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मंगलवार, जुलाई 13, 2021
सोमवार, जुलाई 12, 2021
परिंदे हंसते हैं उस पर...!
एनसीईआरटी को भेजे गए प्रस्ताव
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद द्वारा अपनी वेबसाइट पर अपेक्षित विषयांतर्गत बिंदुओं पर निम्नानुसार बिंदु नवीन पाठ्यक्रम में जोड़े जाने की जरूरत है विषय वार हम क्रमागत रूप से अनुरोध करते हैं कि कृपया समस्त बिंदुओं में हमारी इन सुझावों को यथोचित स्थान देने की कृपा कीजिए
नवीन शिक्षा नीति के तहत अथवा उसके पूर्व निम्नानुसार पाठ्यक्रम परिवर्धन परिवर्तन संवर्धन की अपेक्षा है
1 :- गणित
[ ] जब क्षेत्रीय भाषाओं का अध्ययन भी कराया जाना है ऐसी स्थिति में गणना प्रणाली में कम से कम पांचवी कक्षा तक संस्कृत की गणना प्रणाली को केवल इस उद्देश्य से शामिल किया जाना प्रस्तावित है ताकि विद्यार्थी को संस्कृत के शब्दों को सुनने समझने का अवसर प्राप्त हो ।
[ ] यथासंभव वैदिक गणित को भी स्थान देना प्रस्तावित है
2 : विज्ञान
[ ] सामान्यतः वर्तमान युग को वैज्ञानिक युग माना जाता है। परंतु तकनीकी का विकास भारत के संदर्भ में बहुत पहले हो चुका है। जैसे समय का अनुमापन करना वार्षिक कैलेंडर का निर्माण यह सब नक्षत्र विज्ञान पर आधारित होने के बावजूद बच्चों को इस बात का ज्ञान नहीं होता कि- भारत की नक्षत्र आधारित काल गणना प्रणाली कितनी वैज्ञानिक है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भारतीय नक्षत्र विज्ञान संबंधी तथ्यों को माध्यमिक शिक्षा स्टार्टअप के विद्यार्थियों को बता देना आवश्यक होगा ।
3 :- इतिहास
[ ] भारतीय इतिहास में रामायण महाभारत के कालानुक्रम को समाप्त कर दिया गया है। यह कोई धार्मिक व्यवस्था नहीं थी महाभारत और रामायण काल के पर्याप्त सबूत उपलब्ध है। इस संदर्भ में रामायण एवं महाभारत कालीन विवरणों को स्वीकृति देनी चाहिए।
[ ] भारत का इतिहास मौर्य काल से प्रारंभ नहीं होता है बल्कि उससे पहले रामायण के बाद महाभारत काल के उपरांत महाजनपदों का विवरण प्राचीन इतिहास के रूप में भारतीय आदि ग्रंथों में मौजूद है । इसलिए आवश्यक है कि भारतीय इतिहास को ईशा के 1500 वर्षों तक सीमित ना रखा जाए। पाठ्यक्रम में सिंधु घाटी सभ्यता तथा वैदिक कालीन सरस्वती नदी के विलुप्त होने के इपोक अर्थात समय बिंदु को जो 8000 वर्ष पूर्व का है को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। इस संबंध में कई वैज्ञानिकों ने तथा इतिहासकारों ने बहुत बड़े-बड़े काम किए हैं इनमें एक नाम वेदवीर आर्य का भी है जिनकी किताबों क्रमशः the chronology of India from Manu To Mahabharata, एवम the chronology of India Mahabharat to mediaeval era में नक्षत्र विज्ञान के आधार पर विस्तृत विश्लेषण है। इसके अलावा भी आईआईटी कानपुर एवं कुछ विदेशी विश्वविद्यालयों द्वारा प्राचीन भारतीय इतिहास के संबंध में शोध पत्र तैयार किए गए हैं का विवरण पाठ्यक्रमों में शामिल करना चाहिए।
[ ] वर्तमान में किसी को भी जैन एवं बुद्ध मतों के कालखंड के संबंध में कोई विशेष जानकारी नहीं है अतः इस पर नवीनतम शोध कार्यों को ध्यान में रखते हुए विस्तार से जानकारी प्राथमिक शिक्षा के उपरांत सम्मिलित की जा सकती है ऐसा हम प्रस्तावित करते हैं।
4:-भारतीय वैदिक समाज के संबंध में कोई भी विवरण भारत के विद्यार्थियों तक पहुंचाने का ना तो कोई प्रयास किया गया है और ना ही विवरण पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैं। इस विसंगति को दूर करना भी बहुत आवश्यक है।
[ ] इसके अतिरिक्त इस्लामिक ईसाई कंटेंट को यूनिवर्सिटी ग्रांट कमिशन ने स्वीकारा है परंतु समकालीन भारतीय सामाजिक व्यवस्था पर ना तो ऐतिहासिक कंटेंट उपलब्ध है और ना ही इसका कोई भी सही विवरण इतिहास में सम्मिलित नहीं है। अर्थात 4004 वर्ष पूर्व भारत की सभ्यता को 0 साबित करना सिद्ध होता है। जबकि सिंधु घाटी सभ्यता के अंत की स्थिति अर्थात लगभग 5000 तक के प्रमाण 2019 तक हरियाणा में मिल चुके हैं। सिंधु घाटी सभ्यता आज की से 5000 वर्ष पूर्व चरम पर थी जिसका उदाहरण धोलावीरा के नगर निर्माण अवशेषों से ज्ञात हुए हैं जबकि अभी मात्र 10 से 12% तक के अवशेष चिन्हित किए गए हैं।। अतः यह माना जा सकता है कि सिंधु घाटी सभ्यता वर्तमान समय से 5000 वर्ष समाप्त हुई है। परंतु किसका प्रारंभ निश्चित तौर पर 16000 वर्ष पूर्व हुआ था। इसके प्रमाण में उदाहरण स्वरूप आदरणीय विष्णु श्रीधर वाकणकर जी के कार्यों के माध्यम से समझा जा सकता है।
