20.10.19

नाटक समीक्षा : बरी द डेड

#बरी_द_डेड मंचन दिनांक 19 अक्टूबर 2019 स्थान- मानस-भवन,
निर्देशक:- श्री सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ नीपा रंगमंडल,  लखनऊ 
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निर्देशक द्वारा प्रिय अक्षय ठाकुर का विशेष रूप से उल्लेख करना मेरे लिए गौरव की बात थी क्योंकि आप जानते हैं कि अक्षय से मेरा रिश्ता बालभवन का है और उससे अधिक यह कि अक्षय में अद्भुत अभिनय एवं कला पक्ष की समझ है वह पढ़ता भी है हिस्ट्री भी पड़ता है वर्तमान को समझता भी है कुल मिलाकर थिएटर का #अक्षयपात्र भी बनेगा यह मेरा दावा है चिरंजीव अक्षय को आशीर्वाद और शुभकामना
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         नाटक का आमन्त्रण था Vinay Amber की ओर से ही नहीं Supriya Shrivastava Amber Amber की जानिब से भी आमंत्रण पूरे फैस्टिवल के लिए भी..... परन्तु Akshay Thakur के न्योते की वजह से समय से एक घंटे पहले पहुँच  गया . सेट डिजायनर श्री जोशी जी  की तारीफ़ अक्षय ने पहले ही कर दी थी सो था भी गजब.. !
      जबलपुर नाटक के मामले में बता दूँ कि  अन्य शहरों के सापेक्ष यहां  अधिक अच्छे दर्शक देता है.. इस लिए हर निर्देशक को जो जबलपुर में नाटक पेश करने का मन बना रहे हों समझदारी से प्रस्तुति के लिए अपना श्रेष्ठतम नाटक ही लाते हैं.
      जबलपुरिया दर्शक हूट नहीं करते सताते नहीं पर निर्देशक और टीम को समझ लेते हैं. खैर मुद्दे पर आते हैं.
                      नाटक की कहानी शुरू होती है चार जिंदा सैनिकों द्वारा छह मरे हुए सैनिकों की लाशें को दफन करने की जद्दोजहद से । कब्र को 6 फीट गहरा खोजना था और फावड़े के जरिए जिंदा सैनिक यही कुछ करते नजर आ रहे थे ।
         कब्र खोदने वालों को अजीब तरीके से गुस्सा आ रहा था और वह अपनी बॉस के खिलाफ थे । जिंदा सैनिकों में नाराजगी थी वे कहते थे हुक्मरानों की वजह से हमें तकलीफ होती है । जब 6 फीट गड्ढे खुद ही जाते हैं तो दफनाने का हुक्म मिलता है किंतु इसके पहले संस्कार विधियों को अपनाने की जरूरत को नजरअंदाज नहीं किया जाता और युद्ध भूमि में दो धर्मगुरु आते हैं यहां निर्देशक ने पंडित छोड़कर पादरी और मौलवी धर्मगुरु को ही बुलाया जो समझ से परे रहा है ।
  एक सिपाही द्वारा शीघ्रता के साथ लाशों को सुपुर्द ए खाक करने की दलीलों से प्रभावित होकर दोनों धर्मगुरुओं ने सहमति दी । संवादों में बेहद चुटीला पन नजर नहीं आया जब की जरूरत भी नहीं थी उसकी परंतु कुछ जगह संवादों को चुटीला बनाने की नाकामयाब कोशिश की गई थी यहां काम किया जाना शेष है ।
मैं कहानी के जितने हिस्से की बात कर रहा हूं संवाद उतने भाग के टिप्पणी योग्य थे तो लिख दिया ।
अब बारी थी लाशों को गड्ढों में रखा गया । वहां लाशों के कराहने की आवाज सुनाई दी और फिर सारी लाशें दफन होने से इनकार करने लगी उन्होंने इंकलाब भी कर दिया ।
