- आलेख में प्रकाशित सामग्री पर लेखक का सर्वाधिकार है. ब्लाग स्वामी
ईश्वर और धर्म के विषय में अधिकतम ज्ञान अर्जित
करने की दिशा में असंख्य
लोग स्वाभाविक ही
जुटे रहते हैं। जब, जहां
और जैसे अवसर मिलता है, वैसे
स्वयं को सतुंष्ट
करने के प्रयास करते रहते हैं। मनुष्य की इसी स्वाभाविक
इच्छा का धूर्त और
शातिर किस्म के लोग दुरुपयोग कर रहे हैं। धूर्त और
शातिर किस्म के
लोगों ने ईश्वर और धर्म को धंधा बना लिया है,
जिससे लोग
द्वंद से निकलने
की जगह और गहरे में फंसते जा रहे हैं।
बचपन में एक कहानी
सुनी थी, जिसमें बताया
गया था कि एक गांव में चार अंधे
रहते थे। उस गांव
में एक बार हाथी आया। चारों अंधों ने हाथी को छूने की
उत्सुकता व्यक्त
की, तो महावत ने हाथी को
छूकर अनुभूति करने की अंधों को
अनुमति दे दी।
इसके बाद चारों अंधे अपने अनुभवों को आपस में बांटने लगे।
हाथी का पैर छूने
वाले अंधे ने कहा कि हाथी एक खंबे जैसा होता है। हाथी
के पेट पर हाथ
घुमाने वाले अंधे ने कहा कि हाथी ढोल की तरह होता है। कान
पकड़ने वाला अँधा
उन दोनों को मूर्ख बताते हुए बोला कि हाथी सूप की तरह
होता है और पूँछ
पकड़ने वाला चौथा अँधा तीनों के अनुभवों पर हंसता हुआ
बोला कि हाथी
झाड़ू की तरह होता है, ऐसा
ही कुछ धर्म के साथ हो रहा है।
वास्तव में धर्म
क्या है, यह अधिकांशतः न
कोई बता पा रहा है और न ही कोई
समझ पा रहा है, इसीलिए धर्म की जगह पाखंड लेता जा
रहा है, जिसके
दुष्परिणाम लगातार
सामने आ रहे हैं। धर्म के प्रति अज्ञानता और अनभिज्ञता
से ही पाखंड को
बढ़ावा मिल रहा है, इसलिए
धर्म का ज्ञान ही पाखंड से निजात
दिला सकता है।
व्याकरण की दृष्टि
से धर्म शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की ‘धृ’ धातु से हुई
है, जिसका अर्थ है “स्वभावत: धारण करना। अब प्रश्न उठता है कि धर्म का
कार्य क्या है, तो अभ्युदय (लौकिक) और नि:श्रेयस
(पारलौकिक) उन्नति करना
ही धर्म का कार्य
है। अधोगति में जाने से रोकना ही धर्म का मूल कार्य है।
सत, रज और तम में संतुलन बनाये रखने की
प्रेरणा देने वाला भी धर्म ही है।
उदाहरण स्वरूप बात
हिन्दू धर्म की करते हैं, तो सब से पहले यह जानना
आवश्यक है कि
हिन्दू कोई धर्म नहीं है। मूल नाम सनातन धर्म है, जिसे बाद
में वैदिक और अब
हिन्दू धर्म कहने लगे हैं। हिन्दू और हिंदुस्तान शब्द की
उत्पत्ति के संबंध
में विचार है कि भारतवर्ष को प्राचीन ऋषियों ने
"हिन्दुस्थान"
नाम दिया था, जिसका अपभ्रंश ही "हिन्दुस्तान"
है।
"बृहस्पति
आगम" में लिखा है कि “हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु
सरोवरम्।
तं देवनिर्मितं
देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।” अर्थात, हिमालय से
प्रारम्भ होकर
इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश
