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लाल-टोपी बेचने वाले थके व्यापारी को पेड़ की छांह भा
गई थी उसने लट्टे में बंधे 4 रोट में से दो रोट सूते और ठंडे पानी से प्यास
बुझाई ... एक झपकी लेने की गरज से गठरी सिरहाना बनाया और लगा ख़ुर्र-ख़ुर्र
खुर्राटे भरने. तब तक बन्दरों के मुखिया टोपी पहन कर चेलों को भी टोपी पहना दी .
जागते ही व्यापारी ने अपने अपने सर की टोपी फैंकी सारे बंदरों ने वही किया अपने सर
की लाल-टोपियाँ ज़मीन पर फैंक दी .
सदियों
से नानी दादी की इस कहानी का अर्थ हर हिन्दुस्तानी के रक्त में बह रहा है. ........
रक्त जो ज़ेहन तक जाता है
जेहन जो उसे साफ़ करता है
जो मान्यताएं बदलता है...
ज़ेहन जो संवादी है ... उसे साफ़ रखो
जोड़ लो पुर्जा पुर्ज़ा
जिनको ज़रुरत है जोड़ने की ...!!
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मंगलवार, नवंबर 03, 2015
“लाल टोपी फैंक दी बंदरों ने ...!!”
बुधवार, अक्टूबर 28, 2015
भस्म आरती
अंतस में खौलता लावा
चेहरे पर मुस्कान का ढक्कन
धैर्य की सरेस से चिपका
तुम से मिलता हूँ ....!!
तब जब तुम्हारी बातों की सुई
मेरे भाव मनकों के छेदती
तब रिसने लगती है अंतस पीर
भीतर की आग –
तब पीढ़ा का ईंधन पाकर
तब युवा हो जाता है यकायक “लावा”
तब अचानक ज़ेहन में या सच में सामने आते हो
तब
चेहरे पर मुस्कान का ढक्कन
धैर्य की सरेस से चिपका
तुम से मिलता हूँ ....!!
मुस्कुराकर ....... अक्सर .........
मुझे ग़मगीन न देख
तुम धधकते हो अंतस से
पर तुम्हें नहीं आता –
चेहरे पर मुस्कान का ढक्कन
धैर्य की सरेस से चिपकाना ....!!
तुममें –मुझसे बस यही अलहदा है .
तुम आक्रामक होते हो
मैं मूर्खों की तरह टकटकी लगा
अपलक तुमको निहारता हूँ ...
और तुम तुम हो वही करते हो जो मैं चाहता हूँ ......
धधक- धधक कर खुद राख हो जाते हो
फूंक कर मैं ........
फिर उड़ा देता हूँ .........
तुम्हारी राख को
अपने दिलो-दिमाग से
हटा देता हूँ
तुम्हारी देह-भस्म
जो काबिल नहीं होती
गिरीश की भस्म आरती के ...
चेहरे पर मुस्कान का ढक्कन
धैर्य की सरेस से चिपका
तुम से मिलता हूँ ....!!
तब जब तुम्हारी बातों की सुई
मेरे भाव मनकों के छेदती
तब रिसने लगती है अंतस पीर
भीतर की आग –
तब पीढ़ा का ईंधन पाकर
तब युवा हो जाता है यकायक “लावा”
तब अचानक ज़ेहन में या सच में सामने आते हो
तब
चेहरे पर मुस्कान का ढक्कन
धैर्य की सरेस से चिपका
तुम से मिलता हूँ ....!!
मुस्कुराकर ....... अक्सर .........
मुझे ग़मगीन न देख
तुम धधकते हो अंतस से
पर तुम्हें नहीं आता –
चेहरे पर मुस्कान का ढक्कन
धैर्य की सरेस से चिपकाना ....!!
तुममें –मुझसे बस यही अलहदा है .
तुम आक्रामक होते हो
मैं मूर्खों की तरह टकटकी लगा
अपलक तुमको निहारता हूँ ...
और तुम तुम हो वही करते हो जो मैं चाहता हूँ ......
धधक- धधक कर खुद राख हो जाते हो
फूंक कर मैं ........
फिर उड़ा देता हूँ .........
तुम्हारी राख को
अपने दिलो-दिमाग से
हटा देता हूँ
तुम्हारी देह-भस्म
जो काबिल नहीं होती
गिरीश की भस्म आरती के ...
