28.4.14

एक गीत आस का एक नव प्रयास सा


अदेह के सदेह प्रश्न कौन गढ़ रहा कहो
गढ़ के दोष मेरे सर कौन मढ़ रहा कहो ?
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बाग में बहार में, ,
सावनी फुहार में !
पिरो गया किमाच कौन
मोगरे के हार में !!
पग तले दबा मुझे कौन बढ़ गया कहो...?
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एक गीत आस का
एक नव प्रयास सा
गीत था अगीत था !
या कोई कयास था...?गीत पे अगीत का वो दोष मढ़ गया कहो...?
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तिमिर में खूब  रो लिये
जला सके न तुम  दिये !
दीन हीन ज़िंदगी ने
हौसले  डुबो दिये !!
बेवज़ह के शोक गीत कौन गढ़ रहा कहो... ?

27.4.14

उनको आस्तीन में सम्हाल के रखने की ज़ुर्रत

       
मेरा एक अभिन्न मित्र 
 
भाई आदतन किसी को भी ह्यूमलेट करने के आदी हैं  एक बात माननी पड़ेगी बंदा है बहुत दिमाग़दार जो कहता और करता है सटीक यानी उसका निशाना सदा ही केवल उसी को लाभ पहुंचाने वाला होता है.. कुल मिला कर मैने भी इस हुनर को सीखने उसे अपनी आस्तीन में महफ़ूज़ रखा है. बाहार जाएगा क्या मालून कौन उसका एपीसोड खत्म कर दे ... ? 
           अब हमने उसे भाई कहा है तो क़रीबी होगा हमारे लंगोटिया यार है भाई.. अपना... हां न सिर्फ़ लंगोटिया बल्कि पोतड़िया यार है.. डा. सुले मैडम के हस्पताल में हम दौनों साथ ही साथ प्रसूते थे. तब से अब तक दोस्ती सलामत दोस्ताना सलामत केवल हम सलामत नहीं कुछ दाग लगवाए हम पर उस रासायनिक दुष्कर्म में  उस भाई का अहम रोल था. दाग धोने में खूब मदद की ऐसा लोगों को लगा पर सच तो ये है कि वो केवल हमारे दाग-धोने में अपने अवदान को रेखांकित करता रहा वास्तव में उसने खास किस्म का वाचिक कैमिकल हम पर रगड़ रहा था ताक़ि हमारे दाग पुख्ता और ताज़ा तरीन बनें रहें ..
      उसका नाम न पूछो तुलसी सहित कई आदि कवियों ने राम को तो अमर कर दिया किंतु साथ ही साथ रावण का उल्लेख कर उसे भी अमरत्व प्रदान कर उसे ऐतिहासिक बनाया पर मैं उन सहृदयी कवियों में नहीं यक़ीनन मैने  उन मित्रों का नाम कभी न तो लिखा और न ही लिखूंगा  क्यों कि मैने उनसे आनुपातिक दूरी कायम कर ली है.. ये अलग बात है कि उनको आस्तीन में  सम्हाल के रखने की ज़ुर्रत की है. 
        न जाने दुनिया को क्या हो गया है.. आज़कल रिश्ते रिस रहे हैं.. मज़बूरी हो गया है इन नातों को ढोना लोगों के लिये ... दरअसल अब तो रिश्ते सामयिक आवश्यकता आधारित होते हैं.. अब रिश्तों को लेकर गंभीर होना निरी बेवकूफ़ी मानी जाती है . जो भी हो देश परदेश में अवसरानुसार मैत्री भले आवश्यक हो किंतु सतत मानसिक जुड़ाव वाली मैत्री का पाठ कृष्ण ने पढ़ा है तो हमें पश्चिमी बुनावट वाले नाते क्यों पसंद आने लगे हैं.. जो आधारित हैं.. "आज नाता :कल बाय बाय टाटा "   वाले सिद्धांत पर रिश्ते पोर्टेबल भी हो चले हैं नैनो भी... जितना विस्तार का अवसर मिल रहा है हमें उतने ही हम सिमट रहे हैं.. अब आप का माथा दु:ख रहा होगा न कि भाई की कथा सुनाते सुनाते ये क्या हम तत्व विश्लेषण करने लगे तो भाई हम मजे मंजाए लिक्खाड़ हैं सुनिये हम उसी बनाम उन्हीं मित्रों की बात कर रहे जिनसे रिसता है मित्रता का रिश्ता ...... कमीनगी तो देखिये ज़नाब मुझसे मिलकर गया नामाकूल मेरे सामने मेरे सुखी रहने की कामना करके गया .. और किसी आदमखोर रसूखदार को मेरी चुगली कर रहा था अन्य आदमखोरों के साथ  .. तभी से मैने तय किया है है इन पीठ पर वार करने वालों को अपनी आस्तीन में रख लूं लोग बाजुएं काटते हैं.. जिसके लिये मैं तैयार हूं .. मेरी तो बाजुएं कटेंगी वैसे भी अधूरा हूं  पर बाजुओं में रहने वाले का क्या हश्र होगा आप समझ ही गए होगे न अब तक.... तो भाईयो....... सककर्मियों ... आस्तीन में रहना चाहोगे.. तो बता देना


