संदेश

मिसफ़िट लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

फूल तुमने जो कभी मुझको दिए थे ख़त में वो किताबों में सुलगते हैं सवालों की तरह

चित्र
डायरी से अर्चना चावजी की  आवाज़ में सुनिए... ग़ज़ल चांदनी रात में कुछ भीगे ख्यालों की तरह    मैंने चाहा है तुम्हें दिन के उजालों की तरह   साथ तेरे जो गुज़ारे थे कभी कुछ लम्हें मेरी यादों में चमकते हैं मशालों की तरह इक तेरा साथ क्या छूटा हयातभर के लिए मैं भटकती रही बेचैन गज़ालों की तरह फूल तुमने जो कभी मुझको दिए थे ख़त में वो किताबों में सुलगते हैं सवालों की तरह तेरे आने की ख़बर लाई हवा जब भी कभी धूप छाई मेरे आंगन में दुशालों की तरह कोई सहरा भी नहीं, कोई समंदर भी नहीं अश्क आंखों में हैं वीरान शिवालों की तरह पलटे औराक़ कभी हमने गुज़श्ता पल के दूर होते गए ख़्वाबों से मिसालों की तरह                                                                          -फ़िरदौस ख़ान  

" परोसते परोसते भूल गए कि परसाई के लिए कुछ और भी ज़रूरी है !"

प्रगतिशील लेखक संघ जबलपुर इकाई एवम विवेचना ने 22/08/09 को परसाई जी को याद न किया होता तो तय था कि अपने राम भाई अनिल पांडे के घर की तरफ़ मुंह कर परसाई जी को समझने की कोशिश करते . जिनके परसाई प्रेम के कारण तिरलोक सिंह से खरीदा "परसाई-समग्र" आज अपनी लायब्रेरी से गुमशुदा है .हां तो परसाई जी को याद करने जमा हुए थे "प्रगतिशील-गतिशील" सभी विष्णु नागर को भी तो सुनना था और देखे जाने थे राजेश दुबे यानि अपने "डूबे जी" द्वारा बनाए परसाई के व्यंग्य-वाक्यों पर बनाए "कार्टून".कार्यक्रम की शुरुआत हुई भाई बसंत काशीकर के इस वाक्य से कि नई पीडी परसाई को कम जानती है अत: परसाई की रचनाऒं पाठ शहर में मासिक आवृत्ति में सामूहिक रूप हो. इन भाई साहब के ठीक पीछे लगा था एक कार्टून जिसमे एक पाठक तल्लीन था कि उसे अपने पीछे बैठे भगवान का भी ध्यान न था सो हे काशीकर जी आज़ के आम पाठक के लिए कैटरीना कैफ़ वगैरा से ज़रूरी क्या हो सकता है. आप नाहक प्रयोग मत करवाऎं.फ़िर आप जानते हो कि शहर जबलपुर की प्रेसें कित्ते सारे अखबार उगल रोजिन्ना उगल रहीं हैं,दोपहर शाम और पाक्षिक साप्ताहिक को तो हम