हिन्दुस्थान
कहलाता है।
"हिन्दू"
शब्द "सिन्धु" से भी बना माना जाता है। संस्कृत में सिन्धु शब्द
के दो अर्थ हैं।
इसके अलावा हिमालय के प्रथम अक्षर "हि" और इन्दु का
अन्तिम अक्षर
"न्दु" से मिल कर "हिन्दु" शब्द बना और यह भू-भाग
हिन्दुस्थान
कहलाया। नाम जैसे भी पड़ा, पर हिन्दू शब्द प्रचलन में आने के
बाद सनातन का
पर्याय हिन्दू ही बनते चले गए, जबकि बौद्ध और जैन आदि भी
सनातनी ही हैं।
व्याकरण में सनातन का अर्थ होता है “शाश्वत” अर्थात्,
जिसका न आदि है और
न अन्त। सनातनी साहित्य और सनातनी विद्वान किसी
सिद्धान्त को
निरस्त नहीं करते, वे सभी
को बराबर की मान्यता देते हैं।
स्वयं एकेश्वरवादी
होते हैं, पर अन्य वादों
को भी मान्यता देते हैं,
क्योंकि सनातन
व्यवस्था उत्कृष्ट और आदर्श जीवन जीने की एक पद्धति है।
मूल विषय पर आते
हैं। धर्म का अर्थ है स्वभावत: धारण करना और सनातन का
अर्थ है शाश्वत, अर्थात विचार, सिद्धान्त, नियम आदि को जीवन में प्रमुख
स्थान देना मनुष्य
का स्वभाव है और जो स्वभाव से धारण हो जाये,
साथ ही
मनुष्य स्वभाव से
ही धारण कर ले, वो धर्म
है। इसी तरह जिसका न आदि है और
न अंत है, जो स्वाभाविक है, उसे धारण कर ले, वो सनातनी है। जिसे धारण
कराया जाये, वो सनातनी नहीं हो सकता। मनुष्य का
मूल स्वभाव अहिंसक है,
लेकिन कोई हिंसक
है, तो वह मनुष्यता के
विपरीत है, अर्थात सनातन व्यवस्था
के भी विपरीत है।
सनातनीयों की
मान्यता है कि ईश्वर एक है और वह सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापी
है, लेकिन वे सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार और आस्तिकता-नास्तिकता को भी
निरस्त नहीं करते।
गीता में ही कहा गया है कि 'यदि तू प्रभु के लिए कर्म
करने के परायण
होने में असमर्थ है, अर्थात
प्रभु को नहीं मानता, तो भी
कोई बात नहीं, तू स्वयं की इंद्रियों पर विजय
प्राप्त कर और आनंद ले।
आशय यह है कि मूल
धर्म नहीं, बल्कि कर्म
है। किसी धर्मज्ञ के व्यवहार और
कर्म में धर्म
नहीं हैं, तो नीच है,
अधर्मी है, पापी है, अपराधी है,
लेकिन कोई धर्म के
मर्म को जानता तक न हो, पर
उसके कर्म देश, समाज,
प्रकृति और
प्रत्येक जीव के कल्याण में हों, तो वह स्वयं में धर्मज्ञ ही
हुआ। कुल मिला कर
पूजा पद्धति धर्म नहीं है। धर्म और कर्म का आपस में
अटूट रिश्ता है, अर्थात जो धार्मिक है, वह सदकर्म भी करेगा और सदकर्म
करता है, वह धार्मिक भी होगा, लेकिन धर्म और उसका आशय समझाने की जगह
लोगों को और
उलझाया जा रहा है, क्योंकि
लोगों को धर्म की सही जानकारी हो
गई, तो धर्म के नाम पर धंधा करने वाले
लोगों का धंधा बंद हो जायेगा।
धर्म के नाम पर
व्यापार करने वाले स्वयं भी धार्मिक नहीं हैं,
तभी उनके
कुकर्म आये दिन
सामने आते रहते हैं, इसलिए
लोगों का विश्वास धर्म से ही
