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सोमवार, नवंबर 21, 2022

भारत, जैफ बेगौस की भविष्यवाणी गलत साबित करेगा


     भारत, जैफ बेगौस की भविष्यवाणी गलत साबित करेगा:गिरीश बिल्लोरे
     पिछले 4 दिन पहले विश्व के चौथे नंबर के अरबपति जैफ़ बेगौस ने यह कहकर यूरोप में हड़कंप मचा दिया कि-" वैश्विक महामंदी बहुत जल्दी प्रारंभ हो सकती है, हो सकता है दिसंबर 22 अथवा जनवरी 23 में ही यह स्पष्ट हो जाए। अपनी अरबों रुपए की संपत्ति जनता को वापस करने की घोषणा करने वाले जैफ़ ने कहा-" इस महामंदी के आने के पहले विश्व के लोगों को बड़े आइटम पर तुरंत खर्च करना बंद कर देना चाहिए। कंजूमर को इस तरह की सलाह देते हुए महामंदी के भयावह दृश्य अंदाज़ लगाने वाली इस शख्सियत ने कहा है कि-" कार रेफ्रिजरेटर अगर आप बदलना चाहते हैं तो इसके खर्च को स्थगित कर दीजिए ।
*बिलेनियर जैफ के* इस कथन को *विश्लेषित* करने मैंने अपने पूर्व अनुभव के आधार पर अनुमान लगाया कि- यह सत्य है कि, 1990-91 की महामंदी ने जो स्थिति उत्पन्न की थी उससे भारतीय अर्थव्यवस्था अप्रभावित रही है। उसके पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होगा?
   कृषि उत्पादन एवं वाणिज्य परिस्थितियों का अवलोकन करने पर पाया कि विश्व में कितनी भी बड़ी मंदी का दौर आ जाए , अगर भारतीय व्यवस्था जो मूल रूप से कृषि उत्पादन एवम उत्पादों पर आधारित है, अप्रभावित रहेगी और यदि उस पर कोई नकारात्मक प्रभाव पढ़ना है तो भी अर्थव्यवस्था में मामूली प्रभाव पढ़ना संभव होगा। *इस संबंध में भोपाल में व्यवसाय से जुड़े श्री विमल चौरे, महामंदी से पूरी तरह सहमत हैं।*
 उसका कारण वही है जैसा मैंने पूर्व में वर्णित किया है। अर्थात भारतीय अर्थव्यवस्था ठोस अर्थव्यवस्था के रूप में समझी जा सकती है। भारतीय अर्थव्यवस्था में पॉजिटिविटी का सकारात्मक पहलू  जनसंख्या है, और यह आबादी ऐसे किसी भी तरह के उपभोक्तावादी संसार का हिस्सा नहीं है, जो अत्यधिक उपभोक्तावादी हो।
*भारत में पर्सनल सेक्टर में पूंजी का निर्माण आसानी से किया जा सकता है।*
 भारत में अभी भी प्रूडेंट शॉपिंग प्रणाली को परंपरागत रूप से स्थान दिया जाता है। *अतः यह संभावना कम ही है कि हम महामंदी से बुरी तरह प्रभावित होंगे।*
*गोल्ड फैक्टर*
भारत में वार्षिक 21 हजार टन सोने की मांग बनी रहती है.  जबकि भारत की खदानें मात्र 1.5 टन सोना उत्पादित करती हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक
विश्व स्वर्ण परिषद (डब्ल्यूजीसी) ने बृहस्पतिवार को कहा कि भारत में सोने की खदानों से उत्पादन 2020 में 1.6 टन था, लेकिन दीर्घावधि में यह 20 टन प्रतिवर्ष तक बढ़ सकती है। भारत का मध्य वर्ग एवं निम्न वर्ग भी सोने के प्रति आकर्षित होता है, क्योंकि *सोना भारत के लिए एक महत्वपूर्ण परंपरा आधारित घटक है। इसे एक बेहतरीन इन्वेस्टमेंट माना जाता है।*
वर्तमान परिस्थितियों में भारत के प्रत्येक परिवार के औसत रूप से 2 से 3 तोला यानी 20 से 30 ग्राम सोना संचित रहता है। परिवार अपनी आवश्यकता के मुताबिक इस होने का नगरीकरण करा लेता है। 
परिणाम स्वरूप अर्थ- व्यवस्था कुल मिलाकर रोकड़  के अभाव में प्रभावित नहीं होती। 
भारतीय परिवारों में ही  कोआपरेटिव व्यवस्था परंपरागत रूप से प्रभावी है । आपसी आर्थिक व्यवहार के कारण आर्थिक मंदी नियंत्रित होगी। इसके अलावा जनसंख्या भी अर्थव्यवस्था के लिए एक अच्छा विकल्प माना जा सकता है। socio-economic सिस्टम में भारतीय  परिवारिक व्यवस्था किसी भी तरह की मंदी से निपटने के लिए हमेशा तैयार रहती है इसलिए आसन्न महामंदी का असर भारत के अथवा दक्षिण एशियाई देशों के लिए बेहद खतरनाक नहीं होगी। यदि युद्ध महामारी जैसी परिस्थितियां निर्मित न हो तो!
 उपरोक्त बिंदुओं से इस बात की पुष्टि होती है कि *भारत की अर्थव्यवस्था यूरोपीय अर्थव्यवस्था की तुलना में बेहद मजबूत  है।*

