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26.12.23

धर्म का बहुविकल्पीय होना जरूरी है..!

*धर्म का बहुविकल्पीय होना जरूरी है*
*गिरीश मुकुल*
    धर्म अगर विकल्पों से युक्त ना हो तो उसे धर्म कहना ठीक नहीं है। धर्म का सनातन स्वरूप यही है। या कहिए सनातन धर्म की विशेषता भी यही है। हम धर्म को परिभाषित करने और समझने के लिए बहुतेरे  कोणों उपयोग और अंत में यह कह देते हैं कि-" भारत मैं पूजा पाठ का पाखंड फैला रखा है ब्राह्मणों ने।
  सनातन धर्म को केवल  पूजा पाठ एवं कर्मकांड से जोड़ना अल्प बुद्धि का परिचायक है। सनातन एक व्यवस्था है बहुविकल्पीय व्यवस्था है सनातन में नवदा-भक्ति का उल्लेख मिलता है।
श्रवण, कीर्तन,स्मरण, पादसेवन,अर्चन , वंदन , दास्य , सख्य  एवं आत्मनिवेदन - 
यहां यह स्पष्ट हो जाता है कि जो हम रिचुअल्स अर्थात प्रक्रियाएं अपनाते हैं जिसे सामान्य रूप से कर्मकांड कहते हैं ही सनातन नहीं है बल्कि 9 प्रकार की उपरोक्त समस्त भक्ति सनातन व्यवस्था में वर्णित है।
   आप सभी समझ सकते हैं कि नवदा भक्ति से ब्रह्म तत्व की प्राप्ति संभव है।  बहुत से पंथों मतों और संप्रदायों संस्थापक द्वारा दिए गए निर्देशों का ही पालन होता है। जबकि सनातन धर्म में उपासना को भी बंधनों से अगर बांधा गया है तो देश काल परिस्थिति के अनुसार उपासना के विकल्प भी सुझाए गए हैं। एक व्यक्ति जिसे शिव की पूजा करने का तरीका नहीं मालूम तो वह शिव की आराधना मानस पूजा से कर सकता है। सनातन मुक्ति मार्ग सुझाता है, क्योंकि सनातन *पुनरपि जन्मं  पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे सनम* को मानता है अतः वह मुक्ति मार्ग को श्रेष्ठ मार्ग मानता है। इसके अलावा सनातन कर्मवाद की उपेक्षा नहीं करता। बल्कि *कर्म ही पूजा है..!* जैसे सिद्धांतों को सम्मान देता है।
    मालवा-निमाड़-भुवाणा क्षेत्र में एक लोकोक्ति है- *"फूल नि..फूल की पाखड़ी"* अर्थात फूल ना मिले तो वो उसकी पंखुड़ी से भी ईश्वर के प्रति अपनी भावना व्यक्त की जा सकती है।
सनातन व्यवस्था की मुखालफत करने वाले लोग यह नहीं जानते कि सनातन व्यवस्था में *स्वर्ग- नर्क की कल्पना* से ज्यादा महत्वपूर्ण है... साधक का मुमुक्षु होना। कोई भी जी इस बात की परिकल्पना नहीं करता कि उसे स्वर्ग के सुख का अनुभव हो बल्कि वह परिकल्पना करता है कि वह ईश्वर तत्व में विलीन हो जाए। ईश्वर अमूर्त है ईश्वर निर्गुण है ईश्वर एकात्मता का सर्वोच्च उदाहरण है। यह बौद्धिक मान्यता है। लौकिक मान्यता के अनुसार-" सनातन साधना को महत्व देता है।"
    ब्रह्म का स्मरण ब्रह्म की साधना से पहले आराधना और आत्म केंद्रीकरण के लिए साधक प्रारंभिक स्थिति में पूजा प्रणाली को प्रमुखता दी है। साधक पूजा प्रणाली में शुचिता और पवित्रता के साथ प्रविष्ट होता है। क्योंकि मनुष्य अथवा जीव का शरीर भाव और भौतिक स्वरूप में होता है अतः मनुष्य को शारीरिक अनुशासन के लिए शुचिता और पवित्रता के नियमित अभ्यास के लिए पूजा प्रणालियों का विकास किया गया। यह पूजा प्रणालियां देश काल परिस्थिति के अनुसार परिवर्तनशील है। 
प्रणालियों में जड़ता तो बिल्कुल नहीं है। इस प्रणाली के कारण विभिन्न संप्रदाय एवं मत जन्म ले सकते हैं।
   मित्रों यह गलत है कि केवल ब्राम्हण सनातन का संवाहक है। कुछ विद्वानों ने धर्म और धार्मिक क्रियाओं की उपस्थिति को कुछ विद्वानों ने तो कुछ विद्वानों ने ब्राह्मणों को धर्म का केंद्र मानते हुए अपने-अपने मत रखकर समाज को भी ब्राह्मणों को विरोध का बिंदु बनाने की कोशिश की है।