उठता जा रहा है।
धर्म से विश्वास उठने का अर्थ है कर्म से भी विश्वास
उठना। लोगों का
कर्म से विश्वास उठेगा, तो
अनैतिकता, अव्यवहारिकता,
अकर्मण्यता, कठोरता आदि को ही बढ़ावा मिलेगा,
लेकिन लोगों को सही मार्ग
दिखाने वालों की
संख्या बहुत कम है, इसलिए
धर्म के नाम पर पाखंड से धोखा
खा चुके लोग आसानी
से अधर्म की शरण में चले जाते हैं, अर्थात नास्तिक हो
जाते हैं, जबकि यही हाल नास्तिकता का है। जैसे
धर्म के नाम पर लोग
व्यापार कर रहे
हैं, वैसे ही लोग अधर्म
के नाम पर भी व्यापार करने लगे
हैं।
कथित धार्मिक
लोगों के इतने किस्से सामने आ चुके हैं कि उन पर एक बहुत
मोटी किताब लिखी
जा सकती है। कहीं पद को लेकर हत्या के किस्से हैं, तो
कहीं आश्रम को
लेकर संघर्ष हो रहे हैं। इतना सब रहता, तो भी ठीक था, धर्म
का भय दिखा कर
पाखंडी नाबालिग लड़कियों तक को अपनी हवस का शिकार बना रहे
हैं, इसी तरह की कहानियाँ नास्तिक
ठेकेदारों की भी हैं। वृन्दावन में एक
प्रसिद्ध कथावाचक
थे। उनका धर्मावलम्बियों में बड़ा सम्मान था। उनके तीन
पुत्र हैं। अपने
जीवन काल में ही उन्होंने अपने पुत्रों को भी कथा सुनाने
का अभ्यास कराना
शुरू कर दिया। आयु पूर्ण होने पर एक दिन वह शरीर छोड़
गये, जिसके बाद उनके बड़े पुत्र ने पिता के
कार्य को अपना लिया, पर न
ज्ञान था और न ही
श्रोताओं को सुनाने का तरीका अच्छा लगा, जिससे पिता के
नाम पर एक-दो बार
लोगों ने आयोजन कराया और फिर भूल गये। दूसरे बेटे ने भी
प्रयास किया, पर उसका परिणाम भी बड़े बेटे जैसा ही
आया। चूंकि पिता
सेवाभाव से कथा
सुनाते थे और बेटे पहले ही दिन से धंधे के रूप में कथा
सुनाने आये, इसलिए लोगों को रुचिकर न लगना
स्वाभाविक था, साथ ही धार्मिक
ग्रंथों का अध्ययन
न होने के कारण लोगों को ज्ञान के रूप में भी कुछ नहीं
मिल रहा था, जिससे धंधा नहीं चला, इस घटना से दोनों भाई धर्म और ईश्वर के
विरुद्ध हो गये, अर्थात नास्तिक हो गए और नास्तिकता
के नाम पर धंधा शुरू
कर दिया। यहाँ
ध्यान देने की विशेष बात यह है कि उनका पैतृक धंधा उनकी
अज्ञानता के कारण
फलीभूत नहीं हुआ, पर
ईश्वर और ईश्वरवादियों से घृणा
करने लगे।
एक भाई ने सोशल साइट्स
पर विज्ञापन देकर थोड़ी बहुत ख्याति अर्जित कर ली
और धंधा चल पड़ा।
धर्म के प्रति लोगों को भड़काने में किसी तरह के विशेष
ज्ञान की जरूरत भी
नहीं है, जिससे परिश्रम
विहीन यह धंधा उसे रास आ गया।
सोशल साइट्स ने
ख्याति देश के बाहर तक पहुंचा दी। चूंकि पाखंड से चोट
खाये लोग दुनिया
भर में हैं, उन्हीं में
से किसी एक जर्मन ने जर्मनी में
सेंटर खोलने में
मदद कर दी। सेंटर खुलने के पश्चात सवाल यह था कि अब क्या
किया जाए, तो इस व्यक्ति ने वहाँ योग सिखाने के
लिए एक लड़का रख दिया और
चालीस यूरो प्रति
व्यक्ति वसूलने लगा। कुछ ही समय में धन वर्षा होने लगी,
