30.9.11

सूचना का अधिकार कहीं ब्लैक-मेलिंग का साधन तो नहीं

सूचना के अधिकार को लेकर लोग जिनको जागरूकता होनी चाहिये वे जागरूक हैं या नहीं ये एक चिंतन का विषय है किंतु कितने लोग सूचना के अधिकार का अनुप्रयोग किसी को ब्लैक-मेल करने के लिये करे इस बात पर विचार करना ज़रूरी है. हालिया दिनों में आर टी आई के बेजा स्तेमाल के मामला सामने आया जिसमें एक व्यक्ति ने एक महिला सह कर्मी के विवाह को लेकर सवाल पूछा था.बिजनेस-स्टैण्डर्ड में प्रकाशित एम जे एंटनी के आलेख में दिये उदाहरण से पुष्टि होती कि दुरुपयोग होने लगा है-" न्यायालय ने एक ऐसी अपील खारिज कर दी थी जिसमें आवेदक सभी निचली अदालतों में संपत्ति का एक मुकदमा हार जाने के बाद यह जानना चाहता था कि आखिर किस वजह से न्यायधीशों ने उसके खिलाफ फैसला सुनाया। खानपुरम और प्रशासनिक अधिकारी के इस मामले में दिए गए फैसले में कहा गया, 'कोई न्यायधीश यह बताने के लिए मजबूर नहीं है कि आखिर किस वजह से वह किसी निष्कर्ष पर पहुंचा।" (संदर्भ:-बिजनेस-स्टैण्डर्ड)
                             बेहतरीन कानून का दुरुपयोग होना भारत के लिये कितना घातक होगा  इस बात का अंदाज़ा भी होना चाहिये. अरविंद केजरीवाल  खुद कहते हैं कि "सूचनाके अधिकार का कानून फूलों की सेज नहीं है"हालांकि ये बात केज़रीवाल जी नें जिन संदर्भों में कही वो केवल आवेदक का पक्ष था किंतु अधिकतर सूचना के अधिकार के तहत किये गए आवेदन "वै्यक्तिक" कारणो से प्रेरित  होते हैं. जो कहीं न कहीं प्राप्त सूचना के दुरुपयोग की आहट हैं. इससे अथवा मानसिक क्लेश का कारण भी होते हैं.इन दिनों कुछ आपराधिक-वृत्ति के ब्लेकमेलर लोग इस कल्याणकारी कानून का धड़ल्ले से स्तेमाल करने से नहीं चूकते. 
व्यक्तिगत रूप से मैं  कदापि कानून के खिलाफ़ नहीं हूं. बल्कि उसके व्यक्तिगत-आघात हेतु उपयोग के  खिलाफ़ हूं. मेरी राय में कानून का प्रयोग करने वाले व्यक्ति/व्यक्तियों के सवालों / चाही गई जानकारियों की वज़ह भी पूछना आवश्यक होगा तथा यह सहमति लेना कि प्राप्त-सूचना का  किसी के मानवाधिकार अथवा व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सम्मान को क्षतिग्रस्त  दुष्प्रचार के लिये न करने का आश्वासन लेने का प्रावधान भी होना चाहिये. ताक़ि सूचना के अधिकार जैसे आवश्यक क़ानून का बेजा स्तेमाल न हो इस हेतु कानून में ऐसे सेफ़्टी-गार्ड अब बेहद ज़रूरी है. 

25.9.11

2 अक्तूबर ....


