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रविवार, फ़रवरी 20, 2011

सुशील कुमार ने कहा :- पूर्णिमा वर्मन हो या सुमन कुमार घई जी , इनको साहित्य की अद्यावधि गतिविधियों की जानकारियाँ नहीं रहती।


सुशील कुमार ON SATURDAY, FEBRUARY 19, 2011 
                                 भईया ब्लॉग पर आकर सिर्फ़ गाल बजाने से कुछ नहीं होगा। आप कुछ साहित्यकारों जैसे डा. नामवर सिंह,  सर्वश्री राजेन्द्र यादवअशोक वाजपेयी,मंगलेश डबरालअरुण कमलज्ञानेन्द्रपतिनरेश मेहताएकांत श्रीवास्तवविजेन्द्रखगेन्द्र ठाकुर इत्यादि या आपको जो भी लब्ध-प्रतिष्ठ लेखक-कवियों के नाम जेहन में हैंके नेट पर योगदान को बतायें और यहाँ चर्चा करें। पूरा खुलासा करें कि कौन-कौन सी चीजें नेट पर हिन्दी साहित्य में ऐसी आयी हैं जो अभिनव हैं यानि नूतन हैं और उन पर  प्रिंट के बजाय सीधे नेट पर ही काम हुआ है तभी आपके टिप्प्णी की सार्थकता मानी जायेगी और आपको ज्ञान-गंभीर पाठक माना जायेगा, केवल शब्दों की बखिया उघेरने और हवा में तीर चलाने से काम नहीं चलने को हैवर्ना "मैं तेरा तू मेरा"  यानि तेरी-मेरी वाली बात ब्लॉग पर तो लोग करते ही हैं। (आगे यहां से )
                        इस आलेख का औचित्य आपसे जानना चाहता हूं आपको चैट आमंत्रण भेजा है जिसे आपने स्वीकारा मै चाहता हूं कि आप वीडियो चैट के ज़रिये ब्लाग जगत के सामने आएं ताक़ि सब आपको जान सकें ? 
मुझे ब्लॉग या मिडिया से विरोध ही है! सुशील आगे कहते हैं :-" पूर्णिमा वर्मन हो या सुमन कुमार घई जी  ,  इनको साहित्य की अद्यावधि गतिविधियों की जानकारियाँ नहीं रहती।" .........। अविनाश वाचस्पति जी को ही ले लीजियेनेट पर समय देने को तैयार हैं अपनी स्वास्थ्य खराब करके भी टिप्पणी सवा एक बजे रात में जगकर लिखने की क्या जरुरत थी उन्हें? पर उन्होंने यह मुगलता पाल रखा है  कि हिन्दी पर बहुत अच्छा काम नेट में हो रहा है। जितने भी आप्रवासी वेबसाईट हैं सब मात्र हिन्दी के नाम पर अब तक प्रिंट में किये गये काम को ही ढोते  रहे हैंवे स्वयं कोई नया और पहचान पैदा करने वाला काम नहीं कर  रहे ,  कर सकते क्योंकि वह उनके क्षमता से बाहर है। पर ऐसा क्यों है, यही मूल चिंता का विषय है। 
                इस आलेख में के ज़रिये एक बात तो स्थापित हो गई नागफ़नी जवां हो चुकी है.  यानी एकदम जावां हुए कांटों से गुज़ारा करना होगा हमको अब यह तय शुदा है. मेरी नज़र में सुशील जी ने  चिट्ठाकारिता के स्वरूप पर चर्चा न करते हुआ एक भड़ास निकाल दी आपने.और तो और इससे राहत न मिली तो व्यक्तिगत आलोचना करते हुए उन पति-पत्नी की याद दिला दी  जो एक छत के नीचे न्यूनतम समझौते यानी केवल सात + सात =चौदह कसमों के सहारे एक-दूसरे के साथ रहतें हैं. फ़िर इन देहों की वज़ह से उत्पन्न पैदावार को सम्हालने की वज़ह से शेष ज़िंदगी गुज़ार देतें हैं. ज़िन्दगी खत्म हो जाती है एक दूसरे को गरियाते-लतियाते उनकी. अच्छा हुआ कि आपने चिंता करके  घरेलू -किस्म के व्यक्तित्व का परिचय दिया अब गेंद आपके पाले में है चिंता नहीं अपने निष्कासन पर चिंतन कीजिये. वैसे मुझे तो दु:ख ही हुआ आपके हटाये जाने पर. पर क्या करें ?
              अरे हां भूल ही गया था आपने जो लिखा उसका ओर छोर यानी सूत्र पकड़ने का प्रयत्न कर रहा हूं.... पर सच कहूं लगा कभी कभार तरंग मे लिखे गये आलेख (साहित्य नहीं) सूत्र हीन ही होते हैं. 
कुछ लाइने देखिये :-
  • मुझे ब्लॉग या मिडिया से विरोध ही है” इसका अर्थ क्या है..? वैसे इससे न तो ब्लाग खत्म होंगे न ही मीडिया. 
  • पूर्णिमा वर्मन हो या सुमन कुमार घई जी  ,  इनको साहित्य की अद्यावधि गतिविधियों की जानकारियाँ नहीं रहती।" .........। ”:- इसका भी अर्थ बताएं ज़रा.  
                      फ़िर अचानक बेचारे अविनाश पर आक्रमण ? खैर जो भी आपसी मामला हो आपलोग आपस में निपट लें नुक्कड़ पर "गोबर की थपाल" रखने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी .आपके अलावा हम लोग भी सदस्य हैं नुक्कड़  ब्लाग के  अगर अविनाश उद्दंड हैं आपकी नज़र में तो आप ने कौन सा ..?
अविनाश जी आपसे अनुरोध है कि इनके आलेख को माडरेट न करॆं लगे रहने दें नुक्कड़ पर अभी काफ़ी विमर्श करने हैं सुशील जी से शायद हिंदी ब्लागिंग का सुधार हो जाए 

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