यहां सार्जेंट ने अपने बड़े ऑफिसर्स को इस बारे में बताया । परंतु पहली बार ऑफिसर्स अपनी दलील देकर वापस कर दिया और कहा दफनाने की कोशिश करो इसके बाद डॉक्टर को भेजकर डेथ सर्टिफिकेट भी हासिल किए । तीसरी बार तीन चरित्रों को वहां भेजा गया संभवत है एक मंत्री दूसरा ब्यूरोक्रेट और तीसरा आर्मी का हेड था । मंत्री ने लाशों से दफन हो जाने को कहा एक लच्छेदार भाषण भी दिया परंतु लाशें थीं बहुत जबर थीं  जो कि टस से मस ना हुईं । फिर उनसे जुड़ी महिलाओं को बुलाकर समझ वाया गया ।  लाशों ने उनको भी इंकार कर दिया सबकी अपनी अपनी वजह थी हर सैनिक किसी ना किसी कारण के लिए दफन नहीं होना चाहता था । यह नाटक यह प्रदर्शित करना चाहता है की सैनिक भी युद्ध नहीं चाहते । कथा किस पृष्ठभूमि में लिखी गई है वर्तमान पृष्ठभूमि से बिल्कुल इतर मामला है उम्मीद की जा सकती है कि एक सामाजिक पृष्ठभूमि पर लिखी गई कहानी हो सकती है तो कथावस्तु स्वीकार्य है । लंबे समय से युद्ध ग्रस्त देश के  सैनिक ऐसा सोच सकते हैं । परंतु  वर्तमान संदर्भों में भारत के संदर्भ में यह नाटक प्रासंगिक नहीं है यह है मै पूरी जिम्मेदारी के साथ कह सकता हूं और कह भी रहा हूं।
सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ जी ने अगर यह नाटक कश्मीर के संदर्भ पेश किया है तो भी समझ से परे है ।
यह मैं नहीं कह रहा हूं बल्कि दर्शकों की टिप्पणियां है समझ गई ना कि जबलपुर का दर्शक फिल्मों के मामले में कैसा भी हो लेकिन थिएटर के दर्शक एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी ही है । नाम न बताते हुए एक दर्शक की टिप्पणी कोट करूंगा- यह नाटक तो सीधे प्रधान सेवक को भी समझाने की कोशिश करता है ।
नाटक के अंत में इस बात का उदघोष कि हम युद्ध नहीं चाहते मन को प्रभावित करता है । अगर प्रधान सेवक की बात करें तो जब जिस देश पर जैसी परिस्थिति आती है , तब उस देश का शासक वैसा ही करता है और करना भी चाहिए । अगर यह कल्पना है तो भी सेना में विद्रोह की चिंगारी को हवा देना किसी भी देश के लिए तब तक ठीक नहीं जब तक की विश्व बंधुत्व के मूल्यों को विश्व स्वयं न जीने लगे । मित्रों यहां यह समझने की जरूरत है की युद्ध तो कोई भी विचारधारा नहीं चाहती परंतु कुछ विचार धाराएं युद्ध पर आधारित ही है जो यह कहती हैं कि सत्ता का रास्ता बंदूक की गोलियों से निकलता है उन्हें भी युद्ध से तौबा कर लेनी चाहिए । आज भारत को अगर यह समझाया जा रहा है तो गैर जरूरी है क्योंकि कन्वेंशनल वार से ज्यादा खतरनाक चोरी-छिपे युद्ध करना क्या सिर्फ भारत की भौगोलिक सीमाओं को क्षतिग्रस्त देखा जा सकता है अगर हां भारत के संदर्भ में यह नाटक स्वीकृति योग्य है । निर्देशक और लेखक के बीच संवाद हीनता का होना स्वभाविक है !
मुझे नहीं लगता कि निर्देशक वैश्विक पॉलिटिकल सोच के साथ इस नाटक पेश कर रही थे बल्कि वे तो यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि- किसी के लिए भी उपयोगी नहीं किसी को भी सुख नहीं देता युद्ध में जीता हुआ भी कभी नहीं जीतता । निर्देशक श्री सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ जी को बधाई नाटक कला पक्ष बहुत मजबूत है संवादों में कुछ बातों की तरफ रंगकर्मी श्री सीताराम सोनी जी के आग्रह पर विशेष ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा उनका मत था कि- मृत्यु के बाद जिजीविषा ही नहीं होती तो दफन होने या ना होने का मामला ही नहीं बनता सोनी जी की बात आप तक पहुंचा रहा हूं । वहां बहुत दिनों के बाद फिर ज्ञान जी पंकज गुलुष जी से  रमेश सैनी जी ताम्रकार जी गंगा चरण मिश्र जी आदि से भेंट हुई ...!
हां एक बात और अंत में जो गीत हुआ उसमें एक हँसिया  जिसे एक पात्र बजा बजा कर समूह गीत गा रहीं थीं ।  सोच रहा था कमल झाड़ू पंजा आदि आदि नजर ना आए आते भी कैसे इनमें से.....