2 अक्तूबर 1869 ....
                गांधी  एक चिंतन के   सागर  थे  गांधी जी  को केवल  समझाया जाना हमारे लिए एक कष्ट कारक विषय है सच तो यह है की "मोहन दास करम चंद गांधी को " समझाने का साधन बनाने वालों से युग अब अपेक्षा कर रहा है की  वे पहले  खुद  बापू को समझें और फिर लोगों को समझाने की कोशिश करें.  महात्मा गाँधी की आत्मकथा  के अलावा उनको किसी के सहारे समझने की कोशिश भी केवल बुद्धि का व्यापार माना जा सकता है.इस बात को भी नकारना गलत होगा   गांधीजी - व्यक्ति नहीं, विचार यही उनके बारे में कहा सर्वोच्च सत्य है . 140 बरस बाद भी गांधी जी का महान व्यक्तित्व सब पर हावी है क्या खूबी थी उनमे दृढ़ता की मूर्ती थे बाबू किन्तु अल्पग्य  उनका नाम "मज़बूरी" के साथ जोड़ते तो लगता है की हम कितने कृतघ्न हो गए . 
बापू अब एक ऐसे दीप स्तम्भ होकर रह गए हैं जिसके तले  घुप्प तिमिर  में पल रहा है विद्रूप भारत . उसका कारण है कि बापू को जानते तो सब हैं पहचानने वाले कम हीं है. 
मुझे सबसे ज़्यादा आकृष्ट करती है कि बापू के साथ केवल सत्य है जो एक बच्चा बना आगे आगे चल रहा है. सोचिये क्या आज का नेता अफसर,पत्रकार,विधि-विज्ञानी, बापू का ऐसा साथी बनाना चाहता है. कदापि नहीं . 
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आज सबको सिगमेंट में जीने की आदत है कहीं कोई बिहार में कोई महाराष्ट्र में तो कोई छतीसगढ़ में जी रहा है ..... कहीं कोई जाती में तो कोई धर्म में तो कोई वर्ग में ज़िंदा है. मुझे कोई नहीं मिलता "भारत" में जीने वाला.  बताइये बापू किसे साथ रखगें अपने साथ .
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मेरे शहर के पूर्व महापौर गांधी जयंती की पूर्व संध्या पर खबर रटाऊ केबल समाचार को इंटरव्यू दे रहें हैं कि बापू की मूर्ती न लगाए जाने का विरोध बहुत क्रांतिकारी तरीके से करते नज़र आ रहे हैं ............ बापू आपकी "अहिंसा" आपके बाद  इन लोगों ने आपकी भस्मी के साथ पवित्र नदियों में विसर्जित कर  दीं हैं .... आपकी सहयात्री दंडिका का दुरुपयोग ये अच्छी तरह से करना सीख गए बापूजी .
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बापू, सच तुम कितने साहसी थे सत्य  का सफ़ेद झक्क लिबास, फ़ोटू में आपकी लकड़ी पकड़ा बच्चा, सच तुमको हर बच्चा खोज रहा है. एक ने मेरे बच्चों को बताया भी कि वो आज़ का गांधी है.. हो सकता है भरम हो गया हो. किसी भी बच्चे ने उसे बापू न माना. मानते भी क्यों बापू तुम क्या हो उन बच्चों की नज़र में सभी को मालूम है. वे किताबों के ज़रिये तुम से मिल आते हैं अक्सर तो किसी को बापू क्यों मानें. बहरहाल आज़ तुम्हारे जन्म दिन पर मैं तो बस एक ही गीत गाऊंगा 
वैष्णव जन तो 