सोमवार, नवंबर 14, 2022

भारत में आरक्षण : सामाजिक इंजीनियरिंग का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण


हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक आधार पर सवर्णों को आरक्षण देने के संबंध में जो परदेस पारित किए हैं उससे स्पष्ट है कि हमारी न्याय व्यवस्था भी वंचित वर्ग के लिए पूरी तरह से सहानुभूति पूर्वक दृष्टिकोण अपना रही है। सामाजिक इंजीनियरिंग का जीता जागता उदाहरण आरक्षण माना जा सकता है। यद्यपि बहुत से विचारक जातिगत आरक्षण के विरुद्ध हैं। क्योंकि जब योग्यता का प्रश्न उठता है तो आरक्षित संवर्ग एक फॉर्मेट के तहत कम योग्यता धारित करने के बावजूद किसी अधिक योग्य व्यक्ति के समकक्ष होता है। यह अकाट्य सत्य है। परंतु सत्य यह भी है कि आरक्षण का कारण अपलिफ्टमेंट ऑफ द वीकर सेक्शन Upliftment of the Weaker Section  ही है। सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि आरक्षण वैयक्तिक हितों को साधने का कारण नहीं होना चाहिए। यह सामाजिक इंजीनियरिंग के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश भी है। जहां तक शासकीय सेवाओं में आरक्षण का प्रश्न है मेरे हिसाब से आरक्षण का अवश्य केवल एक बार दिया जाना ठीक होता है। जबकि पदोन्नति में आरक्षण को लेकर सबकी अपनी अपनी राय हो सकती है। लेकिन सामाजिक इंजीनियर के परिपेक्ष में यह एक तरह से अनुचित ही है। वैसे व्यक्तिगत राय पर सभी सहमत होंगे ऐसा कदापि मेरी अपेक्षा नहीं है।
    संक्षेप में हम सवर्ण आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की सहमति के संबंध में देखें तो... सुप्रीम कोर्ट ने केवल जाति के आधार पर आरक्षण के विरुद्ध न होते हुए आर्थिक आधार पर आरक्षण की समीक्षा की गई है।
केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) को दिए गए आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण को वैध बताते हुए, इससे संविधान के उल्‍लंघन के सवाल को नकार दिया। हालांकि, चीफ जस्टिस यूयू ललित की अध्यक्षता वाली पांच संदस्यीय बेंच ने 3-2 से ये फैसला सुनाया है। इससे यह साफ हो गया कि केंद्र सरकार ने 2019 में 103वें संविधान संशोधन विधेयक के जरिए जो आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को शिक्षा और नौकरी में 10 प्रतिशत आरक्षण देने की व्यवस्था की थी, संविधान का उल्‍लंघन नहीं है। 
