20.2.11

प्रवासी हिंदी साहित्य : कुछ प्रश्नों के उत्तर (अभिव्यक्ति की संपादक पूर्णिमा वर्मन का वक्तव्य)


                       मिसफ़िट पर  पिछली पोस्ट में एक ब्लागर (शायद-साहित्यकार नहीं) के द्वारा  घोषित वाक्य से मुझे बेहद हैरानी थी  हैरानी इस लिये कि कुछ लोग बेवज़ह ही लाइम लाईट में बने रहने के लिये उलजलूल बातें किया करते हैं. हालिया दौर में ऐसे लोगों की ओर से कोशिश रही  है कि किसी न किसी रूप में सनसनीखेज बयान/आलेख पेश कर हलचल पैदा की जाए. कुछ इसी तरह के सवाल  प्रवासी साहित्य के विषय में हमेशा से बहुत से प्रश्न उठाए जाते रहे हैं। हाल ही में यमुना नगर में आयोजित एक सेमीनार में अभिव्यक्ति की संपादक पूर्णिमा वर्मन ने इनके उत्तर देने की कोशिश की है  उनका वक्तव्य यहाँ जस का तस  प्रकाशित किया जा रहा है.
 प्रवासी हिंदी साहित्य : कुछ प्रश्नों के उत्तर
यमुना नगर में आयोजित सेमीनार में अभिव्यक्ति की संपादक पूर्णिमा वर्मन का वक्तव्य

नमस्कार-
आज के इस सत्र में अनेक प्रवासी लेखकों की अनेक कहानियों पर चर्चा सुनकर कल उपजा बहुत सी निराशा का बादल तो छँट गया। जानकर अच्छा लगा कि इतने सारे लोग प्रवासी कहानियाँ पढ़ते हैं और अधिकार से उनके संबंध में कुछ कहने की सामर्थ्य रखते हैं।
कल के अनेक सत्रों में विदेशी हिंदी लेखन के संबंध में कुछ प्रश्न उठाए गए थे। जिनके उत्तर मैंने इस लेख में देने की कोशिश की है।