#गिरीश बिल्लोरे “मुकुल”
रविवार, अक्टूबर 25, 2015
“सूक्ष्म-पूंजी निर्माण में विफलताएं :कुछ कारण कुछ निदान ”

“भारतीय वैदिक जीवन प्रणाली में जीवन में
“अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष” का भौतिक अर्थ !”
अर्थ को सर्वोपरी
रखते हुए जीवन के प्रारम्भ में ही नागरिक को अर्जन करने का संकेत स्पष्ट रूप से
दिया गया है ... कि आप अपनी युक्तियों, साधनों, एवं पराक्रम (क्षमताओं एवं स्किल ) से धन अर्जन कीजिये . जो आपके धर्म
अर्थात सामाजिक-दायित्वों के निर्वहन जैसे परिवार-पोषण, सामाजिक दायित्वों के
निर्वहन – दान, राजकीय लेनदारियों जैसे कर (टेक्स) , लगान आदि का निपटान कीजिये . काम अर्थात अपनी
आकांक्षाओं एवं ज़रूरतों की प्रतिपूर्ति पर
व्यय कीजिये, शेष धन को संग्रहीत कीजिये भविष्य की आसन्न ज़रूरतों के लिए और मुक्त
रहिये किसी भी ऐसे भय से मोक्ष का भौतिक तात्पर्य सिर्फ यही है.
यहाँ अध्यात्म
एवं धर्म से इतर मैं अलग दृष्टि से सोच एवं लिख रहा हूँ सुधिजन सच कितना है इसका निष्कर्ष आप पर छोड़ता
हूँ....!
आप विनिमय
प्रणाली के बाद के आर्थिक एवं व्यावसायिक विकास पर गौर कीजिये तो पाएंगे कि
सामाजिक विकास में “वैयक्तिक सेक्टर” जिसका ज़िक्र प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी
ने अक्टूबर 2015 को अमेरिकी यात्रा में
किया की है की सबसे बड़ी भूमिका रही . “वैयक्तिक
सेक्टर” ही आधार रहा है प्राचीन भारतीय अर्थ व्यवस्था का . “वैयक्तिक सेक्टर”
कहीं न कहीं सूक्ष्मपूंजी निर्माण की ओर इशारा है . स्वतन्त्रता के उपरांत नेहरू
माडल बेशक एक अच्छी व्यवस्था कही जा सकती है वरना विश्व में भारत अल्प विकसित
देशों की फेहरिस्त में शामिल रहता . किन्तु बाज़ार ने स्थानीय उत्पादों तक को हाई
जैक कर “वैयक्तिक सेक्टर” को बेहद नुकसान पहुंचाया तो एकीकृत ग्रामीण विकास का
कांसेप्ट लाकर सरकारी पहल ने स्थानीय उत्पादों को पुन: प्रतिष्ठित करने की कोशिश
की यह भी किया गया कि की लघु-पूंजी सरकार ही देने लगी परन्तु स्थानीय उत्पादन में
सकारात्मक प्रगति नहीं हुई कारण थे
1. फैक्टरियों में बने बाज़ार के उत्पादों सापेक्ष मूल्य अधिक
था
2. फैक्टरियों में बने बाज़ार के उत्पादों सापेक्ष गुणवत्ता की
दृष्टि से पीछे होना.
3. कुटीर उत्पादकों में मार्केटिंग स्किल के ज्ञान का अभाव अथवा
कमी
4. कुटीर उत्पादकों द्वारा सामाजिक परम्पराओं के लिए उपलब्ध
कराई गई पूंजी का विनियोग करना .
सन उन्नीस सौ
नब्बे के बाद सरकारों ने स्वयं-सहायता-समूह आधारित आर्थिक कार्यक्रमों को आकार
देने के प्रयास किये जो अप्रत्याशित रूप से सफल रहे हैं . न केवल पुरुष बल्कि
महिलाओं को व्यावसायिकता एवं आर्थिक विकास का सामान रूप से मौका मिला . यहाँ इस
तथ्य का ज़िक्र इस लिए किया गया कि “वैयक्तिक सेक्टर” के महत्व को समझा जा सके .
