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रविवार, नवंबर 04, 2012

शब्दों के हरकारे ने जिस जबलपुर को पढ़ाया उसी जबलपुर ने बिसराया : संदर्भ स्व. तिरलोक सिंह

                          एक व्यक्तित्व जो अंतस तक छू गया है । उनसे मेरा कोई खून का नाता तो नहीं किंतु नाता ज़रूर था । कमबख्त डिबेटिंग गज़ब चीज है बोलने को मिलते थे पाँच मिनट पढ़ना खूब पड़ता था यही तो कहा करतीं थीं मेरी प्रोफ़ेसर राजमती दिवाकर  । लगातार बक-बकाने के लिए कुछ भी मत पढिए ,1 घंटे बोलने के लिए चार किताबें , चार दिन तक पढिए, 5 मिनट बोलने के लिए सदा ही पढिए, . सो मैं भी कभी जिज्ञासा बुक डिपो तो कभी पीपुल्स बुक सेंटर , जाया करता था। पीपुल्स बुक सेंटर में अक्सर तलाश ख़त्म हों जाती थी, वो दादा जो दूकान चलाते थे मेरी बात समझ झट ही किताब निकाल देते थे। मुझे नहीं पता था कि उन्होंनें जबलपुर को एक सूत्र में बाँध लिया है।आज़ के  नामचीन और गुमनाम  लेखकों को कच्चा माल वही सौंपते है इस बात का पता मुझे तब चला जब पोस्टिंग  वापस जबलपुर हुयी। दादा का अड्डा प्रोफेसर हनुमान वर्मा जी का बंगला था। वहीं से दादा का दिन शुरू होता सायकल,एक दो झोले किताबों से भरे , कैरियर में दबी कुछ पत्रिकाएँ , जेब में डायरी, अतरे दूसरे दिन आने लगे मलय जी के बेटे हिसाब बनवाने,आते या जाते समय मुझ से मिलना न भूलने वाले व्यक्तित्व ..... को मैंने एक बार बड़ी सूक्ष्मता से देखा तो पता चला दादा के दिल में भी उतने ही घाव हें जितने किसी युद्धरत सैनिक के शरीर,पे हुआ करतें हैं।
कर्मयोगी कृष्ण सा उनका व्यक्तित्व, मुझे मोहित करने में सदा हे सफल होता.....स्व. ठाकुर दादा,इरफान,मलय जी,अरुण पांडे,जगदीश जटिया,रमेश सैनी,के अलावा,ढेर सारे साहित्यकार के घर जाकर किताबें पढ़वाना तिरलोक जी का पेशा था। पैसे की फिक्र कभी नहीं की जिसने दिया उसे पढ़वाया , जिसके पास पैसा नहीं था या जिसने नही दिया उसे भी पढवाया । कामरेड की मास्को यात्रा , संस्कार धानी के साहित्यिक आरोह अवरोहों , संस्थाओं की जुड़्न-टूटन को खूब करीब से देख कर भी दादा ने इस के उसे नहीं कही। जो दादा के पसीने को पी गए उसे भी कामरेड ने कभी नहीं लताडा कभी मुझे ज़रूर फर्जी उन साहित्यकारों से कोफ्त हुई जिनने दादा का पैसा दबाया ।
कई बार कहा " दादा अमुक जी से बात करूं...?
रहने दो ..क्या ज़रूरत है इस सबकी ...?
यानी गज़ब का धीरज ।