·         विदेशों में रहने वाले ऐसा क्या रच रहे हैं जिसे इतना विशेष समझा जाए
प्रवासी कहानी हिंदी के अंतर्राष्ट्रीयकरण का सबसे मजबूत रास्ता है। हिंदी साहित्य का एक रास्ता विश्वविद्यालयों से होकर गुजरता है जो अध्ययन और गंभीर किस्म का है, जिसे सब लोग नहीं अपनाते हैं। दूसरा रास्ता फिल्मों से होकर गुजरता है जो अक्सर सस्ता और हवा हवाई समझा जाता है, जिसके लिये यह भी समझा जाता है कि वह समाज की सही तस्वीर नहीं प्रस्तुत करता।  प्रवासी हिंदी कहानी का रास्ता इन दोनो के बीच का मज्झिम निकाय है जो समांतर फ़िल्मों और सुगम संगीत की तरह हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय करण का रास्ता बना रहा है। इसमें विदेशों में बसे भारतीयों और हिंदी पढ़ने वाले विदेशियों को वह अपनापन मिलता है जो अन्यत्र दुर्लभ है।
·         उनका शिल्प इतना बिखरा हुआ क्यों है?
प्रवासी कहानी का शिल्प अपना अलग शिल्प है। वह हिंदी कहानियाँ पढ़ पढ़कर विकसित नहीं हुआ है। वह अपने अनुभवों अपनी अपनी अपनी भाषाओं और अपनी अपनी परिस्थितियों से पैदा हुआ है। इसलिये वह बहुत से लोगों को वह अजीब लगता है। वह अजीब इसलिये भी है कि वह नया है इसलिये वेब पर हिंदी पढ़नेवालों को खूब लुभाता भी है। बहुत सी चीजें जो शुरू में अजीब लगती हैं बाद में वही लोग उन्हें शौक से अपनाते हैं, जो प्रारंभ में उनकी आलोचना करते थे। प्रवासी कहनियों के संबंध में भी यह सच होने वाला है।
·         उनके कथानक इतने अजीब क्यों हैं
प्रवासी लेखकों की कहानियों के कथानक अजीब नहीं है, वे अलग है, उनकी सोचने का तरीका, उनका परिवेश, उनका रहन सहन, बहुत सी बातों में आम भारतीय से अलग है। उनका यह अलगपन उनकी कहानियों में भी उभरकर कर आता है। यह प्रवासी कथाकारों की कमजोरी नहीं शक्ति है। तभी तो सामान्य अंतर्राष्ट्रीय पाठक इनके देश, परिस्थितियों, संवेदनाओं और परिणामों से अपने को सहजता से जोड़ लेते हैं। इतनी सहजता से जितनी सहजता से वह भारत की हिंदी कहानी से भी खुद को नहीं जोड़ सकते।
·         वह भारतीय साहित्य की बराबरी नहीं कर सकता
प्रवासी कहानियों के संबंध में यह कहा जाता है कि वे भारतीय सहित्य की बराबरी नहीं कर सकती। यह बात बिलकुल सही है। न तो भारतीय कहानी प्रवासी कहानी की बराबरी कर सकती है न ही प्रवासी कहानी भारतीय कहानी की। दोनो के अपने अपने क्षेत्र हैं और दोनों अपने क्षेत्र में विशेष स्थान रखती हैं। काल स्थान और परिस्थिति के अनुसार साहित्य का अपना महत्तव होता है। जब प्रवासी कथाकार किसी विदेशी गली का वर्णन कर रहा होता है तो वह गली उसकी संवेदनाओं में बस कर कलम से गुजरती है। जब कि पर्यटक उस गली से बहुत कुछ देखे समझे बिना निकल जाता है। अनेक बार प्रवासी कहानी की समीक्षा करने वाले भारतीय आलोचक प्रवासी साहित्य को पर्यटक की दृष्टि से देखते हैं और एक दूसरे पर वार करने की मुद्रा में रहते हैं। जबकि जरूरत इस बात की है कि हम एक दूसरे के मार्ग दर्शक बनें और उन्हें अपनी अपनी गलियों की सैर कराएँ और हिंदी कहानी के विस्तार में नए आयाम जोड़ें।
·         उसकी घटनाएँ दिल को नहीं छूतीं
यह तो स्वाभाविक ही है। जिन परिस्थितियों से भारतीय लेखक या पाठक नहीं गुजरा उसको प्रवासी कहानी की घटनाएँ नहीं छुएँगी। ठीक उसी तरह जैसे भारतीय कहानियों की बहुत सी घटनाएँ प्रवासी या विदेशी पाठकों के मन को नहीं छूतीं या उन्हें अजीब लगती हैं। अंतर्राष्ट्रीयकरण के इस दौर में अपना सा न लगना बहुत जल्दी दूर हो जाने वाला है। व्यापार और मीडिया ने मोटी मोटी सब बातों का तो वैश्वीकरण कर दिया है। लेकिन संवेदनाओं रिश्तों और सोच का वैसा वैश्वीकरण नहीं हुआ है। इसमें समय लगेगा। पिछले दस सालों में जिस तरह पिजा सबको अपना लगने लगा है, प्रवासी कहानी भी भारतीय संवेदना के स्तर पर सबको छूने लगेगी।
