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शुक्रवार, जुलाई 12, 2024

क्या 2025 में सोने की कीमतें स्थिर हो जाएंगी ?

विश्व बैंक के मुताबिक, साल 2024 में सोने की कीमत औसतन 2,100 डॉलर प्रति औंस रहेगी
   यह अनुमान इस बात पर आधारित है अंतरराष्ट्रीय तनाव की स्थिति पर।
हम सब जानते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय तनाव अथवा  संघर्ष के कारण वैश्विक रूप से पूंजी निर्माण एवं व्यापार अनिश्चितता बढ़ सकती है,
   मूल्यवान धातुओं के मूल्य में तेजी से उछाल भी इसी कारण आता है।
आईएनजी का अनुमान है कि साल 2024 में सोने की कीमत औसतन 2,031 डॉलर प्रति औंस रहेगी, जबकि चौथी तिमाही में इसका औसत 2,100 डॉलर प्रति औंस रहेगा. यह तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगाए गए अनुमान हैं। आईए भारत के संदर्भ में सोने की कीमतों के संबंध में हांबचर्चा करते हैं
*2025 के बाद आएगी सोने में स्थिरता..!*
सवाल यह है कि क्या भारत में सोने की कीमतों में भविष्य में स्थिरता आ सकती है।
यह समकालीन परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
   भारत में सोने की कीमत का अनुमान कई आर्थिक विकास एवं राजनीतिक परिस्थितियों के अधीन है।  पर निर्भर    
        विश्लेषकों का अनुमान था कि साल 2024 के अंत तक सोने की कीमतें लगभग ₹75,000 प्रति 10 ग्राम तक पहुंच सकती हैं. परंतु सोने की कीमतों में विश्लेषकों के अनुमान को गलत साबित करते हुए पहले 6 महीनों  में ही बढ़त बना ली है।
कुछ अनुमानों के मुताबिक, साल 2024 के अंत तक सोना की कीमत 80 हज़ार से एक लाख रुपये तक पहुंच जाएगी इससे स्पष्ट है कि सोना लगभग ₹100000 प्रति 10 ग्राम वर्षांत के पूर्व ही हो सकता है।
    साल 2025 तक 10 ग्राम सोने की कीमत एक लाख तीस हजार से अधिक नहीं होगा। वर्तमान में कम मूल्य वाले स्टॉक पर निवेश बढ़ाना जारी है। परंतु टैक्सेशन को देखते हुए मध्यमवर्ग  पूंजी बाज़ार विनियोग के लिए मानसिक तौर से तैयार नहीं है।
    अर्थव्यवस्था का वित्तीय विश्लेषण एवं मध्य वर्ग के पूंजी निर्माण की दर को देखकर लगता है कि - "वह अपनी बचत विनियोजित में ही विनियोजित करेगा।"
मध्य वर्ग का पूंजी निवेश तब तक सोने में होता रहेगा जब तक कि सोने की कीमतों में 2015 और 2018 के बीच बीच की स्थिरता न बने। ऐसा लगता है कि 2025 में सोने के मूल्य में स्थिरता के संकेत नहीं हैं।
आपने देखा होगा 2019 में अचानक 56% की वृद्धि के साथ सोने में उछाल आना शुरू हो गया था। सोने की कीमतों में यह वृद्धि आंशिक  उतार-चढ़ाव के साथ 2030 तक जारी रहने की संभावना है।
*वर्तमान में सोने में उछाल का प्रतिशत मासिक रूप से 3.9 रहा है जबकि वर्तमान  तिमाही में  2.4 प्रतिशत वृद्धि मापी की गई।
6 माह एवं 1 वर्ष में हुई बढ़त पर नजर डालें तो  17.9% तथा 24.7% वृद्धि दर है।*
  *कुल मिलाकर  पिछले 5 वर्षों में कीमतों में बढ़ोतरी 117.7% के साथ उच्चतम स्थान पर है।*
   अगर सरकार आयकर पर अधिकतम सीमा को बढ़ा देती है तो देखा जा सकता है कि स्वर्ण कीमतों में और अधिक वृद्धि हो सकती है।
   बहरहाल केवल अनुमान है, वास्तविकता तो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों पर निर्भर करती है। सोने की कीमतों में स्थिरता की कल्पना फिलहाल करना गलत होगा।
   समसामयिक परिस्थितियों तो यही संकेत दे रही हैं।
Youtube 

मंगलवार, जुलाई 02, 2024

भारत का मध्यम वर्ग ही भारत का सॉफ्ट पावर है

     6 दिसंबर 2011 को अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने एक भाषण में आर्थिक विकास में मध्य वर्ग की भूमिका को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा था, “एक कमजोर मध्य वर्ग पूरे देश के आर्थिक विकास को बाधित करता है। मजबूत विकास के लिए सशक्त मध्य वर्ग जरूरी है। जब कंपनियों के उत्पाद और सेवाओं को खरीदने में मध्यवर्गीय परिवारों की क्षमता घटने लगती है, तो अर्थव्यवस्था में ऊपर से नीचे तक सब कुछ गिरने लगता है। असमानता हमारे लोकतंत्र को विकृत करती है क्योंकि इससे वे चुनिंदा लोग ही अपनी आवाज उठा पाते हैं जिनके पास लॉबिंग और प्रचार के लिए पैसा होता है।”
   उपरोक्त समाचार शायद आपने पढ़ा होगा। यदि नहीं पढ़ा तो हू बहू काफी पेस्ट किया है। 
   किसी भी राष्ट्र की समृद्धि और उसके हैप्पीनेस इंडेक्स के सकारात्मक परिवर्तन के संदर्भ में बराक ओबामा कार्य है कथन पूरी तरह सही और सटीक माना जा सकता है 
  यहां हम मध्यम वर्ग को विकास के संदर्भ में विश्लेषित करेंगे।
   मिडिल क्लास की परिभाषा क्या है
उसे जनसंख्या और प्रति व्यक्ति वार्षिक आय के पैरामीटर पर कैसे समझा जाएगा इस पर बहुत सारी पाठ्य सामग्री
पब्लिक डोमेन पर पहले से ही मौजूद है
अतः इस पर चर्चा करना जरुरी नहीं। 
   मार्क्स से प्रभावित साहित्यकारों एवं विचारकों की अवधारणा जो भी कुछ हो
बदलते परिवेश में मध्य वर्ग के प्रति सकारात्मक विचार विमर्श की आवश्यकता है। 
   दावा यह किया जा रहा है कि साल 2047 भारत मिडिल क्लास वर्ग की आबादी 100 करोड़ से भी अधिक हो सकती है। 
   मध्य वर्ग की आबादी बढ़ने से भारतीय अर्थ तंत्र आमूल चूल परिवर्तन की नज़र आएगा। मध्य वर्ग की संख्यात्मक वृद्धि से टैक्स की परिधि में संख्यात्मक एवं गुणात्मक वृद्धि भी होगी
  विश्व के मध्यवर्ग विशेषता है कि वह टैक्स पूरी इमानदारी के साथ चुकाता है
  मध्य वर्ग जहां एक ओर पूंजी पति संस्थाओं के लिए आक्सीजन है वहीं दूसरी ओर निम्न वर्ग के लिए तुरंत मिलने वाला शैल्टर भी हो जाता है।
  गरीब व्यक्तियों परिवारों के लिए फाइलों के सहारे प्राप्त होने वाली सुविधा एवं सहायता से पहले मध्य वर्ग की सहायता उस तक से पहले पहुंचती है।
    अब स्थिति यह है कि -" मध्यवर्ग कीमतों में अत्यधिक उतार चढ़ाव के कारण अपने मासिक और वार्षिक बजट में स्थिरता नहीं ला पा रहा है।"
  नरेंद्र मोदी जी ने प्रधानमंत्री बनने के पश्चात अमेरिका के मेडिसिन स्कवॉयर में अपनी भाषण में कहा था कि हम निजी सेक्टर के साथ-साथ व्यक्तिगत सेक्टर होगी संरक्षित करेंगे।
  इसका संकेत यह माना जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने आर्थिक परिपेक्ष्य में  मध्यम वर्ग के सॉफ्ट पावर का एम्पॉवरमेंट की कोशिश करने का संकेत दिया था।
   किसी भी देश की इकोनॉमी का आंतरिक पक्ष तभी चमकदार हो सकता जब उसे देश का मध्यम वर्ग मजबूत होता है 
   सवाल यह है कि भारत के संदर्भ में देखा जाए तो भारत का मध्यम वर्ग क्रमशः अपनी योग्यता कार्य कुशलता और संघर्ष शीलता के कारण भारत के संपूर्ण विकास में महत्वपूर्ण स्थान दर्ज कर लिया है।
  वर्ष 2013 में मध्यम वर्ग की औसत आमदनी 4.4 लाख रुपए वार्षिक थी
लेकिन वर्तमान में यह आय बढ़कर 13 लाख से अधिक हो चुकी है।
  स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के रिसर्च से पता चलता है कि 2047 तक भारतीयों की आमदनी 49.9 लाख रुपए सालाना हो जाएगी।
   2021 तक माध्यम वर्ग 432 मिलियन भारतीयों का समूह था जो जनसंख्या का लगभग 31% है
  वर्ष 2005 में जनसंख्या के सापेक्ष 14% लोग मध्य वर्ग में थे।
  उपरोक्त आंकड़ों से पता चलता है कि 
मध्य वर्ग का आकार बढ़ रहा है।
   भारत में सबसे निम्न मध्यम वर्ग को औसत दैनिक आय 17 अमेरिकी डॉलर तथा उच्च मध्य वर्ग की 100 अमेरिकी डॉलर  महत्वपूर्ण आंकड़ा है
औसत रूप से प्रत्येक मध्य वर्गी परिवार के पास काम से कम ₹8 लाख की संपत्ति अवश्य होती है।
   देखने में यह स्थिति बेहद आकर्षक और हैप्पीनेस इंडेक्स को ऊपर प्रदर्शित करने वाली लग रही है। परंतु भारत में प्राइस इंडेक्स में निरंतर परिवर्तन से मध्य वर्ग द्वारा कैपिटल जेनरेशन करने में कठिनाई उत्पन्न हो रही है।
  मध्य वर्ग की दूसरी हम कठिनाई है आयकर जो उसे पूंजी निर्माण के लिए सबसे बड़ी बाधा बनकर तैयार है।
   मध्यमवर्ग के पास चिकित्सा और शिक्षा पर असीमित खर्च की समस्या भी चिंता का विषय है। 
  अगर मौलिक जरूरतों जैसे चिकित्सा शिक्षा को ध्यान में रखा जाए तो सामान्य मध्य वर्गी व्यक्ति को परिवार में आकस्मिक बीमारियों के इलाज के लिए कर्ज यह पारिवारिक सहायता की आवश्यकता महसूस होती है।
परंतु दूसरा पहलू यह भी है कि मध्यमवर्गीय परिवार शो ऑफ करने में पीछे नहीं होते। उनके वैवाहिक एवं रिचुअल्स के आयोजनों पर होने वाले खर्च करने की प्रवृत्ति का फायदा बाजार बाकायदा उठा रहा है।
  मध्यमवर्ग को अगर अपना पारिवारिक अर्थ तंत्र मजबूत रखना है तो यह जरूरी है कि उसे अपने अनावश्यक खर्चो को सीमित कर देना चाहिए।
   उसकी यह बचत राष्ट्रीय बचत में शामिल होगी। जो स्वयं मध्य वर्गी एवं राष्ट्र के लिए महत्वपूर्ण होती है।
#Youtube 