               तिरलोक सिंह पर कम लिखे जाने उनकी चर्चा न होने का दर्द अरुण पांडे के सीने में भी पल रहा है तो ज्ञानरंजन जी का मानना है- "ये सच है कि तिरलोक सिंह के बारे में हमें निरंतर कार्य करने की ज़रूरत है  तिरलोक सिंह के अवदान को न तो शहर का कोई साहित्यकार भूल सकता न ही मेरे बच्चे पाशा और बुलबुल जिनको तिरलोक जी ने अच्छी अच्छी पुस्तकें दीं थी. अब तो न तिरलोक हैं न ही उनका विकल्प जो पूरे शहर के एक सूत्र में जोड़े. कृतज्ञता तो सर्वकालिक होती है भले वह किसी आयोजन के स्वरूप में हो या न हो पर हृदय में  कृतज्ञता भाव सतत होना चाहिये."
                 आज़ के दौर में  कृतज्ञता के भाव रखने वाले लोग कम ही हैं. जो हैं उन पर काम का दबाव अधिक है पर इसके मायने ये नहीं कि तिरलोक सिंह को याद न किया जाए. स्मृति-प्रवाह सतत जारी रहे.सबको याद करते रहना होगा शब्दों के हरकारे को  शहर को उनके बारे में सतत चिंतन करते रहना  चाहिये . 
  उनके जीवन काल में कटनी में हमने एक स्मारिका "शब्दों का हरकारा" प्रकाशित की थी तिरलोक जी को सराहने लगभग पांच सौ से अधिक लोग एकत्र हुए थे. 
          दिनेश अवस्थी ने अपनी टिप्पणी मुझे फ़ोन पर कुछ यूं दर्ज़ कराई-"एक तो दादा हमारे लिये साहित्य लाते थे दूसरा उनकी उपस्थिति पत्नि-बच्चों से संवाद एक विशाल परिवार के भाव की प्रस्तुति हुआ करती  थी . उनका न होना सच एक अपूरणीय नुकसान है "    
यशभारत .11.11.12 
                     सूरज राय "सूरज" ने अपने ग़ज़ल संग्रह के विमोचन के लिए अपनी मान के अलावा मंच पे अगर किसी से आशीष पाया तो वो थे :"तिरलोक सिंह जी "। इधर मेरी सहचरी ने भी कर्मयोगी के पाँव पखार ही लिए। हुआ यूँ कि सुबह सवेरे दादा मुझसे मिलने आए किताब लेकर आंखों में दिखना कम हों गया था,फ़िर भी आए पैदल पैदल और अपने साथ लाए  सड़क को शौचालय बनाकर गंदगी फैलाने वाले का मल जो उनके सेंडिल में..सना था.  मेन गेट से सीढियों तक गंदगी के निशान छपाते ऊपर आ गए दादा. अपने आप को अपराधी ठहरा रहे थे जैसे कोई बच्चा गलती करके सामने खडा हो. इधर मेरा मन रो रहा था कि इतना अपनापन क्यों हो गया कि शरीर को कष्ट देकर आना पड़ा दादा को .संयुक्त परिवार के कुछ सदस्यों को आपत्ति हुयी की गंदगी से सना बूढा आदमी गंदगी परोस गया गेट से सीढ़ी तक . सुलभा के मन में करूणा ने जोर मारा . उनके पैर धुलाने लगी . मानव धर्म के आधार में करुणा का महत्त्व सुलभा से बेहतर कौन समझ पाया होगा तब. . तिरलोक जी का आशीर्वाद लेकर सुलभा ने जाने कितना कुछ हासिल किया मुझे नहीं मालूम . मेरे और अन्य साहित्यकारों के बीच के सेतु तिरलोक जी फिर एकाध बार ही आए अब तो बस आतीं हैं उनकी यादें दस्तक देने मन के दरवाजे तक ऐसा सभी साथी महसूस करते हैं.








रविवार, अक्तूबर 28, 2012

कल्लू दादा स्मृति समारोह : संदर्भ एक सरकारी मेला


इस कहानी में पूरी पूरी सच्चाई है यह एक सत्य कथा पर आधारित किंतु रूपांतरित कहानी है इसके सभी पात्र वास्तविक हैं बस उनका नाम बदल दिया है  
जो भी स्वयम को इस आलेख में खोजना चाहे खोज सकता है..!!                                       
  