“वैयक्तिक सेक्टर” क्या है”
“वैयक्तिक सेक्टर”
सूक्ष्म पूंजी निर्माण का साधन है . एक परिवार जिसमें 4-6 सदस्य हों तथा जितनी एक
अथवा कुछेक मिलकर जो आय अर्जित करे तथा आय से पारिवारिक-पोषण के साथ बचत से सूक्ष्म
पूंजी का निर्माण करें तथा उसे विनिवेश
करे . जो तात्कालिक अथवा दीर्घ अवधी के लिए हो परन्तु अब वो यह कर नहीं सकता
क्योंकि –
1. बदलते परिवेश में आवश्यकताएं अधिक हो रहीं है.
2. आय का कम होना
3. कीमतों में लगातार बढ़ोत्तरी के साथ बदलाव
4. उत्पादों के उत्पादन मूल्य में अनावश्यक राशियों ( जैसे
विज्ञापन व्यय, अत्यधिक कराधान लगाम-हीन लाभ की व्यवसायिक वृत्ति ) का जुड़ना
5. चिकित्सा शिक्षा तथा अन्य सेवाओं के प्रबंधन के ऋण लेना
6. बीमा एवं बैंकिंग सिस्टम अर्थ-संग्रहण करने प्रवृति से
मुक्त न हो पाना हालांकि भारत सरकार ने इन दौनों बीमा एवं बैंकिंग सिस्टमस पर लगाम
लगाईं है . जो बेशक सराहनीय भी है .
7. भ्रष्टाचार
हम आप जो सामान्य
परिवारों के सदस्य हैं इस वज़ह से जहां एक ओर पूंजी निर्माता नहीं बन पाते वहीं
दूसरी ओर आर्थिक रूप से सहज-संपन्न नहीं बन पाते जब तक कि कोई विशेष परिस्थिति न
बन पाए. जब तक राज्य (अर्थ-व्यवस्था-नियंत्रक ईकाई) का हस्तक्षेप नहीं होता तब तक
हम कर सकते लघु-पूंजी निर्माण की कोशिशें .
“तो फिर कैसे करें पूंजी निर्माण”
हम आपसे
अनुत्पादक व्यय पर नियंत्रण का अनुरोध कर सकते हैं साथ ही हमें विज्ञापनों से मोहित न रहने की शिक्षा
बच्चों को देते रहें .
पडौसी अथवा
नातेदारों की आर्थिक सम्पन्नता जनित प्रतिश्पर्धा से मुक्त रहें. मंहगी शादियाँ रोंके,
आवश्यकतानुरूप साजो-सामान कपडे-लत्तों, पर व्यय करें, अनावश्यक संपन्न दिखने की
कोशिशों से बचें . भ्रष्टाचार के समक्ष न झुकें . बचत की कोशिश करना तीन साल की
आयु के बच्चों को सिखाने के लिए गुल्लक अवश्य खरीदें .
“निर्मित पूंजी का क्या
करें ?”
हर कोई व्यक्ति
किसी न किसी सेवा व्यवसाय के योग्य होता है अथवा निकटवर्ती समुदाय को अथवा धन की
ज़रुरत पर अल्प-कालिक ऋण सुविधा मुहैया कराएं . किसी भी स्थिति में जितना संभव हो
उत्पादकता आधारित व्ययों के लिए
सूक्ष्म-पूंजी का विनियोग करें . सेवा-आधारित व्यवसाय का दौर है . कोशिश हो सेवा-आधारित
व्यवसाय जो कम पूंजी एवं श्रम से आरम्भ किये जा सकतें हैं में विनियोग करें .
शुक्रवार, अक्टूबर 23, 2015
अब बॉलीवुड की तैयारी में नंदा

सुमित वर्मा
रविवार, अक्टूबर 18, 2015
“ भारतीय बौद्धिक संपदा को छीनने की कोशिश रावण के अंत की मुख्य वज़ह थी...? ”
एक था रावण बहुत बड़ा प्रतापी यशस्वी
राज़ा, विश्व को ही नहीं अन्य
ग्रहों तक विस्तारित उसका साम्राज्य वयं-रक्षाम का उदघोष करता . यह तथ्य
किशोरावस्था में मैंने आचार्य चतुरसेन शास्त्री के ज़रिये जाना था .