[ ] वर्तमान शिक्षा प्रणाली में केवल उत्तर भारतीय राज्य व्यवस्था तथा संस्कृति का विवरण दर्ज है वह भी विशेष रूप से मुगलकालीन। जबकि दक्षिण भारत के राज्यों का राजवंशों का उल्लेख या तो नहीं है और यदि है अभी तो संक्षिप्त रूप से। अतः संपूर्ण भारत के इतिहास के विवरण को पाठ्यक्रम में किसी न किसी रूप में शामिल किया जावे ऐसा हम प्रस्तावित करते हैं।
[ ] यहां भारतीय सामाजिक व्यवस्था धार्मिक ना होकर सर्वाधिक सेक्युलर है। दक्षिण भारत में शैव वैष्णव शाक्त, आदि आदि कई संप्रदाय प्रतिष्ठित थे। किंतु उनका समेकन अर्थात एकीकरण आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा किया गया। ऐसे विवरण भी शैक्षिक पाठ्यक्रम में ना होने से भारतीय विद्यार्थियों को ही भारत को समझने में भारी चूक हो रही है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र को अर्थशास्त्र जैसे विषय से बाहर रखा है । शून्य और दशमलव प्रणाली के संदर्भ में जिन भारतीय विद्वानों का योगदान रहा है उसके बारे में बच्चों को जानकारी ही नहीं है।
हमारे ऐतिहासिक व्यक्तित्व
भारत के ऐतिहासिक व्यक्तित्व से परिचित कराने के लिए 1977 के आसपास तक सहायक वाचन जैसी पुस्तकें विभिन्न राज्यों में अलग-अलग नामों से चला करती थी। जिसमें पंचतंत्र जातक कथाएं महापुरुषों की जीवनी या आदि कंटेंट शामिल हुआ करता था जो वर्तमान में पाठ्यक्रम से बाहर है। कृपया ऐसे विवरणों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने की कृपा कीजिए।
6:- भाषा विकास
वर्तमान में भाषा विकास संबंधी कोई कंटेंट अर्थात पाठ्य सामग्री बच्चों को नहीं पढ़ाई जा रही है। संस्कृत विश्व की समस्त भाषाओं की जननी है यह तथ्य हम बहुत बाद में आकर समझे जबकि संस्कृत के बारे में हमें प्रारंभ से ही जानकारी होनी चाहिए थी। हमें संस्कृत को एक विषय के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल कर देना चाहिए। परंतु संस्कृत को किसी भी स्तर पर पर्याप्त संरक्षण प्राप्त नहीं हुआ है जो वापस प्रदान करना चाहिए।
[ ] भाषाओं के विकास के संबंध में भी कंटेंट पाठ्यक्रम में प्रस्तुत करना आवश्यक है।
[ ] प्राचीन इतिहास मौर्य वंश से प्रारंभ होकर वहीं कहीं समाप्त हो जाता है । जबकि मोहम्मद साहब के समकालीन राजा दाहिर का कहीं भी जिक्र नहीं है इतिहास से बाहर रखने का औचित्य क्या है यह हमारी समझ से परे है। अतः आपसे अनुरोध है कि राजा दाहिर के अतिरिक्त उसके पूर्व तथा पश्चात में विभिन्न विदेशी यात्रियों विशेष तौर पर चीनी यात्रियों एवं पर्शियन मुस्लिम विद्वान यात्रियों द्वारा लिखे गए विवरणों का पाठ्यक्रम में शामिल होना जरूरी है।
मान्यवर उपरोक्त अनुसार प्रस्ताव सादर हमारी ओर से प्रस्तुत है
गिरीश बिल्लोरे मुकुल
रविवार, जुलाई 11, 2021
जनसंख्या नियंत्रण ही नहीं जनसंख्या प्रबंधन की अवधारणा को अपनाना होगा
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान में
भारत की जनसंख्या 139
करोड़ होकर विश्व की जनसंख्या 17.58% पर आ
चुकी है और यह वह समय है जब हम किन से मात्र कुछ लाख कम है अर्थात जनसंख्या के मामले में अगर भारत और चीन की जनसंख्या मिला दी जाए तो
विश्व की आबादी की एक दशक में 50% हिस्सेदारी आने में आसानी
से पहुंच जाएगी। यह दोनों हितेश आने वाले दो-तीन दशक में अपने सारे संसाधन खो सकते
हैं ऐसी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
विश्व के कुछ प्रमुख राष्ट्रों जैसे
संयुक्त राज्य अमेरिका जनसंख्या विश्व की जनसंख्या में 5% यूनाइटेड किंगडम .0 8%, जर्मनी की जनसंख्या 1.07%
फ्रांस 0.85% इटली 0.78% है। यह सारे देश लगभग भारत और चीन से अधिक जन सुविधा संपन्न देश हैं। यहां
उन देशों का विवरण प्रस्तुत नहीं किया गया है जो खाड़ी के देश है वे आर्थिक रूप से
बेहद समृद्ध होने के साथ-साथ जन सुविधा संपन्न है।
भारत ने जनसंख्या को जनशक्ति के रूप में स्वीकारा है। अतः भारत को भविष्य के 50 वर्षों की कार्य योजना तैयार करने की जरूरत है। विभिन्न रिपोर्ट के आधार
पर हम कह सकते हैं कि भारत में जनसंख्या वृद्धि की दर 1.2% से
1.3% के बीच रहेगी। और यह वार्षिक वृद्धि दर भारतीय जनसंख्या
को भारत के नागरिकों की औसत उम्र 72 वर्ष की तुलना में
अत्यधिक कही जा सकती है।
जनसंख्या वृद्धि की दर
यह सर्वोच्च सत्य है की भारत की जनसंख्या वृद्धि दर 2.5 % से कम होकर 1.8% के आसपास रह गई है। तो आप सोचते होंगे कि किन कारणों से जनसंख्या अधिनियम लाने चाहिए?