         सरकारी महकमों  में अफ़सरों  को काम करने से ज़्यादा कामकाज करते दिखना बहुत ज़रूरी होता है जिसकी बाक़ायदा ट्रेनिंग की कोई ज़रूरत तो होती नहीं गोया अभिमन्यु की मानिंद गर्भ से इस विषय  की का प्रशिक्षण उनको हासिल हुआ हो.             अब कल्लू को ही लीजिये जिसकी ड्यूटी चतुर सेन सा’ब  ने “वृक्षारोपण-दिवस” पर गड्ढे के वास्ते  खोदने के लिये लगाई थी मुंह लगे हरीराम की पेड़ लगाने में झल्ले को पेड़ लगने के बाद गड्डॆ में मिट्टी डालना था पानी डालने का काम भगवान भरोसे था.. हरीराम किसी की चुगली में व्यस्तता थी सो वे उस सुबह “वृक्षारोपण-स्थल” अवतरित न हो सके जानतें हैं क्या हुआ..? हुआ यूं कि सबने अपना-अपना काम काज किया कल्लू ने (गड्डा खोदा अमूमन यह काम उसके सा’ब चतुर सेन किया करते थे), झल्ले ने मिट्टी डाली, पर पेड़ एकौ न लगा देख चतुर सेन चिल्लाया-”ससुरे  पेड़ एकौ न लगाया कलक्टर सा’ब हमाई खाल खींच लैंगे काहे नहीं लगाया बोल झल्ले ?
चतुरसेन :- औ’ कल्लू तुम बताओ , ? झल्ले बोला:-”सा’ब जी हम गड्डा खोदने की ड्यूटी पे हैं खोद दिया गड्डा बाक़ी बात से हमको का ?”
कल्लू:-”का बोलें हज़ूर, हमाई ड्यूटी मिट्टी पूरने की है सो हम ने किया बताओ जो लिखा आडर में सो किया हरीराम को लगाना था पेड़ आया नही उससे पूछिये “
        सरकारी आदमी हर्फ़-हर्फ़ लिखे काम करने का संकल्प लेकर नौकरी में आते हैं सब की तयशुदा होतीं हैं ज़िम्मेदारियां उससे एक हर्फ़ भी हर्फ़ इधर उधर नहीं होते काम. सरकारी दफ़तरों के काम काज़ पर तो खूब लिक्खा पढ़ा गया है मैं आज़ आपको सरकार के मैदानी काम जिसे अक्सर हम राज़काज़ कहते हैं की एक झलक दिखा रहा हूं.
      “कल्लू दादा स्मृति समारोह” के आयोजन स्थल पर काफ़ी गहमा गहमीं थी सरकारी तौर पर जनाभावनाओं का ख्याल रखते हुए इस आयोजन के सालाना की अनुमति की नस्ती से “सरकारी-सहमति-सूचना” का प्रसव हो ही गया जनता के बीच उस आदेश के सहारे कर्ता-धर्ता फ़ूले नहीं समा रहे थे. समय से बडे़ दफ़्तर वाले साब ने मीटिंग लेकर छोटे-मंझौले साहबों के बीच कार्य-विभाजन कर दिया. कई विभाग जुट गए  “कल्लू दादा स्मृति समारोह” के सफ़ल आयोजन के लिये कई तो इस वज़ह से अपने अपने चैम्बरों और आफ़िसों से कई दिनों तक गायब रहे कि उनको “इस महत्वपूर्ण राजकाज” को सफ़ल करना है. जन प्रतिनिधियों,उनके लग्गू-भग्गूऒं, आला सरकारी अफ़सरों उनके छोटे-मंझौले मातहतों का काफ़िला , दो दिनी आयोजन को आकार देने धूल का गुबार उड़ाता आयोजन स्थल तक जा पहुंचा. पी आर ओ का कैमरा मैन खच-खच फ़ोटू हैं रहा था. बड़े अफ़सर आला हज़ूर के के अनुदेशों को काली रिफ़िलर-स्लिप्स पर ऐसे लिख रहे थे जैसे वेद-व्यास के  कथनों गनेश महाराज़ लिप्यांकित कर रहे हों. छोटे-मंझौले अपने बड़े अफ़सर से ज़्यादा आला हज़ूर को इंप्रेस करने की गुंजाइश तलाशते नज़र आ रहे थे. आल हज़ूर खुश तो मानो दुनियां ..खैर छोड़िये शाम होते ही कार्यक्रम के लिये तैयारीयों जोरों पर थीं. मंच की व्यवस्था में  फ़तेहचंद्र, जोजफ़, और मनी जी, प्रदर्शनी में चतुर सेन साब,बदाम सिंग, आदि, पार्किंग में पुलिस वाले साब लोग, अथिति-ढुलाई में खां साब, गिल साब, जैसे अफ़सर तैनात थे. यानी आला-हज़ूर के दफ़्तर से जारी हर हुक़्म की तामीली के लिये खास तौर पर तैनात फ़ौज़. यहां ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इतने महान कर्म-निष्ठ, अधिकारियों की फ़ौज तैनात है कि इंद्र का तख्ता भी डोल जाएगा वाक़ई. इन महान “सरकारीयों” की “सरकारियत” को विनत प्रणाम करता हूं .
               मुझे मंच के पास वाले साहब लोग काफ़ी प्रभावित कर रहे थे. अब फ़तेहचन्द जी को लीजिये बार बार दाएं-बाएं निहारने के बाद आला हज़ूर के ऐन कान के पास आके कुछ बोले. आला हज़ूर ने सहमति से मुण्डी हिलाई फ़िर तेज़ी से टेण्ट वाले के पास गये .. उसे कुछ समझाया वाह साहब वाह गज़ब आदमी हैं आप और आला-हज़ूर के बीच अपनत्व भरी बातें वाह मान गए हज़ूर के “मुसाहिब” हैं आप की क्वालिटी बेशक 99% खरा सोना भी शर्मा जाए.  आपने कहा क्या होगा ? बाक़ी अफ़सरान इस बात को समझने के गुंताड़े में हैं पर आप जानते हैं आपने कहा था आला-हज़ूर के ऐन कान के पास आकर “सर, दस कुर्सियां टीक रहेंगी. मैं कुर्सी की मज़बूती चैक कर लूंगा..? आला-हज़ूर ने सहमति दे ही दी होगी. और हम बस "यस-सर" बोलके आ गये 
               जोज़फ़  भी दिव्य-ज्ञानी हैं. उनसे सरोकार  पड़ा वे खूब जानतें हैं रक्षा-कवच कैसे ओढ़ते हैं उनसे सीखिये मंच के इर्दगिर्द मंडराते मनी जी को भी कोई हल्की फ़ुल्की सख्शियत कदाचित न माना जावे. अपनी पर्सनालटी से कितनों को भ्रमित कर चुकें हैं . 
               आला-हज़ूर के मंच से दूर जाते ही इन तीनों की आवाज़ें गूंज रही थी ऐसा करो वैसा करो, ए भाई ए टेंट ए कनात सुनो भाई का लोग आ जाएंगे तब काम चालू करोगे ? ए दरी   भाई जल्दी कर ससुरे जमीन पे बिठाएगा का .. ए गद्दा ..
  जोजफ़ चीखा:-”अर्र, ए साउंड, इधर आओ जे का लगा दिया, मुन्नी-शीला बजाओगे..? अरे देशभक्ति के लगाओ. और हां साउण्ड ज़रा धीमा.. हां थोड़ा और अरे ज़रा और फ़िर   मनी जी की ओर  मुड़ के बोला “इतना भी सिखाना पड़ेगा ससुरों को “ 
यशभारत
 तीनों अफ़सर बारी-बारी चीखते चिल्लाते निर्देश देते  रहे टैंट मालिक रज्जू भी बिलकुल इत्मीनान से था सोच रहा था कि चलो आज़ आराम मिला गले को . टॆंट वाले मज़दूर अपने नाम करण को लेकर आश्चर्य चकित थे  जो दरी ला रहा वो दरी जो गद्दे बिछा रहा था वो गद्दा .. वाह क्या नाम मिले . 
        कुल मिला कर आला हज़ूर को इत्मीनान दिलाने में कामयाब ये लोग “जैक आफ़ आल मास्टर आफ़ नन”वाला व्यक्तित्व लिये  इधर से उधर डोलते  रहे इधर उधर जब भी किसी बड़े अफ़सर नेता को देखते सक्रीय हो जाते थोड़ा फ़ां-फ़ूं करके पीठ फ़िरते ही निंदा रस में डूब जाते . 
 फ़तेहचंद ने मनी जी से पूछा :यार बताओ हमने किया क्या है..?
जवाब दिया जोजफ़ और मनी जी ने समवेत स्वरों में ;”राजकाज “
फ़तेहचंद – यानी  राज का काज हा हा 