कवि अमृत ”वाणी” ने चुटीले अंदाज़ में आस्तीन वालों का कुछ यूं सम्मान किया है..

सांप हमें क्या काटेंगे
हमारे जहर से
वे बेमौत  मरे जायेंगे
अगर हमको काटेंगे ?

कान खोल कर सुनलो
विषैले   सांपो
वंश समूल नष्ट  हो जायेगा
जिस दिन हम तुमको काटेंगे
क्यों

क्योंकि
हम आस्तीन के सांप हे |


..................................

अंतिम सत्य 

What is the difference between welding and wedding .
In welding there are sparks first and bonding later, whereas in wedding there is bonding first and sparks later. 
...................................

फ़िर सत्ता के मद में ये ही,बन जाएंगे अभिसारी

अमिय पात्र सब भरे भरे से ,नागों को पहरेदारी
गली गली को छान रहें हैं ,देखो विष के व्यापारी,
मुखर-वक्तता,प्रखर ओज ले भरमाने कल आएँगे
मेरे तेरे सबके मन में , झूठी आस जगाएंगे
फ़िर सत्ता के मद में ये ही,बन जाएंगे अभिसारी
..................................देखो विष के व्यापारी,
कैसे कह दूँ प्रिया मैं ,कब-तक लौटूंगा अब शाम ढले
बम
 से अटी हुई हैं सड़कें,फैला है विष गले-गले.
बस गहरा चिंतन प्रिय करना,खबरें हुईं हैं अंगारी
..................................देखो विष के व्यापारी,
लिप्सा मानस में सबके देखो अपने हिस्से पाने की
देखो उसने जिद्द पकड़ ली अपनी ही धुन गाने की,
पार्थ विकल है युद्ध अटल है छोड़ रूप अब श्रृंगारी
..................................देखो विष के व्यापारी,

24.4.14

निर्लिप्त जननायक को भी नेपथ्य में ले जाने की क्षमता वाले लोग मौज़ूद हैं. : सुलभा बिल्लोरे

               
[इस आलेख में मेरे स्वम के विचार हैं ब्लाग के स्वामी से इस आलेख का कोई लेना देना नहीं है ]
                      आज़ ही किसी ने वाट्स-अप पर एक ज़बरदस्त कोटेशन भेजा ... " उच्च स्तरीय सोच वाले   नित नूतन रास्ते तलाशते हैं.. सफ़लता के लिये सहज  और और सरल पथ क्या हों.. मध्यम स्तर की सोच वाले घटनाओं के विन्यास में व्यस्त होते हैं जबकि सामान्य सोच वाले केवल किसी व्यक्ति की प्रसंशा अथवा निंदा में डूबे रहते हैं…!!"
  आज़कल तीसरी श्रेणी के लोगों की भरमार है. लोग एक दूसरे के छिद्रांवेषण में इतने मशगूल हो जाते हैं कि उनको अच्छा बुरा सब एक सा नज़र आता है. बोलते हैं तो इस तरह कि बोल नहीं रहे बल्कि जीभ से ज़हर बो रहे हैं.. और ये स्थितियां देश में सियासी मंचों पर बाक़ायदा आप हर अतरे-दूसरे दिन देख सुन रहें हैं. मित्रो जो दिमागों में होता है वो  दिलों के रास्ते दुनियां तक आसानी से संचरित हो जाता है.
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और फ़्रांस की   क्रांति ( French Revolution1789-1799)  सामंती आचरण के विरुद्ध उपजी  थी जबकि स्वातंत्र्योत्तर भारत की परिपक्व होती  प्रजातांत्रिक व्यवस्था में  भारत को ऐसी किसी नकारात्मक राजनैतिक विद्रूपता की आवश्यकता नहीं है जो हिंसा,घृणा तक  सत्ता के व्यामोह में फ़ंस कर किसी भी हद गिरा जावे . किंतु सत्ता का चिरयौवन किसे सम्मोहित न करेगा यही सम्मोहन चिंतन पर सहज़ ही विपरीत प्रभाव डालता है जिसकी परिणिती बेलग़ाम अभिव्यक्ति के रूप में अवतरित होती है. यहां यह कहना आवश्यक है कि  क्रियेशन के लिये आवश्यकतानुसार विध्वंस आवश्यक है.. यानि हर पुनर्रचना को विध्वंस की ज़रूरत नेहीं होती . 
     कल जब आज़ का दौर इतिहास होगा तब  अन्ना हज़ारे का अभ्युदय फ़िर अचानक नेपथ्य में जाना आकस्मिक दुर्घटना ही माना जावेगा . इसके तथ्यांवेषण में एक नहीं कई  नाम शामिल किये  जावेगें जो अन्ना की सामाजिक क्रांति को सियासत के छोर तक ले जाने के मोहपाश में आज़ नज़र आ रहे हैं.  यानी आज़ जन समुदाय की क्रांति को आधार देने वाले निर्लिप्त जननायक को भी नेपथ्य में ले जाने की क्षमता वाले लोग मौज़ूद हैं.   जहां तक सेक्यूलरिज़्म का सवाल है सेक्यूलर होने का दावा करने वाली पार्टियां खुद एक धर्म विशेष को अछूत बनाने में पीछे क़तई नहीं रहतीं . शाज़िया का ये कथन सुन के आप खुद ही फ़ैसला कीजिये कि क्या शाज़िया सही हैं..जो प्रोवोग करतीं नज़र आ रहीं हैं 