रावण के पराक्रम उसकी साम्राज्य व्यवस्था
को. ये अलग बात है कि उन दिनों मुझमें उतनी सियासी व्यवस्था की समझ न थी. पर एक
सवाल सदा खुद पूछता रहा- क्या वज़ह थी कि राम ने रावण
को मारा ? राम को हम भारतीय
जो आध्यात्मिक धार्मिक भाव से देखते हैं राम को मैने कभी भी एक राजा के रूप में आम
भारतीय की तरह मन में नहीं बसाया. मुझे उनका करुणानिधान स्वरूप ही पसंद है. किंतु
जो अधिसंख्यक आबादी के लिये करुणानिधान हो वो किसी को मार कैसे सकता है ? और जब एक सम्राठ के रूप में राम को देखा तो
सहज दृष्टिगोचर होती गईं सारी रामायण कालीन स्थितियां राजा रामचंद्र की रघुवीर
तस्वीर साफ़ होने लगी
रामायण-कालीन वैश्विक व्यवस्था
का दृश्य
रावण
के संदर्भ में हिंदी विकीपीडिया में दर्ज़ विवरण को देखें
जहां बाल्मीकि के हवाले से (श्लोक सहित ) विवरण दर्ज़ है-
अहो
रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति:।
अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥
अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥
आगे
वे लिखते हैं "रावण को देखते ही राम मुग्ध हो जाते हैं और कहते हैं कि रूप, सौन्दर्य, धैर्य, कान्ति तथा सर्वलक्षणयुक्त
होने पर भी यदि इस रावण में अधर्म बलवान न होता तो यह देवलोक का भी स्वामी बन
जाता।"
रावण जहाँ दुष्ट था और
पापी था वहीं उसमें शिष्टाचार और ऊँचे आदर्श वाली मर्यादायें भी थीं । राम के
वियोग में दुःखी सीता से रावण ने कहा है, "हे सीते! यदि तुम मेरे
प्रति कामभाव नहीं रखती तो मैं तुझे स्पर्श नहीं कर सकता ।" शास्त्रों के
अनुसार वन्ध्या, रजस्वला, अकामा आदि स्त्री को
स्पर्श करने का निषेध है अतः अपने प्रति अकामा सीता को स्पर्श न करके रावण मर्यादा
का ही आचरण करता है।
चूंकि इतनी अधिक विशेषताएं थीं तो बेशक कोई और वज़ह रही
होगी जो राम ने रावण को मारा मेरी व्यक्तिगत सोच है कि रावण विश्व में एक
छत्र राज्य की स्थापना एवम "रक्ष-संस्कृति" के विस्तार के लिये बज़िद
था. जबकि त्रेता-युग का रामायण-काल के अधिकतर साम्राज्य सात्विकता एवम सरलतम
आध्यात्मिक सामाजिक समरसता युक्त राज्यों की स्थापना चाहते थे. सामाजिक व्यवस्था
को बनाने का अधिकार उनका पालन करने कराने का अधिकार जनता को ही था. सम्राठ
तब भी जनता के अधीन ही थे केवल "देश की भौगोलिक सीमाओं की रक्षा, शिक्षा केंद्रों को सहयोग, अंतर्राष्ट्रीय-संबंधों का निर्वाह, " जैसे दायित्व राज्य के थे.
जबकि रावण की रक्षकुल संस्कृति में अपेक्षा कृत अधिक उन्नमुक्तता एवम सत्ता के पास
सामाजिक नियंत्रण नियम बनाने एवम उसको पालन कराने के अधिकार थे. जो वैदिक
व्यवस्था के विपरीत बात थी. वेदों के व्याख्याकार के रूप में महर्षिगण राज्य और
समाज सभी के नियमों को रेग्यूलेट करते थे. इतना ही नहीं वे शिक्षा स्वास्थ्य के
अनुसंधानों के अधिष्ठाता भी थे .
इसके विपरीत रावण , रामायण कालीन
अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक व्यवस्था का दूसरा सबसे ताक़तवर नियंता एवम रहा है. रावण का सामरिक-आक्रान्ता उस काल की
वैश्विक-सामाजिक,एवम आर्थिक व्यवस्था को
बेहद हानि पहुंचा रही थी. कल्याणकारी-गणतंत्रीय राज्यों को रावण के सामरिक
सैन्य-बल के कारण रावण राज्य की अधीन होने के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग शेष नहीं
होता. लगभग आधे विश्व में उसकी सत्ता थी. यानि रावण के अलावा अन्य किसी सत्ता
को कोई स्थान न था.वर्तमान भारत ही एकमात्र ऐसा देश था जहां कि रावण को स्वीकारा
नहीं गया और न ही उसे भारतीय व्यवस्था के भीतर प्रवेश मिल सका .