 (  

गुरुवार, अक्तूबर 25, 2012

रामायण कालीन भारत और अब का भारत



साभार : ताहिर खान 
       राम को एक ऐसा व्यक्ति मान लिया जाये जो एक राजा थे तो वास्तव में  समग्र भारत के कल्याण के लिये कृतसंकल्पित थे तो अनुचित कथन नहीं होगा.  राम ऐसे राज़ा थे जो सर्वदा कमज़ोर के साथ थे. सीता के पुनर्वन गमन को लेकर आप मेरी इस बात से सहमत न हों पर सही और सत्य यही है. राम की दृढ़्ता और समुदाय के लिये परिवार का त्याग करना राम का नहीं वरन तत्समकालीन  प्रजातांत्रिक कमज़ोरी को उज़ागर करता है. जो वर्तमान प्रजातंत्र की तरह ही एक दोषपूर्ण व्यवस्था का उदाहरण है. आज भी देखिये जननेताओं को भीड़ के सामने कितने ऐसे समझौते करने होते हैं जो  सामाजिक-नैतिक-मूल्यों के विरुद्ध भी होते हैं. अपराधियों के बचाव लिये फ़ोन करना करवाना आम उदाहरण है. आप सभी जानतें हैं कि तत्समकालीन भारतीय सामाजिक राजनैतिक आर्थिक  परिस्थितियां 
आज से भिन्न थीं. किंतु रावण के पास वैज्ञानिक, सामरिक, संचरण के संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे. यानी कुल मिला कर एक शक्ति का केंद्र. जो दुनिया को आपरेट करने की क्षमताओं से लैस था. किंतु प्रजातांत्रिक एवम मूल्यवान सामाजिक व्यवस्था के संपोषक श्री राम का लक्षमण के साथ  "आपरेशन-वनगमन" चला कर  १४ बरस तक धैर्य से अंतत: सफ़ल  परिणाम हासिल करना वर्तमान की राजनैतिक इच्छा शक्ति के एकदम विपरीत है. 
         इसे नज़दीकी सीमावर्ती राष्ट्रों के हमारे प्रति नकारात्मक व्यवहार के विरुद्ध हमारा डगमगाते क़दमों से चलना  चिंतित करता है. व्यवस्था की मज़बूरी है शायद डेमोक्रेट्रिक सिस्टम पर गम्भीर चिंतन के साथ बेहतर बदलाव के लिये संकेत सुस्पष्ट रूप से मिल रहे हैं फ़िर भी हमारा शीर्ष शांत है इस बिंदु पर ? राम ऐसे न थे.
    जब भ्रष्टाचार की बात होती है तब बस हल्ला गुल्ला मचाते नज़र आते है हम सब . सिर्फ़ हंगामा सिर्फ़ व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप के अलावा कुछ भी नहीं किसी को बदलाव की ज़रूरत नहीं नज़र आ रही ऐसा प्रतीत होता है. 

