मा और उनकी सहायिका श्रीमति राधा नामदेव को बताया कि- एकीकृत विकास कार्यक्रम यानी IAP के तहत एक आंगनवाड़ी केंद्र लगभग बन ही गया है. अब इस केंद्र को आप वहां शिफ़्ट करेंगी . हमने सरपंच श्री लोकसिंह परस्ते जी से सम्पर्क कर  काम शीघ्र कराने का अनुरोध भी किया. सरपंच जी ने आश्वस्त किया कि वे नया  साल आने से पहले ही आंगनवाड़ी केंद्र भवन पूर्ण कर देंगे. वचन के पक्के सरपंच श्री लोकसिंह परस्ते जी ने 1 जनवरी 2014 केंद्र भवन का निर्माण कार्य पूरा करवा कर उसमें आंगनवाड़ी केंद्र संचालन शुरू करवा दिया.
अब बारी थी आंगनवाड़ी कार्यकर्ता- सहायिका की कि वे केंद्र में बच्चों की अधिकाधिक उपस्थिति सुनिश्चित करें. जो आसन न था. गीत कहानियां सुना सुनाकर बच्चों को बांध तो सकते हैं पर उससे जिग्यासा तृप्त नहीं हो सकती थी बच्चों की . बच्चे आते नाश्ता फ़िर प्रथम आहार लेते और घर जाने की ज़िद करते . कुछ तो रो-गाकर घर पहुंचाने की स्थिति खड़ी कर देते. बच्चों को जिन रंगों की तलाश थी शायद वे वहां पा नहीं रहे थे .


इस समस्या को को जब श्रीमति कल्पना तिवारी जिला कार्यक्रम अधिकारी के साथ साझा किया तो उन्हौंने मन में किसी योजना को रोप लिया. यह भी कहा कि कुछ खिलौने जन सहयोग से जुटाओ .कोशिशें कीं गईं किंतु महानगर के लिये यह आसान था हमारे डिंडोरी के लिये  कठिन किंतु आप सब जानतें हैं कि जो कार्य कठिन होते हैं वही तो करने योग्य होते हैं. कलेक्टर श्रीमति छवि भारद्वाज़ के सामने जब ये बात साझा हुई तो “बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिये कलेक्टर श्रीमति छवि भारद्वाज़ ने बढ़ाए   कद़म : रचनात्मक सोच के साथउन्हौनें राह आसान कर दी  एकीकृत विकास कार्यक्रम यानी IAP से संसाधनों वित्तीय सहायता मुहैया कराने का आश्वासन दिया आंगनवाड़ी केंद्र क्र. 3 शाहपुर को आदर्श आंगनवाड़ी केंद्र बनाने की कोशिशें तेज़ हो गईं . 
 एक सप्ताह में हुआ बदलाव !!
श्रीमति तारेश्वरी धुर्वे सेक्टर पर्यवेक्षक ने बताया की सामुदायिक बैठकों में अभिभावक माताओं को इस बात का भरोसा दिलाने में कुछ कठिनाई अवश्य हुई उनके बच्चों के लिये उससे भी अधिक  कुछ जुटाया जा रहा है जो एक स्कूल द्वारा किया जाता है. और फ़िर अगस्त माह के आखिरी सप्ताह के आते ही केंद्र पर रंग-बिरंगे खिलौने भेजे गये. फ़िर क्या था कुल 25 बच्चों में से 22 से 24 की उपस्थिति  होने लगी है. अब तो शिवा भी आने लगा है जिसे आंगनवाड़ी आना सख्त नापसंद था.
 शाला पूर्व अनौपचारिक शिक्षा में प्ले-ग्रुप के बच्चों के लिये ज़रूरी है कि उनको उनके शारीरिक मानसिक विकास के साथ साथ उनके सामाजिक-विकास के बिंदुओं को प्रथक प्रथक रूप से आंकलित किया जाए. इस क्रम में एक प्रबंधक के रूप में हमारे दायित्व है कि



Ø कार्यकारी अमले के साथ हमारा सतत संवाद रहे
Ø कार्यकारी अमले की कठनाईयों का हम मूल्यांकन करें
Ø समुदाय को विश्वास दिलाएं कि हम समुदाय के मित्र हैं और समुदाय के महत्वपूर्ण हिस्से का यानी बच्चों का सर्वांगींण विकास चाहते हैं
Ø हम अपना अनुभव साझा करें