क्या, भारतीय व्यवस्था तब भी
गणतांत्रिक रही..?
रामायण
कालीन भारत का सत्ता केंद्र उत्तर-भारत में था. यह वो केंद्र था जहां से सम्पूर्ण भारत रूस, अफगानिस्तान, ब्रह्मदेश, जावा, सुमात्रा,
मलाया, थाई, आदि क्षेत्रों तक व्यवस्थाएं विस्तारित
थीं . प्रत्येक राज्य अथवा उपनिवेश किसी न
किसी के अधीन था जो रघुवंश के नियमों से संचालित होते थे. हर व्यवस्था ततसमकालीन-राजधर्म
के अनुरूप तब तक चलती थी जब तक उसमें
बदलाव प्रजातांत्रिक तरीके से न हो .
रघुवंश-काल में राम के द्वारा शम्बूक की हत्या
एवं सीता को वनगमन के आदेश भी आज की परिस्थियों के सापेक्ष गंभीर त्रुटियाँ हैं
इसे स्वीकारना होगा . परन्तु यह ऐसी स्थिति है जैसे किसी क़ानून की रचना के लिए संख्या-बल के आगे प्रयासों का बेकार हो जाना .
राम का जीवन राजा के रूप में रियाया के लिए अपेक्षाकृत अधिक जवाब-देह रहा है .
समकालीन विश्व-विद्यालयों (
ऋषि-आश्रमों,गुरुकुलों) को रावण नष्ट कर
देना चाहता था ताक़ि भारतगणराज्य जो अयोध्या के अधीन है वह लंका अधीनता स्वीकार ले . इससे उसके सामरिक-सामर्थ्य में अचानक वृद्धि अवश्यम्भावी
थी. कुबेर उसके नियंत्रण में थी
यानी विश्व की अर्थव्यवस्था पर उसका पूरा पूरा
नियंत्रण था. यद्यपि रामायण कालीन भौगोलिक स्थिति का किसी को ज्ञान नहीं है
जिससे एक मानचित्र तैयार करा के आलेख में लगाया जा सकता ताक़ि स्थिति और
अधिक-सुस्पष्ट हो जाती फ़िर भी आप यह जान लें कि यदि लंका श्री लंका ही है तो भी
भारतीय-उपमहादीपीय क्षेत्र में भारत एक ऐसी सामरिक महत्व की भूमि थी है जहां से
सम्पूर्ण विश्व पर रावण अपनी "विमानन-क्षमता" से दवाब बना सकता था.
समकालीन विश्व-विद्यालयों (
ऋषि-आश्रमों,गुरुकुलों) को रावण नष्ट क्यों
करना चाहता था..?
रावण के अधीन सब कुछ था
केवल "विद्वानों" को छोड़कर जो उसके साम्राज्य की श्री-वृद्धि के लिये
उसके (रावण के) नियंत्रण रहकर काम करें. जबकि भारत में ऐसा न था वे आज की
तरह ही स्वतंत्र थे उनके अपने अपने आश्रम थे जहां "यज्ञ" अर्थात
"अनुसंधान" (प्रयोग) करने की स्वतन्त्रता थी. तभी ऋषियों .के आश्रमों पर रावण की आतंकी गतिविधियां सदैव होती रहतीं
थीं. यहां एक और तथ्य की
ओर ध्यान दिलाना चाहता हूं कि रावण के
सैनिकों ने कभी भी किसी नगर अथवा गांवों में घुसपैठ नहीं कि किसी भी रामायण
में इसका ज़िक्र नहीं है. तो फ़िर ऋषियों .के आश्रमों पर हमले..क्यों होते थे ?
उसके मूल में रावण की
बौद्धिक-संपदाओं पर नियंत्रण की आकांक्षा मात्र थी. वो यह जानता था कि
1.
यदि ऋषियों पर नियंत्रण पा लिया तो
भारत की सत्ता पर नियंत्रण सहज ही संभव है.