सवाल
स्वाभाविक है। पर आपने आर्टिकल के प्रारम्भ को ध्यान से देखा कि- भारत और चीन अगले
कुछ दशक में विश्व की जनसंख्या के 50 % हो जाएगी। और इन दौनों राष्ट्रों को 3 से 4
गुना अधिक संसाधनों की जरूरत होगी। फिर प्राकृतिक संसाधनों के उत्पादों के उपभोक्ताओं
के लिए प्राकृतिक संसाधनों का विदोहन में तेज़ी से प्राकृतिक अस्थिरता बढ़ेगी । जैसा
प्राचीन इतिहास में दर्ज़ है।
अत: भारत की जनसंख्या जनशक्ति अवश्य है
किंतु रोजगार एवं उत्पादकता में इस जनसंख्या की भागीदारी वर्तमान संदर्भ में एवं आगामी
50 वर्षों के लिए चिंता का विषय है।
भारतीय जनशक्ति के लिए आर्थिक
संसाधनों एवं उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों जैसे रहने के स्थान शुद्ध पानी उत्पादित
खाद्य सामग्री और इसके अलावा राज्य की ओर से प्रदत्त शैक्षणिक विकास चिकित्सा एवं
आंतरिक सुरक्षा संसाधनों को बढ़ती हुई जनसंख्या नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगी
ऐसा मेरा मानना है।
भारतीय संदर्भ में जनसंख्या नियंत्रण के
साथ-साथ जनसंख्या प्रबंधन के संदर्भ में भी फुलप्रूफ माइक्रो प्लानिंग की जरूरत
है। वर्तमान में कोविड-19
टीकाकरण में अब तक कई देशों की जनसंख्या से दुगनी कई देशों की
जनसंख्या के बराबर कई देशों की जनसंख्या की तुलना में
कई गुना अधिक वैक्सीनेशन दिए जा चुके हैं परंतु फिर भी हमारी उपलब्धि 50% तक नहीं पहुंच पाई है।
राज्य की जिम्मेदारी है कि वह शिक्षा
चिकित्सा और रक्षा मूल रूप से आवासी व्यवस्था के साथ राष्ट्र वासियों को ब्लड
कराएं। परंतु यदि इस गति से जनसंख्या बढ़ेगी तो आने वाले 50 वर्षों में भारत की जनसंख्या ना केवल राजकीय संसाधनों का लाभ उठा सकेगी और
ना ही प्राकृतिक संसाधनों का पर्याप्त रूप से रसास्वादन कर सकेगी।
विश्व जनसंख्या दिवस पर प्रत्येक परिवार
को व्यक्तिगत तौर पर बिना किसी लोभ लालच के जनसंख्या प्रबंधन को महत्व देना ही
होगा। भारत सरकार एवं मध्य प्रदेश सहित कई राज्य सरकारों द्वारा जनसंख्या प्रबंधन
की दिशा में कारगर कदम उठाए हैं परंतु यह व्यवस्था बेहद कारगर नहीं रहेगी अगर
जनसंख्या वृद्धि ना रुके तो। हम पड़ोसी देश पाकिस्तान से तुलना करें तो उनकी
जनसंख्या मात्र 22
या 23 करोड़ है। यद्यपि उसका जनशक्ति नियोजन
और प्रबंधन बेहद घटिया स्तर का होने के कारण वहां स्वास्थ्य शिक्षा जैसी मूलभूत
सुविधाएं नकारात्मक आंकड़े प्रदर्शित करती है। परंतु भारतीय प्रशासनिक एवं सामाजिक
व्यवस्था करने वालों का हुनर काबिले तारीफ है कि उनके द्वारा इस देश को संभावित
खतरे से बाहर निकाल लिया।
भारतीय योजनाकारों ने एक प्रभावशाली व्यवस्थापन कर संसाधनों की आम नागरिक तक पहुंच को वर्तमान
परिस्थितियों में बरकरार रखा है यह कुशल प्रबंधकीय विशेषज्ञता का बिंदु है। परंतु
सब दिन होत ना एक समाना के सिद्धांत को भी ध्यान में रखना होगा।
रविवार, जुलाई 04, 2021
Understanding Swami Vivekananda
शनिवार, जुलाई 03, 2021
The Virgin River Narmada
महायोगी हनुमान जी ही रामदुलारे क्यों..? : नमःशिवाय अरजरिया
लक्ष्मणजी के लिए-
'लक्ष्मण धाम राम प्रिय'
अयोध्या वासियों के लिए-
अति प्रिय मोह यहां के वासी।
वानरों के लिए-
ताते मोहि तुम 'अतिप्रिय' लागे
भरत के लिए-
भरत 'प्राणप्रिय' पुन लघु भ्राता।
विभीषण के लिए-
सुन लंकेश सकल गुन तोरे।
तातें तुम 'अतिशय प्रिय' मोरे।।
जानकी जी के लिये-
जनक सुता जग जननी जानकी
'अतिशय प्रिय' करुनानिधान की।।
हनुमान जी के लिये-
भ्रातन्ह सहित राम एक बारा।
संग 'परमप्रिय' पवन कुमारा।।
आखिर क्या कारण रहा होगा कि परिजनों के लिए मानस मर्मज्ञ प्रिय एवं प्राणप्रिय विशेषणों का प्रयोग करते है जबकि विभीषण जैसे मित्र के लिए अतिशय प्रिय विशेषण का प्रयोग करते हैं। इनसे भी अधिक हनुमान जी जैसे परिकरों के लिए 'परमप्रिय' विशेषण का प्रयोग मानसकार ने किया है। हनुमानजी के उद्दात्त चरित्र के संबंध में मुझ जैसे अल्पमति व्यक्ति जिसमें लेखन का एक भी गुण नहीं है, परम प्रिय विशेषण के प्रयोग हेतु यह कारण उचित जान पड़ा कि हनुमान जी ने सर्व भावों से अपने आराध्य जगदीश्वर श्रीराम का भजन किया। उत्तरकांड में मानसकार इसका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं-
"पुरुष नपुंसक नारि वा, जीव चराचर कोई।
सर्व भाव भज कपट तजि, मोहि परम प्रिय सोई।।
अर्थात स्त्री, पुरुष, नपुंसक या कोई भी चर जीव या यहाँ तक कि अचर पदार्थ भी यदि संपूर्ण भाव से भगवान का जाप या स्मरण सतत रूप से करता है तो वह भगवान का परम प्रिय बन जाता है। ऐसा श्री रामचंद्र स्वयं अपने भ्राताओं से कह रहे हैं। हनुमान जी जैसा नाम स्मरण करने वाला जीव चर या अचर संसार में कोई दूसरा नहीं हुआ। वेद, पुराण एवं आगम से लेकर जैन एवं बौद्ध साहित्य में भी ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं मिलता है। मानसकार तुलसी लिखते भी हैं-
"सुमरि पवनसुत पावन नामू।
अपने वश कर राखे रामू।।
वनवास काल में जब श्रीराम महर्षि वाल्मीकि से अपने निवास स्थान के बारे में जानना चाहते हैं तो महर्षि भी कहते हैं कि आप ऐसे व्यक्तियों के हृदय में निवास करें जो काम,क्रोध,मोह,मान,मद,लोभ एवं क्षोभ जैसे मानसिक विकारों से परे हो। जिनके हृदय में कपट, दंभ एवं माया नहीं बसती है। है रघुनाथ तुम ऐसे जीवो के हृदय में निवास करो।
"काम,क्रोध,मद, मान ना मोहा।
लोभ न क्षोभ न राग न द्रोहा।।
जिनके कपट दंभ नहि माया।
तिनके हृदय वसहु रघुराया।।"