15.10.19

नेत्रहीन बालिकाओं से मिलकर भावुक हुए अभिजीत भट्टाचार्य


आप से सीखने आया हूं सीखकर जाऊंगा : अभिजीत भट्टाचार्य
बेटियों मैं आप से सीखने आया हूं और सीखकर ही जाऊंगा । नेत्र दिव्यांग बच्चियां से मिलकर भावुक हुए सुप्रसिद्ध गायक अभिजीत भट्टाचार्य ने आगे कहा कि- बच्चियों की गायकी सुनकर मैं हतप्रभ हूं इनमें जो कम समय में इतना प्रभावी गायन प्रशिक्षण प्राप्त किया है उसके लिए मैं उनसे कुछ ना कुछ हासिल करके ही जा रहा हूं जो ईश्वर ने इन बालिकाओं को दिया है वह सहज उपलब्ध नहीं होता । आजकल गायन में सफलता बहुत से है जो हर आसानी से मिल जाती है तकनीकी इसे बहुत आसान बना देती है परंतु आप जिस तरह से शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं वह अद्भुत है आजकल जो गाना भी नहीं जानता वह भी गाना गा लेता है और उसका गाना प्रसिद्ध भी हो जाता है तकनीकों के कारण संगीत में बहुत बड़ा परिवर्तन आया है और आप सबको इससे प्रतिस्पर्धा करनी है । मैं आपके गायन से अभिभूत हुआ हूं तक आशय के विचार नेत्रहीन कन्या विद्यालय की संगीत छात्राओं के समक्ष व्यक्त करते हुए अभिजीत ने नगर निगम जबलपुर संभागीय बाल भवन जबलपुर एवं नेत्रहीन कन्या विद्यालय के प्रति शुभकामनाएं व्यक्त की ।
श्री आशीष कुमार आयुक्त नगर निगम जबलपुर श्री रोहित कौशल अतिरिक्त आयुक्त नगर निगम जबलपुर संचालक संभागीय बाल भवन गिरीश बिल्लोरे, सहायक आयुक्त श्रीमती एकता अग्रवाल प्राचार्य नेत्रहीन कन्या विद्यालय श्री पूनम चंद्र मिश्र, कार्यक्रम कोऑर्डिनेटर शैलजा सुल्लेरे, डॉक्टर शिप्रा सुल्लेरे की उपस्थिति में कार्यक्रम का शुभारंभ श्री अभिजीत भट्टाचार्य के स्वागत सत्कार से हुआ । इस क्रम में संभागीय बाल भवन जबलपुर के संचालक गिरीश बिल्लोरे डॉक्टर शिप्रा सुल्लेरे, श्री सोमनाथ सोनी एवं श्री देवेंद्र यादव तथा श्रीमती विजयलक्ष्मी अय्यर द्वारा किया गया । नेत्रहीन कन्या विद्यालय के प्राचार्य श्री पूनम चंद मिश्र श्रीमती किरण एवं श्रीमती रेखा नायडू द्वारा भी अतिथि कलाकार का स्वागत किया ।
तदुपरांत स्वच्छता अभियान स्वच्छ भारत मिशन के लिए विशेष रूप से तैयार समूह गीत की प्रस्तुति डॉक्टर शिप्रा सुल्लेरे के संगीत निर्देशन में
मोना , नीलम, गुनिता, हर्षिता, शिवकुमारी, दसोदा, सीता बर्मन, ललित, महिमा,रोशनी, चन्द्रकला, सोनिया, शिवानी-1, प्रीति, सुरजना, सरिता, बिट्टू, वर्षा, सुमंती, गुड़िया, सिया कुमारी, अर्चना एवम शिवानी-2 मे की गई कार्यक्रम में गिटार पर श्रेया ठाकुर तबले पर कुमारी मनीषा तिवारी हारमोनियम पर कुमारी मुस्कान सोनी ने संगीत सहयोग दिया । आयोजन में सुश्री किरण एवं रेखा नायडू का उल्लेखनीय सहयोग मिला है।