   याचिकाकर्ता द्वारा सवर्ण आरक्षण को असंवैधानिक करार देने की याचना की थी। परंतु सामाजिक इंजीनियरिंग के परिपेक्ष्य में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी बेहद प्रासंगिक और अनुकूल है। आप गंभीरता से विचार कीजिए तो आप पाएंगे कि सामाजिक समरसता और एकात्मता के लिए सामाजिक न्याय सर्वोच्च प्राथमिकता वाला कंपोनेंट है। वर्तमान संदर्भ में देखा जाए तो विगत 10 वर्षों में सामाजिक जातिगत व्यवस्था  समाप्त होती नजर आ रही है। पहले तो वैवाहिक संदर्भों में केवल अपनी बिरादरी में ही विवाह को मान्यता प्राप्त होती थी परंतु अब अधिसंख्यक वैवाहिक अनुष्ठान अंतर्जातीय विस्तार ले चुके हैं। और आने वाले समय में जातिगत व्यवस्था लगभग समाप्त हो जाएगी।
   आरक्षण समतामूलक समाज की अवधारणा पर आधारित व्यवस्था है। भारतीय व्यवस्था में socio-economic पहलुओं पर विचार करना आगामी समय के लिए सुव्यवस्थित करने की योजना बनाना हम सबका सामाजिक दायित्व है। दीर्घकाल में जातिगत सामाजिक व्यवस्था पूर्णत: समाप्त हो सकती है। वर्तमान में एक नए तरह के भारत ने आकार लिया है। सामाजिक संरचना के प्रतिमानों में बदलाव आ रहा है, परंपराएं भी बदली जा रही हैं या कुछ परंपराएं स्वयं ही बदल गई हैं। बदलते परिवेश में सामाजिक परिस्थितियों में बदलाव ठीक वैसा ही है जैसे- ईसा पूर्व गौतम बुद्ध का अभ्युदय होना। गौतम बुद्ध ने समतामूलक समाज की स्थापना की बुनियाद रखी थी। उनके संदेश आर्थिक समानता के लिए जितने प्रभावी रहे हैं उससे कहीं अधिक सामाजिक समानता और एकात्मता के पक्षधर थे। महात्मा बुद्ध के अधिकांश उपदेशों में एकात्मता समरसता एवं शांति के उन समस्त बिंदुओं को समावेशित किया गया है जिन बिंदुओं पर भारतीय दर्शन में उपनिषदों में मार्ग स्थापित किया था। भारतीय सनातनी व्यवस्था समतामूलक समाज की व्यवस्था के प्रति सतर्क और सजग रही है। भारत में जैनमत, बुद्धिज़्म,शैव,शाक्त, वैष्णव, चार्वाक, सूफी, यहां तक कि विदेशों से आए इस्लाम और क्रिश्चियनिटी को भी मान्यता मिली। जातिवादी व्यवस्था को समाप्त करने की दिशा में अगर जातिगत आरक्षण एक उत्प्रेरक है तत्व है तो दूसरी ओर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश सामाजिक इंजीनियरिंग के लिए महत्वपूर्ण घटक सिद्ध होगा। कुल मिलाकर कल्याणकारी राज्य की कल्पना को आकार देने के लिए माननीय न्यायालय का नजरिया प्रत्येक नागरिक के बीच सामाजिक आर्थिक राजनीतिक परिपेक्ष्य में बेहद प्रभावशाली फैसला है। यह भारत संदर्भ में टर्निंग प्वाइंट सिद्ध होगा।