तो वहाँ एकाउंट
आदि की व्यवस्था देखने के लिए ऐसे जानकार की आवश्यकता
महसूस हुई, जिसे जर्मन और इंग्लिश का अच्छा
ज्ञान हो। एक लड़की आसानी से
मिल गई, जिसे कुछ ही दिनों में उस व्यक्ति ने
प्रेमिका और फिर पत्नी बना
लिया।
धर्म के नाम पर
धंधा करने वाले लड़कियों को रख कर उनसे शारीरिक संबंध
इसलिए बनाते हैं
कि वे उनके प्रति पूरी तरह वफादार रहें और देखभाल मन से
करें। दुनिया भर
की स्त्री भावुक होती है, इसलिए रिश्ते और प्रेम के
मुददे पर शातिर
लोगों के षड्यंत्र में आसानी से फंस जाती है। कुल मिला कर
जो सब धर्म के नाम
पर हो रहा था, वही सब
अधर्म के नाम पर भी हो रहा है। न
आस्तिकता कुछ बदल
पाई और न नास्तिकता। इस व्यक्ति पर विदेशी लड़कियों को
लाकर उनसे धंधा
कराने के भी आरोप लगते रहे हैं। धार्मिक मठाधीशों की तरह
ही इसके आश्रम पर
भी पुलिस छापा मार चुकी है, पर धार्मिक मठाधीशों की तरह
ही इस अधार्मिक
मठाधीश के भी उच्च्स्तरीय राजनैतिक संबंध बताए जाते हैं,
जिससे यह कार्रवाई
से बचा हुआ है।अब जर्मन पत्नी का चेहरा दिखा कर विदेशियों को आसानी से लुभा
लेता है। वृन्दावन
में भी योग सेंटर चलाता है और फीस यूरो व डॉलर के रूप में वसूल करता है। विदेशियों को और अधिक प्रभावित करने के लिए
बीस-पच्चीस बच्चे
जमा कर एक स्कूल
खोल रखा है, जिसके नाम पर
दोनों भाई मिल कर खुद की जमकर
ब्रांडिंग करते
हैं।खैर, मनुष्यों
में शातिर किस्म के ऐसे लोग हर क्षेत्र में मिल जायेंगे।
धर्म, अधर्म, राजनीति,
व्यापार, पत्रकारिता, देशभक्ति सहित कोई भी
क्षेत्र क्यूँ न
हो, इनके लिए हर क्षेत्र
पैसे पैदा करने का एक माध्यम भर
है और ऐसे लोगों
की संख्या बढ़ने के कारण ही हर क्षेत्र में परिणाम
अपेक्षा के विपरीत
आने लगे हैं, आवश्यकता
ऐसे लोगों से ही सतर्क रहने की
है। यह सब उदाहरण
स्वरूप देना इसलिए आवश्यक था कि आस्तिकता से तंग आ चुके
लोग यह समझ सकें
कि नास्तिकता के भी हाल कोई बहुत अच्छे नहीं हैं। जैसे
लोग आस्तिकता के
नाम पर लोगों को मूर्ख बना रहे हैं, वैसे ही नास्तिकता
के नाम पर भी
मूर्ख बनाने वालों की कमी नहीं हैं, इसलिए धर्म को स्वयं
जानें। अब बात नास्तिकता की करते हैं, तो सनातनी नास्तिक विचारधारा को
निरस्त
नहीं करते, पर नास्तिक लोग आस्तिक विचारधारा को
नहीं मानते, इसलिए सवाल
उठता है कि जो
विचार, जो सिद्धान्त,
जो वस्तु, जो स्वरूप कल्पना में ही
नहीं है, उस पर चर्चा कैसे की जा सकती है,
अर्थात जब नास्तिकों का मानना
है कि ईश्वर है ही
नहीं और जब एक विचार है ही नहीं, तो उसे निरस्त कैसे
किया जा सकता है? निरस्त करने का आशय है कि ईश्वर है,
जिसे सिर्फ नास्तिक
नहीं मानते हैं, पर मूल सवाल आस्तिकता या नास्तिकता
नहीं हैं। मूल सवाल
है धर्म, इसलिए प्रश्न यह है कि ऐसा कौन सा
