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मंगलवार, जुलाई 01, 2014

"माई री मैं कासे कहूं पीर .... !"


विधवा जीवन का सबसे दु:खद पहलू है कि उसे सामाजिक-सांस्कृतिक अधिकारों से आज़ भी  समाज ने दूर रखा है. उनको उनके सामाजिक-सांस्कृतिक अधिकार देने की बात कोई भी नहीं करता. जो सबसे दु:खद पहलू है. शादी विवाह की रस्मों में विधवाओं को मंडप से बाहर रखने का कार्य न केवल गलत है वरन मानवाधिकारों का हनन भी है.              आपने अक्सर देखा होगा ... घरों में होने वाले मांगलिक कार्यों में विधवा स्त्री के प्रति उपेक्षा का भाव . नारी के खिलाफ़ सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाने का साहस करना ही होगा . किसी धर्म ग्रंथ में पति विहीन नारी को मांगलिक कार्यों में प्रमुख भूमिका से हटाने अथवा दूर रखने के अनुदेश नहीं हैं. जहां तक हिंदू धर्म का सवाल है उसमें ऐसा कोई अनुदेश नहीं पाया जाता न तो विधवा का विवाह शास्त्रों के अनुदेशों के विरुद्ध है.. न ही उसको अधिकारों से वंचित रखना किसी शास्त्र में निर्देशित किया गया है. क्या विधवा विवाह शास्त्र विरुद्ध है? इस विषय पर गायत्री उपासकों की वेबसाइट http://literature.awgp.org/hindibook/yug-nirman/SocietyDevelopment/KyaVidhvaVivahShastraViruddhHai.1 पर स्पष्ट लिखा है कि यह अनाधिकृत है.

विधवाओं के लिये वर्जित क्या है

  1. श्रृंगार :- विधवा स्त्री को स्वेत वस्त्र पहनने की अनुमति है. उसे श्रृंगार की अनुमति कदापि नहीं दी गई है. आधार में ये तथ्य है कि रंगीन वस्त्र उसे उत्तेजक बना सकते हैं. जो पारिवारिक सम्मान को क्षति पहुंचाने का कारण हो सकता है.
  2. पुनर्विवाह  :- ईश्वर चंद्र विद्यासागर के अथक प्रयासों से पुनर्विवाह को अब अंगीकार किया जाने लगा है. 
  3. पारिवारिक सांस्कृतिक आयोजनों में प्रमुख भागीदारी :- पुत्रों, पुत्रीयों, अथवा अन्य रक्त सम्बंधियों के विवाह, चौक, आदि में विधवाओं को मुख्य समारोह से विलग रखा जाता है. यदि कोई विधवा स्त्री अपनी संतान का विवाह करवा रही है तो उसका धन शुद्ध माना जाता है जबकि उसका स्वयं मंडप में प्रवेश वर्जित है. यहां तक कि वर मां/ वधू मां का दायित्व परिवार के किसी अन्य जोड़े को दिया जाता जै. 
  4. ग्रह प्रवेश में किये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान में मान्यता का अभाव  :-  आज़ भी मौज़ूद  है यह कुरीति .भले ही विधवा ने स्वयं अर्जित / पति की विरासत से प्राप्त धन से अचल सम्पदा अर्जित की हो 
  5. मनोरंजक/हास-परिहास जैसे पारिवारिक आयोजन  :- ऐसे आयोजन में भी विधवाओं को परे रखने की व्यवस्था समाज में है. 

अगर शास्त्रों द्वारा विधवाओं को सामान्य जीवन से प्रथक रखने की कोशिश के निर्देश दिये भी जाते तो ऐसे निर्देशों को सभ्य-समाज को बदल देना चाहिये.  सनातन धर्म अन्य धर्मों की तरह कठोर नही है. धर्म देख काल परिस्थिति अनुसार  विकल्पों के प्रयोग की अनुमति देता है. किंतु ब्राम्हणवादी व्यबस्था के चलते कुछ मुद्दे अभी भी यथावत हैं. नारी के पति विहीन होने पर उसका श्रृंगार अधिकार छिनना, उसकी चूड़ियां सार्वजनिक तौर पर तोड़ना एक लज्जित कर देने वाली कुरीति है. पति के शोक में डूबी नारी को क़ानून के भय से सती भले ही न बनाता हो ये समाज पर नित अग्नि-पथ पर चलने मज़बूर करता है. उसके अधिकार छीन कर जब मेरी दादी मां के सर से बाल मूढ़ने नाई आता था तब मै बहुत कम उम्र का था पर समझ विकसित होते ही  जब मुझे इस बात का एहसास हुआ कि सत्तर वर्ष की उम्र में भी उनको विधवा होने का पाठ पढ़ाया जा रहा है तो मैं बेहद दु:खी हुआ.
    तेज़ी से सामाजिक परिवर्तन हो रहा है. किंतु समाज ने अपनी विधवा मां, बहन, बेटी, भाभी, बहू किसी के अधिकार छिनते देख एक शब्द भी नहीं कहा. किसी में भी हिम्मत नहीं है. किस बात का भय है.   हम सनातन धर्म के अनुयायी हैं जो लचीला है..  कर्मकांडी अथवा  पंडे इसे रोजी रोटी कमाने लायक ही जानते हैं. पंडे क्या हमें धर्म के मूल तत्व आ अर्थ बता सकते हैं. वे सिखाएंगे भी क्या..उनका काम सीमित है  हमें सामाजिक बदलाव लाना है. ऐसा सामाजिक बदलाव जिससे किसी प्राणी मात्र को पीडा से मुक्त रखा जा सके.  शंकराचार्यों को ऐसे  विषय पर समाज को मार्गदर्शन देने की ज़रूरत है. न कि विवादित बयानों की .
सुधि पाठको पूरी ईमानदारी से विचारमग्न हो के सोचिये कि आप मेरे इस आह्वान पर क्या सोचते हैं.. नारी के तिरस्कार वाली क्रियाओं से समाज के विमुक्त करने विधवाओं के प्रति सकारात्मक दायित्व निर्वहन से क्या धरती धरती न रहेगी. ... ?          