शनिवार, जून 29, 2024

भारत के लिए खतरे की घंटी : आयातित विचारधाराओं द्वारा स्थापित नैरेटिव

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क्या भारत को आयातित विचारधारा द्वारा स्थापित नैरेटिव से खतरा है ?
कुछ बिंदुओं पर विचार करने के बाद महसूस होता है कि  अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस तरह का ही प्रयास जारी है।

   श्रोताओं  नमस्कार जय भारत जय हिंद वंदे मातरम , 
   डिजिटल इनफॉरमेशन इंडस्ट्री  अब एक भयावह चौराहे पर आ चुकी है ।
कई बार तो महसूस होता है कि अब बंदरों के हाथों में उस्तरे पहुंच  चुके हैं यह स्थिति खतरनाक भी है।
न्यू मीडिया मनोरंजक कंटेंट की आड़ में  बहुत कुछ ऐसा परोस रहा है जो आम आदमी का ब्रेनवॉश करने में सफल होता है।
  यूरोप और अमेरिका ने भयानक तौर पर नस्लवाद का मंजर देखा है इन्ही  यूरोपीय देशों और अमेरिका के मीडिया संस्थान  भारत में जाति प्रथा, आदि को  लेकर सर्वाधिक नकारात्मक टिप्पणियां करते नज़र आते हैं।
सिंध एवं बलोचिस्तान के लोगों को ला पता करने वाले पाकिस्तानी प्रशासन  एवं  चीन के उइगर मुस्लिमों पर चुप्पी साधने वाले , पश्चिमी देशों के मीडिया घरानों ने
बताते फिरते हैं कि भारत आज भी जातिवाद और पिछड़ेपन की गिरफ्त में है।
  ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन यानी बीबीसी बे लगाम होकर भारत के मामलों में इस  अदा से कंटेंट परोसता है जिससे प्रतीत हो कि भारत में सामाजिक सांस्कृतिक असमानताएं आज भी मौजूद हैं।
जबलपुर में डिप्टी कमिश्नर के पद पर फुलर नामक एक प्रशासनिक अधिकारी था। वह भारतीयों से ठीक उसी तरह से घृणा करता था जैसे वेस्टर्न चर्चिल भारत के लोगों से घृणा का रिश्ता रखते थे। इसके अलावा दक्षिण एशिया देश  एवं अफ्रीकन ट्राइब को लूटने वाले अधिनायक वादी देश के मीडिया में भारत को जाति प्रथा के नाम पर लांछित किया जाता है
सब जानते हैं कि बीबीसी जैसे संचार संस्थान ब्रिटिश सरकार के वित्त पोषण से जीवंत  है। बीबीसी बी अपने मंतव्य को स्थापित करने में कभी पीछे नहीं रहता।
अब हम आते हैं नए दौर में डिजिटल मीडिया की ओर
जिसने  तूफान सा मचा दिया है
  डिजिटल एवं  इलेक्ट्रॉनिक मीडिया  शुद्ध रूप से  मीडिया एक व्यावसायिक ढांचा है । इनको विज्ञापनों के लिए  टीआरपी की जरूरत होती है।
ओटीटी पर प्रसारित होने वाले अधिकांश धारावाहिक एवं फिल्मों में सवर्ण और दलित, जैसे शब्दों को पूछा जाता है।  विशेष रूप से ब्राह्मणों को टारगेट करके नकारात्मक रूप से प्रस्तुत किया जा रहा है।
अब आप ही सोचिए भारत में जातिवादी व्यवस्था अगर आज चरम  पर है तो यह कैसे हो रहा कि आपको मिलने वाला हर दूसरा या तीसरा वैवाहिक आमंत्रण पत्र अंतरजातीय विवाह का होता है।
कभी सोचा है आपने शायद नहीं तो अब सोचिए प्रतिकार कीजिए।
ओटीटी प्लेटफॉर्म के पास या तो अच्छे लेखकों  का अकाल  है, अथवा इसके पीछे कोई अर्थशास्त्र कम कर रहा है।
   सूचना संचार माध्यमों के द्वारा इन दिनों  आपको  जो विषय वस्तु कहानी कथानक और नैरेटिव्स परोसे  जा रहे हैं उसके बदले आप उन्हें पैसा भी देते हैं और समय भी खर्च करते हैं। यदि आप पैसा कर रहे हैं तो आपको एक सलाह है कि कृपया अच्छी किताबें खरीद लीजिए और किताबों से बात कीजिए।
न्यू मीडिया में ओटीटी प्लेटफॉर्म के अलावा ऑडियो माध्यमों की दुकान से सजी हुई हैं । इन दुकानों से सूचना और समाचार खरीदने हैं ।  इंटरनेट या ओटीटी प्लेटफॉर्म  पर पैसा और समय खर्च करके। भारतीय मूल का मीडिया अंतरराष्ट्रीय मीडिया बाजार का एक हिस्सा है। वह प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ है इसमें कोई शक नहीं।
  पर जब इनके सहारे नकारात्मक मंतव्य को स्थापित करने के प्रयास होते हैं तो लगता है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर भारत में कुछ नकारात्मक करने की कोशिश की जा रही है।
 
ओटीटी एवं social media साइट्स एवं ऐप्स के जरिए तक पहुंचने वाले कंटेंट में जातिवादी समाज, सांप्रदायिक असहिष्णुता जैसी विषय को बेहद चतुराई से प्रस्तुत किया जा रहा है।
  भूतपूर्व ट्विटर जो अब अभूतपूर्व एक्स बन चुका है, इस सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर पिछले दिनों भारत में जाति भेद फैलाने वाले मुद्दे को तेजी से हाईलाइट किया गया।  किसी एक पुस्तक के हवाले से कहा गया कि नालंदा विश्वविद्यालय को जलाने वाला बख्तियार खिलजी नहीं था बल्कि ब्राह्मण थे। वैसे इस तरह के मीडिया अपनी ऑडियंस के विस्तार के लिए ब्राह्मणों को सबसे सॉफ्ट टारगेट मानते हैं। YouTube पर तो नव बौद्धों के अलावा प्रगतिशीलता के नाम पर साहित्य प्रस्तुत करने वालों की भीड़ सी आ गई है।
यह सब आयातित विचारधारा के पुरोधाओं का मिशन है। इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता  कि सामाजिक अस्थिरता पैदा करने के लिए फाइनेंशियल सपोर्ट सिस्टम भी काम कर रहा हो।
यह सब आयातित विचारधाराओं के द्वारा किया जा रहा है इसमें कोई दो राय नहीं।
भारत में निवास करने वाली से सभी जातियों को ध्रुवीकृत किया जा सके। यानी उनका पोलराइजेशन किया जा सके। इसके अपने राजनीतिक उद्देश्य हो सकते हैं परंतु निर्वाचन के उपरांत इसका एकमात्र उद्देश्य यह समझ में आ रहा है कि आयातित विचारधारा पर आधारित इस नैरेटिव को रचने वालों ने भारत में अनरेस्ट पैदा करने की कोशिश की है ।
इतिहास के संदर्भ में यह  पूरी तरह से इरेलीवेंट नैरेटिव, है जो  एक्स  से निकलकर कई सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स पर इधर से उधर फुदकता दिखाई दे रहा है।
  सोचिए एक स्थापित और प्रमाणित इतिहास को झूठा साबित करने वाला नैरेटिव टीवी चैनलों के लिए मसाला था। समाज पर इसका क्या असर हो रहा है शायद  डिजिटल युग के मनोरंजन एवं सूचना उद्योग को कोई लेना-देना नहीं।
मनोरंजन एवं सूचना उद्योग के मालिकों के लिए यह मुद्दा केवल लाभ का स्रोत बन चुका है।
   बहुत से यूट्यूबर नालंदा विश्वविद्यालय को जलाए जाने वाले इस मुद्दे  पर विशेषज्ञ बनकर कुकरमुत्तों के रूप में विमर्श करते नजर आ रहे हैं।
   इरफान हबीब ब्रांड इतिहास करो नहीं तो चुप्पी साध ली है इस मुद्दे पर।
यही पता चलता है कि आयातित विचारधारा हम पर किस तरह से हावी है।
  ग्लोबलाइजेशन एवं डिजिटल क्रांति  के बाद  न्यू मीडिया अर्थात सोशल मीडिया को अचानक बहुत बड़ा अवसर हाथ लग गया है।
न्यू मीडिया कब भस्मासुर बन जाए कहां नहीं जा सकता।
  अपनी संप्रभुता बचाए रखने के लिए प्रजातांत्रिक सरकारों को इसे नियंत्रित करने की पहला जरूर करना चाहिए।
  आप सब जानते हैं,  यूरोपीय के  आक्रामक मीडिया  कॉन्सेप्ट  एवं  आईडियोलॉजी के बारे में ।
जिसने गरीब और प्रगतिशील देशों   पर भी प्रभाव छोड़ा है। जिसमें भारत भी शामिल है। भले यह विश्व की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था हो परंतु इस देश में एक ऐसा माइंड सेट तैयार किया जा रहा है , जो किसी भी देश के लिए  अनरेस्ट की स्थिति भी पैदा करने  वाला हो सकता है। सरकार को इस पर विचार करने की जरूरत है। और हमें भी बौद्धिक स्तर पर सावधानी बरतनी की जरूरत है।
बेशक मीडिया को स्वतंत्र होना चाहिए , परंतु उसकी स्वतंत्रता की सीमा किसी राष्ट्र की संप्रभुता से ऊपर नहीं हो सकती।
  आज के दौर में मीडिया की स्वतंत्रता का एक अर्थ यह भी है कि-"मीडिया किसी से कमिटेड न हो, हो तो केवल सच्चाई से "

