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गुरुवार, मई 11, 2023

केदारनाथ मंदिर : अलौकिक स्थापत्य का नमूना लेखिका पूर्णिमा सनातनी


केदारनाथ मंदिर का निर्माण किसने करवाया था इसके बारे में बहुत कुछ कहा जाता है। पांडवों से लेकर आदि शंकराचार्य तक।
आज का विज्ञान बताता है कि केदारनाथ मंदिर शायद 8वीं शताब्दी में बना था।
यदि आप ना भी कहते हैं, तो भी यह मंदिर कम से कम 1200 वर्षों से अस्तित्व में है।
केदारनाथ की भूमि 21वीं सदी में भी बहुत प्रतिकूल है।
एक तरफ 22,000 फीट ऊंची केदारनाथ पहाड़ी, दूसरी तरफ 21,600 फीट ऊंची कराचकुंड और तीसरी तरफ 22,700 फीट ऊंचा भरतकुंड है।
इन तीन पर्वतों से होकर बहने वाली पांच नदियां हैं मंदाकिनी, मधुगंगा, चिरगंगा, सरस्वती और स्वरंदरी। इनमें से कुछ इस पुराण में लिखे गए हैं।
यह क्षेत्र "मंदाकिनी नदी" का एकमात्र जलसंग्रहण क्षेत्र है। यह मंदिर एक कलाकृति है I कितना बड़ा असम्भव कार्य रहा होगा ऐसी जगह पर कलाकृति जैसा मन्दिर बनाना जहां ठंड के दिन भारी मात्रा में बर्फ हो और बरसात के मौसम में बहुत तेज गति से पानी बहता हो। आज भी आप गाड़ी से उस स्थान तक नही जा सकते I
फिर इस मन्दिर को ऐसी जगह क्यों बनाया गया?
ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में 1200 साल से भी पहले ऐसा अप्रतिम मंदिर कैसे बन सकता है ?
1200 साल बाद, भी जहां उस क्षेत्र में सब कुछ हेलिकॉप्टर से ले जाया जाता है I JCB के बिना आज भी वहां एक भी ढांचा खड़ा नहीं होता है। यह मंदिर वहीं खड़ा है और न सिर्फ खड़ा है, बल्कि बहुत मजबूत है।
हम सभी को कम से कम एक बार यह सोचना चाहिए।
वैज्ञानिक अनुमान लगाते हैं कि यदि मंदिर 10वीं शताब्दी में पृथ्वी पर होता, तो यह "हिम युग" की एक छोटी अवधि में होता।
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ जियोलॉजी, देहरादून ने केदारनाथ मंदिर की चट्टानों पर लिग्नोमैटिक डेटिंग का परीक्षण किया। यह "पत्थरों के जीवन" की पहचान करने के लिए किया जाता है। परीक्षण से पता चला कि मंदिर 14वीं सदी से लेकर 17वीं सदी के मध्य तक पूरी तरह से बर्फ में दब गया था। हालांकि, मंदिर के निर्माण में कोई नुकसान नहीं हुआ।
2013 में केदारनाथ में आई विनाशकारी बाढ़ को सभी ने देखा होगा। इस दौरान औसत से 375% अधिक बारिश हुई थी। आगामी बाढ़ में "5748 लोग" (सरकारी आंकड़े) मारे गए और 4200 गांवों को नुकसान पहुंचा। भारतीय वायुसेना ने 1 लाख 10 हजार से ज्यादा लोगों को एयरलिफ्ट किया। सब कुछ ले जाया गया। लेकिन इतनी भीषण बाढ़ में भी केदारनाथ मंदिर का पूरा ढांचा जरा भी प्रभावित नहीं हुआ।
भारतीय पुरातत्व सोसायटी के मुताबिक, बाढ़ के बाद भी मंदिर के पूरे ढांचे के ऑडिट में 99 फीसदी मंदिर पूरी तरह सुरक्षित है I 2013 की बाढ़ और इसकी वर्तमान स्थिति के दौरान निर्माण को कितना नुकसान हुआ था, इसका अध्ययन करने के लिए "आईआईटी मद्रास" ने मंदिर पर "एनडीटी परीक्षण" किया। साथ ही कहा कि मंदिर पूरी तरह से सुरक्षित और मजबूत है।
यदि मंदिर दो अलग-अलग संस्थानों द्वारा आयोजित एक बहुत ही "वैज्ञानिक और वैज्ञानिक परीक्षण" में उत्तीर्ण नहीं होता है, तो आज के समीक्षक आपको सबसे अच्छा क्या कहता ?
मंदिर के अक्षुण खड़े रहने के पीछे :
जिस दिशा में इस मंदिर का निर्माण किया गया है व जिस स्थान का चयन किया गया है I
ये ही प्रमुख कारण हैं I 
दूसरी बात यह है कि इसमें इस्तेमाल किया गया पत्थर बहुत सख्त और टिकाऊ होता है। खास बात यह है कि इस मंदिर के निर्माण के लिए इस्तेमाल किया गया पत्थर वहां उपलब्ध नहीं है, तो जरा सोचिए कि उस पत्थर को वहां कैसे ले जाया जा सकता था। उस समय इतने बड़े पत्थर को ढोने के लिए इतने उपकरण भी उपलब्ध नहीं थे। इस पत्थर की विशेषता यह है कि 400 साल तक बर्फ के नीचे रहने के बाद भी इसके "गुणों" में कोई अंतर नहीं है।
आज विज्ञान कहता है कि मंदिर के निर्माण में जिस पत्थर और संरचना का इस्तेमाल किया गया है, तथा जिस दिशा में बना है उसी की वजह से यह मंदिर इस बाढ़ में बच पाया।
केदारनाथ मंदिर "उत्तर-दक्षिण" के रूप में बनाया गया है। जबकि भारत में लगभग सभी मंदिर "पूर्व-पश्चिम" हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, यदि मंदिर "पूर्व-पश्चिम" होता तो पहले ही नष्ट हो चुका होता। या कम से कम 2013 की बाढ़ में तबाह हो जाता। लेकिन इस दिशा की वजह से केदारनाथ मंदिर बच गया है।
इसलिए, मंदिर ने प्रकृति के चक्र में ही अपनी ताकत बनाए रखी है। मंदिर के इन मजबूत पत्थरों को बिना किसी सीमेंट के "एशलर" तरीके से एक साथ चिपका दिया गया है। इसलिए पत्थर के जोड़ पर तापमान परिवर्तन के किसी भी प्रभाव के बिना मंदिर की ताकत अभेद्य है।
टाइटैनिक के डूबने के बाद, पश्चिमी लोगों ने महसूस किया कि कैसे "एनडीटी परीक्षण" और "तापमान" ज्वार को मोड़ सकते हैं। 
लेकिन भारतीय लोगों ने यह सोचा और यह 1200 साल पहले परीक्षण किया I
क्या केदारनाथ उन्नत भारतीय वास्तु कला का ज्वलंत उदाहरण नहीं है?
2013 में, मंदिर के पिछले हिस्से में एक बड़ी चट्टान फंस गई और पानी की धार विभाजित हो गई I मंदिर के दोनों किनारों का तेज पानी अपने साथ सब कुछ ले गया लेकिन मंदिर और मंदिर में शरण लेने वाले लोग सुरक्षित रहे I जिन्हें अगले दिन भारतीय वायुसेना ने एयरलिफ्ट किया था।
सवाल यह नहीं है कि आस्था पर विश्वास किया जाए या नहीं। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि मंदिर के निर्माण के लिए स्थल, उसकी दिशा, वही निर्माण सामग्री और यहां तक ​​कि प्रकृति को भी ध्यान से विचार किया गया था जो 1200 वर्षों तक अपनी संस्कृति और ताकत को बनाए रखेगा।
हम पुरातन भारतीय विज्ञान की भारी यत्न के बारे में सोचकर दंग रह गए हैं I शिला जिसका उपयोग 6 फुट ऊंचे मंच के निर्माण के लिए किया गया है कैसे मन्दिर स्थल तक लायी गयी I
आज तमाम बाढ़ों के बाद हम एक बार फिर केदारनाथ के उन वैज्ञानिकों के निर्माण के आगे नतमस्तक हैं, जिन्हें उसी भव्यता के साथ 12 ज्योतिर्लिंगों में सबसे ऊंचा होने का सम्मान मिलेगा।
यह एक उदाहरण है कि वैदिक हिंदू धर्म और संस्कृति कितनी उन्नत थी। उस समय हमारे ऋषि-मुनियों यानी वैज्ञानिकों ने वास्तुकला, मौसम विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, आयुर्वेद में काफी तरक्की की थी।