सोमवार, जून 30, 2014

शास्त्री जी नाराज़गी छोडिये : केवल भाई क्षमा मांगिये तकनीकी समस्या बताते हुए ..


"आज से ब्लॉगिंग बन्द"   का उदघोष कर डॉ. रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक जी ने एक बार फ़िर ब्लाग जगत में खलबली मचा दी . मसला मेरी दृष्टि में एक तरह की मिसअंडर स्टैंडिंग है .. www.blogsetu.com को लेकर. जहां तक मेरा मानना है शास्त्री जी ने हिंदी ब्लागिंग को वो सब दिया जो ज़रूरी था उनकी वज़ह से ही हिंदी ब्लागिंग में कुछ नए नवेले प्रयोग हुए.. खटीमा सम्मेलन इस बात का सर्वोच्च उदाहरण है. जिसमें वेबकास्टिंग को स्थान मिला.. और आगे गूगल को जिसे हैंगआउट के रूप में सुविधा के रूप में सबको देना ही पड़ा .  
 जहां तक ब्लाग सेतु  का सवाल है उसके निर्माता भाई केवलराम की जीवटता को नकारना बेमानी होगा. 
 वैसे इन दौनों महारथियों के बारे में कुछ भी कहना सूरज भैया के सामने दीपक रखने वाला काम ही होगा. दौनो महानुभाव योग्य ही नहीं सुयोग्य और क्षमतावान हैं.  
      ब्लाग सेतु  के पूर्व से चर्चामंच पाठकों तक नि:स्वार्थ लिंक उपलब्ध कराने का काम कर रहा है. किंतु अचानक ब्लाग जगत में हुए ऐसे विवाद से मन पीढ़ा से भर आया है. अच्छा होता कि बात केवल शास्त्री जी एवम केवल भाई के बीच निपट सुलझ जाती पर अब आगे बढ़ ही चुकी है तब तथ्य मुझे  गहराई तक जाना ज़रूरी लगा. पतासाज़ी से जाना कि नवीन वेबसाइट होने से भाई केवलराम उस पर स्लो चलने के दबाव से बचना चाहते थे.. और उन्हौने सम्भवत: चर्चामंच को प्रयोग के तौर पर हटाया था.. इस वास्तविकता से  उनको शास्त्री से दूरभाष पर चर्चा कर लेना था. या उनको इस प्रयोग कि जानकारी दे देनी थी ताकि वे केवलभाई के इस प्रयोग को अन्यथा न लेते .. शास्त्री जी आपसे भी बिना लाग लपेट के कहना चाहता हूं कि केवल भाई का कार्य आपके विरुद्ध न होकर एक प्रयोग मात्र था यही सच है. 
    शास्त्री जी नाराज़गी छोड़िये और केवलराम जी छोटे भाई के रूप में क्षमा मागिंये शास्त्री जी से कि तकनीकी समस्या की पड़ताल  के लिये ऐसा प्रयोग किया.. था... !! 
"क्षमा बड़न को चाहिये छोटन के उत्पात "     