7.10.19

दफ्न जो सदियों तले है वो खज़ाना दे दे : मुज़फ्फर वारसी



मुजफ्फर वारसी हिंदुस्तान और पाकिस्तान के मशहूर शायर है यह जितने पाकिस्तान में मकबूल रहे उससे ज्यादा मां भारती  के  बेटों से इन्हें मोहब्बतें मिली हैं।  वारसी साहब का जन्म यूं तो हिंदुस्तान में हुआ 47 के बंटवारे में वे पाकिस्तान चले गए किंतु एक फिलॉस्फर पर की तौर पर पहचाने जाने लगे । वारसी साहब की आवाज और कलाम दोनों ही अव्वल दर्जे का होने से उनकी बात सीधे दिल में उतर आया करती थी और जिन शब्दों का इस्तेमाल वह अपनी पोएट्री में करते थे वह गुलजार जैसे शायरों के लिए एक रास्ता बन गए । साथियों उस देश में जहां ना तो शायरों की कदर है ना ही कलमकारों की उनका हिंदुस्तान से जाना मेरी नजर में ठीक ना था । यह बंदूक पकड़ने  वाले कमसिनों देश बनाने की जद्दोजहद पाकिस्तानी एडमिनिस्ट्रेशन ने की है जबकि वहां के बच्चे एक सर्वे के मुताबिक भारत के बच्चों की तरह ही बेहद बड़ी बौद्धिक क्षमता वाले हुआ करते हैं परंतु पाकिस्तानी एडमिनिस्ट्रेशन ने वहां के पॉलिटिकल चिंतन ने बच्चों को सही रास्ता दिखाया होता तो दोनों मुमालिक बौद्धिक प्रतिस्पर्धा में बहुत आगे होते परंतु वहां इल्म तालीम और बौद्धिक क्षमताओं के विकास के लिए कुछ भी नहीं किया और हम यह सब करते रहे ।
     साथियों किसी देश की तरक्की का आधार देश के बच्चे हैं हम कूची बांसुरी और कलम पकड़ाते हैं और वो जेहाद का पाठ पढ़ाते हैं । अंतर नजर आता है फौरी तौर पर आए ना आए दो दशक बीत जाने के बाद जब बच्चा बीस इक्कीस साल का होता है वह किसी भी देश के लिए कीमती बन जाता है इसका मीज़ान वहां के जाहिल सियासतदां नहीं लगा पाए वहां तो अब्दुल कादिर जैसा साइंटिस्ट होता है और यहां कलाम साहब जैसे सर्व पूज्य लोग होते हैं बस इतना सा फर्क है दोनों मुल्कों में तो चलिए सुनते हैं मुजफ्फर वारसी साहब को
यहाँ चटका लगाइये
जन्म: 23 दिसंबर 1933, मेरठ
मृत्यु: 28 जनवरी 2011, लाहौर, पाकिस्तान

5.10.19

भारत की आत्मा धर्म में बसती है ..तॊ आप ग़लत हैं ! : Salil Samadhiya

लेखक : सलिल 
अगर आप सोचते हैं कि भारत की आत्मा धर्म में बसती है ..तॊ आप ग़लत हैं !
वह अध्यात्म , तप और  त्याग में भी नही बसती !
  वह उत्सव, तीज , त्योहारों में भी नही बसती !!
वह सिर्फ़ एक ही चीज़ में बसती  है ..
और वह है   "दिखावा "  !!

....इसे आप ध्यान से समझ लें!
पूरे भारत की  आत्मा में जो तत्व गहरे समाया है,   वह 'सत्य' या 'परमात्मा' नही है!
 वह है -  "मैं क्या चीज़ हूं !"