हनुमान जी के पास ना तो माया है और ना ही क्रोध। क्रोध यदि है भी तो राम काज को पूर्ण करने के लिए। माया वानरों की ओर देखती भी नहीं है। नारद जब वानर का स्वरूप धारण कर विश्व मोहिनी के स्वयंवर में गए तो माया रूपी विश्व मोहिनी ने नारद की ओर देखा भी नहीं। हनुमानजी आजीवन ब्रह्मचारी हैं। काम उन से कोसों दूर है। उनके हृदय में तो राम है। कहा गया है- 'जहां राम तंह काम नहि'। हनुमान जी के तो हृदय में काम के रिपु राम धनुर्वाण धारण किए बैठे हैं। हनुमान जी सदैव लघु या अतिलघु रूप में रहते हैं अतः दंभ या अहंकार का प्रश्न ही नहीं है। इसी प्रकार हनुमान जी कपट राग एवं द्वेष से भी पूर्णत: विरत है। अतः वह राम दुलारे है।
महर्षि वाल्मीकि जी यह भी कहते हैं कि, हे रघुनाथ जो आपको ही माता, पिता, गुरु, सखा एवं स्वामी सभी भावों से स्मरण करें, उसके मन मंदिर में आप जानकी जी और लखनलाल के साथ निवास करें। यदि हनुमत चरित्र का विहंगावलोकन करें तो उन्होंने श्री राम को प्रथम परिचय में ही 'स्वामी' कहकर संबोधित किया। उन्होंने सखा मानकर ही श्रीराम एवं सुग्रीव की मित्रता कराई। भगवान श्रीराम ने उन्हें स्वयं 'सुत' नाम से संबोधित किया। अर्थात श्रीराम उनके लिए पिता सदृश्य हैं। इसी प्रकार हनुमान जी ने श्रीराम से प्रथम मुलाकात में ही माता की बुद्धि का आरोपण कर अपने पोषण की अपेक्षा की। यही नहीं आंजनेय ने श्रीराम जी को गुरु मानकर उनसे भजन का उपाय पूछा और श्रीराम ने अनंतर में गुरु की भूमिका का निर्वाह करते हुए उन्हें अनन्यता का उपदेश दिया। मानस में यह सभी भाव है-
"स्वामि सखा पितु मातु गुरु, जिनके सब तुम तात।
मन मंदिर तिनके वसहु, सीय सहित दोउ भ्रात।।"
कठिन भूरि कोमल पद गामी।
कवन हेतु विचरहु वन स्वामी।।
सुनु सुत तोहि उरिन में नाहीं।
देखउँ करि विचार मन माहीं।
सेवक, सुत, पति, मातु भरोसे।
रहइ असोच बनइ प्रभु पोसे।।
तापर में रघुवीर दोहाई।
जानउँ नहिं कछु भजन उपाई।।
"सो अनन्य जाके असि, मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर, रूप स्वामी भगवंत।।"
हनुमान जी के राम दुलारे बनने का एक कारण यह भी था कि उन्होंने समस्त प्रकार की ममताओं का त्याग कर अपनी ममता राघवेंद्र के श्री चरणों से बांध ली थी। सुंदरकांड में जगदीश्वर श्रीराम स्वयं विभीषण से कहते हैं कि ममतायें दश हैं और जो भी व्यक्ति समस्त दशों प्रकार की ममताओं को एकत्रित कर मेरे चरणों से ममता की रस्सी को बांध देता है, ऐसा संत पुरुष सदैव मेरे हृदय में रहता है।
"जननी जनक बंधु सुत दारा।
तन धन भवन सुहद परिवारा।।
सबके ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहिं बाँध बरि डोरी।।"
संसार में विरले लोग ही होते हैं जो इन दश ममताओं में से किसी एक को छोड़ पाते हैं। भरत जी ने मां की ममता छोड़ी, पिता की ममता का त्याग लक्ष्मण जी ने किया, भाई की ममता का त्याग विभीषण ने किया, सुत की ममता महाराज मनु ने त्यागी, रामजी के लिए पत्नी(सती) का त्याग योगेश्वर शिव ने किया। भगवान राम के लिए तन का त्याग महाराज दशरथ जी ने किया, श्री राम के लिए धन का त्याग श्रृंगवेरपुर के राजा गुह ने किया, भवन अयोध्यावासियों ने त्यागा, सुग्रीम ने सुहदों को छोड़कर श्री राम को मित्र बनाया तथा मुनिजनों एवं संतों ने श्रीराम के लिए अपना परिवार त्याग दिया। इस प्रकार अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग ममता का त्याग किया। धन्य है, महावीर हनुमान जिन्होंने दशों की दशों ममताएं अपने आराध्य कौशलाधीश के लिए त्याग दी, या यूं कहें कि उन्हें ये दशों ममताएँ बांध ही न सकीं।
मेरे एक बौद्धिक मित्र ने कहा कि हनुमानजी ज्ञानियों में अग्रणी है तथा बुद्धि में वरेण्य है। इसीलिए वह रामदुलारे हैं। क्योंकि प्रत्येक राजा अपने साथ ज्ञानी एवं बुद्धिमान सचिव या सेनापति रखना चाहता है। प्रथमत: तो मुझे उनकी बात सही लगी।सामान्य राजे-महाराजे के लिए यह तर्क उचित भी है। परंतु श्रीराम तो चराचर जगत के स्वामी अर्थात जगदीश्वर है। उनके तो भृकुटी विलास मात्र से सृष्टि में कंपन होने लगता है। ऐसी दशा में लगा कारण कुछ पृथक है। आचार्य रजनीश कहते हैं कि माने गए संबंध, मित्रता तथा गुरु आदि के संबंध नाभि से जुड़े होते हैं । यह संबंध हृदय के संबंधों से प्रबल होते हैं। भगवान श्री राम के लक्ष्मण, भरत एवं जानकी आदि के संबंध हृदय के थे। परंतु विभीषण एवं हनुमान से संबंध नाभि या मणिपुर चक्र से जनित थे। मुझे ओशो का तर्क उचित लगा। वस्तुतः हम भले ही मनुष्य के शरीर में मस्तिष्क को सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग माने, परंतु यह नाभि या नाभि जनित ऊर्जा पर ही आधारित होता है। बिलकुल वैसे ही जैसे कि भवन में शिखर के स्थान पर नींव या वृक्ष में पुष्प के स्थान पर जड़ महत्वपूर्ण होती है। वही व्यक्ति अधिक स्वस्थ माना जाता है जिसकी श्वांस-प्रश्वांस गहरी हो अर्थात नाभि तक आती जाती हो।
नाभि स्थान को यौगिक परंपरा में मणिपुर चक्र कहते हैं वस्तुतः यह मां(शक्ति) का धाम या निवास होता है। जन्म के समय जननी से इसी से हमारा संबंध रहता है। यदि जननी उत्कृष्ट साधिका है, तथा उसके चक्र जागृत है तो उसका जनन भी उत्कृष्ट होगा। हनुमान जी महाराज की माँ अंजना पूर्व जन्म में वायुदेव की अप्सरा पत्नी के साथ शिव की परम भक्त थीं। अतः आंजनेय में जन्मन: भक्ति योग का प्रकट होना स्वभाविक ही था। यदि जन्मना मणिपुर चक्र जागृत नहीं है तो साधना,तप या योग से उसे जागृत किया जा सकता है। आंजनेय की जैविक माता से इतर पालक, पोषक एवं संरक्षक माता जनकनंदिनी जानकी थी। जानकीदुलारे महावीर ने अपनी भक्ति, ज्ञान एवं कर्म से जनकनंदिनी के वरदपुत्र का दर्जा प्राप्त कर अष्टसिद्धियां एवं नवनिधियों के अधिष्ठान होने का वरदान प्राप्त किया। माता जानकी ने हीं उन्हें 'रामदुलारे' होने का आशीर्वाद दिया। यही कारण है कि हनुमान जी राम दुलारे है।
"अजर अमर गुणनिधि सुत होहू। करहु बहुत रघुनायक छोहू।।"
!ॐ नमः शिवाय!