शुक्रवार, जून 27, 2014

शुभ यात्रा की विश पूरी करें : हिदायतों का ध्यान रखें

यह आलेख फ़ेसबुक के GreenYatra से सामुदायिक समझ को बढ़ाने के लिये प्रस्तुत किया जा रहा है 
आजकल नए बने ताज एक्सप्रेस वे पर रोजाना गाड़ियों के टायर फटने के मामले सामने आ रहे हैं जिनमें रोजाना कई लोगों की जानें जा रही हैं.एक दिन बैठे बैठे मन में प्रश्न उठा कि आखिर देश की सबसे आधुनिक सड़क पर ही सबसे ज्यादा हादसे क्यूँ हो रहे हैं? और हादसों का तरीका भी केवल एक ही वो भी टायर फटना ही मात्र, ऐसा कोन सी कीलें बिछा दीं सड़क पर हाईवे बनाने वालों ने? दिमाग ठहरा खुराफाती सो सोचा आज इसी बात का पता किया जाये. तो टीम जुट गई इसका पता लगाने में. अब सुनिए हमारे प्रयोग के बारे में. मेरे पास तो इको फ्रेंडली हीरो जेट है सो इतनी हाई-फाई गाडी को तो एक्सप्रेस वे अथोरिटी इजाजत देती नहीं सो हमारे एडमिन पेनल की दूसरी कुराफाती हस्ती को मैंने बुला लिया उनके पास BMW X1 SUV है (ध्यान रहे असली मुद्दा टायर फटना है) सबसे पहले हमनें ठन्डे टायरों का प्रेशर चेक किया और उसको अन्तराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप ठीक किया जो कि 25 PSI है. (सभी विकसित देशों की कारों में यही हवा का दबाव रखा जाता है जबकि हमारे देश में लोग इसके प्रति जागरूक ही नहीं हैं या फिर ईंधन बचाने के लिए जरुरत से ज्यादा हवा टायर में भरवा लेते हैं जो की 35 से 45 PSI आम बात है).
खैर अब आगे चलते हैं.
इसके बाद ताज एक्सप्रेस वे पर हम नोएडा की तरफ से चढ़ गए और गाडी दोडा दी. गाडी की स्पीड हमनें 150 - 180 KM /H रखी. इस रफ़्तार पर गाडी को पोने दो घंटे दोड़ाने के बाद हम आगरा के पास पहुँच गए थे. आगरा से पहले ही रूककर हमने दोबारा टायर प्रेशर चेक किया तो यह चोंकाने वाला था. अब टायर प्रेशर था 52 PSI .अब प्रश्न उठता है की आखिर टायर प्रेशर इतना बढ़ा कैसे सो उसके लिए हमने थर्मोमीटर को टायर पर लगाया तो टायर का तापमान था 92 .5 डिग्री सेल्सियस. सारा राज अब खुल चुका था, कि टायरों के सड़क पर घर्षण से तथा ब्रेकों की रगड़ से पैदा हुई गर्मी से टायर के अन्दर की हवा फ़ैल गई जिससे टायर के अन्दर हवा का दबाव इतना अधिक बढ़ गया. चूँकि हमारे टायरों में हवा पहले ही अंतरिष्ट्रीय मानकों के अनुरूप थी सो वो फटने से बच गए. लेकिन जिन टायरों में हवा का दबाव पहले से ही अधिक (35 -45 PSI) होता है या जिन टायरों में कट लगे होते हैं उनके फटने की संभावना अत्यधिक होती है.
अत : ताज एक्सप्रेस वे पर जाने से पहले अपने टायरों का दबाव सही कर लें और सुरक्षित सफ़र का आनंद लें. मेरी एक्सप्रेस वे अथोरिटी से भी ये विनती है के वो भी वाहन चालकों को जागरूक करें ताकि यह सफ़र अंतिम सफ़र न बने.
आप सभी फेसबुक मित्रों से अनुरोध है कि इस पोस्ट को अधिक से अधिक शेयर करें. चूँकि ऐसा करके आपने यदि एक जान भी बचा ली तो आपका मनुष्य जन्म धन्य होगा |