यहां हर व्यक्ति इस जुगत लगा है कि,
  किसी भी तरह से , किसी भी क्षेत्र में सफ़ल होकर,  दूसरों को बता सके कि  "देख , मैं क्या चीज हूं "
यही दिखाने के लिए वह पैसा कमा रहा हैं ,
यही दिखाने के लिए वह  नेतागिरी कर रहा है , यही दिखाने के लिए वह अधिकारी बना है ,
यही दिखाने के लिऐ वह कविता कर रहा है, लिख रहा है !

यह महज़ जीविकोपार्जन का मामला नही है !
यह नुमाईश का मामला है !
अपनी हैसियत के प्रदर्शन का मामला है !
 यही दिखाने के लिए वह नाच रहा है ..गा रहा है  या ..अन्य उद्यम कर रहा है  !!
जब तक ये  "दिखावावाद" जिंदा हैं भारत में ,
आप भूल जाईये  कि यहां कोई उत्थान हो सकता है !
न साम्यवाद , न समाजवाद, न राष्ट्रवाद !

अभी सौ वर्षों तक यहां जो "वाद" चलेंगे वो हैं  -
 "अहंवाद"  "मैं वाद",  "स्वार्थवाद" ,  "परिवारवाद", "लूटखसोट वाद "
और जब तक ये "वाद" हैं , तब तक किसी भी तरह का उत्थान भारत में परम असंभवना है !
वह इसलिए , क्योंकि यहां खून के एक खरबवें  हिस्से में भी जो विष भरा है ..वह है  ""वी.आई.पी.वाद", 
""वर्गभेद वाद " का  विष !

यहां आलम ये है कि एक स्कूल , एक क्लास में पढ़े बालसखा भी  ग्रुपों में बँट जाते हैं !
जो सफ़ल हैं ..वो स्वयं को एलीट मानने लगते हैं और अन्यों को दोयम !
भारत में शायद ही ऐसा अधिकारी देखने मिलेगा जो अपने मातहतों  को हिक़ारत से ना देखता हो!
  शायद ही ऐसे लोग मिलेंगे जो घर में  काम करने वाली बाई , मजदूर,  प्लम्बर , इलेक्ट्रिशियन  या  स्वीपर को तुच्छता  से ना देखते हों !
 शायद ही ऐसा नेता मिलेगा जिसके आस-पास 4-6 छर्रे न मँडराते हों ...और वह अपने आप को आलमगीर  न समझता हो !
फ्लाइट से कहीं जाने वाला व्यक्ति .. जब तक 10-20 बार  अनेक लोगों के बीच ये ना बक ले कि  "मेरी कल सुबह 10 बजे की फ्लाइट है"  या ,
 "मैं कल 5 बजे की फ्लाइट से वापिस लौटा!" ..उसे लगता हैं कि  मेरा आना जाना  सफ़ल नही हुआ !
छुटभैये बिल्डर ज़रा सा पैसा आते ही मोटी मोटी सोने  की चेन  और कड़ा  पहनकर अपने सफ़ल होने की भौंडी  नुमाईश करते  मिलेंगे !
नव धनाड्य हर साल कारें बदल कर अपने अमीर होने की पुनर्रुदघोषणा करते हैं  !

कुल मिलाकर ..जिस एक भाव से पूरा भारतवर्ष आविष्ट  हैं ..वह है -
"देख , मैं क्या हूं , और तू क्या है ?"

..यह दिखावावाद ही  वह खाद है.. जिस पर लहलहा रही हैं  भ्रष्टाचार की फसलें ,
वर्ग भेद के पौधे !
 और इन पर भिनभिना रहे हैं उच्चता  और निम्नतावाद  के कीड़े !
इसी के कारण सब रोगी हैं,  तनाव ग्रस्त हैं , कुंठित हैं ,  मनोविषादी हैं !

..यही कारण है कि  भारत डायबिटीज , हृदयरोग , ब्लड प्रेशर ,  कैंसर जैसी सभी प्रमुख बीमारियों का हब बना हुआ है !
और इन बीमारियों के निवारणार्थ  गली -गली में उग रहे हैं ..धर्म गुरु , ज्योतिषी , आयुर्वेदा,  योगा  के स्वयं-भू कमअक़्ल लपोसड़  विद्वान !