नमःशिवाय अरजरिया
संयुक्त कलेक्टर जबलपुर।
शुक्रवार, जुलाई 02, 2021
भारतीय इतिहास सुधार हेतु एनसीईआरटी सुझाव मांगे15 जुलाई तक अंतिम तिथि सुनिश्चित की
गुरुवार, जून 24, 2021
अवतरित हुई माँ दुर्गा , दुर्गावती के रूप में : आनंद राणा
बुधवार, जून 23, 2021
एक इनोवेशन जो हाई जैक किया...!
मंगलवार, जून 22, 2021
प्राचीन यूनान में ईश्वर के आँसू कहलाने वाले हीरे की कहानी मध्यप्रदेश में लिखी जा रही है...!"
☺️☺️☺️☺️☺️
☺️☺️☺️☺️☺️
यूनानी मान्यता अनुसार ईश्वर का आंसू है हीरा
☺️☺️☺️☺️
हीरा एक ऐसा कार्बनिक पदार्थ है जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता की वजह से बहुमूल्य रत्न होने के दर्जे पर सदियों से कायम है। प्राचीन यूनानी सभ्यता ने हीरे को उसकी पवित्रता को और उसकी सुंदरता को देखते हुए ईश्वर के आंसू तक की उपमा दे दी है ।
विश्व में भारत और ब्राज़ील के अलावा अमेरिका में भी हीरे का प्राकृतिक एवं कृत्रिम उत्पादन किया जाता है।
भारत के गोलकुंडा में सबसे पहले हीरे की खोज की गई थी और वह भी 4000 वर्ष पूर्व। ब्रिटिश हुकूमत के दौरान ही भारत भारत का कोहिनूर हीरा ब्रिटिश खजाने में जा पहुंचा था। जी हां मैं उसी कोहिनूर हीरे की बात कर रहा हूं जो महारानी के मुकुट में लगा हुआ है वह हीरा गोलकुंडा की खदान से ही हासिल किया गया था। भारत में उड़ीसा छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश में हीरे की मौजूदगी है। सबसे ज्यादा मात्रा में इस रत्न की मौजूदगी मध्य प्रदेश में है। अगर बक्सवाह कि हीरा खदानों ने काम करना शुरू कर दिया तो विश्व में भारत हीरा उत्पादन में श्रेष्ठ स्थान पर होगा। एक अनुमान के मुताबिक रुपए 1550 करोड़ वार्षिक राजस्व आय का स्रोत होगी यह परियोजना।
हीरे को यूनान सभ्यता के लोग ईश्वर के आंसू कहा करते थे और आज भी यही माना जाता है। पिछले कुछ दिनों से ईश्वर के इन आंसुओं की कहानी मध्यप्रदेश में लिखी जा रही है। हालांकि यह कहानी 20 साल पहले शुरू हुई थी और 2014 से 2016 तक चला इसका मध्यातर । 2017 के बाद से इस डायमंड स्टोरी का दूसरा भाग शुरू हो चुका है। इतना ही नहीं धरना प्रदर्शन पर्यावरण के मुद्दे वन्य जीव संरक्षण जैसे कंटेंट इसमें सम्मिलित हो रहे हैं। कुल मिला के संपूर्ण फीचर फिल्म सरकार की मंशा को देखकर लगता है वर्ष 2022 तक इस फिल्म का संपन्न हो जाने की संभावना है। छतरपुर जिले की बकस्वाहा विकासखंड में 62.64 हेक्टेयर जमीन किंबरलाइट चट्टाने मौजूद है और जहां यह चट्टानें मौजूद होती हैं वहां हीरे की मौजूदगी अवश्यंभावी होती है। इन चट्टानों से हीरा निकालने के लिए लगभग 382 हेक्टेयर जमीन उपयोग में लाई जाएगी।.