  देख लीजिए आपको क्या करना है, हम तो सरकार को यही सलाह देंगे की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पुनर्विचार करने की जरूरत है।
  बेलगाम होते सोशल मीडिया पर लगाम लगाने की जरूरत है। 

गुरुवार, जून 27, 2024

रंगमंच की गिरती साख कौन जिम्मेदार

    फोटो गूगल से आभार सहित
     रंगमंच की गिरती साख कौन जिम्मेदार
                          गिरीश बिल्लोरे मुकुल
     Show must go on रंगमंच को पूरी तरह से परिभाषित करने वाला वाक्य है। रंगमंच का अस्तित्व ही प्रदर्शनों पर निर्भर करता है। यह सब जारी है और रहेगा, परंतु चिंतन इस बात पर होते रहना चाहिए कि-" रंगमंच के स्तर में गिरावट न हो सके..!'
आइए हम इसी मुद्दे पर विमर्श करते हैं। यहां रंगमंच को कुछ ढांचे के रूप में नहीं समझा जाए जो केवल नाटकों के प्रदर्शन के लिए होता है बल्कि रंगमंच संपूर्ण प्रदर्शनकारी कलाओं के लिए महत्वपूर्ण एवं आधारभूत आवश्यकता है। इन दिनों मंच के स्वरूप स्वरूप को तकनीकी तौर पर विस्तार और सुदृढ़ता मिल रहा है। इससे उलट प्रस्तुति कंटेंट के संदर्भ में विचार करें तो  ऐसा लगता है कि-" रंगमंच कमजोर हो गए हैं!"
    महानगरों मध्यम दर्जे के शहरों में कला का प्रदर्शन तादाद अथवा संख्यात्मक दृष्टि से बड़ा है परंतु इसके गुणात्मक पहलू को अगर देखा जाए तो गुणवत्ता में गहरा प्रभाव पड़ा है। सबसे पहले  आपको स्पष्ट करना जरूरी है कि हम यहां रंगमंच पर अभी नाट्य प्रस्तुतियों की चर्चा नहीं कर रहे हैं बल्कि मंच पर प्रस्तुत किए जाने वाली अन्य सभी विधाओं की बात की जावेगी जिनमें नाटक, कवि सम्मेलन, कवयत्री सम्मेलन मुशायरे, संभाषण, हास्य, मिमिक्री, संगीत, आदि सभी विधाओं पर विमर्श करना चाहते हैं।
    विगत 10 वर्षों से जो देखा जा रहा है उसने हमने पाया है कि कवि सम्मेलन पूरी तरह से पॉलीटिकल हास्य व्यंग और  फूहड़ श्रंगार पर केंद्रित है।  जबकि संगीत रचनाओं में केवल फिल्मी और कराओके गायन को संगीत की अप्रतिम साधना माना जा रहा है। मिमिक्री और हास्य की श्रेणी में रखे जाने वाले कार्यक्रमों में अश्लीलता और स्तर हीन चुटकुले बाजी के अलावा अच्छे कंटेंट देखने को नहीं मिल रहे हैं। कवि सम्मेलनों की दशा तो बेहद शर्मनाक हो चुकी है। 15 से 20 मिनट तक एक कवि आपसी छींटाकशी का या तो केंद्र रहता है  छींटाकशी करने का प्रयास करता है। शेष 15 से 20 मिनट तक घटिया चुटकुले वह भी ऐसे चुटकुले जो जो हुई या तो तू ही अच्छी होंगी अथवा पॉलिटिकल अथवा द्विअर्थी संवादों पर केंद्रित होते हैं। इसे कवियों की भाषा में टोटके कहा जाता है। मैं तो यही कहूंगा कि 
*मंच कवि खद्योत सम: जँह-तँह करत प्रकाश*
   देश विदेश में अपने नाम का परचम लहराने वाले मंचीय कवि कुमार विश्वास कितने भी महान कवि हो जाएं परंतु वे ओम प्रकाश आदित्य जैसे कवियों को स्पर्श तक  नहीं कर पाए हैं। यह ऑब्जरवेशन है यहां में मनोज मुंतशिर थे अवश्य प्रभावित हूं। कविता के साथ केवल कविता और काव्यात्मकता होती है। टोटकों को जगह देने के लिए कविताएं करने वाले लोग मेरी दृष्टि में कम से कम कभी तो नहीं है हां मनोरंजन का पैकेज अवश्य हो सकते हैं।
   संगीत के आयोजनों में केवल फिल्मी गीतों का लुभावना गुलदस्ता भेंट करने वाली संस्थाएं मेरी दृष्टि में संगीत की सेवा नहीं बल्कि बॉलीवुड गीतों का गुलदस्ता पेश करती नजर आती हैं। यह कार्य तो आर्केस्ट्रा पार्टी का है । नादिरा बब्बर का  नाटक मेरे ह्रदय पर गहरी छाप छोड़ गया। इस प्रकार के नाटकों का प्रदर्शन अब मंच पर क्यों नहीं होता? अधिकांश नाट्य समूह खास विचारधारा से संबद्ध होते हैं। यहां मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि अधिकतर नाटक नकारात्मक आयातित विचारधारा से प्रेरित होते हैं। वही लोग अपने नैरेटिव स्थापित करने के लिए नाट्य सेवा करते हैं। थिएटर किसी एक विचारधारा की बपौती कदापि नहीं है। भरतमुनि का नाट्यशास्त्र स्वयं प्रजापिता ब्रह्मा के ऑब्जरवेशन में लिखा गया है। लेकिन दुर्भाग्य है कि-" थोड़ा सा भी चर्चित होने के पश्चात कुकुरमुत्ता की तरह नाट्य संस्थाएं मध्यम स्तर के शहरों एवं महानगरों में पनपने लगीं हैं।
   विचार संप्रेषण के लिए यह प्रभावी माध्यम भी अब मंच से धारा सही होता नजर आ रहा है।
    प्रदर्शनकारी कलाओं में दर्शकों जुटाने की तकनीकी का सहारा लिया जा रहा है। अब तो केवल मनोरंजन के लिए थिएटर शेष रह गए हैं।
   नृत्य प्रस्तुतियों को देखिए विगत कई वर्षों से मौलिक नृत्य चाहे वह लोकनृत्य हो  क्लासिकल अथवा  सेमीक्लासिकल आप वर्ष भर का किसी भी शहर कार्यकाल उठा कर देख ले आपको नहीं मिलेगा।
   मेरे शहर के, हास्य कलाकार के के नायकर, कुलकर्णी भाई, माईम आर्टिस्ट के ध्रुव गुप्ता जैसे हास्य कलाकारों के सामने कपिल शर्मा जैसा स्टैंडिंग कॉमेडियन इतना प्रभाव कारी सिद्ध नहीं हो रहा है जितना कि संस्कारधानी के उपरोक्त कलाकार प्रभाव छोड़ते थे ।
  क्या कारण है कि मंच का स्तर गिर रहा है?
    इस बार की पतासाजी करने पर आप स्वयं पाएंगे कि - प्रस्तुति के कंटेंट में नकारात्मक प्रवृत्ति देखी जा रही है। अपने ही शहर के कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूं जैसे कि अब न तो लुकमान जैसे महान गुरु हैं, न ही शेषाद्री या सुशांत जैसे धैर्यवान शिष्य। न ही भवानी दादा जैसे कवियों गीत कारों की रचनाएं जब कुबेर की ढोलक की ताल के साथ मिलकर लुकमान के स्वरों के रथ पर आरूढ़ होकर श्रोताओं की मन मानस पर सरपट होती थी तो भाव से भरा दर्शक श्रोता वाह वाह ही नहीं करता था बल्कि से विजनवास बहुत से लोगों की आंखों आंसुओं के झरने, झरते हुए हमने देखे हैं यह था असर।
     रात को 2:00 बजे कवि गोष्ठियों से लौटकर घर में डांट खाते थे पर हमें संतोष था कि हमने आज महान रचनाकारों से उच्च स्तरीय कविताएं सुनी हैं। हम अक्सर काव्य गोष्ठियों में अपनी कविताई का प्रशिक्षण लेते थे। हमारी शहर में भानु कवि से लेकर रास बिहारी पांडे तक वक्तव्य के मामले में मूर्धन्य वक्ता स्वर्गीय एडवोकेट राजेंद्र तिवारी जिनका अंग्रेजी हिंदी संस्कृत बुंदेली हर भाषा पर कमांड था को सुनकर हम बड़े हुए हैं पर अब मंच पर संभाषण की कला सिखाने वाले लोग नहीं है अगर है भी तो उन्हें दरकिनार रखा जाता है। मंच को चमकीला बनाने और अखबार में छा जाने की आकांक्षा ने मंच पर घातक प्रहार किया है। यह हमारी सांस्कृतिक निरंतरता को बाधित करने का एक सुगठित प्रयास है।
   सामवेद हमारी कलात्मकता का सर्व मान्य प्रतिमान है। मैं नहीं कह रहा हूं कि आप सब इस पर सहमति प्रदान करें परंतु मंच के वैभव को उठाने में उसे परिष्कृत करने में हमारा बड़ा दायित्व बनता है।
  आप सोच रहे होंगे कि- " नहीं हम दोषी नहीं है कलाकार दोषी हैं।"
  तो मैं कहता हूं कि मंच को ऊंचाइयों तक पहुंचाने वाले कलाकार और दर्शक श्रोता दोनों ही हैं, और उसे अर्थात मंच को नुकसान पहुंचाने वाले भी हम ही तो हैं।
    बुंदेली छत्तीसगढ़ी मराठी गुजराती हिंदी पट्टी की अन्य बोलियों के मंचों पर मौलिक कलाओं का प्रदर्शन नहीं हो रहा है। विरले ही बृंदवन समूह, अथवा थिएटर समूह होंगे जो कि ऐसा कुछ कर रहे हैं, न तो अब तीजनबाई है न ही सुमिरन धुर्वे की कदर करने वाला कोई । मालवा निमाड़ भुवाना महाकौशल बुंदेलखंड छत्तीसगढ़ बघेलखंड भोजपुरी जो सांस्कृतिक परंपराओं से प्रेरित गीत संगीत से भरा पड़ा है। परंतु हम केवल अश्लीलता युक्त कंटेंट को आगे बढ़ा रहे हैं। हरियाणा और भोजपुरी गीतों के साथ अभद्र एवं अश्लील नृत्य करते-करते कलाकार महान सेलिब्रिटी बन गए हैं। आप खुद ही तय कर लीजिए कि मंच का पतन हुआ है या मंच की प्रगति हुई है।
  इस क्रम में  वर्तमान में संस्कारधानी का सौभाग्य है कि यहां एक महिलाओं का बैंड है जिसे जानकी बैंड के नाम से जानते हैं इस बैंड की विशेषता यह है कि इसमें  मौलिक स्वरूप में लोक परंपराओं पर केंद्रित गीत संगीत, सेमी क्लासिकल संगीत की प्रस्तुतियां की जाती है। यह बैंड बेहद अल्प समय में संपूर्ण भारत में स्थान बना चुका है।
   थिएटर में संगीत का प्रयोग होना अन की प्रक्रिया है । संपूर्ण नौ रसों का आस्वादन दर्शकों को कभी एक साथ नहीं मिल पाता मंच की अपनी समस्याएं हैं परंतु टेलीविजन से हटकर हमें चंद्रप्रकाश जैसे महान नाट्यशास्त्र के सुविज्ञ का अनुसरण करना चाहिए। काका हाथरसी शैल चतुर्वेदी जैसे कवियों का स्मरण कर लेने मात्र से आज के हास्य कवियों को अपना स्तर समझ में आ जाएगा। माणिक वर्मा केपी सक्सेना को भुला देना मेरी अल्पज्ञता होगी। सुधि पाठको मैं अपने आर्टिकल्स में आप से संवाद करना चाहता हूं और करता भी हूं। मेरे आर्टिकल का यह आशय कदापि नहीं कि हम किसी पर दबाव पैदा कर रहे हैं, या किसी को हम अपमानित करना चाहते हूँ, मैं तो अपने शहर की मित्र संघ मिलन साहित्य परिषद जैसी संस्थाओं का पुनः आह्वान करता हूं कि वे आगे आएं और आने वाली पीढ़ी को बताएं कि हमने तब क्या किया था जब हम मंच पर टॉर्च या गैस बत्ती जला कर कार्यक्रमों की प्रस्तुति करते थे। अपने 32 साल के सांस्कृतिक जीवन में केवल हमने मंच की ऊंचाइयां देखी है तो अब गिरावट भी देख रहे हैं।
   अंततः स्पष्ट करना चाहूंगा कि-" अगर कलाकार हो तो ईमानदारी से कला का प्रदर्शन करो लेकिन उसके पहले अपनी कला की मौलिकता में तनिक भी मिलावट ना आने दो।
    हमें अपने-अपने शहरों से महान कलाकार प्रोत्साहित करने हैं न कि ऐसी कलाकार जो कॉपी पेस्ट करने के आदि हों।
  *बच्चों को भी यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि- "वे बड़े महान कलाकार हैं।, आजकल के अभिभावक अपने बच्चों को कलाकार से ज्यादा सेलिब्रिटी के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं। परंतु मैं आपको स्पष्ट कर दूं कि सब्जी बेचने वाले घरों घर काम करने वाले परिवारों से आए बच्चों में भी प्रतिभागी बिल्कुल कमी नहीं है। मैं अपने सहयोगियों के प्रति कृतज्ञ रहता हूं जो बच्चों में उनकी प्रतिभा को तलाशते हैं और फिर तराश देते हैं।"*
   