पूरा भारत भरा पड़ा है जग्गी-फग्गी , श्री-फ्री, आबाओं-बाबाओं और  चंगाई सभाओं से !
..कहीं सुबह गार्डन में नकली हास्यासन हों रहे है ..,
तॊ कहीं  जिन्नाद उतारे जा रहे हैं !

उधर ..पति पैसा कमाने की मशीन हुआ जा रहा है ..इधर पत्नि नकली जीवन की घुटन और नैराश्य से तिल तिल मर रही है !

जिस दिन ये श्रेष्ठता साबित करने  का जिन्न  उतर जाएगा भारत के सिर से, उस दिन  सब दुरुस्त होने लगेगा ..शरीर भी , स्वास्थ्य भी  धर्म भी , अध्यात्म भी !
...नकली बाबा , हकीम,  वैद्य , डाक्टर भी !

मगर इस नुमायशी आदमी के रहते साम्यवाद भी एक  सपना है  और राष्ट्रवाद भी दूर की कौड़ी है  !
...क्योंकि जब "मैं" मिटता है  और  "दूसरा" दिखता है ..
तब साम्यवाद भी संभावना है ..
जब "मैं" मिटता है और  "राष्ट्र" दिखता है ..तब राष्ट्रवाद भी संभावना है !

...लेकिन जब तक ये एलीट होने की विष्ठा भरी है दिमाग़ में ..और उच्चता -निम्नता  की पेशाब बह रही है रगों में ..तब तक इस देश में कोई संभावना नही है !

बचपन में एक कविता पढ़ी थी स्कूल में !

"दो आदमी  एक कमरे में ,
कमरा..  घर में
    घर , मुहल्ले में
        मुहल्ला.. शहर में
           शहर.. प्रदेश में
              प्रदेश , देश में

...ऐसे बढ़ते हुए वो बात  ब्रहांड तक जाती थी !

इस ब्रहांड में रेत के एक कण के खरबवें हिस्से से भी कम हैसियत है पृथ्वी की !
 हम-आपकी तॊ बिसात ही क्या ??
जब तक इस बोध से अनुप्राणित ना होंगे प्राण ..तब तक कोई संभावना नही है !

हाथ में सोने का कड़ा पहनने से कोई एलीट नही हॊता !
एलीट हॊता है आदमी , चेतना के उत्थान से !
एलीट हॊता है वो ..जिसकी आंखें सौम्य हों ,
जिसका ललाट भव्य हो ,
जिसकी भावना उद्दात हो ,
जिसके हृदय में प्रेम हो

मनुष्य एलीट हॊता है ..चेतना के विस्तार से ,
वस्तुओं के संग्रहण से नही !
ब्रह्मआत्म ऐक्य बोध से ,
दिखावे से नही !!
ये पूरब की उद्घोषणा थी !

मगर अब हम उस ऊंचाई से बहुत गहरी गर्त में आ गिरे हैं !

##सलिल ##

3.10.19

औसतन सब ठीक है सर तप रहा पग बर्फ पर


न रखूंगा रिक्त मैं..हिय के  समंदर को कभी ।
जाने कब किस को..मंथन की ज़रूरत आ पड़े ?
औसतन सब ठीक है सर तप रहा पग बर्फ पर –
रोज़ छपते हैं अब  कुछ इस तरह के आंकड़े !!
धुंध की रोगन वज़ह है दूर तक दिखता नहीं
पाँव भी उनके सुनहरी बेड़ियों से हैं बंधे.....!!