"महाराणा के स्व के लिए भीषण संग्राम और पूर्णाहुति : महाबली हाथी रामप्रसाद"


 इतिहास में प्रचलित पंचांग के अनुसार महा महारथी महाराणा प्रताप की जयंती 9 मई को है परंतु तिथि के अनुसार इस वर्ष 22 मई को मनाई जाएगी।मुगलों के लिए यमराज और हिंदुत्व के सूर्य महाराणा की जयंती के पूर्व आज हल्दीघाटी के युद्ध के एक महायोद्धा - विश्व के सर्वश्रेष्ठ हाथी - महारथी "रामप्रसाद" की याद आ गई। भारतवर्ष सदा से वीरों और वीरांगनाओं की पवित्र भूमि रही है जिसमें विभिन्न प्राणियों ने भी अपनी वीरता के जौहर दिखाए हैं। चतुष्पादों में राणा कर्ण सिंह का घोड़ा शुभ्रक,रानी दुर्गावती का हाथी सरमन, महाराणा प्रताप का हाथी रामप्रसाद और घोड़ा चेतक प्रसिद्ध हैं। यूं तो रामप्रसाद ने महाराणा प्रताप के साथ अनेक युद्ध लड़े थे परंतु हल्दीघाटी का युद्ध रामप्रसाद वीरता का चरमोत्कर्ष था, जो चिरकाल तक अविस्मरणीय रहेगा। 
18 जून को प्रातः हल्दीघाटी में भयंकर मोर्चा खुल गया महाराणा प्रताप के अग्रिम दस्ते ने मुगलों को खमनौर तक खदेड़ा मुगलों में अफरा-तफरी मच गई। पुन:शहजादा सलीम, मान सिंह, सैय्यद बारहा और आसफ खान ने मोर्चा संभाला। शहजादा सलीम और मान सिंह की रक्षार्थ 20 हाथियों ने घेराबंदी कर रखी थी। घेराबंदी तोड़ने के लिए राणा प्रताप ने रामप्रसाद को आगे बढ़ाया अपरान्ह लगभग 12.30 बजे हाथियों का घमासान युद्ध हुआ। शस्त्रों से सुसज्जित रामप्रसाद ने भयंकर रौद्र रुप धारण किया अकबर के 13 हाथियों को अकेले रामप्रसाद ने मार डाला और 7 हाथियों को मोर्चे से हटा दिया गया। इस तरह राणा प्रताप के लिए रामप्रसाद ने शहजादा सलीम और मानसिंह तक पहुंचने का मार्ग खोल दिया। महाराणा प्रताप ने शहजादा सलीम पर भयंकर आक्रमण किया, महावत मारा गया और हौदे पर जबरदस्त भाले का प्रहार किया, शहजादा सलीम नीचे गिर गया जिसे बचाने मान सिंह आया परिणाम स्वरूप मान सिंह की भी वही दुर्गति हुई। शहजादा सलीम और मान सिंह युद्ध भूमि से पलायन कर गए। सैय्यद बारहा और आसफ खां पर राणा पूंजा (पूंजा भील) ने घात लगाकर हमला किया। मुगल सेना हल्दीघाटी से पलायन कर गई और महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी का युद्ध जीत लिया। परंतु दूसरी ओर रामप्रसाद ने शेष हाथियों का पीछा किया और आगे निकल गया परंतु थकान अधिक हो गई थी और महावत भी मारा गया तब 7  हाथियों और 14 महावतों की सहायता से पकड़ा गया। अकबर के इस युद्ध का एक कारण रामप्रसाद हाथी की प्राप्ति भी करना था, परंतु सब व्यर्थ गया अकबर ने इसका नाम पीरप्रसाद रखा और हर प्रकार के मनपसंद खाद्यान्न प्रस्तुत किए परंतु रामप्रसाद ने ग्रहण नहीं किया और इसी अवस्था में 18 दिन बाद रामप्रसाद ने प्राणोत्सर्ग किया। धूर्त अकबर ने स्वयं रामप्रसाद की मृत्यु पर कहा कि "जिसके हाथी को मैं नहीं झुका सका.. उसके स्वामी को क्या झुका सकूंगा"। अंत में यह सत्य ही है कि धन और संपत्ति आएगी भी - जाएगी भी - फिर आएगी, परंतु आत्म सम्मान जाने के बाद कभी लौट कर नहीं आता है। महाराणा प्रताप के स्व के लिए पूर्णाहुति देने वाले महारथी हाथी रामप्रसाद को शत् शत् नमन है
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डॉ. आनंद सिंह राणा,श्रीजानकीरमण महाविद्यालय एवं इतिहास संकलन समिति महाकोशल प्रांत 🙏🙏