22.9.11

मन ही मन

बेटी बचाओ अभियान :एक ज़रूरी अभियान


मध्य-प्रदेश में 5 अक्टूबर 2011 से बेटी बचाओ अभियान का शुभारम्भ जनचेतना को जगाने का एक महत्वपूर्ण कदम है. यह बेहद ज़रूरी भी है. कारण है पिछले दस वर्षों में सम्पूर्ण भारत का  लिंगानुपात 933 से बढ़कर 940 हो गया साथ ही बच्चो का लिंगानुपात स्वतंत्र भारत के सबसे निचले स्तर पर जो एक नकारात्मक  सूचना है. एक और ज़रूरी तथ्य जो समाज का बेर्टियों के बारे में दृष्टिकोण उज़ागर करता है वो है नवजात शिशुओं की मृत्यु दर  वर्ष 1990,1995,2000,2005 तथा  2009  तक
हमेशा बालिकाओं की मृत्यु का आंकड़ा सदैव अधिक ही रहा. ये अलग बात है कि नवजात शिशु मृत्यु की स्थिति में सकारात्मक परिवर्तन आया है. किंतु बालिका मृत्यु दर सदा ही प्रथम दो वर्षों क्रमश: 90,95 में तीन, 2000 में 2, 2005 में 5, तथा 2009 में पुन: 3 देखी गई. यानी प्रदेश की स्थिति देखें तो सकल शिशु मृत्यु दर 67 मध्य-प्रदेश में तथा 12 प्रति हज़ार केरल में आंकलित की गई. यानी प्रति हजार जीवित जन्मों में से 67 बच्चों का पहला जन्मदिन न मना पाना दु:खद स्थिति है. बालिकाओं के संदर्भ में सोचा जाए तो लगता है कि वास्तव में हम बेटियों के उपरांत उनकी बेहतर देखभाल के लिये  अभी भी उत्साहित नही हैं.     
                    जबकि सरकार ने प्रसव हेतु अब जननी एक्सप्रेस   लाड़ली लक्ष्मी योजना, कन्यादान  जैसी योजनाए क्रियांवित कर “पालने से पालकी तक” की ज़िम्मेदारी स्वीकार ली है तो फ़िर हम क्यों बालिकाओं के लिये नज़रिया बदलने में विलम्ब कर रहें है
   मध्य-प्रदेश सरकार  का "बेटी-बचाओ अभियान" पांच अक्टूबर से प्रारंभ होगा जो  हमारे चिंतित मन को चिंतन की राह देगा ये तय है.. बस एक समझदारी की ज़रूरत को दिशा देते इस अभियान में छिपे संदेशों को समझिये और समझाईये उनको जो यह नहीं जानते कि बेटी का होना कोई बोझ नहीं यदि हमारी सोच सकारात्मक है. नर्मदांचल में माएं अपनी बेटियों को ससुराल विदा करते वक़्त उसकी कोख की पूजन करतीं हैं. जो यह साबित करने के लिये पर्याप्त है कि देश की सांस्कृतिक-सामाजिक व्यवस्था बेटी के लिये कदापि नकारात्मक नहीं किंतु काय-विज्ञान और परीक्षण तक़नीकी विकास ने भ्रूण परीक्षण को आकार दिया.और आम आदमी अजन्मी-बेटियों के अंत के लिये सक्षम हो गया. इस पाशविक सोच से मुक्ति का मार्ग है प्रशस्त करेगा  "बेटी बचाओ अभियान.
  देश के समग्र विकास के साथ लिंगानुपात में कमी आना हमारे सर्वांगीण विकास की सूचना तो कदापि नहीं है. आकंड़े देख कर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि हम किस कदर भयभीत हैं बेटी के जन्म से. यद्यपि हम समूचे भारत में जहां देश का सम्पूर्ण आंकड़ा .75 की कमी का सूकाक है वहीं मध्य-प्रदेश में महिलाओं की संख्या में 1.20 प्रतिशत की कमी को सूचित करता यह आंकड़ा कहीं न कहीं हमारी नकारात्मक सोच को दर्शाता है. 
  
क्रम
भारत एवम मध्य-प्रदेश
1991
2001
2011
01
भारत
927
933
940
02
मध्य-प्रदेश
912
920
930

   यानी कुल मिला कर हम बेटीयों के प्रति अपना नज़रिया न बदल सके.    
  मध्य-प्रदेश-सरकार ने लाड़ली-लक्ष्मी योजना, और मंगल दिवस कार्यक्रमों का संचालन बालिकाओं के प्रति  सामुदायिक सोच में बदलाव लाने के प्रारंभ किया. इतना ही नहीं सरकार की कन्या दान योजना, नि:शुल्क गणवेश और सायकल वितरण,कार्यक्रमों को प्रभावी तरीके से लागू कर दिया. 
 यानी सरकार की चिंता है आपकी बेटी आप बस चिंतन कीजिये .. खुद से पूछिये कि "बेटियों के बग़ैर आपको आपका घर" कैसा लगता है. कभी सोचा है आपने कि धीरे धीरे कम होती बेटियां देश को किस गर्त में ढकेलने जा रहीं हैं. यदि नहीं तो आज से अभी से सोचना शुरु कीजिये. तय है कि आप ज़ल्द ही इस नतीज़े पर पहुंच जाएंगे कि बेटी बचाना क्यों ज़रूरी है..?
जी सही सोच रहे हैं आप बेटियों के अभाव में विकास का पहिया अपनी धुरी पर घूमता नज़र आएगा आपको.  
एक सृजनिका को समाप्त होना जिन सामाजिक विकृतियों को आपको सौंपेगा उनमें से एक होगी "मानव-संसाधनों की कमीं" जिसकी भरपाई के लिये कोई सा विज्ञान सक्षम न होगा

