स्वतंत्रता और हिंदी विषय स्वयमेव
एक सवाल सा बन गया है. 15 अगस्त 1947 के बाद
हिंदी का विकास तो हुआ है किंतु हिंदी उच्च स्तरीय रोजगारीय भाषा की श्रेणी में आज
तक स्थापित नहीं हो सकी. जबकि तेज गति से अन्य अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं का विकास हुआ
है उतनी ही तेजी से स्वतंत्रता के पश्चात हिंदी भाषा की उपेक्षा की स्थिति सामने आई है. जिसका
मूल कारण है हिंदी को रोजगार की भाषा के रूप में आम स्वीकृति न मिलना. विकाशशील राष्ट्रों
में उनके सर्वागीण विकास के लिये भाषा के विकास
को प्राथमिकता न देना एक समस्या है. हिन्दी ने आज जितनी
भी तरक्की की है उसमें सरकारी प्रयासों विशेष रूप से आज़ादी के बाद की सभी भारत की
केन्द्रीय सरकारों का योगदान नगण्य है. आज जहाँ विश्व की सभी बड़ी भाषायें अपनी सरकारों
और लोगों के प्यार के चलते तरक्की कर रहीं है वहीं विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा हिन्दी
अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. 26 जनवरी 1950 को जब भारतीय संविधान लागू हुआ तब
हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया. पहले 15 साल तक हिन्दी के साथ साथ अंग्रेजी
को भी राजभाषा का दर्जा दिया गया, यह तय किया गया कि 26 जनवरी 1965 से सिर्फ हिन्दी
ही भारतीय संघ की एकमात्र राजभाषा होगी. 15 साल बीत जाने के बाद जब इसे लागू करने का
समय आया तो तमिलों के विरोध के चलते प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने उन्हे यह
आश्वासन दिया कि जब तक सभी राज्य हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप मे स्वीकार नहीं करेंगे
अंग्रेजी भी हिन्दी के साथ साथ राजभाषा बनी रहेगी. इसका अर्थ यह था कि अब अनंतकाल तक
अंग्रेजी ही इस संघ की असली राजभाषा बनी रहेगी जबकि इसकी अनुवाद की भाषा हिन्दी उसी
पिछली कुर्सी पर बैठी रहेगी.
आज आज़ादी के 62 वर्ष बीत
जाने के बाद भी वही स्थिति बनी हुई है और हिन्दी को सच्चे अर्थों मे राजभाषा बनाने
का कोई ठोस प्रयास सरकार की ओर से नहीं किया गया है. भारत सरकार ने हिन्दी के अनुसार
भारत को तीन क्षेत्रों मे बाँटा है क
क्षेत्र,ख क्षेत्र और ग क्षेत्र.
क क्षेत्र में - उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली,
बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, हरियाणा और अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह आते है, संविधान
के अनुसार केन्द्र सरकार को इन प्रदेशों से संबंधित सारा काम सिर्फ हिन्दी में ही करना
होगा पर 1% मूल काम (अनुवाद नहीं) भी हिन्दी मे नहीं किया जाता.
हिमाचल प्रदेश, दिल्ली,
हरियाणा और अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह जैसे राज्य तो अपना सारा काम ही अंग्रेजी मे
करते हैं, जबकि यहाँ हिन्दी का ना तो कोई विरोध है न ही हिन्दी जानने वाले लोगों की
कमी. सबसे अजीब स्थिति तो हिमाचल प्रदेश और हरियाणा की है जो राज्य सिर्फ भाषाई आधार
पर पंजाब से अलग हुये थे, आज जहाँ पंजाब का सारा काम पंजाबी मे किया जा रहा है वहीं
उस से अलग हुये यह प्रदेश अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं.