                            भारत में सामाजिक भ्रष्टाचार को रोकने के कठोर क़दम उठाने के लिये सबसे पहले सरकार को भारत वासियों को आर्थिक सुनिश्चितता देनी होगी. यहां सवाल यह है कि सम्पूर्ण ज़िंदगी के अर्थतंत्र का लेखा जोखा रखने वाला भारतीय नागरिक सबसे पहले अपने बच्चों के लिये बेहतर शिक्षा, और बेहतर चिकित्सा, सहज आवास की व्यवस्था के लिये चिंतित होता है. इस हेतु उसे अपनी आय में वृद्धि के लिये प्रयास करने होते हैं और वह अव्यवस्थित यानी अस्थिर बाज़ार कीमतों के साथ जूझता भ्रष्टाचार के रास्ते धन अर्जित करता है..
न केवल सरकारी कर्मचारी आम आदमी जो जिस प्रोफ़ेशन में है.. उसमें इस तरह की कोशिश करता है. बिल्डर डाक्टर शिक्षक यहां तक की फ़ुटपाथ पर चाय बेचने वाला भी सामान्य से अधिक लाभ हासिल करने किसी न किसी तरह का शार्ट-कट अपनाता है.  सिर्फ़ सरकारी अधिकारी कर्मचारी भ्रष्ट है या 
नेता भ्रष्ट हैं 
  ऐसा कहना सर्वथा ग़लत है.
भारतीय समाज के गिरते नैतिक मूल्यों" को रोकने की एक भावनात्मक कोशिश  


करके की ज़रूरत है .आज़ वाक़ई राम की ज़रूरत है 
 जो वास्तव में समाज को भ्रष्टाचार से मुक्त कराना चाहता हो. पर दूर तक नज़र नही आता ऐसा राम ये अलग बात है.. जै श्रीराम का उदघोष सर्वत्र गूंज रहा है. 
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 ( संदर्भ :एक  था रावण बहुत बड़ा प्रतापी यशस्वी राज़ा, विश्व को ही नहीं अन्य ग्रहों तक विस्तारित उसका साम्राज्य वयं-रक्षाम का उदघोष करता आचार्य चतुरसेन शास्त्री के ज़रिये  जाना था रावण के पराक्रम को. उसकी साम्राज्य व्यवस्था को. ये अलग बात है कि उन दिनों मुझमें उतनी सियासी व्यवस्था की समझ न थी. पर एक सवाल सदा खुद  पूछता रहा- क्या वज़ह थी कि राम ने रावण को मारा................. राम ने रावण का अंत किया क्योंकि रावण  एक ऐसी शक्ति के रूप में उभरा था  जो विश्व को अपने तरीक़े से संचालित करना चाहती थी. राम को पूरी परियोजना पर काम काम करते हुए चौदह साल लगे. यानी लगभग तीन संसदीय चुनावों के बराबर . 
यह आलेख पूरी तरह  आप मेरी इस पोस्ट पर देखिये "क्यों मारा राम ने रावण को ?)