        इस ज़िम्मेदारी के निर्वहन के लिये मैं अपने जिला अधिकारी श्रीमति कल्पना रिछारिया तिवारीएवम अधीनस्त पर्यवेक्षक श्रीमति तारेश्वरी धुर्वे के साथ केंद्र खुलने के साथ ही  दिनांक 28.08.2014 को पूरे दिन के लिये केंद्र पर पहुंचे . आज़ देखा कि अधिकांश अभिभावक माताएं स्वयं ही बच्चों को केंद्र पर ला रहीं हैं. इस परिवर्तन की पतासाजी करने पर पता चला कि  रंग बिरंगे केंद्र भवन में खिलौनों की भरमार, उन्मुक्त-विकास के अवसरों के लिये मौज़ूद संसाधनों ने बच्चों को मोहित कर रखा है. और बच्चे अब स्वयं मां से आंगनवाड़ी केंद्र जल्द पहुंचने की ज़िद्द करने लगे हैं. शिवा जिसे आंगनवाड़ी केंद्र में आना सख्त ना पसंद था अपने दस वर्षीय चाचा करन के साथ आ ही गया.   केंद्र पर बच्चों ने बाहर अपने जूते-चप्पल उतारे . और लम्बे सुर में रेनू.. दीदी नमस्ते कहा . रेनू शर्मा ने मुस्कुराते हुए बच्चों का स्वागत किया. और फ़िर सभी बच्चों को एक घेरे में बैठाकर मुक्त-वार्तालाप शुरु किया. एक ओर नीलम बड़े ध्यान से रेनु दीदी को निहार रही थी. वहीं नव्या की नज़र सायकल पर थी. प्रगति भी तो फ़िसलपट्टी को अपलक निहारने में व्यस्त थी.. कुल मिला कर संवाद खत्म होने की प्रतीक्षा कर रहे थे बच्चे और इस बीच सांझा-चूल्हा से नाश्ता आ गया . सहायिका  श्रीमति राधा नामदेव ने तब तक बाहर हाथ धोने की जुगत संजो दी थी. साथ ही दरी और पोषाहार के खाली बैग्स की बिछायत लगा भी तैयार थी . हाथ धोकर बच्चे एक कतार में अपनी पसंदीदा जगहों पर बैठ गए. सहायिका ने नाश्ता परोसा पर क्या मज़ाल कि कोई बच्चा बिना दीदी के संकेत के खाना शुरु कर दे . बच्चे प्रार्थना के पहले नहीं खाते. ईश्वर को आहार देने के लिये आभार अभिव्यक्त्ति कराई तब कहीं बच्चों ने खाना शुरु किया.  फ़िर लगातार एक घंटे तक बच्चों ने खूब मस्ती की जी भर झूले, जी भर रस्सी कूदी गई.. किसी ने चाक से दीवार पर लम्बी छोटी लक़ीरें खींची.
सेक्टर पर्यवेक्षक श्रीमति तारेश्वरी धुर्वे का बेटा पृथ्वी भी एकदम बच्चों में घुला मिला . तारेश्वरी अपने बेटे पृथ्वी को अक्सर फ़ील्ड भ्रमण के दौरान साथ ही रखतीं हैं. आज़ तो भरपूर उन्मुक्त वातावरण से पृथ्वी को वापस जाना पसंद न था .
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सोमवार, अगस्त 25, 2014

पास उसके न थे-गहने मेरी मां , खुद ही गहना थी !



आज़ पोला-अमावश्या है
 मां सव्यसाची स्वर्गीया प्रमिला देवी का
जन्म दिवस ..................


वही  क्यों कर  सुलगती है   वही  क्यों कर  झुलसती  है ?
रात-दिन काम कर खटती, फ़िर भी नित हुलसती है .
न खुल के रो सके न हंस सके पल --पल पे बंदिश है
हमारे देश की नारी,  लिहाफ़ों में सुबगती  है !

वही तुम हो कि  जिसने नाम उसको आग दे  डाला
वही हम हैं कि  जिनने  उसको हर इक काम दे डाला
सदा शीतल ही रहती है  भीतर से सुलगती वो..!
 कभी पूछो ज़रा खुद से वही क्यों कर झुलसती है.?

मुझे है याद मेरी मां ने मरते दम सम्हाला है.
ये घर,ये द्वार,ये बैठक और ये जो देवाला  है !
छिपाती थी बुखारों को जो मेहमां कोई आ जाए
कभी इक बार सोचा था कि "मां " ही क्यों झुलसती है ?

तपी वो और कुंदन की चमक हम सबको पहना दी
पास उसके न थे-गहने  मेरी मां , खुद ही गहना थी !
तापसी थी मेरी मां ,नेह की सरिता थी वो अविरल
उसी की याद मे अक्सर  मेरी   आंखैं  छलकतीं हैं.

विदा के वक्त बहनों ने पूजी कोख  माता की
छांह आंचल की पाने जन्म लेता विधाता भी
मेरी जननी  तेरा कान्हा तड़पता याद में तेरी
तेरी ही दी हुई धड़कन मेरे दिल में धड़कती है.

आज़ की रात फ़िर जागा  उसी की याद में लोगो-
तुम्हारी मां तुम्हारे साथ  तो  होगी  इधर  सोचो
कहीं उसको जो छोड़ा हो तो वापस घर  में ले आना
वही तेरी ज़मीं है और  उजला सा फ़लक भी है !
         

