3.7.21

महायोगी हनुमान जी ही रामदुलारे क्यों..? : नमःशिवाय अरजरिया

एक सामान्य नाम की तरह 'रामदुलारे' आम जनों के लिए एक नाम की प्रतीति कराता है। लेकिन भाव जगत के लोगों या जो शब्द में भी ब्रह्म खोजते हैं, के लिए यह नाम बड़ा अनूठा है। ईश्वर की महकती अनुकंपा या प्रीति प्राप्त करने का पर्याय है यह नाम। रामदुलारे का शाब्दिक अर्थ है जो राम का दुलारा अर्थात प्रिय हो। अधिकांश साधक भी भगवतप्रेमी या रामप्रेमी होते हैं अर्थात राम को स्नेह करते हैं, परंतु रामदुलारे की अभिव्यक्ति को तो स्वयं श्रीराम स्नेह करते हैं। राम के चरित्र के अद्भुत चितेरे गोस्वामी तुलसीदास की लेखनी में त्रुटि से भी कोई शब्द निरर्थक नहीं आता। वह प्रियता की श्रेणी के आधार पर मानस में शब्दों का विन्यास बिखेरते है। किसी स्थान पर 'प्रिय' तो किसी स्थान पर 'अतिप्रिय' तो कहीं 'अतिशय प्रिय' एवं अन्यत्र 'प्राणप्रिय' शब्दों का प्रयोग करते हैं। उत्तर कांड के 32 में दोहे के पूर्व वह 'रामदुलारे' हनुमान जी के लिए 'परमप्रिय' विशेषण का प्रयोग करते हैं।
लक्ष्मणजी के लिए-
'लक्ष्मण धाम राम प्रिय'
अयोध्या वासियों के लिए-
अति प्रिय मोह यहां के वासी।
वानरों के लिए-
ताते मोहि तुम 'अतिप्रिय' लागे
भरत के लिए-
भरत 'प्राणप्रिय' पुन लघु भ्राता।
विभीषण के लिए-
सुन लंकेश सकल गुन तोरे।
तातें तुम 'अतिशय प्रिय' मोरे।।
जानकी जी के लिये-
जनक सुता जग जननी जानकी
'अतिशय प्रिय' करुनानिधान की।।
हनुमान जी के लिये-
भ्रातन्ह सहित राम एक बारा।
 संग 'परमप्रिय' पवन कुमारा।। 
आखिर क्या कारण रहा होगा कि परिजनों के लिए मानस मर्मज्ञ प्रिय एवं प्राणप्रिय विशेषणों का प्रयोग करते है जबकि विभीषण जैसे मित्र के लिए अतिशय प्रिय विशेषण का प्रयोग करते हैं। इनसे भी अधिक हनुमान जी जैसे परिकरों के लिए 'परमप्रिय' विशेषण का प्रयोग मानसकार ने किया है। हनुमानजी के उद्दात्त चरित्र के संबंध में मुझ जैसे अल्पमति व्यक्ति जिसमें लेखन का एक भी गुण नहीं है, परम प्रिय विशेषण के प्रयोग हेतु यह कारण उचित जान पड़ा कि हनुमान जी ने सर्व भावों से अपने आराध्य जगदीश्वर श्रीराम का भजन किया। उत्तरकांड में मानसकार इसका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं-
"पुरुष नपुंसक नारि वा, जीव चराचर कोई।
 सर्व भाव भज कपट तजि, मोहि परम प्रिय सोई।।
अर्थात स्त्री, पुरुष, नपुंसक या कोई भी चर जीव या यहाँ तक कि अचर पदार्थ भी यदि संपूर्ण भाव से भगवान का जाप या स्मरण सतत रूप से करता है तो वह भगवान का परम प्रिय  बन जाता है। ऐसा श्री रामचंद्र स्वयं अपने भ्राताओं से कह रहे हैं। हनुमान जी जैसा नाम स्मरण करने वाला जीव चर या अचर संसार में कोई दूसरा नहीं हुआ। वेद, पुराण एवं आगम से लेकर जैन एवं बौद्ध साहित्य में भी ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं मिलता है। मानसकार तुलसी लिखते भी हैं-
"सुमरि पवनसुत पावन नामू।
अपने वश कर राखे रामू।। 
वनवास काल में जब श्रीराम महर्षि वाल्मीकि से अपने निवास स्थान के बारे में जानना चाहते हैं तो महर्षि भी कहते हैं कि आप ऐसे व्यक्तियों के हृदय में निवास करें जो काम,क्रोध,मोह,मान,मद,लोभ एवं क्षोभ जैसे मानसिक विकारों से परे हो। जिनके हृदय में कपट, दंभ एवं माया नहीं बसती है। है रघुनाथ तुम ऐसे जीवो के हृदय में निवास करो।