रविवार, नवंबर 06, 2022

कुंठा विध्वंसक ही होती है..?

कुंठा क्रोध मिश्रित हीन भावना है। जो अभिव्यक्त की जाती है कुंठा के दो भाग होते हैं एक अभिव्यक्त और दूसरी अनाभिव्यक्त..! कुंठित मस्तिष्क हताशा का शिकार होता है। कुंठित लोग जब भी बात करते हैं तो भी आरोप-प्रत्यारोप शिकायत और आत्म प्रदर्शन पर केंद्रित चर्चा करते हैं। कुंठित लोगों में सकारात्मकता की बिल्कुल भी मौजूदगी नहीं होती। जो भी कुंठित होता है उसके चेहरे में आप ओजस्विता कभी भी महसूस नहीं कर सकते। अगर कोई कुंठित व्यक्ति आपके सामने आता भी है तो आपको उसे पहचानने में विलंब नहीं करना चाहिए। वैसे विलंब होता भी नहीं है। क्योंकि जब कोई कुंठित व्यक्ति आपके सामने आएगा तो आप भौतिक रूप से उसके औरे से ही पहचान जाएंगे कि व्यक्ति नकारात्मक ऊर्जा का उत्सर्जन कर रहा है। इसके प्रतिकूल यदि आप एक संतृप्त एवं सकारात्मक व्यक्तित्व से मिलेंगे तो आपको उसे बार-बार मिलने का जी चाहेगा। किसी भी व्यक्ति का जीवन उसके व्यक्तित्व को पूरी तरह से प्रदर्शित करता है। सामान्यतः मेरी तरह कई लोग कई लोगों से घृणा नहीं करते परंतु कुछ व्यक्तित्व दिन भर में जब मिलते हैं तो उनमें से आजकल 50% व्यक्ति नकारात्मक ऊर्जा से भरे नजर आते हैं। कुंठित व्यक्ति अक्सर जिन वाक्य  प्रयोग करते करते हुए सुनाई दे जाएंगे- "मुझे पहले बताया होता तो यह स्थिति नहीं होती..!" अथवा यह है कि आपने गलत व्यक्ति को चुना था, इसके अलावा कुंठित व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के प्रति सकारात्मक अभिव्यक्ति करता ही नहीं है। एक राजनेता है जो अक्सर कहते हैं -"सब मिले हुए हैं..!"
  कुंठित व्यक्ति को हमेशा दूसरों में दोष दिखाई देते हैं। जबकि सकारात्मक व्यक्तित्व का धनी व्यक्ति हमेशा दूसरों के प्रति सहृदयता सद्भावना और उत्सवी व्यवहार से परिपूर्ण करता है।
  कल किसी से मेरी दूरभाष पर चर्चा हो रही थी। चर्चा के दौरान ज्ञात हुआ कि वे बहुत विद्वान हैं । उन्होंने ही बताया कि उनके द्वारा  ढेरों पुस्तकें लिखीं हैं। उनकी बातों से लगा मानों कि-" वे दुनिया से नाराज़ हैं..!' 
   उनकी कुंठा का आधार यह था कि उन्हें किसी भी प्रकार की पहचान नहीं मिल पाई है। 
   हर उस व्यक्ति को आप कुंठित पाएंगे जो यह महसूस करता है कि उसकी उपब्धियों को अथवा उसके कार्यों को कोई पहचान नहीं मिल रही है। ऐसा व्यक्ति सदा 
      -" आप हर दूसरे तीसरे व्यक्ति के समक्ष शिकायत लेकर खड़े हो जाएं।" कुंठा एक तरह  से मानसिक बीमारी है। इस तरह की बीमारी का रोगी वही होता है जो अपेक्षा करता है। अत्यधिक अपेक्षाएं कुंठा को जन्म देती है। जबकि गीता में यह कहा गया है- "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन...!" 
   वर्तमान जीवन क्रम लगातार परिवर्तनशील है। आप एक महान लेखक हैं आप एक महान दार्शनिक हैं आप एक महान कवि हैं चित्रकार है गायक हैं तो यह जरूरी नहीं कि आपको तानसेन या सर्वोत्तम ही माना जाए। तानसेन के गुरु स्वयं नेपथ्य में रहना पसंद करते थे। गुरु के सापेक्ष उनके शिष्य तानसेन की प्रसिद्धि सर चढ़कर बोलती थी। परंतु गुरु कुंठित नहीं थे। ऐसे हजारों उदाहरण हैं। प्रेमचंद ने उपन्यास कहानियां लिखे हैं तब जाकर उन्हें प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। इसी के सापेक्ष चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी.. "उसने कहा था..!" न केवल शर्मा जी को अमर कर दिया वरन कहानी ने भी हजारों हजार मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ी है। तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो मुंशी प्रेमचंद कुंठित नहीं हुए होंगे अपनी समकालीन सुप्रसिद्ध लेखकों के सापेक्ष वे अपना कर्म करते रहे और परिणाम की भी अपेक्षा उन्होंने नहीं की। प्रोफेसर चंद्रमोहन जैन जिन्हें भगवान रजनीश ओशो रजनीश आदि आदि नाम से जानते हैं उनके  यूनाइटेड स्टेट से वापसी के बाद के वक्तव्य कुंठित व्यक्तित्व का उदाहरण है जो आज के इस आलेख के लिए समीचीन है। यह तो रही महान लोगों की महान बातें।  