2.
साथ ही उसकी सामरिक
शक्ति के समतुल्य बनने के प्रयासों से रघुवंश को रोकना ....... अर्थात कहीं न कहीं उसे
"रक्षकुल" की आसन्न समाप्ति दिखाई दे रही थी.
राम के गणराज्य में
प्रज़ातांत्रिक व्यवस्था को सर्वोच्च स्थान था. सामाजिक व्यवस्था
स्वायत्त-अनुशाषित थी. अतएव बिना किसी राजकीय दबाव के देश का आम नागरिक सुखी था.
रावण ने राम से युद्ध के लिये कभी पहल
न की तो राम को खुद वन जाना पड़ा. रावण भी सीता पर आसक्त न था वो तो इस मुगालते
में थी कि राम सीता के बहाने लंका आएं और वो उनको बंदी बना कर अयोध्या से संचालित
आधे विश्व से बलात संधि कर अपनी शक्ति को और अधिक बढ़ाए पर उसे राम की संगठनात्मक-कुशाग्रता का कदाचित
ज्ञान न था
वानर-सेना :- राम ने वनवासियों के युवा नरों
की सेना बनाई लक्ष्मण की सहायता से उनको योग्यतानुसार युद्ध कौशल
सिखाया . राम की युवा-सैन्य शक्ति अभियंताओं , वैज्ञानिकों से भरी पड़ी थी . जबकि “रक्ष-कुल”
के संस्थापक रावण का सैन्य-बल प्रमादी भोग-विलासी अधिक था . उस सैन्य-बल युद्ध के अभ्यास तथा अभ्यास कराने
वालों का अभाव रावण के राज्य की सामरिक शक्ति को कमजोर कर गया.
रावण
को लगा कि राम द्वारा जुटाई गई बनाई
गई वानर-सेना (वन के नर ) लंका के लिये
कोई खतरा नहीं है बस यही एक भ्रम रावण के अंत का कारण था .
राम ने रावण का अंत किया
क्योंकि रावण एक ऐसी शक्ति के रूप में उभरा था जो विश्व को अपने
तरीक़े से संचालित करना चाहता था . इस अभियान में वह भारत-वर्ष के विद्वानों की मदद
लेना चाहता था . जो रावण के कर्मचारी होते और सबके सब ऐय्याश रक्ष-कुलीन जिनको
राक्षस कहा गया है के हित-संवर्धन में कार्य करते .
रावण के खात्में के लिए अयोध्या ने एक
रणनीति बनाई . रणनीति के अनुरूप राम को वन भेजा गया . जिससे रावण को लगे कि भारत को कभी भी अधीन किया
जा सकता है .
वन में पूरी चतुराई से
लो-प्रोफाइल में राम ने जहां निषाद से मैत्री एवं शबरी से बेर खाकर जननायकत्व का
दर्ज़ा हासिल वहीं ऋषियों से युद्ध एवं नीतियों का विस्तार से ज्ञान प्राप्त किया.
रावण वध की पूरी परियोजना पर काम करते हुए चौदह साल लगे. यानी लगभग तीन संसदीय
चुनावों के अंतराल के बराबर समय लिया .
राम की सामरिक नीति में
मैत्री-सम्बन्ध, लघु राज्यों के सह-अस्तित्व, एवं तत्समकालीन अयोध्या राज संचालन
नीति का विस्तार महत्वपूर्ण बिंदु थे.
युद्ध में एक विजेता को
यही सब चाहिए . राम ने रावण के अंत के लिए ये सबसे ज़रूरी उपाय किये और अंत सब
जानते ही हैं .
शनिवार, अक्टूबर 17, 2015
वेदप्रकाश वैदिक ने कहा -"लेखकों का नपुंसक गुस्सा "
भारतीय साहित्यजगत इन दिनों जिस उहापोह की स्थिति में है
मैंने अपनी इस उम्र में ऐसे अवसर कभी नहीं देखे . भयंकरतम नरसंहार अथवा अमानवीय
परिस्थितियों में सदा साहित्यकार रोया है .उसकी लेखनी रोई .उसने लिखा है बदलाव के लिए कुंठा के विस्तार के लिए
नहीं साथ ही अपने गरिमामय सम्मान को सदैव बरकरार रखा है . 50 वर्षों से देश ऐसा
समय हमेशा आता रहा होगा जब पुरस्कार भी मिलें हों अपराध भी कारित हुए हों . चलिए .