·         उनकी भाषा बनावटी है
प्रवासी कहानी की भाषा बनावटी होने के बहुत से कारण है। प्रवासी लेखक भाषा के एक गंभीर संकट से गुजरता है। जिन घटनाओं और परिस्थितियों से वह गुजरता है उन्हें हिंदी में कैसे व्यक्त किया जाय वह विश्लेषण की एक गंभीर समस्या होती है। भारतीय लेखक के लिये यह अपेक्षाकृत आसान है। गाँव की परिस्थिति है तो वैसी भाषा का प्रयोग कर लिया, शहर की परिस्थिति है तो अंग्रेजी का तड़का मार दिया, बंगाली, पंजाबी, मराठी सब भाषाओं का प्रयोग हिंदी में किया जा सकता है और पाठक उसको सहजता से समझ भी लेते हैं।
लेकिन अगर सभी काम हिंदी से इतर भाषाओं में हो रहे हैं तब उसको कैसे व्यक्त किया जाय कि वातावरण बन जाए और जो कहा गया है उसका ठीक से रूपांतर हिंदी में हो जाए वह काफी मुश्किल है। यह काम और भी मुश्किल हो जाता है अगर लेखक अंग्रेजी भाषी देशों में नहीं रहता है। अनेक संवादों घटनाओं परिस्थितियों में प्रयुक्त भाषा को हिंदी में रूपांतरित करना आसान नहीं है। वह इस ऊहापोह के घने द्वंद्व से गुजरता है कि अपने देश की भाषा का प्रयोग कहाँ करे कितना करे, किस तरह करे।
हिंदी को अगर अंतर्राष्ट्रीय होना है तो उसे एक सामान्य हिंदी विकसित करने और उसमें लिखने की आवश्यकता है, जिसमें गाँव, प्रांत या अंग्रेजी जैसी भाषा का प्रयोग बहुत ही कम हो। अभिव्यक्ति के साथ पिछले 10-15 वर्षो से वेब पर रहते हुए मैंने जाना है कि अभिव्यक्ति के लगभग 30 प्रतिशत पाठक चीन, कोरिया, जापान और सुदूर पूर्व इंडोनेशिया तथा पूर्वी योरोप के देशों में बसते है जो अँग्रेजी नहीं जानते हैं। इसलिये जिस प्रकार भारत में हिंदी कहानी में अंग्रेजी स्वीकृत हो जाती है अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नहीं होती है। विषय, कथानक, परिस्थितियाँ, भाषा, शैली के वे बहुत से घटक है जो भारत में आसानी से स्वीकृत हो सकते हैं लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार नहीं किये जाते।
इन सब कठिनाइयों से छनकर जो साहित्य आज विद्शी या प्रवासी कहानी के रूप में आ रहा है उसका सबसे बड़ा संग्रह अभिव्यक्ति पत्रिका में है जहाँ 50 कथाकारों के 130 कहानी संग्रहीत है। इसी प्रकार अनुभूति में 105 कवियों की 1000 से अधिक कविताओं का संग्रह है।
कहा जाता है कि भारत में इंगलैंड की कुल जनसंख्या से ज्यादा कंप्यूटर (नेट कनेक्शन) हैं। आशा है जब हम अगली बार मिलेंगे तब सेमीनार के भागीदार बार बार उन्हीं 10 लेखकों की 25 कहानियों के विषय में बात नहीं करेंगे। कम से कम 50 लेखकों की 100 कहानियों के विषय में बात करेंगे। ताकि सबको ठीक से पता चल जाए कि भारत में इंगलैंड की कुल जनसंख्या से ज्यादा कंप्यूटर (नेट कनेक्शन) हैं।
एक अंतिम प्रश्न
सारे हिंदी साहित्य में प्रवासी कहानी का स्थान कहाँ है
·         हिंदी कहानी के रास्ते हिंदी भाषा तथा भारतीय साहित्य और संस्कृति की अंतर्राष्ट्रीय लोकप्रियता बढ़ाने के लिये प्रवासी हिंदी कहानी का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है।
·         अंतर्राष्ट्रीय पाठक की रुचि और समझ की हिंदी कहानी को समझदारी के साथ प्रस्तुत करना आज की बड़ी आवश्यकताओं में से एक है। अभिव्यक्ति द्वारा हम वेब पर यह काम सफलता पूर्वक कर रहे हैं।
·         हिंदी साहित्य को विश्व के कोने कोने में पहुँचाने और विश्व का कोना कोना हिंदी साहित्य में लाने का महत्वपूर्ण काम केवल प्रवासी साहित्य ही नेट के जरिये कर सकता है।
                                                                                  धन्यवाद!

