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10.10.10

सरकतीं फ़ाईलें : लड़खड़ाती व्यवस्था

http://lh6.ggpht.com/_XNjkGVClRyc/STto8AmKQbI/AAAAAAAAAIM/vmB4kutTRzs/map%5B2%5D.gif
साभार : गूगल बाबा


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साभार:गूगलबाबा
http://www.indianews.org.in/indianews/wp-content/uploads/2010/08/commonwealth-games-logo.png   भारतीय-व्यवस्था में ब्यूरोक्रेटिक सिस्टम की सबसे बड़ी खामी उसकी संचार प्रणाली है जो जैसी दिखाई जाती है वैसी होती नहीं है. सिस्टम में जिन शब्दों का प्रयोग होता है वे भी जितना अर्थ हीन हो रहें हैं उससे व्यवस्था की लड़खड़ाहट को रोका जाना भी सम्भव नहीं है. यानी कहा जाए तो ब्यूरोक्रेटिक सिस्टम अब अधिक लापरवाह  और गैर-जवाबदेह साबित होता दिखाई दे रहा है.  दूसरे शब्दों में कहा जाए तो भार को अंतरित कर देने की प्रवृत्ति के चलते एक दूसरे के पाले में गेंद खिसकाते छोटे बाबू से बड़े बाबू के ज़रिये पास होती छोटे अफ़सर से मझौले अफ़सर के हाथों से पुश की गई गेंद की तरह फ़ाईल जिसे नस्ती कहा जाता है अनुमोदन की प्रत्याशा में पड़ी रहती है. और फ़िर आग लगने  पानी की व्यवस्था न कर पाते अफ़सर  अक्सर नोटशीट के नोट्स जो बहुधा गैर ज़रूरी ही होतें हैं मुंह छिपाए फ़िरतें हैं. वास्तव में जिस गति से काम होना चाहिये उस गति से काम का न होना सबसे बड़ी समस्या है कारण जो भी हो व्यवस्था और भारत दौनों के हित में नहीं.इन सबके पीछे कारणों पर गौर किया जावे तो हम पातें हैं कि व्यवस्था के संचालन के लिये तैयार खड़ी फ़ौज के पास असलहे नहीं हैं हैं भी तो उनको चलाने वालों की संवेदन शीलता पर पुरानी प्रणाली का अत्यधिक प्रभाव है. कई बार तो देखा  गया की ऊपर वालों का दबाव नीचे वालों पर इतना होता है कि सही रास्ते पर चलता काम दिशा ही बदल देता है. आज़कल फ़ाइलों पर चर्चा करें जैसे शब्दों का अनुप्रयोग बढ़ता जा रहा है. इसके क्या अर्थ हैं समझ से परे हैं. इसी तरह की कार्य-प्रणाली फ़ाइलों में भोला राम के जीव आज भी फ़ंसते हैं अगर यक़ीन न हो तो अदालतों में जाके देखिये. आज़ भी राग दरबारी का लंगड़ नकल के लिये भटकता आपको मिल ही जावेगा.  यदि दिल्ली कामन वेल्थ की तैयारी में लेटलतीफ़ी और अव्यवस्था हुई है तो उपरोक्त कारण भी अन्य कारणों में से एक है. मेरी दृष्टि में ब्यूरोक्रेसी को अब अपनी कार्य प्रणाली में अधिक बदलाव लाने होंगें वरना सरकती फ़ाइलें व्यवस्था के अर्रा के टूट कर बिखरने में सहायक साबित होंगी.