बुधवार, मई 10, 2023

स्मृतियों के गलियारों दैनिक पुलका महोत्सव


हमें नहीं मालूम था कि डाइनिंग टेबल क्या होता है। परमिशन से ही मिलती थी बिस्तर पर बैठकर खाने की जो बुखार से पीड़ित होता था। और वह भी एक गहन देखरेख में। केवल दो तरह की दवाई चलती थी कम्युनिटी मेडिसिन के नाम पर एपीसी एवं सल्फर बेस्ड ड्रग #सल्फा_डायजिन फिर बीमार हुए जाता तो पहुंच गए अस्पताल।
फल वालों के यहां वही जाते थे जिनके घर में कोई मरीज होता था। दीवान साहब के यहां शाम कुछ लोग चले आए और पूछने लगे:- सुबह जब मैं अदालत जा रहा था तब आपको मैंने साइकिल पर फल वाले से फल लेते हुए देखा कोई बीमार है क्या दादा जी तो ठीक है न?
   हां भाई सब ठीक है पर दादाजी को डॉक्टर ने बताया है की जरा एप्पल वगैरह खिलाओ। 
एप्पल कैसे खिलाते हो छिलके निकाल के?
जी हां बिल्कुल, ठीक है जैसा डॉक्टर कहीं वैसा चलेगा। दादा जी से मिल लिया जाए बहुत समय तक दादा जी के साथ वकील साहब ने वार्तालाप की और फिर इसके बाद शाम के रात में परिवर्तित होने का अनुभव हुआ।
  स्मृतियों के गलियारों में आपको याद होगा स्कूल के लिए निकलने से पहले मां सब बच्चों को एक लाइन से बिठाकर भोजन कराती। एक घर में कम से कम चार से पांच बच्चे हुआ करते थे हम तो 6 भाई-बहन थे। बड़ी बहन सबसे ज्यादा जिम्मेदार और बड़ा भाई सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता था इन दोनों की आज्ञा का पालन करना शेष सभी की बाध्यता थी ।
  हां तुम्हें बता रहा था कि हमारे यहां रोज पुलका महोत्सव मनता था। आपके यहां भी मनता होगा है न..?
कटोरियां थालियों और क्रमबद्ध बैठने की नियमावली एवं व्यवस्था  सबको मालूम हुआ करती थी सबसे छोटा बच्चा मां के सबसे नजदीक होता था।
   तब किचन के पास डाइनिंग हॉल का कोई कॉलम नहीं था । सुविधा की दृष्टि से चल फिर की जगह छोड़कर बच्चों को बराबर संख्या में बांट दिया जाता था। बैठक में भोजन पट्टी और  लकड़ी के पाट मान्य थे। हाथ धोना अनिवार्य था घरेलू वस्त्र पहनना अनिवार्य था बाहर के वस्त्र पहनकर कोई खाना नहीं खा सकता था। अपने आराध्य को स्मरण कर भोजन करने की परंपरा वहीं से सीखी है। 
हमारे घर सुबह का रोटी महोत्सव बेहद जोरदार हुआ करता था। 9:30 तक मां बच्चों को आवाज देने लगती थी। कब उठती थी कब सोती होगी इसका हमें कोई अंदाज ना था। यह जब रोटियां यानी पुलके चूल्हे में नाचते थे न बहुत प्यारे लगते थे। तवों पर भी इनका नृत्य अनोखा हुआ करता था।
   घर में लगी हुई या बाजार से मंगाई गई सब्जियां बड़ी स्वादिष्ट हुआ करती थी। मजेदार माहौल तो जब गोभी का सीजन आता था तब बनता था। रसेदार गोभी की सब्जी गोभी की अपनी खुशबू मां के हाथ की अपनी खुशबू अद्भुत वाह खुशबू का विवरण में लिख नहीं सकता। क्योंकि शब्द हीन हो गया हूं। गुड़ तो मेरी कमजोरी थी जैसे खानपान में सबकी अपनी अपनी कमजोरियां । हां एक ऐलान मैंने जरूर किया था अब इस घर में अगर मूंग की दाल बनी तो मैं बिल्कुल घर से भाग जाऊंगा..!
कहां भागोगे?
वहां जहां अच्छी सब्जी बनती हो।
अच्छा तुम कोई बड़े अफसर बन गए या कोई प्रधानमंत्री बन गए तो क्या करोगे मूंग की दाल कभी किसी ने दी तो नहीं खाओगे क्या ?
माता जी मैं प्रधानमंत्री बना तो मूंग की दाल पर प्रतिबंध लगा दूंगा। और फिर सब के ठहाके गूंज उठे। मैं समझ ना पाया क्या कह गया और फिर मैं भी उनकी हंसी में शामिल हो गया।
  सुबह शाम के *पुलका महोत्सव* मनाती वक्त इस बात का माता जी को विशेष ख्याल रहता था कि कौन कितना खाएगा?
   अपनी छोटी बहन से बोला मैंने बिंदु- मैंने आज एक रोटी और लेनी है।
मां ने जब यह सुना तो कहा- रोज थाली में खाना छोड़ना गलत बात है। खाना मत छोड़ा करो।
मुझे उस दिन उतनी ही रोटियां मिली जितनी में खा सकता था। लेकिन मां तो मां होती है न !
  सब्यसाची मां ने मेरे टिफिन में रोटी की संख्या बढ़ा दी। पता नहीं उन लोगों को डाइटिशियन का कोर्स कौन कराता था।
   स्कूल में पहुंचते ही दो की जगह 3 रोटी देखकर बांछें खिल गई। अब मैं रोटी की कीमत समझने लगा था।
   भारत में हजारों लोग शास्त्री जी के आह्वान को अपने मस्तिष्क में बैठा कर रखते थे जिन्होंने दिया था जय जवान जय किसान का नारा। मां भी अन्न की बर्बादी के लिए बेहद दुखी होती थी अंततः मुझ में वह आदत आ ही गई कि कम से कम थाली में कुछ न छोड़ा जाए।
  1966 में ताशकंद समझौते के बाद एक दिन बाबूजी मां सभी बेहद उदास थे वे बहुत देर बाद समझ में आया कि - मितव्ययिता  पाठ पढ़ाने वाले प्रधानमंत्री जी के निधन के कारण वे दुखी हैं।
     यह तब समझ में आया जब लगभग 10 वर्ष के हो गए।
    हमारा दैनिक पुलका महोत्सव जय किसान के बिना संभव न था। कुल मिलाकर सुबह-शाम के पुलका में मिलने वाले आहार की श्रेष्ठता और खुशबू भले ही अभिव्यक्त करना मुश्किल हो मस्तिष्क में रची बसी है। कैसी लगी मेरी स्मृतियां? टिप्पणी जरूर कीजिए
*गिरीश बिल्लौरे मुकुल*

बुधवार, मार्च 08, 2023

राजनेताओं के लिए गधे कम पड़ गए थे


जबलपुर में रसरंग बरात का अपना 30 साल पुराना इतिहास है। हम भी नए-नए युवा होने का एहसास दिलाते थे। कार्यक्रमों में येन केन प्रकारेण उपस्थिति और उपस्थिति के साथ अधकचरी कविताएं कभी-कभी सुनाने का जुगाड़ हो जाता था।

देखा देखी हमने भी राजनीति पर व्यंग करना शुरू कर दिया.... सफल नहीं रहे....कहां परसाई जी कहां हम.... कहाँ राजा-भोज कहाँ गंगू तेली,,,!

 हमने अपनी कविताएं जेब में रख ली और अभय तिवारी इरफान झांसी सुमित्र जी  मोहन दादा यानी अपने मोहन शशि भैया की राह पकड़ ली। गीत लिखने लगे शशि जी के गीत गीत गीले नहीं होते बरसात में की तर्ज पर अपनी हताशा दर्ज करती गीत मिले हुए अब के बरसात में और ठिठुरते रहे सावनी रात में..! अथवा सुमित्र जी का गीत “मैं पाधा का राज कुंवर हूं...!”

पूर्णिमा दीदी के गीत अमर दीदी के गीत गहरा असर छोड़ते थे और अभी भी भुलाए नहीं भूलते। बड़े गजब के गीत लिखते हैं सुकुमार से कवि चौरसिया बंधु हमारे अग्रज उस दौर की कविताएं बिल्कुल घटिया न थी।

छंद मर्मज्ञ भाई आचार्य संजीव वर्मा सलिल ने तो गीत रचना में छंद की प्रतिष्ठा को रेखांकित कर दिया था।

जी हां 30-35  बरस पुराना साहित्यिक एनवायरमेंट जबलपुर में वापस नहीं लौटेगा,  कारण क्या है, मुझे नहीं मालूम पर यूनुस अदीब,  पथिक जी रसिक जी कमाल के गीतकार हैं।

आज आप जिनको पत्रकार कहते हैं वह पत्रकार नहीं कवि और गीतकार भी थे जी हां मैं जिक्र कर रहा हूं गंगा पाठक जी का। फैक्ट्री से लौटकर मानसेवी पत्रकार के रूप में गंगा भैया की कविता प्रभावित करने के लिए काफी हुआ करती थी।

पूज्य रामनाथ अग्रवाल जी के घर की गोष्ठी हो या सुमित्र जी के ठिकाने पर आनंद का अनुभव होता था भले ही घर देर से लौटने पर यानी लगभग रात 3 बजे तक लौटने पर कितनी फटकार न मिली हो।

दूसरे दिन अखबारों में अपने नाम को तलाशना हमारा शौक बन गया था। शशि जी ने खूब छापा कवि बना दिया। एक गोष्ठी में शायद वह गोष्टी सुमित्र जी के जन्मदिन पर थी। मेडिकल निवासी गेंदालाल जी सुमित्रा जी को जरी शॉपी उपहार स्वरूप। और कहने लगे माला काहे से बनती है जरी से और फूल से - तो गेंदा हम हैं जा जरी लै लो कमरा उन्मुक्त खिलखिला हट से गूंज गया। तभी  पूज्य मां गायत्री ने खीर खिला दी। सुमित्र जी और शशि जी ने बताया था कि-" कवि गोष्ठियों को कार्यशाला समझा जाना चाहिए।"

 सच में अब कार्यशालाएं नहीं होती। अनेकांत को छोड़कर कोई भी संस्था निरंतर कवि गोष्ठी नहीं करती। मध्यप्रदेश लेखक संघ ने कुछ दिन तक मोर्चा संभाला पर कवियों में भी राजनेता के गुण आ ही जाते हैं कोई बात नहीं मध्य प्रदेश लेखिका संघ ने बहुत दिनों तक इस परंपरा को आगे बढ़ाया।

सूरज भैया का पढ़ने का तरीका और मानवीय संवेदना ओं को उभार कर लिखने की प्रवृत्ति अद्भुत है अद्वितीय है।