गुरुवार, जून 26, 2014

मानव तस्करी की मंडी में मासूम :संजय स्वदेश

साभार :- चित्र  पंजाब केसरी से साभार
बीते दिनों केरल पुलिस के 16 अधिकारियों ने झारखंड के 123 बच्चों को केरल से जसीडीह स्टेशन पहुंचाया गया। ये बच्चे मानव तस्करी के जरिए केरल के अनाथालय में पहुंचाया गया था। पिछले वर्ष भी इसी तरह थोक में बच्चों की मानव तस्करी की एक और मामले का पर्दाफाश हुआ था। राजस्थान के भरतपुर रेलवे स्टेशन से 184 बाल मजदूरों को मुक्त करा कर पटना पहुंचाया गया। आए दिन देश के हर राज्य के अखबारों में बच्चों के गायब होने की खबर किसी ने किसी पन्ने के कोने में झांकती रहती हंै। देश बड़ा है। आबादी बड़ी है। संभव हो आपके आसपास कोई ऐसा नहीं मिले, जिसके बच्चे होश संभालने से पहले ही गायब हो चुके हो। इसलिए आपको जानकार थोड़ा आश्चर्य होगा, लेकिन हकीकत यह है कि आज देशभर में करीब आठ सौ गैंग सक्रिय होकर छोटे-छोटे बच्चों को गायब कर मानव तस्करी के धंधे में लगे हैं। यह रिकार्ड सीबीआई का है। मां-बाप का जिगर का जो टुकड़ा दु:खों की हर छांव से बचता रहता है, वह इस गैंग में चंगुल में आने के बाद एक ऐसी दुनिया में गुम हो जाता है, जहां से न बाप का लाड़ रहता है और मां के ममता का आंचल। किसी के अंग को निकाल कर दूसरे में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है, तो किसी को देह के धंधे में झोंक दिया जाता है, तो हजारों मजदूरी की भेंट चढ़ जाते हैं। पीड़ित में ज्यादातर दलित समाज से संबंद्ध हैं। 
गुमशुदा होने के समान्य आंकड़ों के अनुसार देश के औसतन हर घंटे में एक बच्चा गायब होता है। मतलब देशभर में चौबीस घंटे में कुल 24 लोगों के जिगर के टुकड़ों को छिन कर जिंदगी के अंधेरे में ढकेल दिया जाता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 44,000 बच्चे हर साल लापता हो जाते हैं और उनमें से करीब 11,000 का ही पता लग पाता है। भारत में मानव तस्करी को लेकर यूएन की हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत मानव तस्करी का बड़ा बाजार बन चुका है और देश की राजधानी दिल्ली मानव तस्करों की पसंदीदा जगह बनती जा रही है, जहां देश भर से बच्चों और महिलाओं को लाकर ना केवल आसपास के इलाकों बल्कि विदेशों में भी भेजा जा रहा है। वर्ष 2009 से 2011 के बीच लगभग 1,77,660 बच्चे लापता हुए जिनमें से 1,22,190 बच्चों को पता चल सका, जबकि अभी भी 55 हजार से ज्यादा बच्चे लापता हैं जिसमें से 64 फीसदी यानी लगभग 35,615 नाबालिग लड़कियां हैं। वहीं इस बीच करीब 1 लाख 60 हजार महिलाएं लापता हुईं जिनमें से सिर्फ 1 लाख 3 हजार महिलाओं का ही पता चल सका।  वहीं लगभग 56 हजार महिलाएं अब तक लापता हैं। रिपोर्ट के मुताबिक साल 2011-12 में एनजीओ की मदद से 1532 बच्चों को बचाया जा सका। वर्ष 2009-2011 के बीच लापता हुए लगभग 3,094 बच्चों का अबतक कोई सुराग नहीं लग पाया है जिनमें से 1,636 लड़कियां हैं तो वहीं इस दौरान गायब हुईं लगभग 3,786 महिलाएं भी अबतक लापता हैं।
गायब बच्चों के माता-पिता के आंखों के आंसू सूख चुके हैं। पर उनकी यादें हर दिन टिस मारती है। ऐसी बात नहीं है कि इन तरह के अपराधों के रोकथाम के लिए कानून नहीं है। कानून तो है, पर इसका क्रियान्वयन ठीक से नहीं हो पा रहा है। यदि क्रियान्वयन भी होता है तो इसमें इतनी खामियां हैं कि मानव तस्करों के गिरोह पर मजबूती से नकेल नहीं कसा जा पता है। कई मामलों में तो देखा गया है कि ऐसे कानूनों की जानकारी थाने में तैनात पुलिसवालों को भी नहीं होती है। हालांकि गृहमंत्रालय की विभिन्न इकायों के माध्यम से करीब 225 मानव तस्कर विरोधी इकाइयां सक्रिय हैं। गृह मंत्रालय की मानव तस्करी विरोधी इकाइयों 2011 से अब तक देश भर में 4000 से अधिक बचाव अभियान चलाये और 13742 पीड़ितों को बचाया। साथ ही 7087 मानव तस्करों को गिरफ्तार कराया। जल्द ही 100 और नई ऐसी इकाइयां गठित होने वाली है। लेकिन सरकार की मानव तस्कर विरोधी गतिविधियां जिस गति से सक्रिय है, उससे कई ज्यादा तेज तस्करों का गिरोह हैं। देश और देश के बाहर दूर दराज के गरीब ग्रामीणों व आदिवासी क्षेत्र के बच्चे इसी तरह मानव तस्करी की आग में जलते जा रहे हैं। भारत ने मानव तस्करी रोकने के लिए कई अंतरराष्ट्रीय संधियों को मंजूरी दी है। इनमें संयुक्त राष्ट्र ट्रांसनेशनल संगठित अपराध संधि और महिलाओं और बच्चों की तस्करी से जुडी दक्षेस संधि जैसे समझौते शामिल हैं। इसके अलावा बांग्लादेश के साथ द्विपक्षीय समझौता है। इसके बावजूद बांग्लादेश और नेपाल से लगी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर मानव तस्करी जोरों पर होती है। बांग्लादेश और नेपाल से सीमा पार मानव तस्करी में संगठित गिरोह शामिल हैं, लेकिन सफल जांच और मुकदमे के शायद ही ऐसे कोई मामले हों, जो अपराधियों के मन में भय पैदा करते हों। कई बार यह देखा गया है कि मानव तस्करी से निपटने के लिए सीमा रक्षक बलों, राष्ट्रीय महिला आयोग, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसे आयोगों तथा राज्य की कानून प्रवर्तन एजेंसियों के बीच त्वरित समन्वय और सक्रियता की भी भारी कमी है। जब तक  तस्कर पीड़ित मासूमों को अपने परिवार का सदस्य समय कर मानव तस्करों के खिलाफ कार्य करने वाली सरकारी एजेंसियां सक्रिय होकर कार्य नहीं करेंगी, देश में इस काले अमावीय धंधे का थोक बाजार फलता फूलता रहेगा। 
लेखक : संजय स्वदेश फ़ोन नम्बर :09691578252 