11.4.10

सांड कैसे कैसे

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एक बुजुर्ग लेखक  अपने शिष्य को समझा रहे थे -"आव देखा न ताव टपका दिये परसाई के रटे रटाए चंद वाक्य परसाई के शब्दों का अर्थ जानने समझने के लिये उसे जीना होगा. परसाई को बिछौना समझ लिये हो का.?, दे  दिया विकलांग श्रद्धा को रोकने का नुस्खा हमको. अरे एक तो चोरी खुद किये उपर से कोतवाल को लगे बताने चोर का हुलिया . अगर  पुलिस के चोर खोजी कुत्ते नें सूंघ लिया तो सांप सूंघ जायेगा . ....?
 तभी दौनो के पास से एक सांड निकला चेला चिल्लाया-जाने सांड कैसे कैसे ऐरा घूम रहे हैं इन दिनों कम्बख्त मुन्सीपाल्टी वाले इनको दबोच कानी हाउस कब ले जावेगें राम जाने.
बात को नया मोड देता चेला गुरु से बोला:-गुरु जी, अब बताइये दस साल हो गये एक भी सम्मान नसीब न हुआ मुझे ?
तो, क्या कबीर को कोई डी-लिट मिली,तुलसी को बुकर मिला ?
अरे गुरु जी , मुझे तो शहर के लोग देदें इत्ता काफ़ी है .
सम्मान में क्या मिलता है बता दिलवा देता हूं ?
गुरु, शाल,श्रीफ़ल,मोमेन्टो...और क्या.....?
मूर्ख, सम्मान के नारीयल की ही चटनी बनाये गा क्या...इत्ती गर्मी है शाल चाहता है, कांच के मोमेंटो चाहिये तुझे इस के लिये हिन्दी मैया की सेवा का नाटक कर रहा था ? जानता हूं तुझे आदमी से हट के रुतबा चाहिये उन अखबारों में नाम चाहिये जिसको रद्दी-पेप्पोर बाला पुडे बनाने बेच आता है, या कोई बच्चे की ................ साफ़ करने में काम आता है उसमें फ़ोटो छपाना है..वाह से हिन्दी-सुत, तुझे सूत भर भी अकल नईं है. जा जुमले रट के बने साहित्यकार. मैने तुझे मुक्त किया जा भाग जा घूम उसी छुट्टॆ-सांड सा जो पिछले नुक्कड पे मिला था.
गुरु से मुक्त हुआ साहित्यकार इन दिनों ब्लागिंग कर रहा है जहां साड सा एन सडक पे गोबर कर देता है. चाहे किसी का पैर कोई आहत हो उसे चरे हुए को निकालना है सो निकाल रहा है. इधर न तो संपादक के खेद सहित का डर न ही ज़्यादा प्रतिस्पर्धी ........ कभी इसकी पीठ खुजा आता तो कभी उसकी........ बेचारा करे भी तो क्या. दफ़्तर में मुफ़्त का कम्प्यूटर फ़िर हिन्दी की सेवा का संकल्प... हा हा हा......?

18.9.09

" परोसते परोसते भूल गए कि परसाई के लिए कुछ और भी ज़रूरी है !"