साहित्य शिल्पी डॉ सुमित्र का महा प्रयाण


   70 के दशक में अगर किसी महान  व्यक्तित्व से मुलाकात हुई थी तो वे थे डॉ. राजकुमार तिवारी "सुमित्र" जी।
  सुमित्र जी के माध्यम से साहित्य जगत को पहचान का रास्ता मिला था। गौर वर्णी काया के स्वामी, मित्रों के मित्र, और राजेश पाठक प्रवीण के  साहित्यिक गुरु डॉक्टर राजकुमार सुमित्र जी के कोतवाली स्थित आवास में देर रात तक गोष्ठियों में शामिल होना, अपनी बारी का इंतजार करना उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण होता था उनके व्यक्तित्व से लगातार सीखते रहना। स्व. श्री घनश्याम चौरसिया "बादल" के माध्यम से उनके घर में आयोजित एक कवि गोष्ठी में स्वर्गीय बाबूजी के साथ देर रात तक हुई बैठक में लगा कि यह कवि गोष्ठी नहीं बल्कि कवियों को निखारने की कार्यशाला है।
  धीरे-धीरे कभी ऐसी घरेलू बैठकों की आदत सी पड़ चुकी थी। वहीं शहर के नामचीन साहित्यकारों से मुलाकात हुआ करती थी। उनके कोतवाली के पीछे वाले घर को साहित्य का मंदिर कहना गलत न होगा। 
 तट विहीन तथाकथित प्रगतिशील कविताओं के दौर में गीत, छंद, दोहा सवैया, कवित्त, आदि के अनुगुंजन ने लेखन को नई दिशा दी थी।
  गेट नंबर 2 के पास स्थित नवीन दुनिया प्रेस में बतौर साहित्य संपादक सुमित्र जी द्वारा नारी-निकुंज औसत रूप से सर्वाधिक बिकने वाला संस्करण हुआ करता था।
   हमें भी दादा अक्सर पूरे अंक में लिखने की छूट देते थे। कविता के साथ कंटेंट क्रिएशन की शिक्षा शशि जी और सुमित्र जी से ही हासिल की है। 
  अभी-अभी पूज्य सुमित्र जी के महाप्रयाण का समाचार राजेश के व्हाट्सएप संदेश के जरिए मिला। 
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.राजकुमार तिवारी सुमित्र का निधन जबलपुर के साहित्यिक समाज के लिए एक दुखद प्रसंग है। नए स्वर नए गीत कार्यक्रम की श्रृंखला प्रारंभ कर पूज्य गुरुदेव सुमित्र जी ने सार्थक सृजन को दिशा प्रदान की है। वे अक्सर कहते थे कि-"उससे बड़ा सौभाग्यशाली कोई नहीं जिसके घर में साहित्यकारों के चरणरज न गिरें।" 
अपने आप को पीड़ा का राजकुमार कहने वाले दादा ने ये भी कहा - " दर्द की जागीर है, बाँट रहा हूँ प्यार।”
गायत्री कथा सम्मान के संस्थापक सुमित्र जी नगर के हर एक रचना कार्य और साहित्य साधकों के केंद्र बिंदु हुआ करते थे। उनकी साहित्यिक सक्रियता से शहर जबलपुर साहित्य साधना का केंद्र था। सृजनकर्ता को दुलारना,उसे मजबूती देना, यहां तक की प्रकाशित करना भी उनका ही दायित्व बन गया था। हम तो उनके आजीवन ऋणी है।

 जबलपुर  ही नही प्रदेश के प्रतिष्ठित साहित्यकार, लगभग 40 कृतियों के रचयिता, पाथेय साहित्य कला अकादमी के संस्थापक कविवर डॉ. राजकुमार तिवारी सुमित्र का आज दिनांक 27 फरवरी 2024 को  रात्रि 10  बजे 85 वर्ष की उम्र में निधन हो गया । 
  सुमित्र जी डॉक्टर भावना तिवारी, श्रीमती कामना , एवं चिरंजीव डॉ.हर्ष कुमार तिवारी के पिता , बाल पत्रकार बेटी प्रियम के पितामह एवं हम सब साहित्य अनुरागीयों तथा नए युवा साहित्यकारों के  प्रेरणा स्रोत अब हमारी स्मृतियों में शेष रहेंगे। .
सुमित्र ने अनेक समाचार पत्रों में सम्पादकीय सेवाएं  दी ।
आप प्रदेश ही नही. देश, प्रदेश की साहित्यिक धारा के संवाहक रहे। यूरोप में भी भारतीय साहित्य का परचम लहराने वाली इस शख्सियत ने लगभग सात दशक साहित्य की अप्रतिम सेवा की है।

गुरुवार, जून 06, 2024

“क्या मूर्ति-पूजा त्याज्य है अथवा मूर्तिपूजक काफिर है?”