किंबरलाइट चट्टानों की पहचान आज से लगभग 20 वर्ष पूर्व ऑस्ट्रेलियन कंपनी द्वारा की गई थी। कहते हैं कि 3.42 करोड़ कैरेट के हीरे बक्सवाहा के जंगलों से निक लेंगे ।
शासकीय सर्वेक्षण के अनुसार 215875 पेड़ बक्सवाहा के जंगलों में मौजूद है।
पन्ना में उपलब्ध 22 लाख कैरेट हीरे में से 13 लाख कैरेट हीरे निकाल लिए गए हैं तथा कुल 9 लाख कैरेट हीरे अभी शेष है उन्हें नाम और वर्तमान में बक्सवाहा के जंगल में अनुमानित हीरे इस खनन की तुलना में 15 गुना अधिक होगी।
buxwaha बक्सवाह की हीरा खदानों से हीरा निकालने के लिए ऑस्ट्रेलिया की कंपनी रियो टिंटो को 2006 में टेंडर दिया हुआ था और इस कंपनी ने 14 साल पहले इस टैंडर को हासिल किया लगभग 90 मिलियन रुपए खर्च भी किए। कंपनी को प्रदेश सरकार ने 934 हेक्टर जमीन पर काम करने का ठेका दिया था। जबकि रियो टिंटो के द्वारा काम समेटने के बाद 62.64 हेक्टेयर भूमि से हीरे निकालने के लिए 382 हेक्टेयर जंगल को साफ करना पड़ेगा। जैसा पूर्व में बताया है कि उक्त क्षेत्र में 215875 वृक्षों को काटा जाएगा यदि यह क्षेत्र 934 सेक्टर होता तो इसका तीन से चार गुना अधिक वृक्षों को काटना आवश्यक हो जाता । मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के इन ज़िलों जैसे पन्ना और छतरपुर में पानी की उपलब्धता की कमी रही है जिसकी पूर्ति के लिए अस्थाई और कृत्रिम तालाब बनाने की व्यवस्था कंपनी द्वारा की जावेगी।
वर्तमान में हीरा खनन करने के लिए आदित्य बिरला ग्रुप ने 50 साल के लिए बक्सवाहा के 382 हेक्टेयर जंगल में काम करने का टेंडर हासिल किया है। आदित्य बिरला ग्रुप की कंपनी एक्सेल माइनिंग कंपनी द्वारा प्रस्तावित परियोजना में कार्य किया जाएगा।
बक्सवाहा की खदानों में काम करने के लिए 15.9 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत प्रतिदिन होगी जबकि बुंदेलखंड क्षेत्र में पानी का अभाव सदा से ही रहा है। इस संबंध में कंपनी क्या व्यवस्था करती है यह आने वाला भविष्य ही बताएगा। पेड़ों के कटने के बाद वैकल्पिक व्यवस्थाएं क्या है इस पर भी सवालों का उत्तर मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में लंबित याचिका के माध्यम से प्राप्त हो ही जाएगा। अन्य परिस्थितियों के असामान्य ना होने की स्थिति में इस परियोजना की विधिवत शुरुआत 2022 तक संभावित है। पर्यावरणविद यह मानते हैं कि प्राकृतिक वनों के काटने के बाद इस क्षेत्र में मौजूदा वाटर टेबल का स्तर गिर जाएगा। साथ ही वन्यजीवों के जीवन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इस संबंध में पर्यावरणविद और स्थानीय युवा सोशल मीडिया खास तौर पर ट्विटर पर अभियान चला रहे हैं। जबकि मीडिया रिपोर्ट के अनुसार बक्सवाहा से संबंधित डीएफओ का कहना है कि-" इस परियोजना से स्थानीय लोगों को रोजगार की उम्मीदें बढ़ी है वे इस परियोजना का विरोध नहीं करते।"
एक्टिविस्टस द्वारा लगातार पर्यावरण संरक्षण को लेकर प्रतीकात्मक आंदोलन शुरू कर दिए गए हैं।
हीरे को तापमान गायब कर सकता है
हीरे के बारे में कहा जाता है कि अगर इसे ओवन में रखकर 763 डिग्री पर गर्म किया जाए तो हीरा गायब हो सकता है। वैसे ऐसी रिस्क कोई नहीं लेगा। हीरे के मालिक होने का एहसास ही अद्भुत होता है।
ग्रेट डायमंड इन द वर्ल्ड - जब हीरे का एक कण अर्थात उसका सबसे छोटा टुकड़ा भी मूल्यवान होता है तब ग्रेड डायमंड कितने बहुमूल्य होंगे इसका अंदाजा लगाना ही मुश्किल है। कहते हैं कि दक्षिण अफ़्रीका और ब्राजील की खदानों से विश्व के महानतम हीरों को निकाला और तराशा गया है।
दुनिया का सबसे बड़ा हीरा कलिनन हीरा (Cullinan Diamond) है जो 1905 में दक्षिण अफ्रीका की खदान से निकाला गया। 3106 कैरेट से अधिक भार का है जो ब्रिटेन के राजघराने की संपत्ति के रूप में उनके संग्रहालय में रखा है ।
तक ढूंढ़ा गया दुनिया का सबसे दूसरा बड़ा अपरिष्कृत हीरा 1758 कैरेट का हीरा सेवेलो डायमंड (Sewelo Diamond) । जिसका अर्थ है दुर्लभ खोज।
औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश राजघराने को यह भ्रम था कि भारत का कोहिनूर हीरा अगर क्राउन में लगा दिया जाए तो ब्रिटिश शासन का सूर्यास्त कभी नहीं होगा। बात सही की थी कि सूर्योदय ब्रिटिश उपनिवेश में कहीं ना कहीं होता रहता था । परंतु राजघराने में यह मिथक उनकी राजशाही के अंत ना होने के साथ जोड़कर देखा जाने लगा। और महारानी ने अपने मुकुट पर कोहिनूर जड़वा लिया ।
भारत का एक सबसे अधिक वजन वाला हीरा ग्रेट मुगल गोलकुंडा की खान से 1650 में प्राप्त हुआ। जिसका वजन 787 कैरेट का था ।
इस हीरे का आज तक पता नहीं है कि यह हीरा किस राजघराने में है एक अन्य हीरा जिसे अहमदाबाद डायमंड का नाम दिया गया जो पानीपत की लड़ाई के बाद ग्वालियर के राजा विक्रमजीत को हराकर 1626 में बाबर ने प्राप्त किया था। इस दुर्लभ हीरे की अंतिम नीलामी 1990 में लंदन के क्रिस्ले ऑक्सन हाउस हुई थी।
द रिजेंट नामक डायमंड, सन 1702 में गोलकुंडा की खदान से मिला हीरा 410 कैरेट के वजन का था। कालांतर में यह हीरा नेपोलियन बोना पार्ट ने हासिल किया। यह हीरा अब 150 कैरेट का हो गया है जिसे पेरिस के लेवोरे म्यूजियम में रखा गया है।
