भारतीय साहित्यजगत इन दिनों जिस उहापोह की स्थिति में है
मैंने अपनी इस उम्र में ऐसे अवसर कभी नहीं देखे . भयंकरतम नरसंहार अथवा अमानवीय
परिस्थितियों में सदा साहित्यकार रोया है .उसकी लेखनी रोई .उसने लिखा है बदलाव के लिए कुंठा के विस्तार के लिए
नहीं साथ ही अपने गरिमामय सम्मान को सदैव बरकरार रखा है . 50 वर्षों से देश ऐसा
समय हमेशा आता रहा होगा जब पुरस्कार भी मिलें हों अपराध भी कारित हुए हों . चलिए .
आपातकाल में संवैधानिक-अधिकार क्या थे .... तब सम्मान करीने से सजे रखे थे शो-केसों
में इस बात को बड़े सलीके से उठाते हुए डा.
वैदिक ने इस गुस्से को नपुंसक बताया है .
समय
समय पर विश्व में हुई क्रांतियाँ चाहे वे आज़ादी के लिए हों अथवा सामाजिक-समरसता
लाने के लिए साहित्य ने अपना दायित्व बखूबी निबाहा है . उसमें बहुधा हिंसा न थी .
न ही व्यक्तिगत द्वेषराग सभी लोग एक दूसरे के सिद्धांतों से असहमत हुए किसी दूसरे
को अस्पृश्य साबित करने की कोशिश कभी न हुई .
मामला
अखलाक की निर्मम हत्या, मेरे पसंदीदा सिंगर गुलाम साहब को न आने देना, या कालिख
पोतने को एक व्यक्ति के सर मढ़ना न केवल प्रोवोग करने की कोशिशों से अधिक कुछ भी
नहीं है .
जब
यह आलेख लिख रहा हूँ तब लोग ये भी कहते सुने जा रहे हैं कि-“साहब, सम्मान-लौटने के
मसाले पर साहित्य-अकादमी मौन क्यों .”
फेसबुक
पर ज्ञान बघारते मेरे भाई मनोहर बिल्लोरे ने तो अनाप-शनाप वो लिखा जो मुहिम चलाने
वालों के एजेंडे में शामिल है . मुझे इस मसले को अधिक तवज्जो नहीं देना चाहिए पर
वास्तविकता ये है कि हिंसा किसी को भी स्वीकार्य न थी न है न होगी .... इस पर भारत
एकमत है . कहने की गारंटी संविधान देता है ... अगर यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि
आपकी आज़ादी छीनी जा रही है तो यकीन कीजिये ऐसा-प्रचार एक भ्रम पैदा करने और जनता
को उकसाने की ज़द्दो-ज़हद के सिवा कुछ भी नहीं .
आपकी
बात आप चार की आपसी बात है जिसे आप चार ही कहते हैं आप चार ही सुनतें हैं . जन
सामान्य को इससे दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं ... भारत के पास अब विकास का
एजेंडा है .... उसे भ्रमित करने की कोशिश सर्वदा गलत है अगर आपने ऐसे मुद्दों पर
देश को उलझाया तो सर्वाधिक सर्वहारा विकास से दूर रहेगा. जहाँ तक गोवंश का सवाल है
आप खुद सोचिये सर्वहारा की क्रय शक्ति से
ये संसाधन अगर निकल गया तो उसे कितना नुकसान होगा . इस वज़ह से भारतीय सांस्कृतिक अतीत
से ही इसे “गोधन” की संज्ञा दी है .इस क्रम में एक दुखी आहात साहित्यकार के रूप
में मेरा कथन ये है कि –“ अखलाक की हत्या निर्मम और अक्षम्य है निंदनीय है..!”
जो
भी विकास के खिलाफ हैं वे सदा ही उकसाऊ प्रवृत्ति के लोग हैं जो कभी किसी भी बात
को ऐसा रंग देने में माहिर हैं जिससे आप विचलित हों और पथ परिवर्तन कर दें .