मूर्ति पूजा और मूर्ति पूजा को को लेकर एक विचित्र सा वातावरण उत्पन्न कर दिया गया है। यह वातावरण इस्लाम के प्रसार के साथ बहुत अधिक तेजी से निर्मित हुआ। मंदिरों में तोड़फोड़ करना उन्हें जमींदोज करना एक मिशन बन गया था।  गजनवी से पहले भी ऐसी वारदातें होती रहे हैं। भारत में  वास्तुकला एवं मूर्ती-कला  का विकास पूर्व वैदिक काल तथा वैदिक काल में ही हो गया था। परंतु मूर्तिकला का विस्तार मिलते ही कई शिल्पकार वास्तु एवं शिल्प संरचना के लिए सक्रीय हो गये.  शिल्प एवं मूर्तिकला के विकास के सहारे किसी भी  सभ्यता के विकास को अस्वीकार नहीं की जा सकती. अर्थात सभ्यता के विकास लिए शिल्प एवं मूर्तिकला के विकास को एक घटक मानना चाहिए. सुर-असुर कथानकों को पर ध्यान दें तो... हम पातें हैं कि असुरों ने बड़े बड़े ऐसे किलों का निर्माण कराया जिससे सुर-समूह  से सुराक्षा  मिल सके. इंद्र को पुरंदर की पदवी असुरों  के दुर्ग ध्वस्त करने के कारण ही प्राप्त थी.

आइये अब हम विचार करतें हैं... मूर्ति-कला के विस्तार की वजह क्या है. वास्तव में मूर्तिकला जब बड़े पैमाने पर जनता द्वारा अपनाई जाने लगी तब उसे राजाश्रय भी मिला. राजाश्रय से कला का तीव्रता से विकास हुआ .भारतीय नदी-घाटी सभ्यताओं में  यूनानी सभ्यताओं तथा हर सभ्यताओं में रहने वाली नस्लों ने अपनी संस्कृति में कला तत्वों के मौजूदगी के प्रमाण दिए हैं.  भारतीय सन्दर्भ में देखा जाए तो वेदों में भले ही पूजन प्रणाली देवी-देवताओं को यज्ञ में हव्य अर्थात समिधा  डालकर आहूत किया जाता रहा है,   किन्तु कालान्तर में शिव पूजन के लिए अनाकृत-मूर्तियों का पूजन प्रारम्भ हो गया . कालान्तर में ईश्वर / ईश्वर के स्वरूपों एवं देवताओं को आकृति के रूप में पूजा जाने लगा.

मूर्तिकला के विकास के साथ साथ कला के सम्मान को चिर-स्थायित्व देने के लिए उसे पूजा प्रणाली का अनिवार्य हिस्सा समकालीन भारतीय सामाजिक व्यवस्था द्वारा बनाया गया. इस क्रम में यह उल्लेख अनिवार्य है कि-“भारतीय सभ्यता में बुद्ध के पूर्व आंशिक रूप से मूर्ति-आराधना का शुभारंभ हो गया था.” परन्तु बुद्ध के बाद मठों में मूर्ती-पूजा अधिक विस्तारित हुई. इसी क्रम में सिन्धु-घाटी सभ्यता में मूर्ति पूजा के प्रमाण मिलें हैं. मध्यप्रदेश के पचमढ़ी क्षेत्र एवं मंदसौर  में मिले गुफा चित्रों एवं कप्स की खोज  वाकणकर जी ने खोजकर गुफा कालीन 70 हज़ार साल पुरानी मानव प्रजाति की विक्सित होती  सभ्यता के विकास में कला की मौजूदगी का प्रमाण दिया था. जो मूर्तिकला का अत्यंत प्राथिक प्रमाण था. 7000 हज़ार वर्ष-पूर्व रामायण काल  में तथा 5000 साल प्राचीन महाभारत काल में  शिव की पूजन के दो उदाहरण मिलते हैं. रामेश्वरम में शिव लिंग की श्री राम द्वारा तथा गंधार (कंधार) में गांधारी द्वारा की साधना का विवरण उल्लेखनीय है. कामोबेश प्रारम्भ में भगवान शिव की क्षवियों की पूजन का उल्लेख मिलता है. आदिवासी प्रतीकात्मक रूप से शिवाराधना करते रहे हैं . आज भी वे बड़ा-देव के स्वरुप पूजित हैं.

तदुपरांत बुद्ध एवं जैन मतों  के विस्तार के साथ अखंड भारत में उतर पश्चिमी भू-भाग अफगानिस्तान से लेकर सम्पूर्ण भारत में बौद्ध,जैन सहित सभी सम्प्रदायों क्रमश: वैष्णव, शाक्त, ने भी अपनी अपनी आराधना प्रणालियों में मूर्ति-पूजन को शामिल किया. निर्गुण ब्रह्म के उपासकों ने  भी ब्रह्म के  प्रतीकात्मक स्वरूपं चित्रों, मूर्तियों की आराधना स्वीकृत की . यह एक सांस्कृतिक बदलाव था. ब्रह्म के स्वरुप का लौकिक अवतरण कराया गया. चोल पांड्य आदि नें दक्षिण भारत से मध्यप्रांत तक तथा समुद्रीमार्ग से जिन जिन द्वीपों पर राज्य स्थापित किये वहा भी पवित्र मंदिरों का निर्माण कराया . मार्तंड सूर्य मंदिर का निर्माण 8वीं शताब्दी ईस्वी में कर्कोटा राजवंश के तहत कश्मीर के तीसरे महाराज ललितादित्य मुक्तापिदा द्वारा किया गया था ।

 चंदेल राजाओं ने दसवीं से बारहवी शताब्दी तक मध्य भारत में शासन किया। खजुराहो के मंदिरों का निर्माण 950 ईसवीं से 1050 ईसवीं के बीच इन्हीं चन्देल राजाओं द्वारा किया गया। मंदिरों के निर्माण के बाद चन्देलों ने अपनी राजधानी महोबा स्थानांतरित कर दी। लेकिन इसके बाद भी खजुराहो का महत्व बना रहा।

इसके अतिरिक्त काश्मीर के  शारदा-पीठ, के बारे में तो आप सभी जानते हैं . इसके अतिरिक्त 51 शक्ति पीठों का विवरण निम्नानुसार विकी पीडिया तक में उपलब्ध है.

1. किरीट शक्तिपीठ : पश्चिम बंगाल में हुगली नदी के लालबाग कोट तट पर स्थित है। किरात यानी सिराभूषण या सती माता का मुकुट वहां गिराया गया था। मूर्तियाँ विमला (शुद्ध) के रूप में देवी हैं और संगबर्ता के रूप में शिव हैं।

2. कात्यायनी शक्तिपीठ : मथुरा के वृंदावन में भूतेश्वर में स्थित है, जहां सती के केश गिरे थे। देवी शक्ति का प्रतीक हैं जबकि भैरव भूतेश (जीवों के भगवान) का प्रतीक हैं।

3. कृवीर शक्तिपीठ : महाराष्ट्र के कोल्हापुर में स्थित है। देवी की तीन आँखें वहाँ गिरी थीं। मूर्तियाँ महिषमर्दिनी के रूप में देवी और क्रोधीश के रूप में शिव हैं।

4. श्री पर्वत शक्तिपीठ :   कुछ विद्वानों का मानना ​​है कि यह लद्दाख में स्थित है तो कुछ का मानना ​​है कि यह असम के सिलहट में है। मूर्तियाँ श्री सुंदरी के रूप में देवी हैं और सुंदरानंद के रूप में शिव हैं।

5. विशालाक्षी शक्तिपीठ : यहां देवी के कुंडल (कुंडल) गिरे थे और यह वाराणसी के मीराघाट पर स्थित है, जो  देवी के रूप में विश्वलक्ष्मी और शिव कला के रूप में हैं।

6. गोदावरी तट शक्तिपीठ : आंध्र प्रदेश के गोदावरी तट के कब्बूर में स्थित है। देवी का बायाँ गाल यहाँ गिरा था और मूर्तियाँ विश्वेश्वरी (जगत की माँ) और शिव दंडपाणि के रूप में हैं।

7. शुचिन्द्रम शक्तिपीठ: भारत के सबसे दक्षिणी सिरे के पास, तमिलनाडु में कन्याकुमारी स्थित है। देवी के ऊपरी दाँत यहाँ गिरे थे और मूर्तियाँ नारायणी के रूप में देवी और संघर के रूप में शिव हैं।

8. पंचसागरशक्ति: इस पीठ का सही स्थान ज्ञात नहीं है, लेकिन देवी के निचले दांत यहां गिरे थे और मूर्तियाँ बरही के रूप में देवी और महारुद्र के रूप में शिव हैं।

9. ज्वालामुखी शक्तिपीठ : हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा में स्थित है। देवी की जीभ यहाँ गिरी थी और मूर्तियाँ अम्बिका के रूप में देवी और उन्मत्त के रूप में शिव हैं। 