19.4.14

चावल के दानों पर हुए अत्याचार का प्रतिफ़ल: पोहा उर्फ़ पोया...

गूगल बाबा के पास है पोहे का अकूत भंडार 
दिनेश को अपनी बारी का इंतज़ार है..
 हम  डिंडोरी जाते समय इसी महाप्रसाद 
यानि पोहेका सेवन करते हैं सुबह-सकारे..!!
 मित्रो पोएट्री जैसे मेरा प्रिय शगल है ठीक उसी तरह मेरे सहित बहुतेरे लोगों का शौक सुबह सकारे पोहा+ईट= पोहेट्री है.  पो्हे के बारे  गूगल बाबा की झोली  किसम किसम की रेसिपी और सूचनाएं अटी पड़ी है. पर एक जानकारी हमने खोजी है जो गूगल बाबा के दिमाग में आज़ तलक नईं आई होगी कि हम बहुत निर्दयी हैं.. क्योंकि  हम चावल Rice के दानों पर हुए अत्याचार के प्रतिफ़ल पोहे सेवन कितना मज़ा ले लेकर करतें हैं.  जैसे ही ये भाव मन में आया तो मन बैरागी सा हो गया. किंतु दूसरे ही क्षण लगा बिना अत्याचार के हम अन्नजीवी हो ही नहीं सकते सो मन का वैराग्य भाव तुरंत ऐसे गायब हुआ जैसे किसी सरकारी  के मन से ऊपरी आय से घृणा भाव तिरोहित होता है. अस्तु ..आगे बांचिये . पोहा जबलईपुर में खासकर करमचन्द चौक पर सुबह-सकारे मिलता है तो  इंदोर (इंदौर) में किसिम किसिम के पोए चौराए चौराए (चौराहे-चौराहे) मिलते हैं. हम अपनी मौसेरी बहन के घर पहुंचे तो हमको सेओं-पोया,कांदा-पोया,आलू-पोया, पोया विद ग्रीन-मैंगो, न जाने  कितने कितने  स्वाद भरे पोए (पोहे) खिलाए सुधा ताई ने. 