गणेश नामदेव जी का डायरी खोलने का स्टाइल अभी तक आंखों के सामने घूमता है। कुछ दिनों बाद तो यह लगने लगा था कि जबलपुर में पुष्प वर्षा करो तो हर तीसरा फूल किसी ना किसी कवि के माथे पर ही लगता है। फिर धीरे-धीरे कहानी मंच मिलन मित्र संघ की यादें ताजा हो रही है।

हिंदी मंच भारती ने भी नए स्वर नए गीत कार्यक्रमों का सिलसिला जारी रखा था। अखंड कवि सम्मेलन इसी जबलपुर में हुआ है। गजब की बात है कि कवियों का टोटा नहीं पड़ा।

उस दौर में समाचार पत्र भी गजब काम करते थे। तब साहित्यकार पत्रकार भी हुआ करते थे अब यदा-कदा अरुण श्रीवास्तव जैसे साहित्यकार पत्रकार की तरह नजर आते हैं।

माटी की गागरिया जैसी कविता लिखने वाले भवानी दादा को कौन भूलेगा। पूजनीय सुभद्रा जी केशव पाठक पन्नालाल श्रीवास्तव नूर के इस शहर में कविता अब कराह रही है ।

ऐसा नहीं है कि बसंत मिश्रा यशोवर्धन पाठक विनोद नयन कोई कोशिश नहीं कर रहे हैं या राजेश पाठक प्रवीण ने कोर कसर छोड़ रखी हो। पर पता नहीं क्या हो गया है वह कार्यशाला नहीं होती जिसे हम गोष्ठी कहते थे। मणि मुकुल जी को भूलना गलत होगा। साधारण सा व्यक्तित्व साधारण सी कविता मणि मुकुल के अलावा बहन गीता गीत भी लिखती हैं तो डॉ संध्या जैन श्रुति ने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। विनीता पैगवार, रजनी कोठारी

सवाल गंगाचरण से भी है जब लिखते हैं तो अटेंशन पाते हैं जब पढ़ते हैं तो गहरा असर छोड़ते हैं। यूनुस अदीब, संतोष नेमा अभी की कोशिश कर रहे हैं।

    राजनेताओं के लिए गधे कम पड़ गए थे के लिए इंतज़ार कीजिये 



 

बुधवार, मार्च 01, 2023

सामरिक ताकत बनने से पहले मानव संसाधन का विकास जरूरी है

    कॉलेज के दिनों में बढ़-चढ़कर हम अक्सर निशस्त्रीकरण पर बेहद प्रभावशाली ढंग से अपने विचार रखा करते थे। उस दौर में हमारे मस्तिष्क में भी शस्त्र विहीन राष्ट्र की कल्पना अत्यधिक आदर्शवादी ताकि चलते हावी रहा करती थी।

उन दिनों सैन्य शक्ति के संदर्भ में भरत किसी भी गिनती में नहीं आता था। परंतु हमारे मस्तिष्क में हमेशा ही विश्व की भारत के लिए की जाने वाली चैरिटी का ख्याल बना रहता था। आर्थिक दृष्टि से भारत की विकास दर इतनी धीमी थी जितनी थी चीटियां भी धीमी गति से नहीं चलती। तब हम चिंतित जरूर थे परंतु हताश नहीं । तब भारत कई मोर्चों पर युद्ध रत रहा है। सीमा पर हमेशा चीन और पाकिस्तान की हरकतें देश कौन उत्साह विहीन करने की कोशिश करती रही हैं। दूसरा मुद्दा भारतीय जनता की स्वास्थ्य शिक्षा से संबंधित समस्याएं।

एक और कुपोषण रक्त अल्पता औसत आयु में कमी तथा सामाजिक स्वास्थ्य के गिरते हुए समंक हमारे मस्तिष्क को जब जोड़ देते थे वहीं दूसरी ओर शिक्षा का स्तर भी बेहद शर्मनाक था। सोचिए जब हम अपने जॉब में आए तब भी शिक्षा का स्तर और स्वास्थ्य संबंधी आंकड़ों में कोई उत्साहवर्धक परिणाम नजर नहीं आते थे।

   खेतों में उपस्थित का अनाज अपर्याप्त था।  केयर जैसे संस्थान अमेरिका से प्राप्त खाद्यान्न सहायता के परिवहन का कार्य करती थी। तब यूनिसेफ टीके लगाने के लिए अभी प्रेरक और प्रमुख सहायक एजेंसी के रूप में हमारी के लिए तत्पर हुआ करती थी।

   मेरा चिंतन हमेशा से ही समाज में कुछ धनात्मक देखना चाहता था। इसके पीछे एक कारण है वह कारण जानेंगे तो आप समझ जाएंगे कि मैंने एक खास विभाग में नौकरी करना क्यों पसंद किया। ऐसा नहीं कि मेरे पास विकल्प न रही हों। बहुत सारे विकल्प थे पत्रकारिता वकालत और ढेरों सरकारी नौकरियां। पत्रकारिता में मेरे मित्र आज कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं तो वकालत करने वाले साथियों ने तो हाई कोर्टस में न्यायाधीश का रुतबा हासिल कर दिया है। मुझसे मेरे इंटरव्यू में पूछा गया कि-"आपने यह जॉब क्यों पसंद की?"

मैं जानता नहीं जानता था कि प्रश्न किस उद्देश्य से किया गया? शायद वह समझ रहे होंगे कि- इससे बेहतर अपॉर्चुनिटी मुझे मिल सकती है। मैंने अपनी बैसाखियों   की ओर इशारा करते हुए कहा-" मैडम अगर उस वक्त जब मेरा जन्म हुआ था पल्स पोलियो अभियान चलाया गया होता तो शायद मैं इन बैसाखियों के सहारे नहीं चलता ।  मैंने सोचा नहीं था कि ऐसा मैं कह पाऊंगा।

   पर यही वाक्य शायद उनके हृदय पर गहराई से अंकित हो गया था।

अपनी नौकरी के साथ-साथ लोग सोशियो इकोनामिक डेवलपमेंट के लिए अगर  चिंता करने लगेंगे तो तय है कि किसी ना किसी दिन भर आदर्श स्थिति में नजर आएगा ऐसा उस वक्त भी मेरा मानना था और आज भी यही सोचता हूं।

   काम करते-करते समझ में आता था कि महिलाओं का प्रसूति के दौरान मरना स्वाभाविक प्रक्रिया है आंकड़े रोके नहीं रुक रहे हैं। कई बच्चे तो पहला जन्मदिन भी नहीं बना पा रहे। जब फैमिली प्लानिंग पर किसी को समझा रहा था तब भीड़ में से एक महिला ने ठेठ देहाती भाषा में मुझे डपकते हुए कहा-" बेकार की बातें मत कीजिए साहब, हमारे परिवार में हम यह सब नहीं कर सकते। परिवार में अब तक कोई भी बच्चा 6 महीने या 1 साल से ज्यादा जिंदा नहीं रहा है हम अगर परिवार कल्याण अपना लेंगे तो शायद हमें मुक्ति भी ना मिल पाए?"