परन्तु हर भारतीय जानता है कि- कविता “बाबा नागार्जुन” के बाद ख़त्म नहीं हो सकती
कहानियां टालस्टाय के बाद चुकतीं नहीं . जीवन एक बड़ी कविता है जिसमें देश राग भी
है ... पडौसी रहीम भी है ... पंडित नंदराम दुबे भे भी है . लोग हैं जो आत्मकुंठा
को बदलने लगते हैं दावानल .......में . जो कम से कम भारत में न तो हिन्दू न ही
मुस्लिम कोई भी नहीं स्वीकारता . न ही भारतीय संविधान उकसावे को अनुमति ही देता है
. जिसपर हम सबकी पूर्ण आस्था है .
डा. वैदिक ने कहा- “..........बस 50 के लगभग ही भेड़चाल में फंस गए।
उन्हें क्या पता था कि उन्हें लेने के देने पड़ जाएंगे । अब साहित्य अकादमियां
उन्हें बुलाकर उनके सम्मान तो वापस नहीं करने वाली हैं । बेचारों के सम्मान भी गए
और लाख-लाख रु. भी। नयनतारा सहगल ने एक लाख का चेक वापस भेजा तो दो-तीन लेखकों को
भी भेजना पड़ा । असली नुकसान यही हुआ । वैसे सम्मान लौटाने से कोई नुकसान नहीं हुआ
। फायदा ही हुआ । जब उन्हें सम्मान मिला था तो किसी कोने में छोटी-मोटी खबर छपी
होगी। अब जब उन्होंने लौटाया तो बड़ी खबर बनी । अखबारों और टीवी चैनलों पर भी ! अब
वे अपने जीवन-वृत्त (बायोडेटा) में सम्मान लौटाने की बात जरुर कहेंगे, जिसमें यह छिपा होगा कि उन्हें यह सम्मान मिला था । याने पाना और लौटाना
एक बराबर हो गया। नौटंकी सिद्ध हो गया। अखलाक की हत्या घोर अनैतिक कुकर्म था,
इसमें ज़रा भी शक नहीं है लेकिन उसका साहित्य अकादमी से क्या
लेना-देना था? लेखकों का कहना है कि साहित्य अकादमी ने उसकी
निंदा क्यों नहीं की? या अकादमी द्वारा सम्मानित दांभोलकर पर
वह चुप क्यों रही? प्रश्न यह है कि अखलाक और दांभोलकर जैसे
कांड क्या पहली बार हुए हैं? और दांभोलकर की हत्या तो “...............”
काल में हुई थी । क्या साहित्य अकादमी का ऐसे सब मामलों में टांग अड़ाना उचित है ?
उस समय सम्मान लौटाने वालों को भेड़-चाल चलने की नहीं सूझी । अकेले
उदयप्रकाश ने सत्साहस किया ।
हमारे
साहित्यकार खुद बड़े अवसरवादी और दब्बू लोग हैं । पुरस्कारों और सम्मानों के लिए
मामूली नेताओं और अफसरों के तलवे चाटते फिरते हैं । अब वे भारत में तानाशाही की
शिकायत करते हैं। मोदी की दादागीरी का दबे-छिपे ढंग से इशारा करते हैं । साफ लिखने
और बोलने की हिम्मत उनमें नहीं है । ...............यह पुरस्कार लौटाना तो नपुंसक
गुस्सा है । यह बात बिल्कुल झूठी और बनावटी है कि देश में तानाशाही का माहौल है।
आपातकाल में इन लोगों की घिग्घी बंधी हुई थी । मेरे जैसे सैकड़ों लेखक और विचारक
तब भी डटकर अपनी बात कहते थे और अब भी कहते हैं। कोई तानाशाही लाने की हिम्मत तो
करे?
डा.
वैदिक का कथन बेशक विचारणीय है . इसपर विमर्श होना ही चाहिए . साथ ही साहित्यकारों को भी चाहिए कि वे किसी सियासी मुहीम का हिस्सा न बनें ........ दिल में अगर दर्द और आँखों में अश्क हैं तो केवल एक आँख का रोना रोना न रोया जाए .......