सोमवार, अगस्त 18, 2014

प्रधान सेवक का इनसाइडर विज़न

   
योजना आयोग के खात्मे के साथ भारत एक नए अध्याय की शुरुआत करेगा . मेरी नज़र से भारतीय अर्थ-व्यवस्था का सबसे विचित्र आकार योजना आयोग था जो समंकों के आधार पर निर्णय ले रहा था. यानी आपका पांव आग में और सर बर्फ़ की सिल्ली पर रखा है तो औसतन आप बेहतर स्थिति में हैं.. योजनाकार देश-काल-परिस्थिति के अनुमापन के बिना योजना को आकृति देते . वस्तुत: आर्थिक विकास की धनात्मक दिशा वास्तविक उत्पादन खपत के बीच होता पूंजी निर्माण है. जो भारत में हो न सका . मेड इन इंडिया  नारे को मज़बूत करते हुए  प्रधान सेवक ने "मेक इन इंडिया " की बात की.. अर्थशास्त्री चकित तो हुए ही होंगे.  विश्व से ये आग्रह कि आओ भारत में बनाओ, भावुक बात नहीं बल्कि भारत के  श्रम को विपरीत परिस्थियों वाले मुल्कों में न भेज कर भारत में ही मुहैया कराने की बात कही. इस वाक्य में   भारत के औद्योगिक विकास को गति देने का बिंदु भी अंतर्निहित है . 
              रेतीले शहर दुबई में लोग जाकर गौरवांवित महसूस करते हैं. तो यू.के. यू. एस. ए. में हमारा युवा  खुद को पाकर आत्ममुग्ध कुछ दिन ही रह पाता है. फ़िर जब मां-बाप के चेहरे की झुर्रियां उनको महसूस करने लगता हैं तो सोचता है कि काश, हम घर जा पाते..? ये तो भावात्मक पहलू है "मेक-इन-इंडिया" का परंतु एक और यथार्थ ये भी है कि प्रधान सेवक के मन में उद्योगों की स्थापना से स्थानीय समुदाय को मिलने वाले रोज़गार की अधिक चिंता है. पंद्रह बरस पहले जब मैं दिल्ली ट्रेनिंग में बचे समय का सदुपयोग करने गुड़गांव गया तब मैने स्वप्न में भी न सोचा था कि वहां के लोग सामान्य नागरिक रोज़गार से जुड़ेंगे. सोच रहा था ... दिल्ली की मानिंद ये हरियाणवी बस्ती क्या विकास करेगी.   पर सायबर सिटी ने तो कमाल ही  कर दिया. वहां अब लोगों को रोज़गार के मौके ही मौके मौज़ूद हैं वहां .          आज़ादी के पहले से ही  श्रम सस्ता था जो धीरे धीरे और अधिक सस्ता होता चला गया. पेट में जाने वाली रोटीमोटा-कपड़ातक बमुश्किल कमाया जा पा रहा है . स्वास्थ्य, शिक्षा, व्यवसायिक रूप लेकर मज़दूर की पहुंच से बाहर हो गई. अब तो काम के अवसर भी निजी हाथों में हैं. यह लक्ष्यहीन बेतरतीब आंदोलनों का दुष्परिणाम है  श्रम के अधिकार में कमी आई श्रम-प्रबंधन विद्वेष इतना बढ़ा कि हमारे उद्योग कमज़ोर होते चले गए. हम विदेशी आपूर्ती के अधीन हो गये आज़ाद भारत में आधारभूत विकास जिसे अधोसंरचनात्मक विकास को प्रमुखता नहीं दी गई. ऐसा नही की घोर उपेक्षा हुई बल्कि प्राथमिकता न मिलना चिंता का विषय रहा. अब अगर लाल किले की प्राचीर से इनसाइडर विज़न ये है कि सब कुछ स्वदेशी हो  अथवा स्वदेश में ही हो तो इसमें कोई बुराई नज़र नहीं आती है .  
प्रधान सेवक ने अपने व्याख्यान में यह भी कहा कि अफ़सर, सही वक़्त पर आफ़िस आते हैं ये कोई खबर नहीं. मीडिया को सतर्क होकर खबर देने का संदेश देते हुए एक लाइन में सनसनाती क़लम को नक़ार दिया. यानी चौथे स्तम्भ को भी विकास के सार्थक प्रयासों के सापेक्ष चलने का आग्रह करना वर्तमान परिवेश में अनिवार्य था.
बेटियों की चिंता, भ्रूण-हत्या, सांसदों से आदर्श-ग्राम का आग्रह भाषण ऐसी विशेषताएं थीं जिससे सामाजिक एवम अधोसंरचनात्मक विकास को दिशा मिलेगी.
प्रधान सेवक का इनसाइडर विज़न भाव, कर्म, परिणाम की प्रथम सूचना दे रहा है. अब बारी है हमारी कि हम कितना सोच रहे हैं.. देश के बारे में विकास के बारे में..



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