सोमवार, अक्तूबर 15, 2012

Want gun? Have girl child : The Pioneer


Of many things that a newborn girl child from Gwalior can bring to her father, this is something really special — a gun license. This is the new mantra of Gwalior District Administration to tackle the skewed sex ratio and higher female foeticide rate in the city. 
“I have a certain discretion in giving licenses. This is just an effort to protect the girl child,” Gwalior District Magistrate Parikipandla Narahari told
The Pioneer.A 2001 batch officer,originally from Andhra Pradesh, Narahari moved to Gwalior from Singrauli in December last year. He was baffled to see people’s love for guns. “When I moved base from Andhra, I foundpeople in Gwalior — even ones on rickshaws and cycles —bearing arms. The number of pending applications for gun licenses was mind-boggling. It was then that I hit upon this novel idea,” said Narahari.
Thirty out of 60 wards of Gwalior have a sex ratio of less than 800 girls per 1,000 boys — as against the national average of 940. According to the 2011
census figure, the sex ratio (0-6 years) is 832 as against 852 in 2001. These figures for the neighbouring districts of Chambal fare no better.
“People have started coming to me with requests that their application process be speeded up because they have a girl child of their own. It gives me immense pleasure to realise that the idea to save a girl child has started reaping benefits,” said Narahari. As Project Director with the Integrated Child Development Services and Deputy Secretary at the Women and Child Development Department of Madhya Pradesh, Narahari conceived the award-winning Ladli Laxmi Yojna of Madhya Pradesh. The scheme has, in fact, been replicated in many States. During the last one year, Gwalior administration also initiated a scheme to install a GPS-enabled 'active tracking device' in 90 ultrasound machines at clinics of the city to keep track of illegal sex-determination tests. This device captures the video and sound of the conversation inside the laboratory and helps review scanned images of a pregnant woman.
The administration can monitor the activities of these centres the moment USG (ultrasonography) machines are switched on, as the GPS-enabled device starts transmitting necessary information, including video recording. The result - licenses of 30 clinics have been cancelled for illegal sex determination.
Thanks to The Pioneer

मंगलवार, अक्तूबर 09, 2012

सही प्रबंधक वो है जो अपने चम्मचों को लटका के रखे ...........!!







चमचों के बिना जीना-मरना तक दूभर है. खास कर रसूखदारों-संभ्रांतों के लिये सबसे ज़रूरी  सामान बन गया है चम्मच. उसके बिना कुछ भी संभव नहीं चम्मच उसकी पर्सनालिटी में इस तरहा चस्पा होता है जैसे कि सुहागन के साथ बिंदिया, पायल,कंगन आदि आदि. बिना उसके रसूखदार या संभ्रांत टस से मस नहीं होता.  एक दौर था जब चिलम पीते थे लोग तब हाथों से आहार-ग्रहण किया जाता था तब आला-हज़ूर लोग चिलमची पाला करते थे. और ज्यों ही खान-पान का तरीक़ा बदला तो साहब चिलमचियों को बेरोज़गार कर उनकी जगह चम्मचों ने ले ली . लोग-बाग अपनी   क्षमतानुसार चम्मच का प्रयोग करने लगे. प्लैटिनम,सोने,चांदी,तांबा,पीतल,स्टेनलेस, वगैरा-वगैरा... इन धातुओं से इतर प्लास्टिक महाराज भी चम्मच के रूप में कूद पड़े मैदाने-डायनिंग टेबुल पे. अपने अपने हज़ूरों के सेवार्थ. अगर आप कुछ हैं मसलन नेता, अफ़सर, बिज़नेसमेन वगैरा तो आप अपने इर्द गिर्द ऐसे ही विभिन्न धातुओं के चम्मच देख पाएंगे. इनमें आपको बहुतेरे चम्मच बहुत पसंद आएंगे. कुछ का प्रयोग आप कभी-कभार ही करते होंगे. 