विकी पीडिया में दर्ज जानकारी के अनुसार ब्रोलिटी ऑफ इंडिया का वज़न 90.8 कैरेट था। ब्रोलिटी कोहिनूर से भी पुराना है, 12वीं शताब्दी में फ्रांस की महारानी ने खरीदा। आज यह कहाँ है कोई नहीं जानता। एक और गुमनाम हीरा 200 कैरेट ओरलोव है जिसे १८वीं शताब्दी में मैसूर के मंदिर की एक मूर्ति की आंख से फ्रांस के व्यापारी ने चुराया था। कुछ गुमनाम भारतीय हीरे: ग्रेट मुगल (280 कैरेट), ओरलोव (200 कैरेट), द रिजेंट (140 कैरेट), ब्रोलिटी ऑफ इंडिया (90.8 कैरेट), अहमदाबाद डायमंड (78.8 कैरेट), द ब्लू होप (45.52 कैरेट), आगरा डायमंड (32.2 कैरेट), द नेपाल (78.41) आदि का नाम शामिल है ।
हीरो की तराशी :- बहुमूल्य रत्न हीरा कुशल कारीगरों द्वारा तराशा जाता है। विश्व के 90% हीरो की तराशी का काम जयपुर में ही होता है।
हीरो का सौंदर्य और उनकी पवित्रता हीरों का दुर्गुण यह है। विश्व साम्राज्य होने के बावजूद ब्रिटेन की महारानी में कोहिनूर का लालच कर बैठीं । तो मिस्टर चौकसी रत्न के धंधे में अपनी नैतिकता खो बैठा।
आज से लगभग 10 वर्ष पहले मेरे मित्र कुशल गोलछा जी ने मुझे एक डायमंड दिया और कहा कि इसे आप खरीदिए । उस जमाने में लगभग ₹30000 की कीमत का वह डायमंड मेरी क्रय क्षमता से कई गुना अधिक था। मेरे कॉमन मित्र श्री धर्मेंद्र जैन से मैंने उसे खरीदने मैं असमर्थता दिखाइए। श्री गोलछा ने कहा आप हजार या पांच सौ देते रहिए पर आप यह हीरा पहने रहिये।
परंतु बिना लालच किए मात्र 1 महीने लगभग हीरे 18 कैरेट सोने की अंगूठी जड़ा हीरा मुझे आज भी याद आ रहा है। दो-तीन साल पहले जब कुशल जी से उस हीरे के वर्तमान मूल्य पर चर्चा हुई तब उनने कहा था- अब उस हीरे की कीमत कम से कम ₹100000 तो होना ही चाहिए। आपको ले लेना था इसमें कोई शक नहीं कि हीरा सदा के लिए होता है आज भी वह हीरा याद आता है परंतु हीरे के बारे में मेरा हमेशा से एक ही नजरिया रहा है कि उसकी पवित्रता बेईमान बना देती है, और यह सब ऐतिहासिक रूप से सत्य है।
रविवार, जून 13, 2021
वच्छ गोत्रीय नार्मदीय ब्राह्मणों की कुलदेवी मां आशापुरी देवी
ज्ञात ऐतिहासिक विवरण
आदिकाल से भारत का इतिहास केवल श्रुति परंपरा पर आधारित रहा है अतः लिखित इतिहास के आधार पर जात जानकारियों से सिद्ध होता है कि असीरगढ़ का किला 9 वी शताब्दी के आसपास निर्मित हुआ है।
यह जानकारी हमारे कुटुंब के पूर्वजों ने हमारे नजदीकी पूर्वज यानी आजा के पिता ने पुत्र यानी आजा और आजा के पिता और उनके भाइयों को बताया है। असीरगढ़ फोर्ट का निर्माण कब हुआ इसका कोई वैज्ञानिक परीक्षण ईएसआई नहीं कराया या नहीं इस बारे में सोचने की जरूरत है क्योंकि इसके तक आज तक प्रमाणित नहीं हो पाए हैं और ना ही ऐसा कोई प्रतिवेदन राज्य सरकार ने कभी दिया या जारी किया हो।
आइए हम उपलब्ध जानकारियों के अनुसार जाने कि यह किला इन जानकारियों के आधार पर किसने बनाया और कहां स्थित है?
इतिहासकार इसे दक्षिण का मार्ग कहते हैं। जबकि मान्यता के अनुसार यह हमारी ऐतिहासिक धरोहर है और यहां पर 5000 वर्ष से भी पहले महाभारत काल में किले का निर्माण किया गया। ताप्ती और नर्मदा के तट पर स्थित बुरहानपुर के उत्तर में स्थित किस किले की भौगोलिक स्थिति 21.47°N तथा 76.29° E की लोकेशन पर स्थित है । यह बुरहानपुर से 22 किलोमीटर दूर स्थित है तथा इसकी ऊंचाई 780 मीटर है समुद्र तल से यह 70.1 मीटर ऊंचाई पर स्थित स्थान है। जो 60 एकड़ भूमि पर बनाया गया है। 1370 ईस्वी में बनवाए गए इस किले का निर्माण आसा अहिर नामक एक विदेशी शासक ने करवाया था ऐसा प्रचारित है । कालांतर में आसा अहीर या असाहिर ने नासिर खान नाम के अपने एक अधीनस्थ व्यक्ति को किले के संरक्षण का कार्य सौंपा। परंतु किले पर कब्जा जमाने की नासिर खान ने कल्पना की और सबसे पहले उसने राजा असाहिर का समूल अंत कर दिया।
किले की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इसके लिए के दो मार्ग निर्मित किए गए थे एक मार्ग दक्षिण पश्चिम दिशा में तथा दूसरा मार्ग गुप्त मार्ग है जो सात गुप्त रक्षण व्यवस्था से रक्षित है। किस किले पर नौवीं से बारहवीं शताब्दी का राजपूतों, 15वीं शताब्दी तक फ़ारूक़ी की राजाओं के अलावा मुगल मराठा निजाम पेशवा और खुलकर के अलावा औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों का शासन रहा है अंग्रेजों की छावनी के रूप में यह किला उपयोग में लाया जाता रहा है। इस किले में अकबर ने भी कुछ दिन निवास किया था । बाद में उन्होंने यह किला छावनी के रूप में परिवर्तित कर दिया तथा किले का प्रबंधन एक सूबेदार अब्दुल सामी को शॉप कर वापस दिल्ली आए थे । मैंने अपने किसी लेख में लिखा था कि दक्कन का प्रवेश द्वार दिल्ली से महाकौशल प्रांत होते हुए बहुत सहज एवं बाधा हीन रहा है किंतु गोंडवाना साम्राज्य की कर्मठता और राष्ट्रप्रेम की बलिदानी भावना के आगे मुगल सम्राट अकबर का बस नहीं चल सका। क्योंकि मुसलमान आक्रमणकारियों एवं विदेशियों के लिए दक्षिण भारत जीतना हमेशा से ही उनका सपना रहा है वह 12 वीं शताब्दी वीं शताब्दी से ही इस कोशिश में लगे हुए थे। अतः बार बार कोशिशों के बाद इस किले पर कब्जा करना उनके लिए आसान हो गया।