   मेरा प्रति प्रश्न था कि क्या आपने घर परिवार में बच्चों के जन्म को लेकर केवल ईश्वर पर भरोसा किया है? उत्तर होना स्वाभाविक था। तब मैंने कहा माताजी अगर आप मुझ पर भरोसा करें आंगनवाड़ी पर भरोसा करें तो शायद इस बार ऐसा ना हो? फिर आप जैसा कहोगी मैं मान लूंगा और यहां तक कह डाला कि-" तुम्हारे साथ चलूंगा सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देने के लिए"

  बात का पूरा पूरा असर हुआ आखिर बुजुर्ग महिला अपने कुल के लिए इससे बेहतर और क्या सोच सकती है। इस परिवार पर मेरी विशेष नजर थी। परिवार में हर गर्भवती के रजिस्ट्रेशन और टाइमली टीकाकरण के साथ-साथ आयरन की गोलियां उपलब्ध कराई जाती थी और उसे नियमित रूप से प्रेगनेंसी पीरियड में खाने की मॉनिटरिंग भी सुनिश्चित कर ली थी ।

    यहां आइए 30 से 35 वर्ष पुराने भारत की तस्वीर है जो मैंने आपको दिखाई। आप देख नहीं पाते क्योंकि विकास केवल ढांचागत आकृतियों में नजर आता है। विकास को देखने का नजरिया सबसे पुख्ता तौर पर किसी भी देश की वाइटल स्टैटिसटिक्स को देखने का नजरिया ही होता है। जन्म दर मृत्यु दर मातृ मृत्यु दर एनीमिया स्कूल ड्रॉपआउट रेट से लेकर कम्युनिटी मेडिसिन और प्रैक्टिसेज देखने वाला मुद्दा है। मेरे मित्र स्वर्गीय डॉक्टर संजय श्रीवास्तव कहा करते थे कि- 10 परसेंट मरीज मेरे हैं 90% आपके ही आप चाहे तो तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी।"

हुआ भी वही परंतु मुझे महसूस हो रहा था कि तस्वीर बदलने में शिक्षा आड़े आती है उन पर पारिवारिक परंपराएं हावी रहती हैं और इस बात का भय भी कि 4 लोग क्या कहेंगे।

   यह चार लोग कौन हैं मैंने तो आज तक नहीं देखा आपने देखा हो तो बताइए। इसका भय हर मन से हटना जरूरी है। बहुत मेहनत मशक्कत लगती है अच्छी परंपराओं को बरकरार रखने और गलत परंपराओं को समाप्त करने में। एक्सक्लूसिव ब्रेस्टफीडिंग एक रामबाण इलाज है परंतु यह मुद्दा भी बड़ी मुश्किल से समझ में आने लगा है। शहरी दंपत्ति खास तौर पर महिलाएं यहां तक कि डॉक्टर्स भी कोलोस्ट्रम वाला दूध पिलवाने के संदेश को तेजी से प्रोत्साहित नहीं करते हैं , बताएगा इस मुद्दे पर झगड़े भी कर लेता था।

  बदलाव के लिए केवल मैं ही जिम्मेदार हूं ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं बदलाव के लिए मेरे जैसे लाखों लोग इसमें शामिल है। जो यह जानते हैं कि मानव संसाधन का विकास बिना वाइटल स्टैटिसटिक्स के आंकड़ों में पॉजिटिव सुधार लाए संभव नहीं है। भारत की स्वास्थ्य सेवाओं में गुणवत्ता तभी से नजर आने लगी थी। कोविड-19 के दौरान जब लोग इस बात के लिए घबराए हुए थे कि हम 10 साल में भी टीका लगा पाएंगे या नहीं तब हम जैसे लोग इस मुद्दे पर किसी तरह का मानसिक टेंशन नहीं लेते थे। वजह थी हमारी मजबूत वर्किंग फोर्स।

और उससे भी बड़ी वजह थी व्यवस्था में आपसी तालमेल। स्वास्थ्य आंगनवाड़ी शिक्षा के साथ-साथ सामुदायिक सहयोग का सिंक्रोनाइजेशन कोविड-19 टीकाकरण की सफलता का प्रमुख रहस्य रहा है।

अब जब कुछ दिनों में मैं सरकार से रिटायर हो जाऊंगा तब भी इस परिवर्तन को देखकर अपने आप को सौभाग्यशाली मानूंगा की किस तरह से हमने एक युग को बदलते देखा है।

मेरी मैदानी वर्कर अक्सर दुखी रहा करती थी कि उनके केंद्र पर महिलाएं नहीं आती। हमने एक प्रयोग शुरु कर दिया और आपस में थोड़ा बहुत चंदा किया तथा हर गर्भवती महिला की गोद भरने की रस्म प्रारंभ की गई। हम महिला को यह बताने में सफल रही थे कि-" हमारा मैदानी केंद्र आपके लिए पिता का घर है।" 

  इंस्टीट्यूशनल डिलीवरी तक महिलाओं को उनके ससुराल में बांध कर रखना मेरी कल्पना थी। और इस परिकल्पना को आकार देने में हमारे विभाग की कमिश्नर श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव एवं सबके लिए प्रिय एवं आदरणीय आईएएस अधिकारी श्री ने इस योजना को पूरे प्रदेश में लागू कर दिया।

    यह एक निजी इनीशिएटिव था जो आगे चलकर विराट रूप लेने वाला था इसका मुझे और मेरी टीम को ज्ञान नहीं था। हमारी केंद्र एक सांस्कृतिक आकर्षण पैदा कर सके जिससे हम अपनी बात पुख्ता तौर पर कहने के लिए समर्थ हो चुके थे।

   ऐसा मशीनें नहीं करती हैं मशीनें सटीक काम तो करती है लेकिन संवेदना एवं सुविधाओं के साथ नहीं।

   हां मुझे याद आ रहा है जब बीसीजी की वाइल खोलने के लिए 4 बच्चों का होना जरूरी होता था। इस सिस्टम को खत्म करने के लिए जोरदार तरीके से हम लोगों ने अपनी बातें स्टेट सेमिनार में रखी। इससे यूनिफॉर्म इम्यूनाइजेशन कार्यक्रम को ताकत मिली और उम्र के पहले वर्ष में लगने वाले टीके समय पर लगने लगे। पोलियो के मामलों पर भारत ने जिस तरह से चक्रव्यूह रच दिया है उसका तोड़ स्वयं विश्व स्वास्थ्य संगठन के पास भी न होगा क्योंकि भारत के पास मानव संसाधन का एक विराट कोर्स उपलब्ध है।

   इस आर्टिकल का उद्देश्य केवल यही है कि अगर आप भारत को विश्व गुरु के रूप में देखना चाहते हैं तो  बारीकी से सामाजिक चिंतन की जरूरत है। यूं ही नहीं हो जाता है socio-economic डेवलपमेंट।

शनिवार, फ़रवरी 11, 2023

दक्षिण एशिया का बदनाम देश : पाकिस्तान

 


आर्थिक बदहाली, गिरते जीवन-समंक, स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा , लोकशाही की दुर्दशा , बन्दूक की नोक पर चकाघिन्नी होती डेमोक्रेसी, आतंक का एपी-सेंटर, 14 अगस्त 1947 को ब्रिटिश-इंडिया से आज़ाद हुए जिन्ना के नापाक इरादों, एवं जयचंदों की मदद से पैदा पाकिस्तान अब दक्षिण एशिया का सबसे बदनाम देश हो चुका है.विश्व मानता है कि इस देश के नागरिकों की साख भी संदिग्ध हो गई है. किल मिलाकर  पाकिस्तानी पासपोर्ट की इज्ज़त नकारात्मक रूप से प्रभावित हुई है.

समाज विज्ञानी एवं रक्षा क्षेत्र के विद्वानों का मानना है कि-“भारत के खिलाफ इस्लामिक  कार्ड खेलने के किसी भी अवसर को नहीं चूकने वाले इस देश ने अपनी नस्लों को जो इतिहास पढ़ाया जाता है कि –“हिन्दू, सिख, यहूदी और हर गैर इस्लामिक एवं बुत-परस्त काफिर हैं वे हमारे दुश्मन हैं. !”.. इसके आगे क्या क्या सिखातें हैं हम सब जानते हैं विश्व भी जानता है . आज हम इस मुल्क यानी पाकिस्तान की एक और करतूत उजागर करते हैं , जिस पर विश्व खासतौर पर यूरोप 9/11 के बावजूद खामोश है. जी हाँ हम बलोच सिन्धु, पश्तूनों की आज़ादी के दीवानों के मानवाधिकारों की बात करतें हैं......  