अगर हम देखें तो श्रेष्ठता कभी भी अंतिम नहीं होती। श्रेष्ठता सदैव निरंतरता के साथ अनंतिम होती है। श्रेष्ठता जिसे प्राप्त हो जाती है वह अगर सकारात्मक है तो प्रभावशाली होता है और अगर उसके व्यक्तित्व में नकारात्मक  होती हैं तो वह कुंठित हो जाता है। जीवन में सर्वश्रेष्ठ होता है एकात्मता का भाव जो कुंठित व्यक्ति कभी नहीं ला सकते। क्योंकि जैसे ही मन में नकारात्मकता का प्रभाव बढ़ता है तो हमारा व्यक्तित्व आकर्षण हीन हो जाता है। यह की लोगों से दूर होने लगते हैं। चलिए इस क्रम में कुंठा के दोनों प्रकारों का थोड़ा सा विश्लेषण कर लेते हैं-
*अभिव्यक्त कुंठा* :- अभिव्यक्त कुंठा व्यक्तित्व को छत्तीसगढ़ करती है। जिसका विश्लेषण हमने ऊपर कर ही चुके हैं। आपकी मिलनसारिता बेहद नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है और इसका असर डीएनए पर भी पड़ता है। समाज में अभिव्यक्त कुंठा के संवाहक लोगों के कारण राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पर भी बेहद नकारात्मक प्रभाव देखा गया है। इसका एक ताजातरीन उदाहरण है पाकिस्तान की स्थिर सामाजिक राजनीतिक परिस्थिति। इसके अलावा चीन में भी ऐसी ही परिस्थिति निर्मित है। और तो और आप यूनाइटेड किंगडम के संदर्भ में गंभीरता से विचार करें तो वहां की socio-economic संरचना बेहद नकारात्मक रूप से कुंठित मानसिकता के कारण प्रभावित हुई है इसका विश्लेषण अलग तरह से किया जा सकता है वर्तमान में हम अभिव्यक्त कुंठा पर अपनी चर्चा सीमित रखते हैं। सामाजिक संदर्भों में देखा जाए तो अत्यधिक महत्वाकांक्षा जो कुंठा के रूप में अभिव्यक्त भी हो जाती है कि परिणिति तानाशाही वाले राष्ट्रों में नजर आती है। अत्यधिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए दबाव पैदा करना मनुष्य की प्रवृत्ति है। मौलिक रूप से कुंठा का उत्पादन वैयक्तिक होता है, और धीरे-धीरे यह सर्वजनिक एवं सामाजिक विकृति के स्वरूप में परिवर्तित हो जाता है।
अनाभिव्यक्त-कुंठा :-अनाभिव्यक्त - कुंठा, मनुष्य के मस्तिष्क मस्तिष्क में मौजूद रहती है। व्यक्ति उसे अभिव्यक्त नहीं करता परंतु वह अवसर मिलते ही नुकसान करने में पीछे नहीं होता। ऐसे गुण पॉलीटिशियन में सर्वाधिक मात्रा में पाए जाते हैं। परंतु पिछले कई दिनों से यह देखा जा रहा है बहुतेरे लोग इस तरह के मनोरोग से भी ग्रसित हैं। इसे हम 1 मुहावरे से समझ सकते हैं जिसमें यह कहा गया है मुंह में राम बगल में छुरी। सामान्यतः कुंठित लोग सीधे प्रतिरोध ना करते हुए अवसर की तलाश करते हैं। ऐसे लोग आपको सामान्य रूप से कहीं भी मिल जाते हैं। अनाभिव्यक्त-कुंठा कई बार लंबे समय तक मन में पलती है और फिर कभी अचानक भयानक स्वरूप में विस्फोट करती है। यह विस्फोट सब कुछ खत्म करने की सीमा तक बढ़ जाता है। अनाभिव्यक्त-कुंठा सामाजिक व्यवस्था को तहस-नहस भी कर सकती है। इसका सर्वोच्च उदाहरण महाभारत का प्रमुख पात्र धृतराष्ट्र है। धृतराष्ट्र के अलावा आपने रावण के चरित्र की समीक्षा की ही होगी? रावण का चरित्र कुछ ऐसा ही था। मुझे रावण में ज्ञान नैतिक बल योग्यता और क्षमता की बिल्कुल भी कमी नजर नहीं आती। परंतु स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने की कुंठा रावण के साम्राज्य का अंत की वजह बनी। ठीक उसी तरह मध्यकाल में उत्तर मध्य काल में ऐसे कई सारे उदाहरण देखने को मिल जाएंगे।
  लोग कुंठित क्यों हो जाते हैं?
वर्तमान समय के परिपेक्ष में देखा जाए तो लोगों में कुंठा का कारण अत्यधिक स्पर्धा है। भौतिकवादी व्यवस्था में सर्वाधिक कुंठा का समावेश होता है। जबकि अध्यात्मिक चिंतनशील का कुंठा का दमन करती है। यहां तक कि जो आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार करते हैं वह कुंठित नहीं होते। कुंठित व्यक्ति विध्वंस कर सकते हैं परंतु नव निर्माण की उनसे उम्मीद करना बेकार है। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि कुंठा किसी भी विकास का आधार हो ही नहीं सकती। 
   

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