                अंतर्ज़ाल की सुप्रसिद्ध लेखिका अर्चना चावजी से हम अनुरोध करने वाले थे कि वे "पोहे के सर्वव्यापीकरण : विशेष संदर्भ इन्दोर "  पर एक ललित नि:बंध लिखें.. पर वे नानी बन गईं हैं अपनी इस पदोन्नति से वे अति व्यस्ततम स्थिति में हैं अतएव अधिक अपेक्षा ठीक नहीं सो सुधिजन जानें कि- हम अपने बेहतर अनुभव के आधार पर दावे के साथ यह तथ्य प्रतिपादित करतें हैं कि भारतीय वोटर और इंदोरी पोहा एक ही गुणधर्म वाले हैं.. जिसके साथ भी मिलते हैं ठीक उसी में समाविष्ट हो स्वादिष्टतम बनने की सफ़ल कोशिश कर ही लेते हैं. किंतु असर अपनी इच्छानुसार ही छोड़ते हैं. भाई समीरलाल जी- कित्ते बरस हो गए कनाडा गए ..  कनाडा से जबलपुर  तीन बरस आय थे न बड्डा  .. पर न तो करमचंद चौक वाले पोहे का ठेला लगना बंद हुआ न ही सुबह सवेरे मनमोहन टी स्टाल इंद्रा-मार्केट के समोसों का साइज़ ही कम हुआ. इतना ही नहीं गोपाल होटल वाला मिल्क-केक जो आप अंकल के लिये डाट न पड़े इस चक्कर में ले जाते थे उसका ही स्वाद बदला है.  भाई इंडिया में बदलाव आसानी से नहीं आते .. चीजे बदल भी जावें तो अचरज़ न कीजै.. बस होता यूं है कि "बाटल" बदल जाती है. हिस्ट्री उठा के देख लीजिये ... न तो जबलईपुर में कोई खास बदलाव आया न हीं इन्दोर के पोये में.. अब प्रदेश के इन दो महानगर (?) में खास बदलाव नहीं हुए तो जान लीजिये देश में भी ऐसा कुछ नया न हो जावेगा जैसा केज़रीकक्का खांस- खखार के कहते फ़िर रए हैं.  
              चोरी, डकैती, बदमासी, उल्लू-बनाविंग योजनाएं, आदि आदि सर्वत्र यथावत हैं. सबका एजेंडा एक ही है कि किसे किस तरह और कित्ता उल्लू बनाया जावे. 
       चलो सोया जावे........... फ़िज़ूल में कुछ भी अनाप-शनाप लिखा गया... आज़ पोहे से शुरू कथा का अंत किधर किया आप भी मुझ पर हंस रहे होंगे.. पर सुधि पाठको जब आप दिन भर खबरों में लोगें को अनाप-शनाप कहते -सुनते हैं तो इत्ता सा अनाप-शनाप मेरा पढ़ लिया तो कोई बुराई है क्या..... ??

15.4.14

मुझे ऐसा मोक्ष नहीं चाहिये

हां मां सोचता हूं 
मुझे भी मुक्ति चाहिये.. 
वेदों पुराणों ने 
जिसे मोक्ष  कहा है..!
कहते हैं कि 
सरिता में अस्थियों के प्रवाह से 
मुक्ति मिलती है.... 
औरों की तरह मेरी अस्थियां भी
सरिता में प्रवाहित होंगी..?
मां,
तुम्हारे पावन प्रवाह को मेरी अस्थियां 
दूषित करेंगी
न मुझे ऐसा मोक्ष नहीं चाहिये
बार बार जन्म लेना चाहता हूं
तुम्हारे तटों को बुहारने 
तुमको पावन सव्यसाची मां कह के पुकारने
मुझे जन्म लेना ही होगा.. 
मुक्ति मोक्ष न अब नहीं.. 
बस तेरे सुरम्य तटों पर 
जन्मता रहूं..
बारंबार ......
कोल-भील-किरात- मछुआ 
मछली- पक्षी- कछुआ 
कुछ भी बनूं सुना है....
तेरे तट में 
सब दिव्य हो जाते हैं... 
मां... रेवा.... सच यही मोक्ष है न........