2.10.19

और बापू मुस्कुराए : भाग 2


कला अनुदेशक डॉ रेणु पांडेय के निर्देशन नें बच्चों ने बनाई प्रतिमा मिट्टी से..! गांधी जी के इस बस्ट को बनाकर बच्चे आज मेरे पास दिखाने लाए.! मन को प्रभावित करने के लिए इतना काफी था...प्रयोगवादी महात्मा ने देश को जो दिया वह कोई आसानी से नहीं दिया जाता अगर दिया भी जाए तो आसानी से ग्रहण करना मुश्किल है....लेकिन कमाल है.... #कृषकाय_काया का जिनने जो भी समाज को दिया समाज में हूबहू ग्रहण किया । करते भी क्यों ना क्योंकि उस समय की जनता में अपने नेता के प्रति सम्मान और विश्वास दोनों की कमी ना थी अटूट श्रद्धा विश्वास और सम्मान के साथ मेरी स्वर्गीया नानी गांधी बाबा की जय कहकर अपनी पूजा समाप्त करती थी ।
ब्रिटिश भारत के दौर में जब शिक्षा का आंकड़ा बहुत कमजोर था तब जबकि समाज बेहद जटिल समस्याओं से भी जूझ रहा था पर गांधी ने चरखी और तकलीफ पर कते सूत से पूरे देश को एक करने की कोशिश की । गांधी जी पर बहुत सारे सवाल उठते हैं उनसे आज के दौर को कोई लेना देना नहीं क्योंकि गांधी अंतरराष्ट्रीय चेहरा बन चुके हैं । ज़िद्दी तो प्रिटोरिया में भी थे महात्मा जब उन्हें फर्स्ट क्लास के डब्बे से बाहर कर दिया था और उन्होंने अपने हक की लड़ाई शुरू कर दी पहला आंदोलन का युवा गांधी का बेशक और वह भी दक्षिण अफ्रीका में ?
फिर वहां से यानी अफ्रीका से लौटे समाज के नायक ज़िद्दी गांधी ने नमक बना दिया खादी पहना दी और कहा कि स्वतंत्रता से पहले स्वच्छता जरूरी है हम उसे कैसे भूल सकते हैं । गांधी की व्यवसाई बुद्धि तो थी क्यों ना होती कम लागत पर अधिक लाभ आजादी का युद्ध कुछ इसी तरह से लड़ने के लिए प्रेरित किया न ज़्यादा खून बहाने की जरूरत महसूस की थी उनने भले ही बाद में कहना पड़ा करो या मरो की भी एक सीमा थी होती भी है पर विपरीत ध्रुव पर खड़े नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें अपना द्रोणाचार्य माना गांधी के प्रयोग के साथ साथ गरम दल के लोगों ने भी वही किया जो करना था बेशक युद्ध क्या संघर्ष क्या आंदोलन क्या गांधी तो वही सा के लिए प्रतिबद्ध थे और परिणाम आप देख रहे हैं यहां उन वीर शहीदों को अनदेखा नहीं कर रहा हूं जिन्होंने दायर की गोलियां खाई या आजाद हिंद सेनानी के रूप में अपना बलिदान दिया होना भी यही चाहिए पूर्ण प्राथमिकता के साथ ऐसे शहीदों को नमन करना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता भी होनी चाहिए । केवल हिंसा नहीं जरूरत पड़ने पर कृष्ण भी बनो जो हमेशा जरूरी भी है....
कुछ बातें कुछ मुद्दे और कुछ तर्क गांधी जी के जीवन को कटघरे में भले ही खड़ा कर दें परंतु औसतन महात्मा के व्यक्तित्व को देखा जाए तो वे विश्व के सबसे ज्यादा चर्चित और मोहक व्यक्तित्व को पेश करने में सफल हुए । 150 साल 150 साल बहुत बड़ी अवधि है.. !
हां यह सच है कि गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में स्वतंत्रता और सेल्फ रिस्पेक्ट यानी आत्म सम्मान की रक्षा के लिए डिफेंसिव आक्रमण किया और आक्रमण भी अनोखा सत्याग्रह अहिंसा ऐसे अस्त्रों का प्रयोग केवल और केवल महात्मा ही कर सकते थे आज भी गांधीजी इसीलिए जरूरी है । एक आयातित विचार पोषक साहित्यकार सह पत्रकार ने पंद्रह साल पहले अपने भाषण में जब गांधी जी को सामयिक बताया उस दिन मैं अवाक रह गया था ! अवाक रहना स्वभाविक था गांधी जी के सिद्धांतों से सुविधाजनक दूरी बनाए रखने वाले विचारकों ने गांधी को जरूरी बता दिया तब मुझे लगा कि वर्तमान में भी इन विचारकों के दिमाग में हिचकिचाहट है वह स्वीकार नहीं पा रहे हैं कि गांधी आज के लिए ही जरूरी नहीं है बल्कि भविष्य के लिए भी अति महत्वपूर्ण हैं । महात्मा का सार्वकालिक होना स्वभाविक है । गांधीवाद भारतीय सामाजिक व्यवस्था पर बेहद सकारात्मक असर छोड़ता है । जब ग्रामोद्योग की बात चलती है तब लगता है कितना सच सोच रहे थे तत्कालीन लोकनायक महात्मा गांधी । अगर महात्मा गांधी में इतनी सकारात्मक सोच ना होती तो उनका लोकप्रिय होना भी नामुमकिन था सार्वजनिक स्वीकृति की बात तो बहुत दूर हो जाती है परंतु कुछ लोगों को छोड़कर महात्मा जी को सार्वजनिक स्वीकृति मिली है इसे कोई नकार नहीं सकता । गोलमेज सम्मेलन और फिर सिलसिलेवार हुए अहिंसक आंदोलनों सड़कों पर आंदोलनकारियों ने अपनी ओर से रक्त पात नहीं कराया ।