सदकर्म है, जिसे सिर्फ
नास्तिक लोग ही कर
सकते हैं, आस्तिक नहीं कर
सकते। धर्म का सीधा संबंध
कर्म से है, अर्थात जो धार्मिक है, वो सदकर्म भी करता होगा और सदकर्म
करता है, वह धार्मिक भी होगा। धार्मिक होने का
अर्थ माथे पर तिलक लगाना,
कोई विशेष वस्त्र
पहनना अथवा पूजा पद्धति से बिल्कुल नहीं है,
इस सब से
धर्म को जोड़ दिया
गया है, जिसे पाखंड कहते
हैं। सनातनी
व्यवस्था में विवाद, आलोचना और समस्या की मूल जड़ धर्म नहीं है। बहुत सी चीजों को धर्म से जोड़ दिया
गया है, उन चीजों
पर विवाद है, इसलिए विवाद धर्म से जुड़ जाता है। धर्म
आदर्श नागरिक बनाता है, तो आदर्श बनाने पर क्या विवाद हो सकता है। असलियत में हिंदुओं के पास दो
तरह का साहित्य है। एक को श्रुति
कहते हैं, जिसके
बारे में मान्यता है कि यह देववाणी है,
जिसे सुन कर
ऋषियों ने मानव कल्याण के लिए लिपिबद्ध किया। दूसरा साहित्य
है स्मृति, इसके बारे में मान्यता है कि
एक-दूसरे की स्मृति से आगे बढ़ा
और स्मृति के आधार
पर ही लिपिबद्ध कर दिया गया। विवाद और आलोचना के
केंद्र में स्मृति
वाला साहित्य ही है, पर
यहाँ विशेष ध्यान देने की बात यह है कि यह साहित्य धर्म नहीं है। देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार नियम-कानून परिवर्तित होते रहते हैं, इस साहित्य को वैसे ही मानना चाहिए। कुल मिला कर व्यक्ति जिस देश की सीमा
में रहता है, उस
देश के नियम-कानून मानना भी धर्म ही है। विवाद और आलोचना पर ध्यान देने वाला धार्मिक हो ही
नहीं सकता। लौकिक और पार-लौकिक उन्नति कराने वाला
धर्म और करने वाला धार्मिक है। धर्म के विषय में प्रसिद्ध वैज्ञानिक
आइंस्टीन की एक सटीक टिप्पणी है कि “विज्ञान मनुष्य को अपरिमित शक्ति तो
दे सकता है, पर वह
उसकी बुद्धि को
नियंत्रित करने की सामर्थ्य नहीं प्रदान कर सकता। मनुष्य
की बुद्धि को
नियंत्रित करने और उसे सही दिशा में प्रयुक्त करने की शक्ति
तो धर्म ही दे
सकता है।”
वृन्दावन में भी योग सेंटर
चलाता है और फीस यूरो व डॉलर के रूप में वसूल करता है। विदेशियों को और
अधिक प्रभावित करने के लिए बीस-पच्चीस बच्चे
जमा कर एक स्कूल खोल रखा है, जिसके नाम पर दोनों भाई मिल कर खुद की जमकर
ब्रांडिंग करते हैं।खैर, मनुष्यों में शातिर किस्म के ऐसे लोग हर क्षेत्र में मिल
जायेंगे।
धर्म, अधर्म, राजनीति, व्यापार, पत्रकारिता, देशभक्ति सहित कोई भी
क्षेत्र क्यूँ न हो, इनके लिए हर क्षेत्र पैसे पैदा करने का एक माध्यम भर
है और ऐसे लोगों की संख्या
बढ़ने के कारण ही हर क्षेत्र में परिणाम
अपेक्षा के विपरीत आने लगे
हैं, आवश्यकता ऐसे लोगों से ही सतर्क रहने की
है। यह सब उदाहरण स्वरूप
देना इसलिए आवश्यक था कि आस्तिकता से तंग आ चुके
लोग यह समझ सकें कि
नास्तिकता के भी हाल कोई बहुत अच्छे नहीं हैं। जैसे