प्रगतिशील लेखक संघ जबलपुर इकाई एवम विवेचना ने 22/08/09 को परसाई जी को याद न किया होता तो तय था कि अपने राम भाई अनिल पांडे के घर की तरफ़ मुंह कर परसाई जी को समझने की कोशिश करते . जिनके परसाई प्रेम के कारण तिरलोक सिंह से खरीदा "परसाई-समग्र" आज अपनी लायब्रेरी से गुमशुदा है .हां तो परसाई जी को याद करने जमा हुए थे "प्रगतिशील-गतिशील" सभी विष्णु नागर को भी तो सुनना था और देखे जाने थे राजेश दुबे यानि अपने "डूबे जी" द्वारा बनाए परसाई के व्यंग्य-वाक्यों पर बनाए "कार्टून".कार्यक्रम की शुरुआत हुई भाई बसंत काशीकर के इस वाक्य से कि नई पीडी परसाई को कम जानती है अत: परसाई की रचनाऒं पाठ शहर में मासिक आवृत्ति में सामूहिक रूप हो. इन भाई साहब के ठीक पीछे लगा था एक कार्टून जिसमे एक पाठक तल्लीन था कि उसे अपने पीछे बैठे भगवान का भी ध्यान न था सो हे काशीकर जी आज़ के आम पाठक के लिए कैटरीना कैफ़ वगैरा से ज़रूरी क्या हो सकता है. आप नाहक प्रयोग मत करवाऎं.फ़िर आप जानते हो कि शहर जबलपुर की प्रेसें कित्ते सारे अखबार उगल रोजिन्ना उगल रहीं हैं,दोपहर शाम और पाक्षिक साप्ताहिक को तो हमने इसमें जोडा ही नहीं ! फ़िर टीवी और धर्मपत्नि (जिनके पास पत्नि नहीं हैं उनकी प्रेमिकाऎं जिनके पास वे भी नहीं हैं उनकी "......") के लिये वक्त निकालना कितना कठिन है. आप हो कि बस........?
मित्रो बसंत काशीकर ने परसाई रचनावलि से "संस्कारों और शास्त्रों की लडाई "का पाठ किया.रचना तो सशक्त थी ही वाचन भी श्रवणीय रहा है.फ़िर बुलाए गए अपने मुख्य अतिथि श्री विष्णु नागर जी जो साहित्यकारों खेमेंबाज़ी(जिसके लिए प्रगतिशील कदाचित सर्वाधिक दोषी माने गए हैं) को लेकर दु:खी नज़र आए उनने सूचित किया कि "बनारस के बाद दिल्ली हिन्दी-साहित्य के लिये बेहद महत्वपूर्ण स्थान है वहां भी स्थापित साहित्यकारों के लघु-समूह हैं जो अपने समूह से इतर किसी को स्वीकारते ही नहीं" आदरणीय नागर जी आपको "नैनो-तकनीकी" की जानकारी तो होगी ही. तभी "ममता जी ने अपने प्रदेश में इसका विरोध किया ताकि बंगाल के लोगों की "सोच" में इस तकनीकी का ’वायरस’ प्रविष्ट न हो. लेकिन इस तकनीकी को साहित्यकारों ने सबसे पहले अपनाया".......हमारी संस्कारधानी में तो यह व्यवस्था बकौल प्रशांत कौरव "शहर-कोतवाली,थाना,चौकी,बीट,का रूप ले चुकी है...नए-नए लडकों का साहित्यिक खेमेबाज़ी को इस नज़रिए से देखना परसाई जी की देन नहीं तो और क्या है..? खैर छोडिए भी आपके वक्तव्य में साहित्यकारों की आत्म-लिप्तता के तथ्य का ज़िक्र आया मेरा व्यक्तिगत मत है इसे "आत्म-मुग्धता" मानिए और जानिए..!! आप तो मालवा से वास्ता रखतें हैं वहां की बुजुर्ग महिलाएं कहतीं सुनी जातीं हैं "काणी अपणा मण म सुहाणी.." स्थिति कमोबेश यही तो है. आपने अपने वक्तव्य में कई बार सटीक मुद्दे उठाए जैसे लेखक को उच्चें नाम वाले पाठक की तलाश है जैसे नामवर सिंह जिनके नाम का बार बार उल्लेख करते हुए आपने कहा कि लेखक इस तरह के पाठक चाहतें हैं ! इस वास्तविकता से कोई भी असहमत नहीं. आपसे इस बिन्दू पर भी सहमति रखी जा सकती है "कि प्रकाशक अफ़सर प्रज़ाति के साहित्यकार को मुक्तिबोध का दर्ज़ा दे देता है " वैसे आपको सूचित कर दूं कि मैं भी छोटी नस्ल का अधिकारी हूं अधिकारी तो हूं आपकी सलाह मानते हुए किताब नहीं छपवाउंगा. शायद आप आई०ए०एस० अधिकारी जैसे अशोक बाजपेयी,श्रीलाल शुक्ल,आदि को इंगित कर कह रहे थे सो सहमत हैं सभी. वैसे इन दौनों ने हमारी समझ से कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे साहित्यकार बिरादरी के नाम पे बट्टा लगे . अशोक जी के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है किन्तु शुक्ल जी की किताब तो हम अधिकारीयों के लिए महत्वपूर्ण है. अपने भाषण में आपने इस बात का भी ज़िक्र किया कि आपने परसाई जी से कहा था (जिसका आपको मलाल भी है) "कई दिनों से आप बाहर नहीं लेखन पर इसका प्रभाव पडा है ".....अपने कथन में भूल स्वीकारोक्ति का सम्मान करता हूं नागर जी ......
इस सचाई से कोई इंकार ही नहीं कर सकता कि नित नए गैर बराबरी के कारण उभर रहे हैं सर्वहारा को इस्तेमाल पूरी ताकत और चालाकी से किया जा रहा है . किसी साहित्यकार की कलम ने " सर्वहारा-शोषण की नई तकनीकि का भाण्डा नहीं फ़ोडा .
सुधि पाठको विष्णु नागर के बाद बारी आई मेरे मुहल्ले के निवासी जो डाक्टर मलय की बतौर अध्यक्ष उन्हौनें बताया :"परसाई ने स्वयं व्यंग्य को विधा में नहीं रखा वे (परसाई जी) अपने लेखन को इसे "स्प्रिट" मानते थे जबकी मेरा मत है कि उनके लेखन में सटायर-स्प्रिट है अत: व्यंग्य-विधा है" डाक्टर मलय का कहना है कि परसाई जी का मूल्यांकन नहीं किया गया.
कार्यक्रम में कार्टूनिष्ट राजेश दुबे यानि डूबे जी को संचालक भाई बांके बिहारी व्यौहार का सामने आमंत्रित न करना सबको चौंका रहा था कि हिमांशु राय की पहल पर डूबे जी बुलवाए गए उनसे कुछ कहने का अनुरोध हुआ हाथ जोडकर कहा "मैने जो कहना था कार्टूनों के ज़रिए कह दिया"
विशेष-बिन्दू और लोग जो मौज़ूद थे वहां
पूरे कार्यक्रम का सारभूततत्व परसाई जी के मूल्यांकन न किए जाने का बिन्दू रहा.
इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर की प्रस्तुति विवेचना के कलाकारों नें की
वक्तव्यों में लेखन,पठन-पाठन,के संकट के साथ परसाई जी के समकालीन व्यक्तित्वों का उल्लेख किया गया
कार्यक्रम में रजनीश के अनुयायी "स्वामी राजकुमार भारती" उपस्थित थे.
परसाई को औरों के सामने अपने तरीके से परोसने वालों को मलाल है कि उनका मूल्यांकन अभी भी शेष है
परसाई जी इतने मिसफ़िट तो न थे कि आलोचक भाई उनका मूल्यांकन नहीं कर पाए... चिन्ता मत कीजिए महानता के मूल्यांकन के लिए समय सीमा का निर्धारण स्वयम विधाता ने करने की कोशिश नहीं की मामला समय को सौंप दीजिए.
हां एक बात और ये जो आपने सवाल उठाया है कि अब एका नहीं रहा तो आप तो तय कर चुकें हैं मुक्तिबोध के साथ सारे विषय चुक गए हैं जब विषय की यह गति है तो साहित्यिक संगठन की ज़रूरत क्या है ?

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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...