आप ध्यान से देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि ब्राह्मण सनातन का एक हिस्सा है उसे उसके दायित्व शॉप पर गए हैं। वर्ण व्यवस्था में भी यही है और वह प्रक्रियाओं के निष्पादन में सहायता करता है जिस तरह से आज न्यायालय में वकील जो  न्यायालय की संपूर्ण कार्य प्रणाली को जानता है उसे कोर्ट कचहरी में मदद हेतु आने की अनुमति दी जाती है। अन्य वर्णों पर भी यही फॉर्मूला लागू होता है।
   प्रगतिशील विचारक तथा तथाकथित बुद्धिजीवी अपने प्रभाव को विस्तारित करने के लिए ब्राह्मण शब्द का विरोध करते हुए अपने मत का प्रवर्तन एवं उसका विस्तार करते हैं। और  प्रवर्तन तथा विस्तार की प्रक्रिया जिन मंतव्यों प्रयोग करते हैं वह सामाजिक विघटन की आधारशिला है।
  आयातित विचारधारा का उद्देश्य है लोगों को वर्गीकृत करो, वर्गों को उत्तेजित करो, समाज में विघटन पैदा करो। पिछले दिनों दिल्ली के एक मंत्री राजेंद्र गौतम ने सार्वजनिक रूप ने  सनातन अर्थात वर्तमान शब्दों में हिंदुत्व के विरुद्ध शपथ दिलाते हुए लोगों को सनातन मान्यताओं के परित्याग की शपथ दिलाई है।
  यह घटना केवल दिल्ली में ही नहीं देखी गई बल्कि छोटे-छोटे शहरों कस्बों यहां तक कि गांवों में भी तेजी से विस्तारित हो रही है। मुझे ज्ञात हुआ है कि मेरे जिले के पास के एक जिले से कुछ लोग एक गांव में जाकर एक जाति विशेष को एकत्र करते हैं जिसे भी दलित मानते हैं यद्यपि हम नहीं । जाति समूह के सामने सनातन की कमियों को उजागर करते हुए भ्रामक जानकारियां देते हैं। और बाद में श्री राजेंद्र गौतम की तरह ही आस्था के केंद्र में परिवर्तन की शपथ दिलाते हैं। सौभाग्य वश समूचा समूह उत्तेजित होकर उन का परित्याग कर देता है।
   कुल मिलाकर सनातन धर्म की विशेषताओं को किनारे रखकर वातावरण निर्माण किया जा रहा है। और अपने मंतव्य तथा मतों को स्थापित करने की अनाधिकृत कोशिश राष्ट्रीय एकात्मता आपको छिन्न-भिन्न करने पर आमादा है। एक बौद्धिक आंदोलन की आवश्यकता है जो वास्तविक पंथनिरपेक्षता को प्रोत्साहित करें। और इसका तरीका है नकारात्मक विचार प्रवाह पर रोक लगाना।