रविवार, जून 22, 2014

धर्म, आस्तिकता और नास्तिकता पर पाखंड का साया : बी.पी. गौतम

  • आलेख में प्रकाशित सामग्री  पर लेखक का सर्वाधिकार है. ब्लाग स्वामी  

ईश्वर और धर्म के विषय में अधिकतम ज्ञान अर्जित करने की दिशा में असंख्य
लोग स्वाभाविक ही जुटे रहते हैं। जब, जहां और जैसे अवसर मिलता है, वैसे
स्वयं को सतुंष्ट करने के प्रयास करते रहते हैं। मनुष्य की इसी स्वाभाविक
इच्छा का धूर्त और शातिर किस्म के लोग दुरुपयोग कर रहे हैं। धूर्त और
शातिर किस्म के लोगों ने ईश्वर और धर्म को धंधा बना लिया है, जिससे लोग
द्वंद से निकलने की जगह और गहरे में फंसते जा रहे हैं।
बचपन में एक कहानी सुनी थी, जिसमें बताया गया था कि एक गांव में चार अंधे
रहते थे। उस गांव में एक बार हाथी आया। चारों अंधों ने हाथी को छूने की
उत्सुकता व्यक्त की, तो महावत ने हाथी को छूकर अनुभूति करने की अंधों को
अनुमति दे दी। इसके बाद चारों अंधे अपने अनुभवों को आपस में बांटने लगे।
हाथी का पैर छूने वाले अंधे ने कहा कि हाथी एक खंबे जैसा होता है। हाथी
के पेट पर हाथ घुमाने वाले अंधे ने कहा कि हाथी ढोल की तरह होता है। कान
पकड़ने वाला अँधा उन दोनों को मूर्ख बताते हुए बोला कि हाथी सूप की तरह
होता है और पूँछ पकड़ने वाला चौथा अँधा तीनों के अनुभवों पर हंसता हुआ
बोला कि हाथी झाड़ू की तरह होता है, ऐसा ही कुछ धर्म के साथ हो रहा है।
वास्तव में धर्म क्या है, यह अधिकांशतः न कोई बता पा रहा है और न ही कोई
समझ पा रहा है, इसीलिए धर्म की जगह पाखंड लेता जा रहा है, जिसके
दुष्परिणाम लगातार सामने आ रहे हैं। धर्म के प्रति अज्ञानता और अनभिज्ञता
से ही पाखंड को बढ़ावा मिल रहा है, इसलिए धर्म का ज्ञान ही पाखंड से निजात
दिला सकता है।
व्याकरण की दृष्टि से धर्म शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की धृधातु से हुई
है, जिसका अर्थ है स्वभावत: धारण करना। अब प्रश्न उठता है कि धर्म का
कार्य क्या है, तो अभ्युदय (लौकिक) और नि:श्रेयस (पारलौकिक) उन्नति करना
ही धर्म का कार्य है। अधोगति में जाने से रोकना ही धर्म का मूल कार्य है।
सत, रज और तम में संतुलन बनाये रखने की प्रेरणा देने वाला भी धर्म ही है।
उदाहरण स्वरूप बात हिन्दू धर्म की करते हैं, तो सब से पहले यह जानना
आवश्यक है कि हिन्दू कोई धर्म नहीं है। मूल नाम सनातन धर्म है, जिसे बाद
में वैदिक और अब हिन्दू धर्म कहने लगे हैं। हिन्दू और हिंदुस्तान शब्द की
उत्पत्ति के संबंध में विचार है कि भारतवर्ष को प्राचीन ऋषियों ने
"हिन्दुस्थान" नाम दिया था, जिसका अपभ्रंश ही "हिन्दुस्तान" है।
"बृहस्पति आगम" में लिखा है कि हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्।
तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।अर्थात, हिमालय से
प्रारम्भ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश
हिन्दुस्थान कहलाता है।
"हिन्दू" शब्द "सिन्धु" से भी बना माना जाता है। संस्कृत में सिन्धु शब्द
के दो अर्थ हैं। इसके अलावा हिमालय के प्रथम अक्षर "हि" और इन्दु का
अन्तिम अक्षर "न्दु" से मिल कर "हिन्दु" शब्द बना और यह भू-भाग
हिन्दुस्थान कहलाया। नाम जैसे भी पड़ा, पर हिन्दू शब्द प्रचलन में आने के
बाद सनातन का पर्याय हिन्दू ही बनते चले गए, जबकि बौद्ध और जैन आदि भी
सनातनी ही हैं। व्याकरण में सनातन का अर्थ होता है शाश्वतअर्थात्,
जिसका न आदि है और न अन्त। सनातनी साहित्य और सनातनी विद्वान किसी
सिद्धान्त को निरस्त नहीं करते, वे सभी को बराबर की मान्यता देते हैं।
स्वयं एकेश्वरवादी होते हैं, पर अन्य वादों को भी मान्यता देते हैं,
क्योंकि सनातन व्यवस्था उत्कृष्ट और आदर्श जीवन जीने की एक पद्धति है।
मूल विषय पर आते हैं। धर्म का अर्थ है स्वभावत: धारण करना और सनातन का
अर्थ है शाश्वत, अर्थात विचार, सिद्धान्त, नियम आदि को जीवन में प्रमुख
स्थान देना मनुष्य का स्वभाव है और जो स्वभाव से धारण हो जाये, साथ ही
मनुष्य स्वभाव से ही धारण कर ले, वो धर्म है। इसी तरह जिसका न आदि है और
न अंत है, जो स्वाभाविक है, उसे धारण कर ले, वो सनातनी है। जिसे धारण
कराया जाये, वो सनातनी नहीं हो सकता। मनुष्य का मूल स्वभाव अहिंसक है,