10. भैरव पर्वत शक्तिपीठ :   इसके स्थान को लेकर विद्वानों में मतभेद है। कुछ लोग गिरिनगर, गुजरात में होने का तर्क देते हैं, जबकि कुछ मध्य प्रदेश के उज्जैन में शिप्रा नदी के पास होने का तर्क देते हैं, जहाँ देवी के ऊपरी होंठ गिरे थे। मूर्तियाँ अवंती के रूप में देवी और लम्बकर्ण के रूप में शिव हैं। हरसिद्धि मंदिर

11. अट्टाहस शक्तिपीठ :   पश्चिम बंगाल के निकट लाभपुर में है। देवी के निचले होंठ यहां गिरे थे और मूर्तियाँ फुलरा के रूप में देवी और भैरव विश्वेश के रूप में शिव हैं।

12. जनस्थान शक्तिपीठ: महाराष्ट्र के नासिक में पंचवटी में स्थित है। देवी की ठोड़ी यहाँ गिरी थी और मूर्तियाँ भ्रामरी के रूप में देवी और विक्रमाटक के रूप में शिव हैं।

13. कश्मीर या अमरनाथ शक्तिपीठ :   जम्मू कश्मीर के अमरनाथ में है। देवी की गर्दन यहाँ गिरी थी और मूर्तियाँ महामाया के रूप में देवी और त्रिसंध्यास्वर के रूप में शिव हैं।

14. नंदीपुर शक्तिपीठ :   पश्चिम बंगाल के सांथ्य में स्थित है। देवी का हार यहां गिरा था और मूर्तियां नंदिनी के रूप में देवी और नंदकिशोर के रूप में शिव हैं।

15. श्री शैल शक्तिपीठ :   कुरनूल, आंध्र प्रदेश के पास। यहां देवी के गले का हिस्सा गिरा था। मूर्तियाँ महालक्ष्मी के रूप में देवी और शम्बरानंद के रूप में शिव हैं।

16. नलहटी शक्तिपीठ :   पश्चिम बंगाल के बोलपुर में है। देवी की मुखर नली यहां गिरी थी और मूर्तियां कालिका के रूप में देवी और योगेश के रूप में शिव हैं।

17. मिथिला शक्तिपीठ : इसका स्थान अभी अज्ञात है। स्थान तीन स्थानों पर माना जाता है, नेपाल के जनकपुर में और बिहार के समस्तीपुर और सहरसा में, जहाँ देवी का बायाँ कंधा गिरा था। मूर्तियाँ महादेवी के रूप में देवी और महोदरा के रूप में शिव हैं।

18. रत्नावली शक्तिपीठ : स्थान अज्ञात है, चेन्नई, तमिलनाडु के पास स्थित होने का सुझाव दिया। देवी का दाहिना कंधा यहाँ गिरा था और मूर्तियाँ कुमारी के रूप में देवी और भैरव के रूप में शिव हैं।

19. अंबाजी शक्तिपीठ : गुजरात की गिरनार पहाड़ियों में स्थित है। देवी का पेट यहां गिरा था और मूर्तियां चंद्रभागा के रूप में देवी और वक्रतुंड के रूप में शिव हैं।

20. जालंधर शक्तिपीठ : पंजाब के जालंधर में स्थित है। देवी के बाएं स्तन यहाँ गिरे थे और मूर्तियाँ त्रिपुरमालिनी के रूप में देवी और भिसन के रूप में शिव हैं।

21. रामगिरी शक्तिपीठ :   सटीक स्थान ज्ञात नहीं है, चित्रकूट, यूपी में कुछ बहस करते हैं जबकि अन्य मेहर, मध्य प्रदेश में बहस करते हैं। देवी के दाहिने स्तन यहाँ गिरे थे और मूर्तियाँ शिवानी के रूप में देवी और चंदा के रूप में शिव हैं।

22. वैद्यनाथ शक्तिपीठ : झारखंड के गिरिडीह, देवघर में स्थित है। देवी का दिल यहां गिर गया और मूर्तियां देवी के रूप में जयदुर्गा और शिव वैद्यनाथ के रूप में हैं। ऐसा माना जाता है कि यहां सती का अंतिम संस्कार किया गया था।

23. वक्रेश्वर शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल के सांथ्य में स्थित है। देवी का मन या भौंहों का केंद्र यहां गिरा था और मूर्तियां महिषमर्दिनी के रूप में देवी और वक्रनाथ के रूप में शिव हैं।

24. कन्याकाश्रम कन्याकुमारी शक्तिपीठ :   कन्याकुमारी के तीन सागरों हिन्द महासागर, अरब सागर में स्थित तथा बंगाल की खाड़ी, तमिलनाडु के संगम पर स्थित है। देवी की पीठ यहाँ गिरी थी और मूर्तियाँ देवी के रूप में शरवानी और शिव निमिषा के रूप में हैं।

25. बहुला शक्तिपीठ: कटवा, वीरभूम में स्थित, डब्ल्यूबी देवी की बाईं भुजा यहाँ गिरी थी और मूर्तियाँ बहुला के रूप में देवी और भीरुक के रूप में शिव हैं।

26. उज्जयिनी शक्तिपीठ: मध्य प्रदेश के उज्जैन में पवित्र क्षिप्रा के दोनों किनारों पर स्थित है। देवी की कोहनी यहाँ गिरी थी और मूर्तियाँ मंगलचंडी के रूप में देवी और कपिलंबर के रूप में शिव हैं।

27. मणिवेदिका शक्तिपीठ : राजस्थान के पुष्कर में स्थित है। गायत्री मंदिर का दूसरा नाम है। देवी की हथेलियों के बीच या दोनों कलाइयां यहां गिरी थीं और मूर्तियाँ गायत्री के रूप में देवी और सर्वानंद के रूप में शिव हैं।

28. प्रयाग शक्तिपीठ : इलाहाबाद में स्थित यूपी देवी की दस अंगुलियां यहां गिरी थीं और मूर्तियां ललिता और शिवा भाव के रूप में देवी हैं।

29. विरजक्षेत्र, उत्कल शक्तिपीठ: उड़ीसा के पुरी और याजपुर में स्थित है। देवी की नाभि यहाँ गिरी थी और मूर्तियाँ देवी के रूप में विमला और शिव जगन्नाथ के रूप में हैं।

30. कांची शक्तिपीठ:  तमिलनाडु के कांचीवरम में स्थित है। देवी का कंकाल यहां गिरा था और मूर्तियां देवगर्भ के रूप में देवी और रुरु के रूप में शिव हैं।

31. कलमाधव शक्तिपीठ: सटीक स्थान ज्ञात नहीं है। लेकिन देवी के दाहिने कूल्हे यहाँ गिरे और मूर्तियाँ काली के रूप में देवी और असितानंद के रूप में शिव हैं।

32. सोना शक्तिपीठ : बिहार में स्थित है। देवी के बाएं कूल्हे यहाँ गिरे थे और मूर्तियाँ नर्मदा के रूप में देवी और वाड्रासेन के रूप में शिव हैं।

33. कामाख्या शक्तिपीठ : असम के कामगिरी की पहाड़ियों में स्थित है। देवी की योनी या योनि यहाँ गिरी थी और मूर्तियाँ कामख्या के रूप में देवी और उमानंद के रूप में शिव हैं।

34. जयंती शक्तिपीठ: जयंतिया हिल्स, असम में स्थित है। देवी की बायीं जंघा यहां गिरी थी और मूर्तियाँ जयंती के रूप में देवी और भैरव के रूप में शिव हैं ??क्रमदीश्वर।

35. मगध शक्तिपीठ : बिहार के पटना में स्थित है। देवी की दाहिनी जांघ यहां गिरी थी और मूर्तियां देवी के रूप में सर्वानंदकारी और शिव व्योमकेश के रूप में हैं।

36. त्रिस्तोता शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल में जलपाईगुड़ी जिले के शालबारी गाँव में तिस्ता नदी के तट पर स्थित है। देवी के बाएँ पैर यहाँ गिरे थे और मूर्तियाँ भ्रामरी के रूप में देवी और ईश्वर के रूप में शिव हैं।

37. त्रिपुरा सुंदरी शक्तित्रीपुरी शक्तिपीठ : त्रिपुरा के किशोर ग्राम में स्थित है। देवी का दाहिना पैर यहां गिरा था और मूर्तियां त्रिपुरसुंदरी के रूप में देवी और त्रिपुरेश के रूप में शिव हैं।

38. विभाष शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर जिले के तमलुक में स्थित है। देवी का बायाँ टखना यहाँ गिरा था और मूर्तियाँ भीमारूपा के रूप में देवी और सर्वानंद के रूप में शिव हैं।

39. देवीकुप पीठ कुरुक्षेत्र शक्तिपीठ: हरियाणा के कुरुक्षेत्र जंक्शन में द्वैपायन शक्ति के पास झील के पास स्थित है। देवी का दाहिना टखना यहाँ गिरा था और मूर्तियाँ सावित्री या स्थाणु के रूप में देवी और अश्वनाथ के रूप में शिव हैं।  देवीकूप पीठ कुरुक्षेत्र

40. युगद्य शक्तिपीठ, क्षीरग्राम शक्तिपीठ: पश्चिम बंगाल के खिरग्राम में स्थित है। देवी का दाहिना पैर का अंगूठा यहां गिरा था और मूर्तियां देवी के रूप में योगदया और शिव को खिरकंठ के रूप में हैं।

41. अंबिका विराट शक्तिपीठ : राजस्थान के जयपुर में वैराटग्राम में स्थित है। देवी के पैरों के छोटे पैर यहां गिरे थे और मूर्तियाँ अंबिका के रूप में देवी और अमृता के रूप में शिव हैं।