1.11.14

अल्पसंख्यकों की दुर्दशा करते चरमपंथी

 यज़ीदी अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ होते धर्मांध 
आई एस आई एस की दरिंदगी उफ़्फ़ !!उनके द्वारा  यज़ीदी समुदाय की औरतों एवम बच्चों के खिलाफ़ हो रहे जुल्मो-सितम की खबरें विश्व के लिये एक चिंता का विषय है.परंतु इस पर विश्व के अगुआओं की नज़रफ़ेरी से बेहद दुख:द स्थिति जन्म ले रही है.   उधर यज़ीदीयों का धर्म उनको अल्प संख्यक के रूप में स्थापित रखता है. वे  विश्व में मात्र सात लाख रह गए हैं. उनका दोष मात्र इतना है वे "शैतान को मान्यता " देते हैं.
        नवभारत टाइम्स के अनुसार "पुरातन काल से यजीदी इराक के अल्पसंख्यक हैं। ये लोग शुरू से ही शैतान को पूजते आ रहे हैं। इनके धार्मिक सूत्रों में शैतान ईश्वर के बनाए सात फरिश्तों में से एक है और उसका दूसरा नाम मेलक तव्वस है। माना जाता है कि आदम को सिजदा न करने पर मेलक को ईश्वर ने न सिर्फ माफ कर दिया बल्कि उसके स्वाभिमान से काफी प्रभावित हुए।
18वीं और 19वीं सदी में यजीदियों को शैतान पूजक बताकर जातिगत द्वेष के चलते बड़ी तादाद में मारा गया। इससे मिलती-जुलती घटना उनके साथ 2007 में भी घटी। धमकियों के चलते यजीदियों के धर्मगुरु बाबा शेख ने वह सालाना उत्सव भी बंद करा दिया जो लालेश टैंपल में हुआ करता था। यजीदियों अपनी अलग मान्यताओं के लिए फांसी तक मिलती रही है, लेकिन इन्होंने अपना धार्मिक विश्वास नहीं बदला"
    विश्व के महान धर्मों का सारभूत तत्व सभी जानते हैं किंतु धर्मांधता के चलते  मानवता का अंत नज़दीक आ रहा है. भारत में रावण की पूजा करने वाले मौज़ूद हैं, नास्तिक भी मौज़ूद हैं किंतु भारतीय उनसे वैचारिक रूप से, भले अलग हों पर उनके "जीने के अधिकार को छीनने से क़तई सहमत नहीं " किंतु ISIS के इस्लामिक चरमपंथियों की अवधारणा ये नहीं हैं. वे आज़ भी आदिम धूर्तता को अंगीकृत किये हुए हैं .
चरमपंथियों की ज़ंज़ीर में यज़ीदी मतावलम्बी औरतें 
     अब विश्व के सभी नागरिकों को या तो आग्रह से अथवा बलात ये सिखाने की ज़रूरत आन पड़ी है कि    धर्म के पालन का अधिकार जीवनाधिकार के तुल्य है. धर्म के अधिकार को यदि कोई भी लोभ लालच दिखाकर  अथवा से छीनने की कोशिश करता है तो उसे जीवनाधिकार से वंचित रखा जावेगा.. विश्व का हर देश ये क़ानून बनाए तो तय है कि शायद कुछ हद तक धार्मिक उन्माद रुकेंगे. यह भी कि विश्व समुदाय द्वारा एक जुट होकर धर्मांध चरमपंथियों दबाव बनाना ही होगा. देखना है कि इस सोच पर कौन क्या सोचता है..
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9.9.10

"दुश्मनों के लिये आज़ दिल से दुआ करता हूं....!"


सोचता हूं कि अब लिखूं ज़्यादा और उससे से भी ज़्यादा सोचूं .....? 
सच कितना अच्छा लगता है जब किसी को धीरज से सुनता हूं. आत्मबल बढ़ता है. और जब किसी को पढ़्ता हूं तो लगता है खुद को गढ़ता हूं. एक  पकवान के पकने की महक सा लगता है तब ....और जब  किसी के चिंतन से रास्ता सूझता है...तब उगता है साहस का ...दृढ़ता का सूरज मन के कोने में से और फ़िर यकायक  छा जाता है प्रकाश मन के भीतर वाले गहन तिमिर युक्त बयाबान में.... ? 
ऐसा एहसास किया है आपने कभी ..!
किया तो ज़रूर होगा जैसा मैं सोच रहा हूं उससे भी उम्दा आप  सोचते हो है न........?
यानी अच्छे से भी अच्छा ही होना चाहिये सदा.अच्छे से भी अच्छा क्या हो यह चिंतन ज़रूरी है.
वे पांव वक़्त के नमाज़ी है, ये त्रिसंध्या के लिये प्रतिबद्ध हैं, वो कठोर तपस्वी हैं इन धर्माचरणों का क्या अर्थ निकलता है तब जब हम केवल स्वयम के बारे में सोचते हैं. उसने पूरा दिन दिलों को छलनी करने में गुज़ारा... और तीस दिनी रोज़ेदारी की भी तो किस तरह और क्यों अल्लाह कुबूल करेंगें सदा षड़यंत्र करने वाला मेरे उस मित्र को अगले रमज़ान तक पाक़ीज़गी से सराबोर कर देना या रब .ताकि उसके रोज़े अगली रमज़ान कुबूल हों...!
ईश्वर उस आदमी को  सबुद्धि देना जो मुझे जाने बगैर मेरी नकारात्मक-छवि चारों ओर बनाए जा रहा है उसकी त्रिकाल संध्या ईश्वर स्वीकारे यही प्रार्थना करता हूं. 
वो इन्सान जो सन डे के सन डे गिरजे में जाकर प्रभू के सामने प्रेयर करता है पूरे हफ़्ते मेरे दुर्दिन के लिये प्रयास करता है उसे माफ़ कर देना उसे पवित्र बना देना ताकि उसकी भी साप्ताहिक प्रेयर स्वीकार सकें आप .
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 दोस्तों शक्ल में मिले इन दुश्मनों के उजले कल के लिये याचना का अर्थ उनके बेहतर कल के लिये है न कि उनको अपमानित करने अपमानित करना होता तो सच नाम सहित उल्लेख करता. मुझमें इस बात का साहस है किंतु किसी को आहत करके उसे बदलने से बेहतर है ..... एक सदाचारी की तरह दुश्मन के लिये भी सदभावना रखना.
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 कल देखिये:-” जीवन में सब कुछ करो झूठी चुगलियों को छोड़ कर"



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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...