औरंगजेब का इस किले से गहरा नाता है औरंगजेब जब दक्षिण विजय से भारत का शहंशाह बनना चाहता था तब वह लौटकर इस किले का भी विजेता बन गया यह घटना 1558 से 1559 के मध्य की है। कहते हैं कि युद्ध से लौटने के बाद उसने अपने पिता शाहजहां आगरा में बंदी बनाया और खुद शासक बन बैठा। यह कहना सर्वथा गलत है कि औरंगजेब ने मंदिरों का उद्धार किया है। असीरगढ़ के किले कि तलछट पर दीवार में बने आशापुरा माता की प्रतिमा पर उसने किसी भी तरह की कोई धार्मिक सहिष्णुता नहीं प्रदर्शित की ना ही वहां के लिए पहुंच मार्ग विकसित किया। बल्कि यह कहा जाता है कि मुगल सेना के लिए किले के ऊपरी भाग में मस्जिद का निर्माण अवश्य कराया। यह इस किले का सौभाग्य ही था कि किले में स्थित शिव प्रतिमा का विखंडन एवं मंदिर का विलीनीकरण औरंगजेब नहीं कर पाया।
आदिलशाह जो 17वीं शताब्दी में अकबर के अधीन हो चुका था ने यह किला अर्थात असीरगढ़ का किला अकबर को सहर्ष सौंप दिया था।
कुल मिलाकर इस किले का ज्ञात इतिहास ईसा के बाद 9 वीं शताब्दी से मिलता है।
इस किले पर मौजूद मंदिर मस्जिद चर्च अवशेष यह बताते हैं कि निश्चित रूप में यह किला विभिन्न राजसत्ताओं के अधीन रहा है ।
परंतु दीवार पर मां आशापूर्णा देवी का स्थान हम नार्मदीय ब्राह्मण के वत्स गोत्रियों बिल्लोरे, शकरगाएं, सोहनी और शर्मा कुलों की कुलदेवी इस किले के आधार तल पर स्थान विराजमान हैं ।
यह कहा जाता है कि नार्मदेय ब्राम्हण समाज ने अपने अस्तित्व के साथ अपनी कुलदेवी के स्थान को गुजरात के कच्छ क्षेत्र से मध्य प्रदेश के बुरहानपुर में स्थापित किया। ये वच्छ गोत्रीय नार्मदीय ब्राह्मण थे । सौभाग्य से इसी कुल में मेरा भी जन्म हुआ है।
अधिकांश पाठक स्वर्गीय शरद बिल्लोरे को जानते हैं । वह मेरे कुल गोत्र के ही सदस्य थे। उनके सबसे बड़े भाई श्री शैलेंद्र श्री अशोक उसके बाद श्री शरद श्री शिव अनुज और सबसे छोटे भाई सुरेंद्र जी है हरदा तहसील के रहटगांव में रहने वाले इस परिवार की बड़ी बहू को बार-बार स्वप्न में तथा एहसास में आशापूर्णा देवी ने आदेशित किया कि मेरा निवास स्थान असीरगढ़ किले की दीवार पर है वहां मेरे सभी बच्चों का आना जाना सुनिश्चित किया जाए। सभी भाइयों को जब यह बात बताई गई तो यह तय किया गया कि प्रत्येक 25 दिसंबर को वहां जाकर सह गोरियों को इकट्ठा किया जावे तदुपरांत वर्ष 1996 से यह प्रक्रिया प्रारंभ कर दी गई तब से अब तक हजारों की संख्या में वच्छ गोत्रियों का समागम वहां होता है। वर्ष 2020 में यह पूजा अति संक्षिप्त कर दी गई थी कोविड-19 के कारण परंतु सामान्य समय में बिल्लोरे सोहनी,शकरगाए, शर्मा, सरनेम वाले नार्मदीय ब्राह्मणों का समागम होता है। वच्छ गोत्रीय चाहे वे विश्व के किसी भी कोने में क्यों ना रहे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सामूहिक पूजन एवं भंडारे का हिस्सा बनते हैं।
नार्मदीय-ब्राह्मण समाज के विभिन्न लोगों का मध्य प्रदेश में आगमन हुआ तब उन्हें अपनी कुलदेवी के लिए उचित स्थान की जरूरत थी कहते हैं । इससे यह भी सिद्ध होता है कि हम रामायण काल में मध्य प्रदेश यानी मध्य भारत में नर्मदा के तट पर आ चुके थे। राजा मांधाता ने हमारे पूर्वज युवा बटुकों को राजाश्रय तथा हमें यज्ञ आदि कर्म के योग्य बनाया। यज्ञी या यज्जी नारमदेव जो नार्मदीय ब्राह्मणों का अपभ्रंश है विवाह भी राजा मांधाता ने कराया ऐसी श्रुति का मुझे ज्ञान है।
आप सब जानते ही हैं कि आदिकाल से भारतीय कौटुंबिक व्यवस्था में एक कुलदेवी को पूजने की परंपरा की परंपरा है। इससे यह सिद्ध होता है कि हर कुल अपनी परंपराओं को अपनी कुलदेवी की निष्ठा के साथ पूजा करते हुए आने वाली पीढ़ी को यह बताता है कि आप किस कुल से संबद्ध हैं।
हमारी कुलदेवी का मूल स्थान गुजरात में कच्छ क्षेत्र में स्थित है। अपने चुनावी मुहिम के दौरान भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी गुजरात के इस मंदिर में जाकर माथा टेक चुके हैं।
कथा एवं श्रुतियों के मुताबिक-" गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र आज भी भारत में अमर है और भटक रहे हैं इसके प्रमाण के रूप में यह माना जाता है कि वे रात्रि में असीरगढ़ के किले में उपस्थित होकर शिव के मंदिर में पूजा करते हैं और एक गुलाब का फूल भी चढ़ाते हैं। सामान्यतः शिव पर अर्पित करने वाले पुष्प सफेद होते हैं किंतु असीरगढ़ किले में चढ़ाए जाने फूलों में पीले फूल धतूरा पुष्प रक्त गुलाब होता है।
2015 से अब तक स्थानीय लोगों के संस्मरण
वर्ष 2015 से वर्तमान में स्थानीय लोग क्रम से है अज्जू बलराम रामप्रकाश बिरराय आदि ने अद्भुत प्राणी जिसे वे अश्वत्थामा मानते हैं से मिलने का जिक्र किया है। पाला नामक बुजुर्ग कहते हैं कि वे लकवा ग्रस्त तभी हुए हैं जब उनकी मुलाकात अश्वत्थामा की हुई। 1984 के मीडिया कटनी से बात करते हुए राम प्रकाश ने मीडिया कर्मी को बताया कि कुछ अजीबोगरीब पैरों के
निशान यहां देखे गए हैं।
अभी हमारे संज्ञान में मात्र इतनी ही तथ्य आ सके हैं। *कुलदेवी मां आशापुरा देवी को समर्पित इस आर्टिकल बहाने हम यह कोशिश कर रहे थे यह हमने कब आशापुरा माता को असीरगढ़ किले स्थापित किया अथवा कोई और लोग हैं जिन्होंने मां आशापुरा को गुजरात से यहां अर्थात असीरगढ़ किले में प्राण प्रतिष्ठित किया है। अगर यह ज्ञात होता कि हम माता के स्वरूप को स्थापित करने वाले हैं तो यह सुनिश्चित हो जाएगा नार्मदीय ब्राम्हण मध्यप्रदेश में कब आए। वैसे राजा मांधाता (6777BCE से 5577 BCE ) कालखंड में हम ओमकारेश्वर रहे थे ।*
शनिवार, जून 12, 2021
दिशा विहीन होता हिंदी साहित्यकार
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