लेकिन कोई हिंसक है, तो वह मनुष्यता के विपरीत है, अर्थात सनातन व्यवस्था
के भी विपरीत है।
सनातनीयों की मान्यता है कि ईश्वर एक है और वह सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापी
है, लेकिन वे सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार और आस्तिकता-नास्तिकता को भी
निरस्त नहीं करते। गीता में ही कहा गया है कि 'यदि तू प्रभु के लिए कर्म
करने के परायण होने में असमर्थ है, अर्थात प्रभु को नहीं मानता, तो भी
कोई बात नहीं, तू स्वयं की इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर और आनंद ले।
आशय यह है कि मूल धर्म नहीं, बल्कि कर्म है। किसी धर्मज्ञ के व्यवहार और
कर्म में धर्म नहीं हैं, तो नीच है, अधर्मी है, पापी है, अपराधी है,
लेकिन कोई धर्म के मर्म को जानता तक न हो, पर उसके कर्म देश, समाज,
प्रकृति और प्रत्येक जीव के कल्याण में हों, तो वह स्वयं में धर्मज्ञ ही
हुआ। कुल मिला कर पूजा पद्धति धर्म नहीं है। धर्म और कर्म का आपस में
अटूट रिश्ता है, अर्थात जो धार्मिक है, वह सदकर्म भी करेगा और सदकर्म
करता है, वह धार्मिक भी होगा, लेकिन धर्म और उसका आशय समझाने की जगह
लोगों को और उलझाया जा रहा है, क्योंकि लोगों को धर्म की सही जानकारी हो
गई, तो धर्म के नाम पर धंधा करने वाले लोगों का धंधा बंद हो जायेगा।
धर्म के नाम पर व्यापार करने वाले स्वयं भी धार्मिक नहीं हैं, तभी उनके
कुकर्म आये दिन सामने आते रहते हैं, इसलिए लोगों का विश्वास धर्म से ही
उठता जा रहा है। धर्म से विश्वास उठने का अर्थ है कर्म से भी विश्वास
उठना। लोगों का कर्म से विश्वास उठेगा, तो अनैतिकता, अव्यवहारिकता,
अकर्मण्यता, कठोरता आदि को ही बढ़ावा मिलेगा, लेकिन लोगों को सही मार्ग
दिखाने वालों की संख्या बहुत कम है, इसलिए धर्म के नाम पर पाखंड से धोखा
खा चुके लोग आसानी से अधर्म की शरण में चले जाते हैं, अर्थात नास्तिक हो
जाते हैं, जबकि यही हाल नास्तिकता का है। जैसे धर्म के नाम पर लोग
व्यापार कर रहे हैं, वैसे ही लोग अधर्म के नाम पर भी व्यापार करने लगे
हैं।
कथित धार्मिक लोगों के इतने किस्से सामने आ चुके हैं कि उन पर एक बहुत
मोटी किताब लिखी जा सकती है। कहीं पद को लेकर हत्या के किस्से हैं, तो
कहीं आश्रम को लेकर संघर्ष हो रहे हैं। इतना सब रहता, तो भी ठीक था, धर्म
का भय दिखा कर पाखंडी नाबालिग लड़कियों तक को अपनी हवस का शिकार बना रहे
हैं, इसी तरह की कहानियाँ नास्तिक ठेकेदारों की भी हैं। वृन्दावन में एक
प्रसिद्ध कथावाचक थे। उनका धर्मावलम्बियों में बड़ा सम्मान था। उनके तीन
पुत्र हैं। अपने जीवन काल में ही उन्होंने अपने पुत्रों को भी कथा सुनाने
का अभ्यास कराना शुरू कर दिया। आयु पूर्ण होने पर एक दिन वह शरीर छोड़
गये, जिसके बाद उनके बड़े पुत्र ने पिता के कार्य को अपना लिया, पर न
ज्ञान था और न ही श्रोताओं को सुनाने का तरीका अच्छा लगा, जिससे पिता के
नाम पर एक-दो बार लोगों ने आयोजन कराया और फिर भूल गये। दूसरे बेटे ने भी
प्रयास किया, पर उसका परिणाम भी बड़े बेटे जैसा ही आया। चूंकि पिता
सेवाभाव से कथा सुनाते थे और बेटे पहले ही दिन से धंधे के रूप में कथा
सुनाने आये, इसलिए लोगों को रुचिकर न लगना स्वाभाविक था, साथ ही धार्मिक
ग्रंथों का अध्ययन न होने के कारण लोगों को ज्ञान के रूप में भी कुछ नहीं
मिल रहा था, जिससे धंधा नहीं चला, इस घटना से दोनों भाई धर्म और ईश्वर के
विरुद्ध हो गये, अर्थात नास्तिक हो गए और नास्तिकता के नाम पर धंधा शुरू
कर दिया। यहाँ ध्यान देने की विशेष बात यह है कि उनका पैतृक धंधा उनकी
अज्ञानता के कारण फलीभूत नहीं हुआ, पर ईश्वर और ईश्वरवादियों से घृणा
करने लगे।
एक भाई ने सोशल साइट्स पर विज्ञापन देकर थोड़ी बहुत ख्याति अर्जित कर ली
और धंधा चल पड़ा। धर्म के प्रति लोगों को भड़काने में किसी तरह के विशेष
ज्ञान की जरूरत भी नहीं है, जिससे परिश्रम विहीन यह धंधा उसे रास आ गया।
सोशल साइट्स ने ख्याति देश के बाहर तक पहुंचा दी। चूंकि पाखंड से चोट
खाये लोग दुनिया भर में हैं, उन्हीं में से किसी एक जर्मन ने जर्मनी में
सेंटर खोलने में मदद कर दी। सेंटर खुलने के पश्चात सवाल यह था कि अब क्या
किया जाए, तो इस व्यक्ति ने वहाँ योग सिखाने के लिए एक लड़का रख दिया और