लोग आस्तिकता के नाम पर
लोगों को मूर्ख बना रहे हैं, वैसे ही नास्तिकता
के नाम पर भी मूर्ख बनाने
वालों की कमी नहीं हैं, इसलिए धर्म को स्वयं
जानें। अब बात नास्तिकता की करते हैं, तो सनातनी नास्तिक विचारधारा को निरस्त
नहीं करते, पर नास्तिक लोग आस्तिक विचारधारा को नहीं मानते, इसलिए सवाल
उठता है कि जो विचार, जो सिद्धान्त, जो वस्तु, जो स्वरूप कल्पना में ही
नहीं है, उस पर चर्चा कैसे की जा सकती है, अर्थात जब नास्तिकों का मानना
है कि ईश्वर है ही नहीं और
जब एक विचार है ही नहीं, तो उसे निरस्त कैसे
किया जा सकता है? निरस्त करने का आशय है कि ईश्वर है, जिसे सिर्फ नास्तिक
नहीं मानते हैं, पर मूल सवाल आस्तिकता या नास्तिकता नहीं हैं। मूल सवाल
है धर्म, इसलिए प्रश्न यह है कि ऐसा कौन सा सदकर्म है, जिसे सिर्फ
नास्तिक लोग ही कर सकते हैं, आस्तिक नहीं कर सकते। धर्म का सीधा संबंध
कर्म से है, अर्थात जो धार्मिक है, वो सदकर्म भी करता होगा और
सदकर्म
करता है, वह धार्मिक भी होगा। धार्मिक होने का अर्थ माथे पर तिलक
लगाना,
कोई विशेष वस्त्र पहनना
अथवा पूजा पद्धति से बिल्कुल नहीं है, इस सब से
धर्म को जोड़ दिया गया है, जिसे पाखंड कहते हैं। सनातनी व्यवस्था में विवाद, आलोचना और समस्या की मूल जड़ धर्म नहीं है। बहुत सी चीजों को धर्म से जोड़ दिया गया है, उन चीजों पर विवाद है, इसलिए विवाद धर्म से जुड़ जाता है। धर्म आदर्श नागरिक बनाता है, तो आदर्श बनाने पर क्या विवाद हो सकता है। असलियत
में हिंदुओं के पास दो तरह का साहित्य है। एक को श्रुति कहते हैं, जिसके बारे में मान्यता है कि यह देववाणी है,
जिसे सुन कर ऋषियों ने मानव
कल्याण के लिए लिपिबद्ध किया। दूसरा साहित्य
है स्मृति, इसके बारे में मान्यता है कि एक-दूसरे की स्मृति से आगे बढ़ा
और स्मृति के आधार पर ही
लिपिबद्ध कर दिया गया। विवाद और आलोचना के
केंद्र में स्मृति वाला
साहित्य ही है, पर यहाँ विशेष ध्यान देने की बात यह है कि यह साहित्य धर्म नहीं है। देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार नियम-कानून परिवर्तित होते रहते हैं, इस साहित्य को वैसे ही मानना चाहिए। कुल मिला कर व्यक्ति जिस देश की सीमा में रहता है, उस देश के नियम-कानून मानना भी धर्म ही है। विवाद
और आलोचना पर ध्यान देने वाला धार्मिक हो ही नहीं सकता। लौकिक और
पार-लौकिक उन्नति कराने वाला धर्म और करने वाला धार्मिक है। धर्म के विषय
में प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन की एक सटीक टिप्पणी है कि “विज्ञान मनुष्य को अपरिमित शक्ति तो दे सकता है, पर वह
उसकी बुद्धि को नियंत्रित
करने की सामर्थ्य नहीं प्रदान कर सकता। मनुष्य
की बुद्धि को नियंत्रित
करने और उसे सही दिशा में प्रयुक्त करने की शक्ति
तो धर्म ही दे सकता है।”