  चम्मच का एक सबसे महत्वपूर्ण और काबिले तारीफ़ गुण भी होता है कि वो सट्ट से गहराई तक चला जाता है. यानी आपके कटोरे के बारे में और आपके मुंह  के बारे में, आपके हाथों के बारे में 
    अब आप डायनिंग टेबल पर सजे चम्मच देखिये और याद कीजिये उस दौर को जब हमारे खाने-खिलाने के तरीके़ में "छुरी-कांटे" का कोई वज़ूद न था.केवल चम्मच से ही काम चलाया जाता था... हज़ूर आप बे-खौफ़ थे अभी भी हैं बे-खौफ़ पर आज़ आपको खबरदार किये देता हूं... अब हर जगह एक से बढ़कर एक "चम्मच" मौज़ूद मिलेंगे... पर छुरी-कांटों के साथ अब तय आपको करना है कि "चम्मच-बिरादरी" का उपयोग आप कितना और कैसे करना है. जैसे भी करें पर "खाते-वक़्त" इस बात का ध्यान भी रखें कि आप सिर्फ़ चम्मच से नहीं खाएंगे. उसके साथ छुरी-कांटों का प्रयोग भी करेंगे. और आप तो जानते हैं कि छुरी-कांटा तो छुरी-कांटा है .......आज अल्ल-सुबह मेरी नज़र डायनिंग टेबल पर रखे स्पून-स्टैंड पर पड़ी. उधर श्रीमति जी बोलीं- सुनते हो ?
आप की तो सुनता हूं.! बोलिये..
अबकी बार जब छुट्टी में आओगे तो कटलरी और स्पून स्टैंड खरीदना है..
क्यों...?
अरे, पुराना हो गया है. 
हां, ठीक है.सोच रहा था कि मैं अपने सजीव चम्मचों को तो मैं हमेशा खड़ा ही रखता हूं. और श्रीमती जी काहे स्पून स्टैंड मंगा रहीं हैं..सो हम फ़िर बोले..
"ये डब्बा बुरा है क्या..?"
न बुरा तो नहीं है मैं चाहती हूं कि ऐसा स्टैंड खरीदूं कि सारी कटलरी को लटका सकूं..
                                   मुझे उनकी इस बात से आत्म-बोध हुआ कि सही प्रबंधक वो है जो अपने चम्मचों को लटका के रखे ........... आप क्या सोचते हैं.. ?

मंगलवार, अक्तूबर 02, 2012

मध्यप्रदेश में बाल विकास सेवा परियोजनाओं के 37वें स्थापना दिवस के अवसर मोर-डुबलिया कार्यक्रम प्रारंभ





गांधी जयंती शास्त्री जयंती एवम मध्यप्रदेश में  बाल विकास सेवा परियोजनाओं के 37वें स्थापना दिवस के अवसर पर एकीकृत बाल विकास सेवा विभाग, महिला-सशक्तिकरण विभाग, स्वास्थय-विभाग के संयुक्त प्रयासों से डिण्डोरी जिला मुख्यालय पर एक बहु-आयामी कार्यक्रम का आयोजन एक पारंपरिक उत्सव के रूप में संपन्न इस अवसर पर मोर-डुबलिया कार्यक्रम का शुभारंभ भी किया गया मध्यप्रदेश सरकार के बेटी बचाओ अभियान के तहत आज गांधी जयंती के अवसर पर डिण्डौरी में महिलाओं को बहुउद्देश्यीय कार्यक्रमों से जोड़ने का प्रोजेक्ट ‘‘मोरे डुबुलिया’’ का शुभारंभ हुआ। ’’मोरे डुबुलिया’’ के शुभारंभ के अवसर पर जिले की 37 गर्भवती महिलाओं की गोद-भराई के साथ जिले का विभिन्न क्षेत्रों में नाम रोशन करने वाली 37 बेटियों को प्रमाण-पत्र एवं उपहार देकर सम्मानित किया गया इसमें राष्ट्रीय स्तर पर डिंडोरी का नाम रोशन करने वाली “गुडुम-बजा” दल में शामिल बालिकाओं को सम्मानित करना उल्लेखनीय है. । कार्यक्रम के पूर्व महिलाओं एवं किशोरी बालिकाओं की एक विशाल रैली बाल विकास परियोजना डिंडोरी के प्रांगण से निकाली गई जो नगर के मुख्य मार्ग से होती हुई समारोह स्थल कलेक्टर कार्यालय पहुँची। परियोजना कार्यालय से निकाली गई विशाल रैली जो नगर के मुख्य मार्गों से होती हुई मुख्य समारोह स्थल कलेक्टर कार्यालय पहुँची जहॉ जनप्रतिनिधियों एवं अधिकारियों द्वारा कन्या पूजन कर रैली की आगवानी की ।
जिसमें नि:शक्त बालिका कुमारी मुस्कान अली ने पैदल दो किलोमीटर की दूरी चल कर रैली को प्रभावी बनाया.
आगे पढ़ने के लिये क्लिक कीजिये => विकास-वार्ता पर 