16 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

पूर्णिमा जी का सारगर्भित आलेख ... बहुत सी बातों को स्पष्ट करने का प्रयास ... बहुत अछा लगा ...
प्रवासी होने के नाते में भी इतना ही कहूँगा की हिंदी साहित्य प्रवासी नही है .. लेखक का परिवेश बदल सकता है पर उसके सोचने और भावनाओं को अभिव्यक्त करने की क्षमता वाही रहती है जो एक भारतीय की होती है ...

श्रद्धा जैन ने कहा…

Purnima ji ka ye aalekh aur jawaab padh kar bahut achcha laga.. unhone pravasi logon ki bhavnaayen aur pareshaaniyan aur unki soch ki vividhta ko bahut achche se bataya hai

मनीष सेठ ने कहा…

pravasi hindi sahity ko protsahan dena chahiye.alochana se sudhar ki gunjayeash bani rahti hai.purnimaji ka sadar aabhar.

girish pankaj ने कहा…

पूर्णिमा जी के विचार काफी सुलझे हुए है. रहते ही हैं वे खुद सुलझी हुई जो है. इस समय में कुछ गिनी-चुनी भारतीय विदुषियों में टॉप पर है. उनके विचारों को सबके सामने लाने के लिए धन्यवाद...

निर्झर'नीर ने कहा…

purnima ji or pravasi hindi sahitya ko shubhkamnayen

Udan Tashtari ने कहा…

अच्छा लगा विचार जानकर.

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

पूर्णिमा जी के सारगर्भित विचारों को सबके सामने लाने के लिए धन्यवाद...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

पूर्णिमा वर्मन जी के लेख को पढ़कर तो भ्रांतियों का निवारण हो गया होगा।
यदि नहीं तो इसका मीनिया कोई इलाज नहीं है।

Darshan Lal Baweja ने कहा…

पूर्णिमा जी के सारगर्भित विचारों को सबके सामने लाने के लिए धन्यवाद...
यमुना नगर में चूक गए आप से मिलने से ..

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

प्रवासी कहा‍नीकारों के रचनात्‍मक फलसफे को बयां करता सार्थक साक्षात्‍कार।
---------
ब्‍लॉगवाणी: ब्‍लॉग समीक्षा का एक विनम्र प्रयास।

kavita verma ने कहा…

poornima ji bhartiya aur apravasi sahitya ka bahut sunder aur sateek vishleshan kiya hai...is jankari ke bas dono sahitya ke beech ki dooriyan kam hokar dono sahityon ko naye nazariye dekhane ki prakriti vikasit hogi..

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

poornima ji ke sakshatkarswarooop jo baaten ubharkar samne aati hain unse yah spasht hai ki pravasi bhartiyon ka rachnadharm hindi sahity ko kisi na kisi roop me samriddh avashy kar raha hai.
aabhar !

अजय कुमार झा ने कहा…

बहुत ही खूब और बिल्कुल स्पष्ट . खरा हुआ और तपा हुआ । एक एक शब्द नपातुला और संतुलित ..और अकाट्य भी । प्रवासी साहित्य का योगदान किसी भी तरह से कमतर नहीं आंका जा सकता और न ही उसके योगदान को दरकिनार किया जा सकता है । शुभकामनाएं ।

Sushil Bakliwal ने कहा…

प्रवासी भारतीयों को हिन्दी भाषा को अन्तरर्राष्ट्रीय स्तर पर अभिव्यक्त करने की राह में आती व्यवहारिक कठिनाईयों का हमें विस्तृत ज्ञान करवाती जानकारी । उम्मीद है ये कठिनाईयां दिन-ब-बिन कम होती जा सकेंगी । शुभकामनाएँ...

Unknown ने कहा…

Main ek pravasi bhartiya hu, Hindi bhasi hu aur Hindi Bhasa se bahut hi pyar karti hu. Purnima ji ki ye lekh padkar mujhe bahut hi achcha laga. jo unhone pravasi sahitya ke bare me likha hai.
Shubhkamnay apko.

पूर्णिमा वर्मन ने कहा…

सभी लोगों को मेरे विचार पसंद करने के लिये हार्दिक आभार और शुभकामनाओं के लिये धन्यवाद

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