ऐसी स्थिति में वहाँ की युवा जनसंख्या दिशा-भ्रमित है. किशोर अवस्था तक इस्लामिक जेहाद को सर्वोपरी मान बैठता है. 1971 में आज़ाद हुए  

बलूचिस्तान , पाकिस्तान  का पश्चिमी प्रान्त है जिसकी जनसंख्या 2 करोड़ के आसपास है.। बलूचिस्तान  ईरान के सिस्तान एवं बलूचिस्तान”  तथा अफ़गानिस्तान के सटे हुए क्षेत्रों में बँटा हुआ है, बलोचिस्तान की राजधानी क्वेटा  है । यहाँ के लोगों की प्रमुख भाषा बलूच या बलूची   है 

1944 में बलूचिस्तान को स्वतन्त्रता देने के लिए ब्रिटिश इंडिया के एक जनरल मनी ने किया था .  पाकिस्तान के संस्थापक और प्रथम गवर्नर-जनरल मोहम्मद अली जिन्ना ने अंतिम स्वाधीन बलूच शासक मीर अहमद यार खान को पाकिस्तान में शामिल होने के समझौते पर कुरआन की क़सम देकर समझौते दस्तखत करने के लिए मजबूर किया था 

यह कार्य 11 अगस्त 1947 को ब्रिटिश एवं यूरोपीयन देशों के  इशारे पर इसे जिन्ना ने पाकिस्तान में शामिल कर लिए गए बलूचिस्तान में 1970 के दशक से प्रो-आर्मी पाकिस्तानी डेमोक्रेसी एवं प्रशासनिक सामाजिक भेदभाव से दु:खी होकर बलोच-राष्ट्रवाद का अभ्युदय हुआ.इस प्रांत की जनसंख्या 78 लाख से अधिक एवं क्षेत्रफल  347190 वर्ग कि.मी.  (1,34,050 वर्गमील) है. जो पाकिस्तान का 44% भू-भाग है.

पाकिस्तान में बलूचिस्तान,सिंध,केपीके में मौजूद प्राकृतिक-संपदा एवं व्यापारिक दृष्टि से अन्य प्रान्तों से अपेक्षाकृत अधिक है परन्तु वहां की जनता की बदहाली  (स्वास्थ्य,शिक्षा, रोज़गार,) चिंताजनक है. सारी सुख-सुविधाएं  पाकिस्तानी पंजाब सूबे के पास जाती है.  बलूचिस्तान,सिंध,केपीके की जनता बेहद गरीब हैं. उनका जिनोसाईट किया जाता है. हाल ही में स्पेस में बलोचों नें बताया –“2 हज़ार महिलाओं को लापता कर दिया गया. ताहिर बलोच, हनी बलोच, मिराब्ल बलोच ने बताया कि-हमारे पढ़ने लिखने वाले बच्चों, महिलाओं, तक  को कंसंट्रेशन-कैम्पस में रखा जा रहा है.

2015 में  जिनेवा में आयोजित कांफ्रेंस जिसका विमर्श एजेंडा था  'बलूचिस्तान इन द शैडोज' , कांफ्रेंस का सारांश , "बलूचिस्तान में मानवाधिकारों की स्थिति बुरी तरह से खराब हो रही है। नागरिकों को सुरक्षा देने और कानून का राज कायम रखने के बुनियादी कर्तव्य में क्षेत्र की प्रांतीय एवं राष्ट्रीय सरकार नाकाम साबित हुई हैं वहां केवल सेना और उनकी बन्दूक वाला विधान चलता है.

  1948-49 से अब तक पाकिस्तान के विरुद्ध अब तक  ब्लोचों द्वारा पांच बार सशस्त्र क्रांतिकारी आन्दोलन की गई है. वर्तमान में बलोच-सिन्धुदेश-केपीके की आज़ादी के लिए सोशल-मीडिया पर अंतर्राष्ट्रीय-नैरेटिव लगातार जारी है.  

 मशहूर बलूच कार्यकर्ता नाएला कादरी ने एक प्रेस मीटिंग में कहा था कि- 'राजनैतिकलोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष स्वतंत्रता संघर्ष को दबाने के लिए पाकिस्तान नरंसहार कर रहा है।यह भी उनके द्वारा ही  कहा था-बीते एक दशक में लाख बलूचियों को मार डाला गया है। 25000 पुरुष एवं  महिलाएं  लापता हुई हैंजिनमें पाकिस्तान की सेना का हाथ रहा है। वो लोग नरंसहार की पहचान के लिए निर्धारित संयुक्त राष्ट्र के सभी आठ संकेतों पर अमल कर रहे हैं और इसमें अमानवीयकरणध्रुवीकरणविनाश और अस्वीकार भी शामिल हैं 

 

 

बुधवार, फ़रवरी 08, 2023

भारतीय मानव सभ्यता एवं संस्कृति के प्रवेश द्वार की पड़ताल

भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता को लेकर जो भी प्रयास किए गए चाहे वह साहित्यकारों ने किया हो या इतिहासकारों ने जहां मुझे गलत समझ में आया मैंने उसका प्रतिकार करने की सौगंध खाई है। इस कृति में आप नदी घाटियों के तट पर विकसित होने वाली सभ्यता और संस्कृति के बिंदुओं को समझ पाएंगे। यह कृति मां भारती को समर्पित है । मुझे आशा नहीं करनी चाहिए बल्कि विश्वास करना चाहिए कि आप सब तथाकथित प्रगतिशील दस्तावेजों के व्यामोह से स्वयं को मुक्त पाएंगे इस कृति को पढ़ने के बाद। खुलकर कहना खुल कर लिखना पराशक्ति प्रदत्त समर्थ के बिना मुझ अकिंचन के लिए संभव न था। यह कृति आप शीघ्र ही फ्लिपकार्ट अमेजॉन तथा अन्य ऑनलाइन मार्केट से प्राप्त कर सकते हैं। मुझे विश्वास है कि आप भारत को भारत के दृष्टिकोण से जानना चाहेंगे। मुझे यह भी विश्वास है कि आप इंपोर्टेड आईडियोलॉजी के चंगुल से मुक्त होना चाहते हैं। यह पुस्तक शायद कारगर साबित हो। मैं आव्हान करता हूं उन लेखकों कवियों शब्द शिल्पीयों का जिन्हें भारतीय दर्शन सनातनी व्यवस्था एवं भारतीय सभ्यता संस्कृति के प्रति सकारात्मक चिंतन नहीं है वह वापस इस नजरिए से जो विशुद्ध भारतीय है भारत को देखें और लिखें। यह पुस्तक किसी पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्ति के उद्देश्य से नहीं लिखी गई है। बल्कि उन तमाम स्थापित मंतव्य को ध्वस्त करने के लिए लिखी गई है जो भारत की सभ्यता और संस्कृति को कमजोर सिद्ध करने के प्रयास के रूप में स्थापित हैं। सुधि पाठक गण मैक्स मूलर ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को केवल ईशा के 1500 वर्ष पूर्व से स्थापित किया है। ऐसे भ्रामक नैरेटिव को जम्बूदीप जैसे जागृत देश के लोग मौन स्वीकृति देते रहें लेखकों के लिए शर्म की बात है। प्रतीक्षा कीजिए सब कुछ साफ होने जा रहा है
भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता को लेकर जो भी प्रयास किए गए चाहे वह साहित्यकारों ने किया हो या इतिहासकारों ने जहां मुझे गलत समझ में आया मैंने उसका प्रतिकार करने की सौगंध खाई है। इस कृति में आप नदी घाटियों के तट पर विकसित होने वाली सभ्यता और संस्कृति के बिंदुओं को समझ पाएंगे। यह कृति मां भारती को समर्पित है । मुझे आशा नहीं करनी चाहिए बल्कि विश्वास करना चाहिए कि आप सब तथाकथित प्रगतिशील दस्तावेजों के व्यामोह से स्वयं को मुक्त पाएंगे इस कृति को पढ़ने के बाद। खुलकर कहना खुल कर लिखना पराशक्ति प्रदत्त समर्थ के बिना मुझ अकिंचन के लिए संभव न था। यह कृति आप शीघ्र ही फ्लिपकार्ट अमेजॉन तथा अन्य ऑनलाइन मार्केट से प्राप्त कर सकते हैं। मुझे विश्वास है कि आप भारत को भारत के दृष्टिकोण से जानना चाहेंगे। मुझे यह भी विश्वास है कि आप इंपोर्टेड आईडियोलॉजी के चंगुल से मुक्त होना चाहते हैं। यह पुस्तक शायद कारगर साबित हो। मैं आव्हान करता हूं उन लेखकों कवियों शब्द शिल्पीयों का जिन्हें भारतीय दर्शन सनातनी व्यवस्था एवं भारतीय सभ्यता संस्कृति के प्रति सकारात्मक चिंतन नहीं है वह वापस इस नजरिए से जो विशुद्ध भारतीय है भारत को देखें और लिखें। यह पुस्तक किसी पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्ति के उद्देश्य से नहीं लिखी गई है। बल्कि उन तमाम स्थापित मंतव्य को ध्वस्त करने के लिए लिखी गई है जो भारत की सभ्यता और संस्कृति को कमजोर सिद्ध करने के प्रयास के रूप में स्थापित हैं। सुधि पाठक गण मैक्स मूलर ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को केवल ईशा के 1500 वर्ष पूर्व से स्थापित किया है। ऐसे भ्रामक नैरेटिव को जम्बूदीप जैसे जागृत देश के लोग मौन स्वीकृति देते रहें लेखकों के लिए शर्म की बात है। प्रतीक्षा कीजिए सब कुछ साफ होने जा रहा है