मंगलवार, सितंबर 25, 2012

मेरा डाक टिकट

                   
इस स्टैम्प के रचयिता हैं
 ब्ला० गिरीश के अभिन्न मित्र
राजीव तनेजा
वो दिन आ ही गया जब मैं हवा में उड़ते हुए
अपना जीवन-वृत देख रहा था..
               मुद्दतों से मन में इस बात की ख्वाहिश रही कि अपने को जानने वालों की तादात कल्लू को जानने वालों से ज़्यादा हो और जब मैं उस दुनियां में जाऊं तब लोग मेरा पोर्ट्फ़ोलिओ देख देख के आहें भरें मेरी स्मृति में विशेष दिवस का आयोजन हो. यानी कुल मिला कर जो भी हो मेरे लिये हो सब लोग मेरे कर्मों कुकर्मों को सुकर्मों की ज़िल्द में सज़ा कर बढ़ा चढ़ा कर,मेरी तारीफ़ करें मेरी याद में लोग आंखें सुजा सुजा कर रोयें.. सरकार मेरे नाम से गली,कुलिया,चबूतरा, आदी जो भी चाहे बनवाए. 
जैसे....?
जैसे ! क्या जैसे..! अरे भैये ऐसे "सैकड़ों" उदाहरण हैं दुनियां में , सच्ची में .बस भाइये तुम इत्ता ध्यान रखना कि.. किसी नाले-नाली को मेरा नाम न दिया जाये. 
       और वो शुभ घड़ी आ ही गई.उधर जैसे ही किराने-परचून की दूकानों का ठेका मल्टी नेशन को मिला और   गैस सिलेंडर के दाम बढ़े इधर अपना बी.पी. और अपन न चाह के भी चटक गए. घर में कुहराम, बाहर लोगों की भीड़,कोई मुझे बाडी तो कोई लाश, तो साहित्यकार मित्र पार्थिव-देह कह रहे थे. बाहर आफ़िस वाला एक बाबू बार बार फ़ोन पे नहीं हां, तीन-बजे के बाद मट्टी उठेगी की सूचनाएं दे रहा था. हम हवा में लटके सब कार्रवाई देख रए थे.जात्रा निकली  जला-ताप के लोग अपने धाम में पहुंचे. शोक-सभाओं में किसी ने प्रस्ताव दिया 
"गिरीश जी की अंतिम इच्छा के मुताबिक हम सरकार से उनकी स्मृति में गेट नम्बर चार की रास्ता को उनका नाम दे दे"
दूसरे ने कहा न डाक टिकट जारी करे,
तीसरे ने हां में हां मिलाई फ़िर सब ने हां में हां ऐसी मिलाई जैसे पीने वाले सोडे में वाइन मिलाते हैं..और एक प्रस्ताव कलेक्टर के ज़रिये सरकार को भेजना तय हुआ.
              कलैक्टर साब को जो समूह ग्यापन सौंपने गया उसने जब हमारे गुणों का बखान किया तो "आल-माइटी सा’ब" को भी मज़बूरन हां में हां मिलानी पड़ी. वैसे वो हमारे बारे में ज़रूरत से ज़्यादा जानते थे बेचारे क्या करें ज़रूरत से ज़्यादा जानना उनकी मज़बूरी थी कान से देखने का नतीज़ा था कि जीते जी वे हमको नटोरियस वाली सूची में रक्खे हुये थे पर कहते हैं न कि  मरने के बाद सबकी भावनाएं बदल जाती हैं.. डी एम साब की भी बदली 
                  पेपर बाज़ी हुई मांग की गई आंदोलन की धमकियों के ऐलान किये गये. महीना  सवा महीना बीतते बीतते सी एम साब ने गली का नाम धरवा दिया "गिरीश बिल्लोरे मार्ग" खुद आये नाम धरने 
                                       केंद्र सरकार ने डाक टिकट जारी किया. हम बहुत खुश हुए.हमारी आत्मा मुक्ति की ओर भाग रही थी कि उसने मुड़ के देखा .. "गिरीश बिल्लोरे मार्ग" पर हमने पडोसी गोलू भैया के कुत्ते पीज़ो को "शंका निवारते" देखा तो सन्न रह गये. सोचा डाकघर और देख आवें सो पोस्ट आफ़िस में ससुरे डाक-कर्मी गांधी जी वाले ख़तों पे तो  तो सही साट ठप्पा लगाय रहे थे .  जिंदगी भर सादा जीवन उच्च विचार वाले हम (एकाध दोस्त ही जानता होगा  हमारी चारित्रिक विशेषताएं) पर इन  डाक कर्मी जी को नहीं जो  लैटर पे चिपकाई डाक-टिकट पे  बेतहाशा काली स्याही वाला ठप्पा लगा रहे थे.. पूरा मुंह काला कर दिया हमारा . अब बताओ हज़ूर तुम्हारे मन में ऐसी इच्छा तो नईं है.. होय तो कान पकड़ लो.. मूर्ती-वूर्ती तो क़तई न लगवाना.. वरना
       आकाश का कौआ तो दीवाना है क्या जाने
         किस सर को छोड़ना है, किस सर पे छोड़ना है..?   
रुकिये ये गीत तो सुन ही लीजिये 

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