19.9.11

‎"बेटी-बचाओ अभियान" हमारे चिंतित मन को चिंतन की राह देगा


 


  
                                     


        


 चार्ट अ)                   
क्रम
भारत एवम मध्य-प्रदेश
1991
2001
2011
01
भारत
927
933
940
02
मध्य-प्रदेश
912
920
930

मध्य-प्रदेश में 05  अक्टूबर से बेटी बचाओ अभियान का शुभारम्भ जनचेतना को जगाने का एक महत्वपूर्ण कदम है. यह बेहद ज़रूरी भी है. कारण है पिछले दस वर्षों में सम्पूर्ण भारत का  लिंगानुपात 933 से बढ़कर 940 हो गया जो भले ही एक उत्तम स्थिति कही जा सकती है किंतु  बच्चो का लिंगानुपात स्वतंत्र भारत के सबसे निचले स्तर पर जो एक नकारात्मक  सूचना है. एक और ज़रूरी तथ्य जो समाज का बेटियों के बारे में दृष्टिकोण उज़ागर करता है वो है नवजात शिशुओं की मृत्यु दर  (भारत की स्थिति )  वर्ष 1990,1995,2000,2005 तथा  2009  तकहमेशा बालिकाओं की मृत्यु का आंकड़ा सदैव अधिक ही रहा. ये अलग बात है कि नवजात शिशु मृत्यु की स्थिति में सकारात्मक परिवर्तन आया है. किंतु बालिका मृत्यु दर सदा ही कुल शिशु मृत्यु के प्रकरणों का तुलनात्मक परीक्षण पर ग्यात होता है कि बालकों के सापेक्ष बालिकाओं की मृत्यु प्रथम दो वर्षों क्रमश: 90,95 में तीन2000 में 2, 2005 में 5, तथा 2009 में पुन: 3 अधिक है. यानी प्रदेश की स्थिति देखें तो सकल शिशु मृत्यु दर 67 मध्य-प्रदेश में तथा 12 प्रति हज़ार केरल में आंकलित की गई. यानी प्रति हजार जीवित जन्मों में से 67 बच्चों का पहला जन्मदिन न मना पाना दु:खद स्थिति है. बालिकाओं के संदर्भ में सोचा जाए तो लगता है कि वास्तव में हम बेटियों के उपरांत उनकी बेहतर देखभाल के लिये  अभी भी उत्साहित नही हैं. सरकार ने प्रसव हेतु अब जननी एक्सप्रेस   लाड़ली लक्ष्मी योजनाकन्यादान योजना क्रियांवित कर पालने से पालकी तक” की ज़िम्मेदारी स्वीकार ली है तो फ़िर हम क्यों बालिकाओं के लिये नज़रिया बदलने में विलम्ब कर रहें है.  
   मध्य-प्रदेश सरकार  का "बेटी-बचाओ अभियान" पांच अक्टूबर से प्रारंभ होगा जो  हमारे चिंतित मन को चिंतन की राह देगा ये तय है.. बस एक समझदारी की ज़रूरत को दिशा देते इस अभियान में छिपे संदेशों को समझिये और समझाईये उनको जो यह नहीं जानते कि बेटी का होना कोई बोझ नहीं यदि हमारी सोच सकारात्मक है. नर्मदांचल में माएं अपनी बेटियों को ससुराल विदा करते वक़्त उसकी कोख की पूजन करतीं हैं. जो यह साबित करने के लिये पर्याप्त है कि देश की सांस्कृतिक-सामाजिक व्यवस्था बेटी के लिये कदापि नकारात्मक नहीं किंतु काय-विज्ञान और परीक्षण तक़नीकी विकास ने भ्रूण परीक्षण को आकार दिया.और आम आदमी अजन्मी-बेटियों के अंत के लिये सक्षम हो गया. इस पाशविक सोच से मुक्ति का मार्ग है प्रशस्त करेगा  "बेटी बचाओ अभियान" .