शनिवार, जनवरी 28, 2023

क्या 90 दिनों के बाद पाकिस्तान को पानी मिलना बंद हो जाएगा?


28 जन॰ 2023

सिंधु जल संधि: 90 दिन में समाप्त हो जाएगी..?

सिन्धु जल संधि, नदियों के जल के वितरण के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच हुई एक संधि है। इस सन्धि में विश्व बैंक (तत्कालीन 'पुनर्निर्माण और विकास हेतु अंतरराष्ट्रीय बैंक') ने मध्यस्थता की। इस संधि पर कराची में 19 सितंबर, 1960 को भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने हस्ताक्षर किए थे।
इस समझौते के अनुसार, तीन "पूर्वी" नदियों — ब्यास, रावी और सतलुज — का नियंत्रण भारत को, तथा तीन "पश्चिमी" नदियों — सिंधु, चिनाब और झेलम — का नियंत्रण पाकिस्तान को दिया गया। हालाँकि अधिक विवादास्पद वे प्रावधान थे जिनके अनुसार जल का वितरण किस प्रकार किया जाएगा, यह निश्चित होना था। क्योंकि पाकिस्तान के नियंत्रण वाली नदियों का प्रवाह पहले भारत से होकर आता है, संधि के अनुसार भारत को उनका उपयोग सिंचाई, परिवहन और बिजली उत्पादन हेतु करने की अनुमति है। इस दौरान इन नदियों पर भारत द्वारा परियोजनाओं के निर्माण के लिए सटीक नियम निश्चित किए गए। यह संधि पाकिस्तान के डर का परिणाम थी कि नदियों का आधार (बेसिन) भारत में होने के कारण कहीं युद्ध आदि की स्थिति में उसे सूखे और अकाल आदि का सामना न करना पड़े।( विकिपीडिया से साभार)
उपरोक्त समस्त बिंदु पब्लिक डोमेन में उपलब्ध हैं। इधर भारत में सिंधु वॉटर ट्रीटी यानी सिंधु जल संधि पर पुनर्विचार करने का मन बना लिया है।
   भारत सरकार इस समझौते पर पुनर्विचार करना चाहती है। यह सही वक्त है जब पाकिस्तान को घुटनों पर लाया जा सके । परंतु इस समझौते का एक पक्ष है अंतरराष्ट्रीय बैंक जिसे हम विश्व बैंक के नाम से जानते हैं। यद्यपि इस समझौते रिव्यु के लिए समझौते में ही बिंदु मौजूद थे। भारत सरकार इस पर क्या निर्णय लेती है और किस तरह से पाकिस्तान को अपने आतंकी स्वरूप से बाहर आने की बात कहती है यह अलग बात है परंतु सिंधुदेश बलूचिस्तान केपीके और पश्तो डोगरा आबादी के अधिकांश लोग जाते हैं कि किसी भी स्थिति में एक बूंद भी पानी पाकिस्तान को ना दिया जाए।
   भारत एक मानवतावादी देश है शायद यह ना कर सकेगा। परंतु आजादी के चाहने वाले बलोच एक्टिविस्ट चाहते हैं कि यदि मानवता को आधार बनाया जाता है तो पाकिस्तान ने हजारों बच्चों को युवाओं को अगवा करके उनकी लाशें बाहर फेंक दी हैं ऐसे देश के लिए  मानवीयता के आधार पर छूट देना ठीक नहीं है। इस समय बलूचिस्तान एवं सिंधुदेश के एक्टिविस्ट खुलेआम कहते हैं कि-" भारत एक ऐसा राष्ट्र बन चुका है जिसकी आवाज विश्व समझ रहा है सुन रहा है, अगर भारत सिंधु देश एवं बलूचिस्तान केपीके एवं पश्तो लोगों के मानव अधिकार को संरक्षित करते हैं तो विश्व में एक नई मिसाल कायम होगी।
  पाकिस्तान की जर्जर हालत देखते हुए मदद करने की इच्छा तो सभी की होती है परंतु पाकिस्तान की चरित्रावली पर नजर डालें तो इस देश ने केवल टेररिस्ट पैदा किए हैं, दक्षिण एशिया में चीन की सहायता से अस्थिरता पैदा करने के लिए इस देश अर्थात पाकिस्तान ने सबसे आगे रहकर काम किया है।
   भारत के पास दो विकल्प हैं
[  ] समझौता रद्द कर दिया जाए
[  ] समझौता सिंधु देश तथा बलूचिस्तान केबीके पीओके मुजाहिर, पश्तो सहित तमाम अल्पसंख्यकों एवं गैर मुस्लिम के अलावा गैर पंजाबियों के मानव अधिकार की गारंटी मांग कर समझौता रिन्यू किया जाए
भारत दोनों ही एक्शन ले सकता है जैसा कि बलूचिस्तान के एक्टिविस्ट कहते हैं। दोनों की परिस्थिति में भारत का विश्व स्तर पर सम्मान बढ़ना स्वाभाविक है।
    इस संबंध में एक्टिविस्टों की सकारात्मक उम्मीद है।