ख क्षेत्र में - महाराष्ट्र,
गुजरात, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब, जैसे क्षेत्र हैं, जहाँ हिन्दी का कोई विरोध नहीं है,
संविधान के अनुसार इन प्रदेशों से संबंधित सारा काम केन्द्र सरकार को हिन्दी में ही
करना होगा पर मूल पत्रों के साथ अंग्रेजी अनुवाद भी राज्य विशेष के माँगने पर उपलब्ध
करवाया जायेगा पर स्थिति कमोबेश क क्षेत्र जैसी ही है.ग क्षेत्र मे बाकी सारे राज्य
आते हैं और इनके संबंध मे तो केन्द्र सरकार हिन्दी के बारे में सोचती तक नहीं
आज़ादी के बाद
हिंदी को व्यापार की भाषा का दर्ज़ा न देना भी उसके विकास के प्रयासों पर विराम लगाता
है. पर इससे उलट लेखक एवम पत्रकार श्री प्रमोद भार्गव का मानना उत्साहित कर रहा है
वे अपने एक लेख में ओबामा के हिंदी के विकास में सहयोग को उल्लेखित करते हुए लिखतें
हैं कि-
“ आम और खास आदमी की बोलचाल
से लेकर जरुरत की भाषा हिन्दी है। जरुरत की इसी ताकत के बूते हिन्दी हाट - मण्डी, बाजार
और हाइवे की भाषा बनी हुई है। यही आधार उसे विश्व में बोलचाल के स्तर पर दूसरी श्रेणी
की भाषा बनाता है। इसी वजह से पूरी दुनिया में फैले हर तीसरा आदमी हिन्दी बोल व समझ
सकता है। इन्हीं खूबियों के चलते अमेरिकी राष्टपति बराक ओबामा ने हिन्दी की वास्तविक
ताकत को समझा और अपने देश की शालाओं में हिन्दी के पठन-पाठन के लिए जरुरी धनराशि उपलब्ध
कराई। बहुसंख्यक आबादी की भाषा की यह बाहरी ताकत है। हिन्दी की अंदरुनी ताकत में अमेरिका
के अतंराष्टीय स्तर पर व्यापारिक हित और आतंकवादी खतरों के बीच आंतरिक सुरक्षा के हित
भी अंतनिर्हित हैं। बावजूद इसके फिलहाल हिन्दी इस शक्ति के साथ नहीं उबर रही की उसमें
‘ज्ञान का माद्दा’ है ? जब तक हिन्दी इस माद्दे से परिभाषित नहीं होगी देश-दुनिया में
वह बगलें ही झांकती रहेगी।
ओबामा सरकार अमेरिकी स्कूलों में हिन्दी
पढ़ाये जाने के लिए जरुरी धन मुहैया करा रही है। अमेरिका को लग रहा है कि हिन्दी देश
को आर्थिक मंदी से उबारने और राष्टीय सुरक्षा के लिए कवच साबित हो सकती है। इसके पूर्व
इस दृष्टि से केवल चीनी और अरबी भाषाओं का ही बोलबाला था। अमेरिका में आतंकवादी हमले
के बाद भय पैदा करने वाले इंटरनेट संदेशों की आमद बड़ी है। बड़ी संख्या में ये संदेश
हिन्दी और उर्दु में होते हैं। स्वाभाविक है दोनों ही भाषाएं आम अमेरिकी नागरिक नहीं
जानता। इसीलिए अमेरिका की सेना में इस समय सबसे ज्यादा हिन्दी व उर्दु के अनुवादकों
की मांग है। जिससे यह साफ हो सके की जो संदेश आ रहे हैं उनमें अमेरिका की आतंरिक सुरक्षा
से जुड़ा खतरा तो नहीं हैं। इस भय से अमेरिका इतना भयभीत है कि भाषा के अनुवादकों को उनने छह माह के भीतर अमेरिकी नागरिकता दे देने
का भी प्रलोभन दिया हुआ है। इस कारण यह राय भी बनती है की हिन्दी की महत्ता जरुरत की
भाषा के साथ भय की भाषा बनने के कारण भी बढ़ रही है।”
कुल मिलाकर जो भाषा अपने देश में न तो पूरी तरह
व्यापार की भाषा बन सकी न ही कानून अथवा रोजगार की भाषा न बन सकी उसके विकास के लिये
दुनियां के दादा अमेरिका की तत्परता एक महत्वपूर्ण एवम चिंतनीय संदेश है.
( हिंदी पखवाडे के अवसर पर स्नातक विद्यार्थी आयुषि असंगे का आलेख इस आलेख में हिंदी विक्कीपीडिया सामग्री प्राप्त की गई है. )