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अक्तूबर, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सुनहरे पंखों वाली चिड़िया और पागल

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पता नहीं किधर से आया है वो पर बस्ती में घूमता फ़िरता सभी देखते हैं. कोई कहता है कि बस वाले रास्ते से आया है किसी ने कहा कि उस आदमी की आमद रेल से हुई है. मुद्दा साफ़ है कि बस्ती में अज़नबी आया अनजाना ही था. धीरे धीरे लोगों उसे पागल की उपाधी दे ही दी. कभी रेल्वे स्टेशन तो कभी बस-अड्डॆ जहां रोटी का जुगाड़ हुआ पेट पूजा की किसी से चाय पीली किसी से पुरानी पैंट किसी से कमीज़ ली नंगा नहीं रहा कभी . रामपुर गांव की मंदिर-मस्ज़िद के दरमियां पीपल के पेड़ पर बैठे पक्षियों से यूं बात करता मानों सब को जानता हो . कभी किसी कौए से पूछता – यार, तुम्हारा कौऊई-भाभी से तलाक हो गया क्या.. ? आज़कल भाभी साहिबा नज़र नहीं आ रहीं ? ओह मायके गईं होंगी.. अच्छा प्रेगनेट थीं न.. ! मेरी मम्मी भी गई थी पीहर जब मेरा जन्म होने वाला था.                  उसे किसी कौए ने कभी भी ज़वाब नहीं दिया पर वो था कि उनकी कांव-कांव में उत्तर खोज लेता था संतुष्ट हो जाता था. वो पागल है कुछ भी कर सकता है कुछ भी कह सकता है . हां एक बात तो बता दूं कि उसे सुनहरे पंख वाली चिड़िया खूब पसंद थी हर सुबह चुग्गा चुनने जाने के पहले पागल की पो

“भई, रावण को पूरी तरह से निपटा के फ़ूंक-फ़ांक के आना ”

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                           कोने कोने में फ़ाइलिन तूफ़ान की आहट से लोग जितना नहीं घबरा रहे उससे ज़्यादा घबराहट सबों के दिल-ओ’-दिमाग में चुनावों को लेकर है. अर्र ये क्या आपसे कोई सियासी शगल करने का मेरा मूड क़तई नहीं हैं. भाई अपना चुनाव आयोग है न उसने कई फ़रमान जारी किये अक्सर जैसा होता चला आया है वैसा ही होगा...हमारी ड्यूटी है कि हम मतदान को प्रोत्साहित करें सो मित्रो इस बार आप वोट अवश्य डालें.. हर बार भी डालें . देखिये इस बार भी पूजा पर्व  भी अबके बरस प्रजातंत्र के महापर्व चुनाव के  संग साथ चला आया है. दीवाली भी इसी दौरान है. अष्टमी-पूजन के लिये जुगत लगा कर सरकारी लोग अपने अपने घर गांव की तरफ़ रवाना हुए हमने अपने मातहतों से कहा –“भई, रावण को पूरी तरह से निपटा के फ़ूंक-फ़ांक के आना  और हां तेरहीं के लिये मत रुकना वरना इलेक्शन अर्ज़ेंट की डाक आते ही लफ़ड़ा हो जाता है.. ” हम भी अष्टमी पूजन के लिये घर आ गए बाज़ार से पूजन सामग्री लाने का आदेश मिला सो बाज़ार पहुंचे . वहीं पूजन सामग्री खरीदते वक़्त मिला हमारा क्लास फ़ैलो जो इन दिनों मुहल्ला ब्रांड नेता कहा जाता है. हमने पूरे उत्साह से स

डा. मलय जटिल नहीं है ..

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डा. मलय       डा. मलय एक सतत संघर्ष का पर्याय है. स्पष्ट हैं .. सहज हैं सरल हैं किंतु  जाने क्यों मलय जी को    को अभिन्न मित्र जटिल मानवाने की कवायद में लगे हैं.  भई आप जो भी जैसा भी समझें आपका व्यवसाय है मेरी समझ अनुसार वे सहज सरल सरित प्रवाही हैं.    मुझे अच्छी तरह याद है कि मेरे मित्र ने पूछा  -"यार मलय जी गीत के विरोधी हैं क्या गीत कविता नहीं.... ?"  मेरा निवेदन था उस मित्र से -"भई, एक दम राय कायम मत करो. " मलय को पढो तब जानो कि वो क्या है.  किसी ने कहा वे परम्पराओं के प्रति अत्यधिक नकारात्मक रूप से संवेदित हैं.. तो कोई कहता था कि मल, हां भई बहुत जटिल हैं.. तो किसी ने यह तक कह डाला कि उनकी रचनाओं में बेहद जटिलता है ..!!   मुझे लोगों के इस वाक-विलास से कोई लेना देना नहीं है. पर सुनी सुनाई ध्वनियों की सचाई जानने की मानवीय प्रवृति औरों सी मुझमें भी है सो डा. मलय जी पर ध्यान देने लगा. अगर मलय जी जटिल हैं तो तय है कि वे उपेक्षा भी करेंगे पर ऐसा कुछ नहीं दिखा उनमें.  धार्मिक   सामाजी   संस्कारों    की   घोर   उपेक्षा   करते कभी भी नज़र नहीं आए डा. मलय   ..