42. कालीघाट शक्तिपीठ : पश्चिम बंगाल के कलकत्ता में कालीघाट में स्थित है। कालीमंदिर के नाम से भी जाना जाता है। उनके दाहिने पैर से देवी के चार छोटे पैर यहाँ गिरे थे और मूर्तियाँ काली के रूप में देवी और नकुलेश या नकुलेश्वर के रूप में शिव हैं।

43. मनसा शक्तिपीठ: मानसरोवर झील, तिब्बत के निकट स्थित है। देवी का दाहिना हाथ या हथेली गिर गई और मूर्तियाँ देवी के रूप में दखचायनी और शिव अमर के रूप में हैं।

44. लंका शक्तिपीठ :  श्रीलंका में स्थित है। देवी के पैरों की घंटियाँ (नूपुर) यहाँ गिरी थीं और मूर्तियाँ देवी के रूप में इन्द्रकशी और शिव को राक्षसेश्वर के रूप में हैं।

45. गंडकी शक्तिपीठ : नेपाल के मुक्तिनाथ में स्थित है। देवी का दाहिना गाल यहाँ गिरा था और मूर्तियाँ गंडकीचंडी के रूप में देवी और चक्रपाणि के रूप में शिव हैं।

46. ​​गुह्येश्वरी शक्तिपीठ: नेपाल के काठमांडू में पशुपतिनाथ मंदिर के पास स्थित है। देवी के दो घुटने यहाँ गिरे थे और मूर्तियाँ महामाया के रूप में देवी और कपाली के रूप में शिव हैं।

47. हिंगलाज शक्तिपीठ: पाकिस्तान के हिंगुला में स्थित है। देवी का मन या मस्तिष्क यहाँ गिर गया और मूर्तियाँ कोटरी के रूप में देवी और भीमलोचन के रूप में शिव हैं।

48. सुगंधा शक्तिपीठ: बांग्लादेश के खुलना में नदी के तट पर स्थित है। देवी की नाक यहाँ गिरी थी और मूर्तियाँ सुनंदा के रूप में देवी और त्रयंबक के रूप में शिव हैं।

49. कार्तोयागत शक्तिपीठ: बांग्लादेश के करोतोआ तट पर स्थित है। देवी की बाईं सीट या उनके कपड़े यहां गिरे थे और मूर्तियाँ अपर्णा के रूप में देवी और भैरव के रूप में शिव हैं।

50. छत्तल शक्तिपीठ : बांग्लादेश के चटगाँव में स्थित है। देवी की दाहिनी भुजा यहाँ गिरी थी और मूर्तियाँ भवानी (देवी) के रूप में देवी और चंद्रशेखर के रूप में शिव हैं।

51. यशोर शक्तिपीठ: बांग्लादेश के जेस्सोर में स्थित है। देवी के हाथों का केंद्र यहां गिरा था और मूर्तियां चंदा के रूप में जशोरेश्वरी और शिव हैं।

[स्रोत:- डिवाइन इंडिया  https://www.thedivineindia.com/51-shakti-peeths/5918]

प्राचीन पौराणिक-टेक्स्ट के अनुसार समाजं एवं राजाओं द्वारा मंदिरों का निर्माण कराया. इसके अलावा जैन तीर्थों, बौद्ध-मठों, पगोडाओं, में मूर्तियाँ स्थापित हैं. जिनकी आराधना पूर्ण पवित्रता के साथ करना बंधन कारी है. यह एक सामाजिक सांस्कृतिक परम्परा है. जिसे कोई कुछ भी कहे पर सनातन में इन सार्वजनिक आराधना स्थलों के अलावा आदि शंकराचार्य द्वारा प्रेरित “आराधना-सरलीकरण” व्यवस्था में घर के दीवाले अर्थात देवालय में पंचायतन के रूप में पूजा जाना एक पवित्र परम्परा है.

मूर्तिपूजा तब गलत मानी जा सकती थी जब कि-“इससे जीवों के विरुद्ध संघातिक यातनाएं दीं जातीं हों अथवा यह  मानवता के अस्तित्व के लिए खतरा हो . ऐसा नहीं है तो फिर क्यों –“ मूर्ति-पूजा त्याज्य हो अथवा  मूर्तिपूजक काफिर कहे जावें ? ”

मंगलवार, जून 04, 2024

पुष्यमित्र शुंग नायक या खलनायक ?

              कुछ विद्वान  मौर्य वंश के अंत का ठीकरा ब्राह्मणों पर फोड़कर भारत में जातिगत भेदभाव पैदा करने में लगे हुए हैं।
मौर्य डायनेस्टी के अंतिम शासक ब्रहद्रथ को उसके ही सेना पति ने मार कर सत्ता पर अधिकार प्राप्त किया था।
मोनार्की में ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। परंतु हम इस  घटना विशेष  पर चर्चा क्यों कर रहे हैं?
श्रोताओं, इसका कारण यह है कि - कुछ लोग भारत में जनता को आपस में उलझा कर अपने राजनैतिक, एवं सामाजिक  दब दबे को कायम करना चाहते हैं ।
ऐसा लगता है कि इन तथा कथित विद्वानों ने, सामाजिक विघटन का संकल्प लिया है।
इन लोगों का दावा है कि -" एक ब्राह्मण व्यक्ति द्वारा मौर्य - साम्राज्य के प्रतापी राजा ब्रहद्रथ की हत्या कर सत्ता पर हासिल की थी ।
ब्रहद्रथ मौर्य वंश से था जो   निचली जाति का थी, इसी कारण   उसकी एक ब्राह्मण ने हत्या कर दी ।
   नव प्राचीन इतिहास से ऐसे उदाहरण देते हुए वामपंथी और प्रगतिशील लेखकों , इतिहास करो तथा नव बौद्ध समूहों  द्वारा ऐसे ही मंतव्य स्थापित हैं। यह कार्य भारत को खंड-खंड करने की कोशिश ही तो है। वर्तमान में तो इसका सीधा रिश्ता जॉर्ज सोरोस तक नजर आ रहा है।
      मित्रों, सच्चाई जानना चाहिए । परंतु अधूरी सच्चाई को कभी सुनना भी नहीं चाहिए।
    आप जानते ही हैं कि पिछड़ी जाति के सम्राट महापद्मनंद  को सत्ता से हटाने के लिए आचार्य चाणक्य ने संकल्प लिया था।
वे  ब्राह्मण जाति के एक शिक्षक ने  ही  राष्ट्रीय हित में  मौर्य वंश  की स्थापना की थी । ऐसी घटनाओं को तथा कथित विद्वान अपने विचार विमर्श में कभी नहीं शामिल करते हैं।
  वास्तव में जर्जर हो रहे मौर्य साम्राज्य के लिए योग्य शासक के शासन की स्थापना मात्र से संबंधित राजनीतिक मामला था  ।
  मौर्य वंश के अंत होने के कारणों  की  निष्पक्ष पड़ताल से पता चलता है कि सेना पति पुष्यमित्र शुंग ने राष्ट्रहित में ब्रहद्रथ की हत्या की थी।
    दिव्यवदान में कुछ भी लिखा हो इसे हू ब हू स्वीकार करना समकालीन परिस्थितियों के अवलोकन के बाद उचित नहीं लगता।
   मेरे विचार से मौर्य वंश के अंतिम राजा को  सत्ता से इस कारण नहीं हटाया गया कि वह दलित था। बल्कि उसे इसलिए हटाया गया क्योंकि वह अपने राज्य के संचालन के दायित्व को निभाने में असफल था।
इसमें कोई दो राय नहीं कि  ब्रहद्रथ बेहद विद्वान और मानवतावादी राजा था।
    उसने स्वयं बुद्ध के निवृत्ति मार्ग को प्रबलता से स्वीकार किया था।
परंतु राजा के और भी धर्म होते हैं। राजा के रूप में राजधर्म का पालन करना राजा की नैतिक जिम्मेदारी होती है।
इस अवधि में  ग्रीक राजा डेमोट्रीयस के मन में मगध की सत्ता  के पर अधिकार जमाने की भावना बलवती हो रही थी ।
    ब्रहद्रथ ने ग्रीक राजा की योजनाओं की जानकारी  को गुप्तचर सूचनाओं से मिलने के बावजूद अनदेखा  किया था।
  जिससे राष्ट्रभक्त सेना पति पुष्यमित्र शुंग ब्रहदत्त से असहमत थे।
   ग्रीक राजा के  षड्यंत्र को रोकने में उदासीनता से दुखी  सेनापति पुष्यमित्र शुंग द्वारा ब्रहदत्त की सरेआम हत्या कर दी थी । इस संबंध में इतिहासकार डॉक्टर एच सी रायचौधरी ने शुंग डायनेस्टी पर स्पष्ट तौर पर  लिखा है कि - "शुंग ने ब्रहद्रथ को धोखे से नहीं बल्कि राष्ट्र हित में जानबूझकर मारा था।"
   