  देश के समग्र विकास के साथ लिंगानुपात में कमी आना हमारे सर्वांगीण विकास की सूचना तो कदापि नहीं होगी . आकंड़े देख कर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि हम किस कदर भयभीत हैं बेटी के जन्म से. 
              लिंगानुपात में नकारात्मक्ता प्रदर्शित करने वाले जिलों की स्थिति देखें जहां  एक  हजार पुरुषों  के सापेक्ष  महिलाओं का आंकड़ा कम है वे  जिले हैं भिंड  838,मुरैना  839, ग्वालियर  862, दतिया  875, शिवपुरी  877,छतरपुर  884, सागर  896, विदिशा  897, 
                      इसके  कारण में मूल रूप से बेटियों के लिये नकारात्मक सामाजिक-सोच के अलावा कुछ भी नज़र नहीं आता . इसी सोच को बदलने के लिये  मध्य-प्रदेश-सरकार ने लाड़ली-लक्ष्मी योजनाऔर मंगल दिवस कार्यक्रमों का संचालन बालिकाओं के प्रति  सामुदायिक सोच में बदलाव लाने के प्रारंभ किया. इतना ही नहीं सरकार की कन्या दान योजनानि:शुल्क गणवेश और सायकल वितरण,कार्यक्रमों को प्रभावी तरीके से लागू कर दिया. 
सम्पूर्ण भारत के सापेक्ष मध्यप्रदेश लिंगानुपात में 10प्रतिहज़ार का अंतर है. यानी प्रति हज़ार पुरुष के पीछे 930 महिलाएं हैं यानी 70 महिलाएं अभी भी कम हैं. जबकि भारतवर्ष में समग्र रूप 60 महिलाएं. प्रति हजार पुरुष के पीछे कम हैं. जिसका कारण कम लिंगानुपात वाले जिले है.    
                       मध्य-प्रदेश में यह अभियान उस दिन से ही शुरु माना जाएगा जिस दिन से सरकार ने लाडली लक्ष्मी जैसी जन हितैसी योजना को आकार दिया जिसका आधार ही लिंगानुपात में कमी लाना था. योजना के तहत बालिका को बालिका के लिये  6000/- के मान पोस्ट-आफ़िस में फ़िक्स बचत लिये जातें हैं इतना ही नहीं अध्ययन सहायता के लिये  6 वीं कक्षा में 2000रूपये, कक्षा वीं में  4000 रूपये, कक्षा 10 वीं में7500 और 11वीं कक्षा से 200 रूपये प्रतिमाह दो वर्ष तक दिये जाने का प्रावधान भी है। कुल मिला कर बालिकाओं के लिये पालने से पालकी तक” की चिंता करने वाली मध्य-प्रदेश सरकार ने बेटी बचाओ अभियान के  ज़रिये यह   संदेश दिया है कि समुदाय यानी हम-आपको बेटियों के प्रति सोच बदलनी ही होगी 
यानी सरकार की चिंता है आपकी बेटी आप बस चिंतन कीजिये .. खुद से पूछिये कि "बेटियों के बग़ैर आपको आपका घर" कैसा लगता है. कभी सोचा है आपने कि धीरे धीरे कम होती बेटियां देश को किस गर्त में ढकेलने जा रहीं हैं. यदि नहीं तो आज से अभी से सोचना शुरु कीजिये. तय है कि आप ज़ल्द ही इस नतीज़े पर पहुंच जाएंगे कि बेटी बचाना क्यों ज़रूरी है..?
     जी सही सोच रहे हैं आप बेटियों के अभाव में विकास का पहिया अपनी धुरी पर घूमता नज़र आएगा आपको.  एक सृजनिका को समाप्त होना जिन सामाजिक विकृतियों को आपको सौंपेगा उनमें से एक होगी "मानव-संसाधनों की कमीं" जिसकी भरपाई के लिये कोई सा विज्ञान सक्षम न होगा




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