"काम,क्रोध,मद, मान ना मोहा।
लोभ न क्षोभ न राग न द्रोहा।।
जिनके कपट दंभ नहि माया।
तिनके हृदय वसहु रघुराया।।"
हनुमान जी के पास ना तो माया है और ना ही क्रोध। क्रोध यदि है भी तो राम काज को पूर्ण करने के लिए। माया वानरों की ओर देखती भी नहीं है। नारद जब वानर का स्वरूप धारण कर विश्व मोहिनी के स्वयंवर में गए तो माया रूपी विश्व मोहिनी ने नारद की ओर देखा भी नहीं। हनुमानजी आजीवन ब्रह्मचारी हैं। काम उन से कोसों दूर है। उनके हृदय में तो राम है। कहा गया है- 'जहां राम तंह काम नहि'। हनुमान जी के तो हृदय में काम के रिपु राम धनुर्वाण धारण किए बैठे हैं। हनुमान जी सदैव लघु या अतिलघु रूप में रहते हैं अतः दंभ या अहंकार का प्रश्न ही नहीं है। इसी प्रकार हनुमान जी कपट राग एवं द्वेष से भी पूर्णत: विरत है। अतः वह राम दुलारे है।
महर्षि वाल्मीकि जी यह भी कहते हैं कि, हे रघुनाथ जो आपको ही माता, पिता, गुरु, सखा एवं स्वामी सभी भावों से स्मरण करें, उसके मन मंदिर में आप जानकी जी और लखनलाल के साथ निवास करें। यदि हनुमत चरित्र का विहंगावलोकन करें तो उन्होंने श्री राम को प्रथम परिचय में ही 'स्वामी' कहकर संबोधित किया। उन्होंने सखा मानकर ही श्रीराम एवं सुग्रीव की मित्रता कराई। भगवान श्रीराम ने उन्हें स्वयं 'सुत' नाम से संबोधित किया। अर्थात श्रीराम उनके लिए पिता सदृश्य हैं। इसी प्रकार हनुमान जी ने श्रीराम से प्रथम मुलाकात में ही माता की बुद्धि का आरोपण कर अपने पोषण की अपेक्षा की। यही नहीं आंजनेय ने श्रीराम जी को गुरु मानकर उनसे भजन का उपाय पूछा और श्रीराम ने अनंतर में गुरु की भूमिका का निर्वाह करते हुए उन्हें अनन्यता का उपदेश दिया। मानस में यह सभी भाव है-
"स्वामि सखा पितु मातु गुरु, जिनके सब तुम तात।
 मन मंदिर तिनके वसहु, सीय सहित दोउ भ्रात।।"
कठिन भूरि कोमल पद गामी।
कवन हेतु विचरहु वन स्वामी।।
सुनु सुत तोहि उरिन में नाहीं।
देखउँ करि विचार मन माहीं।
सेवक, सुत, पति, मातु भरोसे।
रहइ असोच बनइ प्रभु पोसे।।
तापर में रघुवीर दोहाई।
जानउँ नहिं कछु भजन उपाई।।
"सो अनन्य जाके असि, मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर, रूप स्वामी भगवंत।।"
हनुमान जी के राम दुलारे बनने का एक कारण यह भी था कि उन्होंने समस्त प्रकार की ममताओं का त्याग कर अपनी ममता राघवेंद्र के श्री चरणों से बांध ली थी। सुंदरकांड में जगदीश्वर श्रीराम स्वयं विभीषण से कहते हैं कि ममतायें दश हैं और जो भी व्यक्ति समस्त दशों प्रकार की ममताओं को एकत्रित कर मेरे चरणों से ममता की रस्सी को बांध देता है, ऐसा संत पुरुष सदैव मेरे हृदय में रहता है।
"जननी जनक बंधु सुत दारा।
तन धन भवन सुहद परिवारा।।
सबके ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहिं बाँध बरि डोरी।।"