बेलगाम वक्ता मुलायम सिंह जी उर्फ़ नेताजी


https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEglopmFyeOELOZABWW-kuwdCbHwbD-VTLqZLze_Jtt-64Xi7AxVL8IyW94kp6UDGRuac3BkDP0LNlLCPHF2GyMcN5Hze-1-hh-2w21UlddVwZy9HmbtRFKxgsF1QEPIFJ1TxNYTzg8cr-B_/s1600/1175483985.jpg
http://hindi.cri.cn/mmsource/images/2006/04/07/lunyi4.jpghttp://www.bbc.co.uk/hindi/images/pics/eunuch150.jpg                जो दु:खी है उसे पीड़ा देना सांस्कृतिक अपराध नहीं तो और क्या है. नारी के बारे में आम आदमी की सोच बदलने की कोशिशों  हर स्थिति में हताश करना ही होगा. क़ानून, सरकार, व्यवस्था इस समस्या से निज़ात दिलाए यह अपेक्षा हमारी सामाजिक एवम सांस्कृतिक विपन्नता के अलावा कुछ नहीं. आराधना चतुर्वेदी "मुक्ति" ने अपने आलेख में इस समस्या को कई कोणों से समझने और समझाने की सफ़ल कोशिश की है. मुक्ति अपने आलेख में बतातीं हैं कि हर स्तर पर नारी के प्रति रवैया असहज है. आर्थिक और भौगोलिक दृष्टि से भी देखा जाए तो नारी की स्थिति में कोई खास सहज और सामान्य बात नज़र नहीं आती. मैं सहमत हूं कि सिर्फ़ नारी की देह पर आकर टिक जाती है बहसें जबकी नारी वादियों को नारी की सम्पूर्ण स्थिति का चिंतन करना ज़रूरी है. परन्तु सामाजिक कमज़ोरी ये है कि हिजड़ों पर हंसना, लंगड़े को लंगड़ा अंधे को अंधा  कहना औरत को सामग्री करार दिया जाना हमारी चेतना में बस गया है  जो सबसे बड़ा सामाजिक एवम सांस्कृतिक अपराध  है .
                    आप सभी जानते हैं कि  औरतों, अपाहिजों,हिज़ड़ों को हर बार अपने आपको  को साबित करना होता है. कि वे देश के विकास का हिस्सा हैं.. अगर इस वर्ग को देखा जाता है तो तुरंत मन में संदेह का भाव जन्म ले लेता है कि "अरे..! इससे ये काम कैसे सम्भव होगा.....?" सारे विश्व में कमोबेश ऐसी ही स्थिति है.. .. सब अष्टावक्र रूज़वेल्ट को नहीं जानते, सबने मैत्रेयी गार्गी को समझने की कोशिश कहां की. यानी कुल मिला कर सामाजिक सांस्कृतिक अज्ञानता और इससे विकास को कैसे दिशा मिलेगी चिंतन का विषय है.
                       इससे आगे मुलायम सिंह जी उर्फ़ नेताजी  का चिंतन आज़ के दौर में एक  दोयम दर्ज़े का घटिया और गलीच चिंतन है. गुंडों को (कदाचित चुनाव जीतने के यंत्रों को) बचाने नेताजी का बयान दुख:द घटना है. पर उनके इस चिंतन पर गोया उनका भूत तारी है. शायद उनके पिता ने यही कह उनको माफ़ी दे दी होगी.
                      किसी मूर्ख अधिकारी के मुंह से सुना-"कमज़ोर पेदा होता ही मर जाने के लिये..!" यानी दमन के लिये प्रेरक ऐसी अवधारणाओं को लेकर मुलायम सिंह जैसे कठोर एवम  कुत्सित विचारक अगर बोलते हैं तो सामंती दौर का अहसास किया जा सकता है. सच कितना कढ़वा बोलते हैं लोग इतना सोच लें कि उनके  घरों में नारीयां भी हैं तो शायद गलीच वाक्य न बोल पाते . आने वाले कल को किसने देखा न जाने उनकी आने वाली पीढ़ी जब अपने ऐसे दुराग्रही पूर्वज़ों के बारे में सोचेगी तो क्या सोचेगी .......
 खैर..... सब मुलायम की तरह कठोर और कुंठित  नहीं होते... चलिये आप हम अपनी सोच को पावन बनाएं रखें.. हिज़ड़ों से शुभकामनाएं लें....अपाहिज़ों के अंतस में उर्ज़ा का संचरण करें.. औरतों का सम्मान करें      
(चित्र साभार : लखनऊ ब्लागर एसोसिएशन ,CRI एवम BBC  से )

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
जन्म- 29नवंबर 1963 सालिचौका नरसिंहपुर म०प्र० में। शिक्षा- एम० कॉम०, एल एल बी छात्रसंघ मे विभिन्न पदों पर रहकर छात्रों के बीच सांस्कृतिक साहित्यिक आंदोलन को बढ़ावा मिला और वादविवाद प्रतियोगिताओं में सक्रियता व सफलता प्राप्त की। संस्कार शिक्षा के दौर मे सान्निध्य मिला स्व हरिशंकर परसाई, प्रो हनुमान वर्मा, प्रो हरिकृष्ण त्रिपाठी, प्रो अनिल जैन व प्रो अनिल धगट जैसे लोगों का। गीत कविता गद्य और कहानी विधाओं में लेखन तथा पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन। म०प्र० लेखक संघ मिलन कहानीमंच से संबद्ध। मेलोडी ऑफ लाइफ़ का संपादन, नर्मदा अमृतवाणी, बावरे फ़कीरा, लाडो-मेरी-लाडो, (ऑडियो- कैसेट व सी डी), महिला सशक्तिकरण गीत लाड़ो पलकें झुकाना नहीं आडियो-विजुअल सीडी का प्रकाशन सम्प्रति : संचालक, (सहायक-संचालक स्तर ) बालभवन जबलपुर

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