बुधवार, जनवरी 25, 2023

असहमति मैत्री को खंडित करने का आधार नहीं है



  असहमति मैत्री को खंडित नहीं करती।     ऐसा किसने कह दिया कि कोई किसी के विचार से सहमत हो वह साथ नहीं रह सकता?
  बहुतेरे लोग ऐसे होते हैं, जो असहमति के आधार पर परिवार तक तोड़ देते हैं।  
    वेदांत का सार है सत्संग विमर्श और आपसी विचार विनिमय। क्या आपने इस एंगल से सोचा है?
    सनातन में हजारों वर्ष पहले शास्त्रार्थ को मान्यता मिली है। पश्चिमी विद्वान वाल्टेयर ने असहमति को भलीभांति परिभाषित किया है। असहमति का अर्थ आपसी द्वंद्व नहीं है।
    सहमति के साथ सह अस्तित्व बेहद प्रभावशाली आध्यात्मिक दार्शनिक बिंदु  है।
   कई लोग असहमति को आधार बनाकर बेहद संवेदनशील हो जाते हैं। इससे संघर्ष भी पैदा हो जाता है। वास्तव में असहमति का संघर्ष से कोई लेना देना नहीं है। संघर्ष एक मानसिक उद्वेग है जो शारीरिक या बौद्धिक रूप से नकारात्मकता को जन्म देता है।
इससे उलट असहमति एक तात्कालिक या दीर्घकालिक परिस्थिति भी हो सकती है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई भी असहमति को आधार बनाकर युद्ध करने लगे।
   स्वस्थ समाज में स्वस्थ मस्तिष्क के लोग अक्सर आपस में असहमत होने के बावजूद एकात्मता के साथ रहते हैं। ठीक उसी तरह जैसे कि शक्कर की बरनी छोटे या बड़े शक्कर के दाने होने से शक्कर की मूल प्रवृत्ति में कोई परिवर्तन नहीं होता।
   मित्रों कभी मेरी किसी भी मित्र के साथ  असहमति  होती है अथवा हो गई हो तो मुझ पर क्रोधित मत होना क्योंकि मैं असहमति के आधार पर द्वंद के जन्म से सहमत नहीं रहता। मेरे एक पूज्य वरिष्ठ अधिकारी हैं जो बेहद करुणा भाव से मुझे देखते हैं उनसे कई मुद्दों पर वैचारिक असहमति या हैं परंतु उनका इसने मुझ पर सदा बरसता है। यही महात्मा गांधी महात्मा गौतम बुद्ध महावीर स्वामी भगवान श्री राम जैसे महान व्यक्तियों द्वारा बताया गया मार्ग है। भारतीय जीवन दर्शन जीवंत दर्शन है। भारतीय जीवन दर्शन की शुचिता के लिए हर असहमति के प्रति सम्मान व्यक्त करने से हमारा जीवन सुदृढ़ एवं पवित्र हो जाता है। यही हर मुमुक्षु के लिए सनातनी संदेश है। हाल के दिनों में हम सब  सहमति और असहमति के साथ दो भागों में विभक्त हैं।  एक व्यक्ति लोगों के माइंड को पढ़कर एक पर्ची पर कुछ लिख देता है। और उसे ईश्वर की कृपा कहकर स्वयं को उस प्रक्रिया से ही अलग कर लेता है। दूसरी ओर एक युवा लड़की माइंड रीडिंग करके अपने हुनर को जादूगरी की श्रेणी में रखती है। दोनों में फर्क यह है कि एक अपनी माइंड रीडिंग की योग्यता रखते हुए भी अस्तित्व को ब्रह्म के आशीर्वाद को महान बताता है जबकि दूसरी ओर वही युवा बालिका अपने आप को मैजिशियन बताती है। एक टीवी चैनल इससे धजी का सांप बनाकर पेश करता है। इससे दर्शक और पाठक भ्रमित हो जाते हैं। जबकि इसका अर्थ यह है कि अगर यह जादू होता इसे बहुत से लोग आसानी से सीख लेते परंतु सवा सौ करोड़ से अधिक जनसंख्या में से मात्र कुछ ही लोग इस तरह की क्रिया प्रदर्शित कर पाते हैं। कुल मिलाकर आस्तिक लोग इसे ईश्वर की कृपा मानते हैं जबकि नास्तिक ऐसी प्रक्रियाओं को पाखंड कहते हैं अथवा जादूगरी मान लेते हैं। अगर मैं हर असहमत व्यक्ति से दूरी बनाने लगूं अथवा दुश्मनी पालूँ तो मुझसे बड़ा मूर्ख कौन होगा भला?
वर्तमान युग में यही एक बहुत बड़ी कमी है।
   यही योग अहंकार और स्वयं को सिद्ध करते रहने का युग है। इस युग में हम सोचते हैं कि जो कर रहे हैं वह हम ही कर रहे हैं। ऐसी अवधारणा लोकायत विचारकों अर्थात नास्तिकों की होती है।     नास्तिक जिनको ब्रह्म के अस्तित्व पर तनिक भी भरोसा नहीं होता मान लिया जाए कि ब्रह्म नहीं है उस नास्तिक की दृष्टि में परंतु यह कोई कारण नहीं है कि आस्तिक और नास्तिक के बीच आपस में कोई झगड़ा हो जाए। दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाएं।
  भारत का सनातन चिंतन सत्य के लिए संघर्ष करता है, वैचारिक संघर्ष, कभी कभार ही जय दवा सुर संग्राम, राम रावण युद्ध अथवा महाभारत हुए हैं।  यह सब धर्म युद्ध थे।
  जबकि जिहाद और क्रुसेड निरंतर चल रहे हैं। विचारधाराऐं जब संघर्ष को जन्म देती हों तो निरंतर चलने वाले युद्ध हुआ करते हैं। ऐसे युद्ध विध्वंस की ओर ले जाते हैं।
  भारतीय परंपराओं में कुछ बदलाव आयातित विचारधारा के कारण आ चुका है। हम श्रेय लेने की मरीचिका     
(Mirage ) दौड़ते हुए दिखाई दे रहे हैं।
    साफ है कि अब हम तो सोचते हैं कि यह कार्य मैंने किया इसका श्रेय मुझे मिलना चाहिए। ऐसी स्थिति में एकात्मता खंडित हो जाती है।
   आस्तिक लोग वास्तव में ऐसे विचारकों से भिन्न होते हैं, जो आत्म केंद्रित होकर हम सब के कांसेप्ट को छोड़कर सब हम के कॉन्सेप्ट पर आ जाते हैं।
एक बार की सत्य घटना में आपको बताता हूं किसी व्यक्ति पर मुझे अनायास क्रोध आ गया। उसने मुझसे कुछ गलत बयानी की थी। परंतु दूसरे ही पल मुझे यह महसूस हुआ कि-" जो मैं कर रहा हूं वह मैं नहीं कर रहा हूं यह ईश्वर द्वारा किया गया कार्य है।"
तब तुरंत ही मैंने महसूस किया-" उस व्यक्ति ने जो किया है,  वह उसने नहीं बल्कि ईश्वर की इच्छा के अनुकूल हुआ है।" इतना सोचते ही कुछ व्यक्ति के प्रति घृणा का भाव तुरंत समाप्त होगया।
    मस्तिष्क पूरी तरह से सामान्य प्रशांति में फलक पर गतिमान हो गया। फलस्वरूप न तो मैं हिंसक बन पाया और न ही हिंसा करने के लिए मुझे मेरे शारीरिक संवेग ने प्रेरित किया।
एक अनुचित हिंसा करने से मैं बच गया।
   सच मायने में यह घटना असामान्य हो सकती है।
   क्योंकि अपराधी को अपराध का दंड मिलना चाहिए था। परंतु मेरे विचार से मैंने यह कार्य ईश्वर पर छोड़ दिया। कुछ दिनों बाद वही व्यक्ति बेहद दीन हीन स्थिति में मेरे सामने आया। मैं समझ चुका था कि यह व्यक्ति ईश्वरीय दंड का भागी हो चुका है।
  कोई व्यक्ति यदि  धन पद प्रतिष्ठा और सत्ता का अधिकारी बन जाए और अहंकार तथा स्वयं के सम्मान की ज्यादा फिक्र करने लगे तो वह किसी भी स्थिति में न तो सहज रह सकता है और न ही सार्वजनिक भलाई के कार्य कर सकता है।
अगर वही व्यक्ति इन सबके होते हुए भी अहंकार से मुक्त रहता है तो वह सबसे पवित्र मुमुक्षु बनता है ।
  इस प्रकार अहंकार आत्म प्रदर्शन और स्वयं को श्रेष्ठ करते रहने के लिए रास्ते बनाता है। इन रास्तों में आए किसी भी अवरोध के विरुद्ध वह व्यक्ति सक्रिय हो जाता है।  अवरोध चाहे व्यक्ति हो या विचार। अहंकारी व्यक्ति जो आत्म केंद्रित भी होता है ऐसे व्यक्तियों और विचारों को समूल नष्ट करते हैं।
ठीक उसी तरह जैसे दारा शिकोह को औरंगजेब ने हाथी के पैरों से कुचलवा दिया था। ठीक वैसे ही जैसे हिटलर और स्टालिन ने भी ऐसा ही कुछ किया। मित्रों रावण के चरित्र को ध्यान से देखिए असहमति के कारण उसने अपने छोटे भाई को लात मारकर लंका से बाहर कर दिया। मित्रों आप सोचिए हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है। उसकी पसंद भिन्न होती है उसकी आदतें भिन्न होती है उसका चिंतन भी भिन्न होता है। परंतु इस आधार पर अगर संघर्ष होने लगे तो पृथ्वी पर मानवता समाप्त हो जाएगी।
   हो सकता है आप मेरे विचारों से सहमत हूं आपकी असहमति का सम्मान करते हुए मैं आपको प्रणाम करता हूं।
*ॐ श्री राम कृष्ण हरि:*

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