संसार में विरले लोग ही होते हैं जो इन दश ममताओं में से किसी एक को छोड़ पाते हैं। भरत जी ने मां की ममता छोड़ी, पिता की ममता का त्याग लक्ष्मण जी ने किया, भाई की ममता का त्याग विभीषण ने किया, सुत की ममता महाराज मनु ने त्यागी, रामजी के लिए पत्नी(सती) का त्याग योगेश्वर शिव ने किया। भगवान राम के लिए तन का त्याग महाराज दशरथ जी ने किया, श्री राम के लिए धन का त्याग श्रृंगवेरपुर के राजा गुह ने किया, भवन अयोध्यावासियों ने त्यागा, सुग्रीम ने सुहदों को छोड़कर श्री राम को मित्र बनाया तथा मुनिजनों एवं संतों ने श्रीराम के लिए अपना परिवार त्याग दिया। इस प्रकार अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग ममता का त्याग किया। धन्य है, महावीर हनुमान जिन्होंने दशों की दशों ममताएं अपने आराध्य कौशलाधीश के लिए त्याग दी, या यूं कहें कि उन्हें ये दशों ममताएँ बांध ही न सकीं।
 मेरे एक बौद्धिक मित्र ने कहा कि हनुमानजी ज्ञानियों में अग्रणी है तथा बुद्धि में वरेण्य है। इसीलिए वह रामदुलारे हैं। क्योंकि प्रत्येक राजा अपने साथ ज्ञानी एवं बुद्धिमान सचिव या सेनापति रखना चाहता है। प्रथमत: तो मुझे उनकी बात सही लगी।सामान्य राजे-महाराजे के लिए यह तर्क उचित भी है। परंतु श्रीराम तो चराचर जगत के स्वामी अर्थात जगदीश्वर है। उनके तो भृकुटी विलास मात्र से सृष्टि में कंपन होने लगता है। ऐसी दशा में लगा कारण कुछ पृथक है। आचार्य रजनीश कहते हैं कि माने गए संबंध, मित्रता तथा गुरु आदि के संबंध नाभि से जुड़े होते हैं । यह संबंध हृदय के संबंधों से प्रबल होते हैं। भगवान श्री राम के लक्ष्मण, भरत एवं जानकी आदि के संबंध हृदय के थे। परंतु विभीषण एवं हनुमान से संबंध नाभि या मणिपुर चक्र से जनित थे। मुझे ओशो का तर्क उचित लगा। वस्तुतः हम भले ही मनुष्य के शरीर में मस्तिष्क को सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग माने, परंतु यह नाभि या नाभि जनित ऊर्जा पर ही आधारित होता है। बिलकुल वैसे ही जैसे कि भवन में शिखर के स्थान पर नींव या वृक्ष में पुष्प के स्थान पर जड़ महत्वपूर्ण होती है। वही व्यक्ति अधिक स्वस्थ माना जाता है जिसकी श्वांस-प्रश्वांस गहरी हो अर्थात नाभि तक आती जाती हो।
नाभि स्थान को यौगिक परंपरा में मणिपुर चक्र कहते हैं वस्तुतः यह मां(शक्ति) का धाम या निवास होता है। जन्म के समय जननी से इसी से हमारा संबंध रहता है। यदि जननी उत्कृष्ट साधिका है, तथा उसके चक्र जागृत है तो उसका जनन भी उत्कृष्ट होगा। हनुमान जी महाराज की माँ अंजना पूर्व जन्म में वायुदेव की अप्सरा पत्नी के साथ शिव की परम भक्त थीं। अतः आंजनेय में जन्मन: भक्ति योग का प्रकट होना स्वभाविक ही था। यदि जन्मना मणिपुर चक्र जागृत नहीं है तो साधना,तप या योग से उसे जागृत किया जा सकता है। आंजनेय की जैविक माता से इतर पालक, पोषक एवं संरक्षक माता जनकनंदिनी जानकी थी। जानकीदुलारे महावीर ने अपनी भक्ति, ज्ञान एवं कर्म से जनकनंदिनी के वरदपुत्र का दर्जा प्राप्त कर अष्टसिद्धियां एवं नवनिधियों के अधिष्ठान होने का वरदान प्राप्त किया। माता जानकी ने हीं उन्हें 'रामदुलारे' होने का आशीर्वाद दिया। यही कारण है कि हनुमान जी राम दुलारे है।
"अजर अमर गुणनिधि सुत होहू। करहु बहुत रघुनायक छोहू।।"
!ॐ नमः शिवाय!
नमःशिवाय अरजरिया
संयुक्त कलेक्टर जबलपुर।

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