आपातकाल में संवैधानिक-अधिकार क्या थे .... तब सम्मान करीने से सजे रखे थे शो-केसों
में इस बात को बड़े सलीके से उठाते हुए डा.
वैदिक ने इस गुस्से को नपुंसक बताया है .
समय
समय पर विश्व में हुई क्रांतियाँ चाहे वे आज़ादी के लिए हों अथवा सामाजिक-समरसता
लाने के लिए साहित्य ने अपना दायित्व बखूबी निबाहा है . उसमें बहुधा हिंसा न थी .
न ही व्यक्तिगत द्वेषराग सभी लोग एक दूसरे के सिद्धांतों से असहमत हुए किसी दूसरे
को अस्पृश्य साबित करने की कोशिश कभी न हुई .
मामला
अखलाक की निर्मम हत्या, मेरे पसंदीदा सिंगर गुलाम साहब को न आने देना, या कालिख
पोतने को एक व्यक्ति के सर मढ़ना न केवल प्रोवोग करने की कोशिशों से अधिक कुछ भी
नहीं है .
जब
यह आलेख लिख रहा हूँ तब लोग ये भी कहते सुने जा रहे हैं कि-“साहब, सम्मान-लौटने के
मसाले पर साहित्य-अकादमी मौन क्यों .”
फेसबुक
पर ज्ञान बघारते मेरे भाई मनोहर बिल्लोरे ने तो अनाप-शनाप वो लिखा जो मुहिम चलाने
वालों के एजेंडे में शामिल है . मुझे इस मसले को अधिक तवज्जो नहीं देना चाहिए पर
वास्तविकता ये है कि हिंसा किसी को भी स्वीकार्य न थी न है न होगी .... इस पर भारत
एकमत है . कहने की गारंटी संविधान देता है ... अगर यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि
आपकी आज़ादी छीनी जा रही है तो यकीन कीजिये ऐसा-प्रचार एक भ्रम पैदा करने और जनता
को उकसाने की ज़द्दो-ज़हद के सिवा कुछ भी नहीं .
आपकी
बात आप चार की आपसी बात है जिसे आप चार ही कहते हैं आप चार ही सुनतें हैं . जन
सामान्य को इससे दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं ... भारत के पास अब विकास का
एजेंडा है .... उसे भ्रमित करने की कोशिश सर्वदा गलत है अगर आपने ऐसे मुद्दों पर
देश को उलझाया तो सर्वाधिक सर्वहारा विकास से दूर रहेगा. जहाँ तक गोवंश का सवाल है
आप खुद सोचिये सर्वहारा की क्रय शक्ति से
ये संसाधन अगर निकल गया तो उसे कितना नुकसान होगा . इस वज़ह से भारतीय सांस्कृतिक अतीत
से ही इसे “गोधन” की संज्ञा दी है .इस क्रम में एक दुखी आहात साहित्यकार के रूप
में मेरा कथन ये है कि –“ अखलाक की हत्या निर्मम और अक्षम्य है निंदनीय है..!”
जो
भी विकास के खिलाफ हैं वे सदा ही उकसाऊ प्रवृत्ति के लोग हैं जो कभी किसी भी बात
को ऐसा रंग देने में माहिर हैं जिससे आप विचलित हों और पथ परिवर्तन कर दें .
परन्तु हर भारतीय जानता है कि- कविता “बाबा नागार्जुन” के बाद ख़त्म नहीं हो सकती
कहानियां टालस्टाय के बाद चुकतीं नहीं . जीवन एक बड़ी कविता है जिसमें देश राग भी
है ... पडौसी रहीम भी है ... पंडित नंदराम दुबे भे भी है . लोग हैं जो आत्मकुंठा
को बदलने लगते हैं दावानल .......में . जो कम से कम भारत में न तो हिन्दू न ही
मुस्लिम कोई भी नहीं स्वीकारता . न ही भारतीय संविधान उकसावे को अनुमति ही देता है
. जिसपर हम सबकी पूर्ण आस्था है .