और बापू मुस्कुराए : भाग 1

और बापू मुस्कुराए आलेख का प्रथम भाग आपके समक्ष पेश है स्वर्गीय महात्मा गांधी के जीवन से जो मुझे हासिल हुआ उसे लिखने की कोशिश कर रहा हूं
*और बापू मुस्कुराए*
बापू तुमने बरसों पहले कहा होगा पिछली शताब्दी में मैंने उसे अपनी विचारों की गठरी में रख लिया था .... रखता भी क्यों ना ?
गठरी खाली थी और रखता भी क्या खाली जगह में अच्छी चीजें ही अच्छी लगती है ना ?
अब बताओ क्या बंदूके रखता चाकू छुरी रखता बम पटाखे रखता नहीं यह मुझसे नहीं होता माँ ने रखवाईं... थीं...बहुत सारी कहानियां कुछ हरिश्चंद्र की कुछ बालक ध्रुव की,  राम की कहानी कृष्ण की भी तो रखवाईं थीं कहानियाँ और तुम्हारी बातें भी बापू जी ।
    उन सबको मैंने संभाल कर रख लिया ।
    अजीब हो तुम किसी से लड़ने भी नहीं देते क्यों करूं गाल उसके सामने जो मुझे मार रहा है...?
उस दिन की घटना याद है जब मुझे मेरी एक बदतमीज साथी ने अपमानित किया था ?
       सच बताऊं उस दिन सोचा था कि मैं अपनी गठरी से पत्थर निकालूं और मार दूँ..!
               पर यह ना हो सका शिव समझकर मैंने उसे अपनी गठरी में जो रखा था अब जब शिव समझ ही लिया है तो फिर उसे जाने क्यों दूं फिर लगा तमाचे जड़ देता हूं...?
     यह भी नहीं हो सका मां ने कहा था - "अहिंसा बहुत बड़ा आयुध है..!"
      पोटली में अहिंसा बांधी थी पर मिली नहीं मैं घबरा गया लगभग रुआंसा हो गया था । तभी तुमने पीछे से पीठ थपथपा कर कहा था- "बेटे... तुम्हारे जिस्म में विलीन हो गई है वह शंकर जी की बटैया जो तुम नर्मदा के भीतर से लाए थे.. और आप उसका कण-कण तुम्हारे ज़ेहन में बस चुका है ... अब तुम कुछ नहीं कर सकती हाथों में पिस्तौल भी होना तो गोली नहीं चला पाओगे फिर पत्थर फेंकना क्यों चाहती हो"
याद है न मैंने कहा था - प्रतिकार लेना है !

  1. इस पर तुमने कहा था उसे उपहार दे दो । मैंने वही तो किया था बापू तब तुम मुस्कुराए थे । वहीं मृदुल स्मित मुस्कान मेरे ज़ेहन में आज तक चस्पा है । बापू आज बहुत दिनों के बाद बच्चों ने पूरे उत्साह के साथ वही प्रतिमा गढ़ कर लाए... तो लगा कि तुम अमर हो तुम्हारी मुस्कान अमर है पावन हो पवित्र हो मैं तुम्हें क्या दे सकता हूं सिवाय भावपूर्ण नमन के..!

*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...