  5 मार्च 2019 को यूट्यूब पर अपलोड वीडियो में यह तथ्य स्पष्ट होता है कि बिना अध्ययन के वामन मेश्राम जी गलत तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं।
सोशल मीडिया एवं युटुब पर ऐसे वीडियो मिल जाएंगे जिसमें वे यह कहते सुने जा सकतें  हैं कि - "पुष्यमित्र शुंग एक क्रूर ब्राह्मण  शासक था   जिसने ब्राह्मण शासन की स्थापना के लिए नीची जाति के मौर्य वंश का समापन किया और पुष्यमित्र शुग ने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से अयोध्या में स्थापित कर दी थी।
बृहदत्त एक अति आध्यात्मिक एवं प्रशासनिक रूप से अकर्मण्य शासक था।  जो सीमाओं की रक्षा करने में असफल रहा है।
सेना पति पुष्यमित्र शुंग को तब एक जानकारी प्राप्त हुई थी कि-" बौद्ध मठों में यवन सैनिक भिक्खुओं के वेश में आकर निवास कर रहे हैं। जिनका उद्देश्य,  केवल  भारत में ग्रीक शासन की स्थापना करना है।
  राजा से डेमोट्रीयस की महत्वाकांक्षा के संबंध में  पुष्यमित्र ने चर्चा की तब राजा का यह कहा था कि-" हम वक्त आने पर देखेंगे. अभी कुछ करने की जरूरत नहीं है.!"
  राष्ट्र के प्रति सम्मान रखने वाले सेनापति पुष्यमित्र ने बौद्ध मठों की जांच परख शुरू कराई।
     उन्हें लगभग 300 यवन सैनिक हथियार सहित मठों में मौजूद मिले।

  बौद्ध भिक्षुओं ने शुंग के समक्ष यह स्वीकार किया कि - यवन सैनिकों  ने उन्हें  बौद्ध  बन जाने का आश्वासन दिया था। इस कारण यमन सैनिकों को बौद्ध मठ में हमने आश्रय दिया।
   भिक्षुओं की इस बात से क्रुद्ध होकर पुष्यमित्र शुंग ने समूचे 300 यवन सैनिकों के सर कलम कर दिए और बौद्ध साधुओं को गिरफ्तार करके कैदखाने में डाल दिया।
जो बौद्ध भिक्षु मारे गए थे वे  भिक्षुओं के वेष में वे यूनानी सैनिक ही थे।
    इस बात पर भी राजा बृहदत्त जिसे व्रहद्रथ भी कहा जाता है ने पुष्यमित्र को क्रोध में आकर राज भवन से बाहर निकलना का आदेश दे दिया।
पुष्यमित्र  को यह अपमान  जवानों से मौर्य साम्राज्य की  रक्षा के लिए सहना पड़ा ।
   एक दिन सेना पति पुष्यमित्र और राजा के बीच में राजधानी से बाहर आखेट के दौरान  मुलाकात हुई और इस मुलाकात में कहा सुनी भी हुई। इतिहासकार कहते हैं कि राजा को सबके सामने पुष्यमित्र ने तलवार से चीर दिया
स्वयं को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर सत्ता पर अधिकार  जमा लिया।
  इतिहासकार कहते हैं कि- ग्रीक योद्धा डोमेट्रियस अपनी बड़ी सेना लेकर भारत पर आक्रमण करना चाहता था ।  
   पुष्यमित्र शुंग ने डोमेट्रियस और उसकी  यूनानी सेना पर अचानक हमला बोलकर वापस भगा दिया गया।
इसके पश्चात  पुष्यमित्र ने अपनी राजधानी , वर्तमान मध्यप्रदेश के विदिशा में स्थापित कर दी।  जिसे तब   भेलसा नगरी के रूप में जाना जाता है।
  पुष्यमित्र शुंग ने दो अश्वमेध यज्ञों का आयोजन किया । ये यज्ञ महान व्याकरण आचार्य पाणिनी के शिष्य महर्षि पतंजलि ने संपन्न  कराए थे।

  पुष्यमित्र शुंग यज्ञ के माध्यम से विदेशियों को भारत से हटाना चाहते थे।   अश्वमेध यज्ञ के दौरान  एक युद्ध में समकालीन अखंड भारत के  पंजाब क्षेत्र में राज्य करने वाले इंडो ग्रीक राजा मिलैण्डर या मिलान्दर का भी अंत हुआ  था।
पुष्यमित्र शुंग के जातिवादी होने का आरोप लगाने वाले लोगों ने फाह्यान के संबंध में कुछ कम पढ़ा है।
    पांचवी शताब्दी में पुष्यमित्र शुंग के बाद चीनी यात्री फाह्यान ने बुद्धिस्म के अस्तित्व पर जो विचार रखे हैं वह आप सब जानते हैं।
फ़ाह्यान  वैशाली में स्थित  हीनयान और महायान संप्रदायों के मठों का जिक्र किया है।
फ़ाह्यान ने अपनी किताब में धर्म आधारित अथवा जाति आधारित संघर्ष का वर्णन नहीं किया है।
फिर भी यदि ऐसे कुछ प्रमाण  कमिटेड विद्वान प्रस्तुत करते हैं तो उनके बौद्धिक श्रम  महत्वपूर्ण हो सकता है।
     राष्ट्र  के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए पुष्यमित्र ने तत्सम कालीन केवल भ्रमित बौद्ध साधुओं को बंदी गृहों में  रखा था.. न कि सभी बौद्ध भिक्षुकों  को किसी भी तरह की यंत्रणा दी गई थी।
साथ ही यह कहना युक्ति संगत हो सकता है कि पुष्यमित्र शुंग ने उन मठों को नेस्तनाबूद किया हो जहां यवन सैनिकों का नियमित आना-जाना रहा है तथा राष्ट्रद्रोह की योजना को मूर्त स्वरूप दिए जाने की कोशिश होती रही होगी। 
अगर पुष्यमित्र शुंग को बौद्ध धम्म समाप्त करना ही होता तो वह अपनी 36 वर्षीय कार्यकाल में ही कर देता।  अपने राष्ट्र  धर्म  को निभाते हुए सांची और भरहुत के स्तूपों  का जीर्णोद्धार  कराया गया तथा पुष्यमित्र शुंग ने  स्तूपों में सुरक्षा की दृष्टि से उनके  इर्द-गर्द चट्टानों की बाउंड्री वाल बनवाईं थीं।
    शुंग वंश के काल में कर्म फल वाद के सिद्धांत को बढ़ावा मिला। निवृत्ति और निर्वाण के सिद्धांत के स्थान पर सनातनी पुरुषार्थ की अवधारणा प्रबल हुई।
शुद्ध मनुस्मृति  भी इसी काल में लिपिबद्ध की गई थी।
   आप सब जानते हैं कि पुष्यमित्र शुंग के पुत्र अग्निमित्र, एवं देवभूति के उपरांत शुंग वंश का अंत हुआ ।
सॉन्ग डायनेस्टी के  मंत्री कण्व ने देवभूति की हत्या कर दी थी ।
पुष्यमित्र शुंग द्वारा वृहद्रथ अर  की हत्या करना तथा पाटिलीपुत्र पर अपना राज्य स्थापित कर देना किसी तरह की जातिगत समीकरण का आधार नहीं है। यह तो  एक राजनीतिक घटनाक्रम है।
ब्रहद्रथ के शासन काल में समूचा भारत आंतरिक कलह और अराजकता का शिकार हो चुका था ।
  पुष्यमित्र शुंग ने संपूर्ण भारत को व्यवस्थित करने के उद्देश्य से कमजोर शासक की हत्या की थी।
आज की प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जनता अगर किसी से सहमत नहीं है तो उसे अपने वोट से वंचित कर देती है। और उसे सत्ता से अलग कर देती है।
   शुंग  जन्म से एक ब्राह्मण था,  लेकिन सेना पति था । शुंग के ब्राह्मण होने पर भी विभिन्न मत है। इतिहासकार इस पर एक राय नहीं है। जब यह स्थिति है तो ब्राह्मणों के प्रति दुराग्रह की भावना फैलाने वाले तथा कथित विद्वान ऐसा क्यों कर रहे हैं ? यह गंभीर विचारणीय विषय है।
सनातनी   वर्ण व्यवस्था के अनुसार सामाजिक व्यवस्था के संचालन हेतु रक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाला क्षत्रिय ही होता था । तदनुनुसार पुष्यमित्र शुंग एक क्षत्रिय था।
  वामन मेश्राम भोली भाली जनता को यह समझाते हैं , कि पुष्यमित्र ब्राह्मण था और उसे मौर्य वंश पसंद नहीं था इसलिए उसने एक बौद्ध भिक्षु का सिर लाओ 100 स्वर्ण मुद्राएं पाओ जैसे आदेश जारी किए थे। अगर ऐसा हुआ होता तो शुंग डायनेस्टी के समाप्त होने के बावजूद कई शताब्दी तक बौद्ध धम्म  भारत में फलता फूलता रहा।
वामन मेश्राम कभी भी सांस्कृतिक निरंतरता पर विचार नहीं करते।
न ही वे मुस्लिम आक्रांताओं के बल पूर्वक पथ परिवर्तन के प्रयासों पर भी टिप्पणी नहीं करते। वे मिहिर कुल के मामले में भी शांत है। जिसने बौद्ध धम्म को सबसे ज्यादा क्षति पहुंचाई थी।
वामन मेश्राम जैसे वक्ताओं को विचार अभिव्यक्ति करने से पहले 370  ईस्वी से 515 तक के इतिहास का अध्ययन कर लेना चाहिए, ताकि वे समझ सकें कि-“हूणों का चर्चित राजाधिराज तोरमाण (जिसने वैष्णव सम्प्रदाय को अपनाया) के पुत्र क्रूर पुत्र राजा मिहिरकुल की जानकारी हासिल हो सके जिसने खुले तौर पर बौद्धों का अंत करने का संकल्प लिया था.
यद्यपि इतिहास में हेर फेर करके मनपसंद मंतव्य स्थापित करने वालों की  कलई अब हम जैसे इतिहास के अकिंचन पाठक भी खोलने लगे हैं।
  इस विचार को आपके समक्ष रखने का उद्देश्य “भारत को भारतीय नज़रिए से देखने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना है । हम चाहते हैं कि किसी खास एजेंडे को स्थापित करने वाले नजरिये का समापन हो।

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