डा. वैदिक ने कहा- “..........बस 50 के लगभग ही भेड़चाल में फंस गए।
उन्हें क्या पता था कि उन्हें लेने के देने पड़ जाएंगे । अब साहित्य अकादमियां
उन्हें बुलाकर उनके सम्मान तो वापस नहीं करने वाली हैं । बेचारों के सम्मान भी गए
और लाख-लाख रु. भी। नयनतारा सहगल ने एक लाख का चेक वापस भेजा तो दो-तीन लेखकों को
भी भेजना पड़ा । असली नुकसान यही हुआ । वैसे सम्मान लौटाने से कोई नुकसान नहीं हुआ
। फायदा ही हुआ । जब उन्हें सम्मान मिला था तो किसी कोने में छोटी-मोटी खबर छपी
होगी। अब जब उन्होंने लौटाया तो बड़ी खबर बनी । अखबारों और टीवी चैनलों पर भी ! अब
वे अपने जीवन-वृत्त (बायोडेटा) में सम्मान लौटाने की बात जरुर कहेंगे, जिसमें यह छिपा होगा कि उन्हें यह सम्मान मिला था । याने पाना और लौटाना
एक बराबर हो गया। नौटंकी सिद्ध हो गया। अखलाक की हत्या घोर अनैतिक कुकर्म था,
इसमें ज़रा भी शक नहीं है लेकिन उसका साहित्य अकादमी से क्या
लेना-देना था? लेखकों का कहना है कि साहित्य अकादमी ने उसकी
निंदा क्यों नहीं की? या अकादमी द्वारा सम्मानित दांभोलकर पर
वह चुप क्यों रही? प्रश्न यह है कि अखलाक और दांभोलकर जैसे
कांड क्या पहली बार हुए हैं? और दांभोलकर की हत्या तो “...............”
काल में हुई थी । क्या साहित्य अकादमी का ऐसे सब मामलों में टांग अड़ाना उचित है ?
उस समय सम्मान लौटाने वालों को भेड़-चाल चलने की नहीं सूझी । अकेले
उदयप्रकाश ने सत्साहस किया ।
हमारे
साहित्यकार खुद बड़े अवसरवादी और दब्बू लोग हैं । पुरस्कारों और सम्मानों के लिए
मामूली नेताओं और अफसरों के तलवे चाटते फिरते हैं । अब वे भारत में तानाशाही की
शिकायत करते हैं। मोदी की दादागीरी का दबे-छिपे ढंग से इशारा करते हैं । साफ लिखने
और बोलने की हिम्मत उनमें नहीं है । ...............यह पुरस्कार लौटाना तो नपुंसक
गुस्सा है । यह बात बिल्कुल झूठी और बनावटी है कि देश में तानाशाही का माहौल है।
आपातकाल में इन लोगों की घिग्घी बंधी हुई थी । मेरे जैसे सैकड़ों लेखक और विचारक
तब भी डटकर अपनी बात कहते थे और अब भी कहते हैं। कोई तानाशाही लाने की हिम्मत तो
करे?
डा.
वैदिक का कथन बेशक विचारणीय है . इसपर विमर्श होना ही चाहिए . साथ ही साहित्यकारों को भी चाहिए कि वे किसी सियासी मुहीम का हिस्सा न बनें ........ दिल में अगर दर्द और आँखों में अश्क हैं तो केवल एक आँख का रोना रोना न रोया जाए .......
शुक्रवार, अक्टूबर 16, 2015
सियासी हलकों में पूजने लगा है . दिया अदब का अब बुझने लगा है
सियासी हलकों में पुजने लगा है .
दिया अदब का अब बुझने
लगा है .
################
कटा सर आया था तो चुप था
वो, इक लफ्ज़ न बोला
वापस करने को सितारों से भरा झोला न खोला...!
भरोसा
अपना जुगनुओं से उठने लगा है ..!!
################
सैकड़ों पुलिस वाले मारे,
मरे मज़लूम पटवारी
सुकमा में साबित हुए हो
कई बार अपचारी....!
तबका सोया हुआ तबका अब उठने लगा है ..!!
################
तुम्हारी गोलबंदी अब न चलेगी जानते
हो तुम
अपने हालात को अच्छी तरह
पहचानते हो तुम ......!
तुम्हारी हर हकीकत से जो पर्दा उठने लगा है ..!!
@ गिरीश बिल्लोरे “मुकुल”
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