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सोमवार, जुलाई 19, 2010

नया एग्रीगेटर: हमारी वाणी

हिन्दी चिट्ठाकारिता के इतिहास में स्मूथ संकलकों की बेहद ज़रूरत है, मैथिली जी के द्वारा अचानक एग्रीगेटर ब्लागवाणी को बन्द कर दिया, उधर चिट्ठाजगत की सहजता से न खुल पाने की मज़बूरी, से ब्लाग जगत की आंतरिक खल बली में तो कुछ बदलाव आया किंतु वास्तव में एक दूसरे से सम्पर्क के सेतु से वंचित हुए ब्लागर ...! इस आपसी सम्पर्क बाधा को समाप्त करने एक नया संकलक ”हमारीवाणी
का आगमन स्वागत योग्य तो है किंतु भय है कि कहीं इसे अधबीच में रुकावटों का सामना न करना पड़े अस्तु यदि इस हेतु कोई शुल्क भी लिया जाए तो मेरी नज़र में कोई ग़लत बात नहीं.   ताकि संकलक के संचालकों को कोई आर्थिक दबाव न झेलना पड़े .... जो भी हो हम तो खुद पंजीकृत इस
वज़ह से भी हो गये कि चलेगा यह संकलक हमारी शुभ कामनाएं संकलक के संचालकों को 
आज तक इसमें शामिल ब्लाग्स

इसमें शायद आपकी चर्चा भी हुई है

मित्रो सादर अभिवादन स्वीकारिये ........... मेरी पठन सूची में यूं तो बहुत से ब्लाग है लेकिन रविवार जिन चिट्ठों के साथ गुज़रा वे ये थे .......... पूरे हफ़्ते की खुराक आज़ एक साथ ले ली मैनें ... परन्तु सच कहूं ईमानदारी से कम ही पढ़ पाया............. सच है कि अधिक लिंक को एक साथ पढ़ना कठिन काम है फ़िर भी आपसे अनुरोध है कि इनको एक बार अवश्य देखिये ............ अपना अभिमत दीजिये लेखक के प्रति आपका स्नेह सच कोई भी कमाल कर देगा.............

रविवार, जुलाई 18, 2010

मन निर्जन प्रदेश

बिना तुम्हारे
मन एक निर्जन
प्रदेश
जहां दूर दूर तक कोई नहीं
बस हमसाया
तुम्हारी यादें और
आवाज़ बस
चलो इसी सहारे
चलता रहूंगा तब तक जब तक कि तुम से
न होगा मिलन
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सोमवार, जुलाई 12, 2010

एक गीत..............बहुत पुराना ...............एकल से युगल ..........एक प्रयोग ... .....

आज ज्यादा कुछ नहीं बस एक गीत ----------------बोल बहुत पसन्द हैं मुझे...................पहले मैने गाया इंदौर मे...........



और फ़िर  रचना ने युगल बनाया नासिक से .(125 बार साथ मे ..प्रयास करके )...............



प्रयोग सफ़ल रहा या नही ये तो आप ही बता पायेंगे--------------------------(ध्यान रहे----- हमने गाना सीखा नही है और कोई तकनिकी ज्ञान भी नहीं है हमें,पर प्रयोग करने में पीछे नहीं हटते)

बुधवार, जुलाई 07, 2010

बाक़ी रह जाती है ।

दिन में सरोवर के तट पर
सांझ ढ्ले पीपल "
सूर्य की सुनहरी धूप में
या रात के भयावह रूप में
गुन गुनाहट पंछी की
मुस्कराहट पंथी की बाकी रह जाती है बाकी रह जाती है ।
हर दिन नया दिन है
हर रात नई रात
मेरे मीट इनमे
दिन की धूमिल स्मृति
रात की अविरल गति
बाकी रह जाती है बाकी रह जाती है
सपने सतरंगी
समर्पण बहुरंगी
जीवन के हर एक क्षण
दर्पण के लघुलम कण
टूट बिखर जाएँ भी
हर कण की "क्षण-स्मृति"
हर क्षण की कण स्मृति
बाकी रह जाती है बाकी रह जाती है


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