चालीस यूरो प्रति व्यक्ति वसूलने लगा। कुछ ही समय में धन वर्षा होने लगी,
तो वहाँ एकाउंट आदि की व्यवस्था देखने के लिए ऐसे जानकार की आवश्यकता
महसूस हुई, जिसे जर्मन और इंग्लिश का अच्छा ज्ञान हो। एक लड़की आसानी से
मिल गई, जिसे कुछ ही दिनों में उस व्यक्ति ने प्रेमिका और फिर पत्नी बना
लिया।
धर्म के नाम पर धंधा करने वाले लड़कियों को रख कर उनसे शारीरिक संबंध
इसलिए बनाते हैं कि वे उनके प्रति पूरी तरह वफादार रहें और देखभाल मन से
करें। दुनिया भर की स्त्री भावुक होती है, इसलिए रिश्ते और प्रेम के
मुददे पर शातिर लोगों के षड्यंत्र में आसानी से फंस जाती है। कुल मिला कर
जो सब धर्म के नाम पर हो रहा था, वही सब अधर्म के नाम पर भी हो रहा है। न
आस्तिकता कुछ बदल पाई और न नास्तिकता। इस व्यक्ति पर विदेशी लड़कियों को
लाकर उनसे धंधा कराने के भी आरोप लगते रहे हैं। धार्मिक मठाधीशों की तरह
ही इसके आश्रम पर भी पुलिस छापा मार चुकी है, पर धार्मिक मठाधीशों की तरह
ही इस अधार्मिक मठाधीश के भी उच्च्स्तरीय राजनैतिक संबंध बताए जाते हैं,
जिससे यह कार्रवाई से बचा हुआ है।अब जर्मन पत्नी का चेहरा दिखा कर विदेशियों को आसानी से लुभा लेता है।
वृन्दावन में भी योग सेंटर चलाता है और फीस यूरो व डॉलर के रूप में वसूल करता है। विदेशियों को और अधिक प्रभावित करने के लिए बीस-पच्चीस बच्चे
जमा कर एक स्कूल खोल रखा है, जिसके नाम पर दोनों भाई मिल कर खुद की जमकर
ब्रांडिंग करते हैं।खैर, मनुष्यों में शातिर किस्म के ऐसे लोग हर क्षेत्र में मिल जायेंगे।
धर्म, अधर्म, राजनीति, व्यापार, पत्रकारिता, देशभक्ति सहित कोई भी
क्षेत्र क्यूँ न हो, इनके लिए हर क्षेत्र पैसे पैदा करने का एक माध्यम भर
है और ऐसे लोगों की संख्या बढ़ने के कारण ही हर क्षेत्र में परिणाम
अपेक्षा के विपरीत आने लगे हैं, आवश्यकता ऐसे लोगों से ही सतर्क रहने की
है। यह सब उदाहरण स्वरूप देना इसलिए आवश्यक था कि आस्तिकता से तंग आ चुके
लोग यह समझ सकें कि नास्तिकता के भी हाल कोई बहुत अच्छे नहीं हैं। जैसे
लोग आस्तिकता के नाम पर लोगों को मूर्ख बना रहे हैं, वैसे ही नास्तिकता
के नाम पर भी मूर्ख बनाने वालों की कमी नहीं हैं, इसलिए धर्म को स्वयं
जानें। अब बात नास्तिकता की करते हैं, तो सनातनी नास्तिक विचारधारा को निरस्त
नहीं करते, पर नास्तिक लोग आस्तिक विचारधारा को नहीं मानते, इसलिए सवाल
उठता है कि जो विचार, जो सिद्धान्त, जो वस्तु, जो स्वरूप कल्पना में ही
नहीं है, उस पर चर्चा कैसे की जा सकती है, अर्थात जब नास्तिकों का मानना
है कि ईश्वर है ही नहीं और जब एक विचार है ही नहीं, तो उसे निरस्त कैसे
किया जा सकता है? निरस्त करने का आशय है कि ईश्वर है, जिसे सिर्फ नास्तिक
नहीं मानते हैं, पर मूल सवाल आस्तिकता या नास्तिकता नहीं हैं। मूल सवाल
है धर्म, इसलिए प्रश्न यह है कि ऐसा कौन सा सदकर्म है, जिसे सिर्फ
नास्तिक लोग ही कर सकते हैं, आस्तिक नहीं कर सकते। धर्म का सीधा संबंध
कर्म से है, अर्थात जो धार्मिक है, वो सदकर्म भी करता होगा और सदकर्म
करता है, वह धार्मिक भी होगा। धार्मिक होने का अर्थ माथे पर तिलक लगाना,
कोई विशेष वस्त्र पहनना अथवा पूजा पद्धति से बिल्कुल नहीं है, इस सब से
धर्म को जोड़ दिया गया है, जिसे पाखंड कहते हैं। सनातनी व्यवस्था में विवाद, आलोचना और समस्या की मूल जड़ धर्म नहीं है। बहुत सी चीजों को धर्म से जोड़ दिया गया है, उन चीजों पर विवाद है, इसलिए विवाद धर्म से जुड़ जाता है। धर्म आदर्श नागरिक बनाता है, तो आदर्श बनाने पर क्या विवाद हो सकता है। असलियत में हिंदुओं के पास दो तरह का साहित्य है। एक को श्रुति कहते हैं, जिसके बारे में मान्यता है कि यह देववाणी है,
जिसे सुन कर ऋषियों ने मानव कल्याण के लिए लिपिबद्ध किया। दूसरा साहित्य
है स्मृति, इसके बारे में मान्यता है कि एक-दूसरे की स्मृति से आगे बढ़ा
और स्मृति के आधार पर ही लिपिबद्ध कर दिया गया। विवाद और आलोचना के
केंद्र में स्मृति वाला साहित्य ही है, पर यहाँ विशेष ध्यान देने की बात यह है कि यह साहित्य धर्म नहीं है। देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार नियम-कानून परिवर्तित होते रहते हैं, इस साहित्य को वैसे ही मानना चाहिए। कुल मिला कर व्यक्ति जिस देश की सीमा में रहता है, उस देश के नियम-कानून मानना भी धर्म ही है। विवाद और आलोचना पर ध्यान देने वाला धार्मिक हो ही नहीं सकता। लौकिक और पार-लौकिक उन्नति कराने वाला धर्म और करने वाला धार्मिक है। धर्म के विषय में प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन की एक सटीक टिप्पणी है कि विज्ञान मनुष्य को अपरिमित शक्ति तो दे सकता है, पर वह
उसकी बुद्धि को नियंत्रित करने की साम‌र्थ्य नहीं प्रदान कर सकता। मनुष्य
की बुद्धि को नियंत्रित करने और उसे सही दिशा में प्रयुक्त करने की शक्ति
तो धर्म ही दे सकता है।
वृन्दावन में भी योग सेंटर चलाता है और फीस यूरो व डॉलर के रूप में वसूल करता है। विदेशियों को और अधिक प्रभावित करने के लिए बीस-पच्चीस बच्चे
जमा कर एक स्कूल खोल रखा हैजिसके नाम पर दोनों भाई मिल कर खुद की जमकर
ब्रांडिंग करते हैं।खैरमनुष्यों में शातिर किस्म के ऐसे लोग हर क्षेत्र में मिल जायेंगे।
धर्मअधर्मराजनीतिव्यापारपत्रकारितादेशभक्ति सहित कोई भी
क्षेत्र क्यूँ न होइनके लिए हर क्षेत्र पैसे पैदा करने का एक माध्यम भर
है और ऐसे लोगों की संख्या बढ़ने के कारण ही हर क्षेत्र में परिणाम
अपेक्षा के विपरीत आने लगे हैंआवश्यकता ऐसे लोगों से ही सतर्क रहने की
है। यह सब उदाहरण स्वरूप देना इसलिए आवश्यक था कि आस्तिकता से तंग आ चुके
लोग यह समझ सकें कि नास्तिकता के भी हाल कोई बहुत अच्छे नहीं हैं। जैसे
लोग आस्तिकता के नाम पर लोगों को मूर्ख बना रहे हैंवैसे ही नास्तिकता
के नाम पर भी मूर्ख बनाने वालों की कमी नहीं हैंइसलिए धर्म को स्वयं
जानें। अब बात नास्तिकता की करते हैंतो सनातनी नास्तिक विचारधारा को निरस्त
नहीं करतेपर नास्तिक लोग आस्तिक विचारधारा को नहीं मानतेइसलिए सवाल
उठता है कि जो विचारजो सिद्धान्तजो वस्तुजो स्वरूप कल्पना में ही
नहीं हैउस पर चर्चा कैसे की जा सकती हैअर्थात जब नास्तिकों का मानना
है कि ईश्वर है ही नहीं और जब एक विचार है ही नहींतो उसे निरस्त कैसे
किया जा सकता हैनिरस्त करने का आशय है कि ईश्वर हैजिसे सिर्फ नास्तिक
नहीं मानते हैंपर मूल सवाल आस्तिकता या नास्तिकता नहीं हैं। मूल सवाल
है धर्मइसलिए प्रश्न यह है कि ऐसा कौन सा सदकर्म हैजिसे सिर्फ
नास्तिक लोग ही कर सकते हैंआस्तिक नहीं कर सकते। धर्म का सीधा संबंध
कर्म से हैअर्थात जो धार्मिक हैवो सदकर्म भी करता होगा और सदकर्म
करता हैवह धार्मिक भी होगा। धार्मिक होने का अर्थ माथे पर तिलक लगाना,
कोई विशेष वस्त्र पहनना अथवा पूजा पद्धति से बिल्कुल नहीं हैइस सब से
धर्म को जोड़ दिया गया हैजिसे पाखंड कहते हैं। सनातनी व्यवस्था में विवादआलोचना और समस्या की मूल जड़ धर्म नहीं है। बहुत सी चीजों को धर्म से जोड़ दिया गया हैउन चीजों पर विवाद हैइसलिए विवाद धर्म से जुड़ जाता है। धर्म आदर्श नागरिक बनाता हैतो आदर्श बनाने पर क्या विवाद हो सकता है। असलियत में हिंदुओं के पास दो तरह का साहित्य है। एक को श्रुति कहते हैंजिसके बारे में मान्यता है कि यह देववाणी है,
जिसे सुन कर ऋषियों ने मानव कल्याण के लिए लिपिबद्ध किया। दूसरा साहित्य
है स्मृतिइसके बारे में मान्यता है कि एक-दूसरे की स्मृति से आगे बढ़ा
और स्मृति के आधार पर ही लिपिबद्ध कर दिया गया। विवाद और आलोचना के
केंद्र में स्मृति वाला साहित्य ही हैपर यहाँ विशेष ध्यान देने की बात यह है कि यह साहित्य धर्म नहीं है। देशकाल और परिस्थितियों के अनुसार नियम-कानून परिवर्तित होते रहते हैंइस साहित्य को वैसे ही मानना चाहिए। कुल मिला कर व्यक्ति जिस देश की सीमा में रहता हैउस देश के नियम-कानून मानना भी धर्म ही है। विवाद और आलोचना पर ध्यान देने वाला धार्मिक हो ही नहीं सकता। लौकिक और पार-लौकिक उन्नति कराने वाला धर्म और करने वाला धार्मिक है। धर्म के विषय में प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन की एक सटीक टिप्पणी है कि “विज्ञान मनुष्य को अपरिमित शक्ति तो दे सकता हैपर वह
उसकी बुद्धि को नियंत्रित करने की साम‌र्थ्य नहीं प्रदान कर सकता। मनुष्य
की बुद्धि को नियंत्रित करने और उसे सही दिशा में प्रयुक्त करने की शक्ति
तो धर्म ही दे सकता है।



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