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मंगलवार, नवंबर 14, 2017

हिंदी में ग़ज़ल


धुंध रोगन की पुती आकाश में
और हम हैं रौशनी की आस में ।
एक अंगुल दुःख समीक्षा ग्रंथ सी
चेतनाएँ है गुमशुदा संत्रास में ।
चार लोगों का कहा सच कहाँ ?
मथनियाँ डालो ज़रा जिज्ञास में ।
ज़िंदगी जी लो अरु जीतो भी उसे
रोए दुनियाँ रोती रहे संत्रास में । ।
ज़िन्दगी क्या है ? पूछा किसी ने
पढ़ के देखो प्रथम अंतिम सांस में ।।

*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

सोमवार, नवंबर 13, 2017

राष्ट्रीय बाल सभा एवं एकीकरण शिविर में भाग लेने बालभवन से सांस्कृतिक दल रवाना

                           राष्ट्रीय बाल सभा एवं एकीकरण शिविर में भाग लेने जबलपुर से 4 बच्चों सहित 6 सदस्यीय सांस्कृतिक दल को दिनांक 12 नवम्बर 17 को दिल्ली राष्ट्रीय बालभवन के लिए रवाना किया. ये बच्चे महाकौशल क्षेत्र की कला का प्रदर्शन करेंगें .                 
                      बुन्देली लोक नृत्य , लोक संगीत , गोंडी भित्ती चित्रकला , के अलावा बच्चे गिरीश बिल्लोरे द्वारा लिखे रानी दुर्गावती एवं दीवान आधारसिंह के बीच 16 वीं सदी की सामरिक परिस्थियों पर हुई चर्चा के विवरण एवं रानी दुर्गावती के बलिदान पर केन्द्रित विवरण का नाट्य रूपान्तारण, प्रस्तुत करेंगें.
                     संभागीय बालभवन जबलपुर में इनको एक माह तक श्री इंद्र पाण्डेय, डा. शिप्रा सुल्लेरे, कुमारी रेशम ठाकुर ,  सुश्री रूचि केशरवानी, संजय गर्ग व मनीषा तिवारी ने विशेष रूप से प्रशिक्षण दिया गया है. बाल कलाकार 14 से 16 नवम्बर तक एकल एवं सामूहिक प्रस्तुतियों में शामिल होंगे. बालकलाकारों को मिष्ठान एवं दिल्ली के प्रदूषण से बचाव के लिए मास्क देकर श्रीमती सुलभा बिल्लोरे, एवं कार्यालयीन अधिकारियों एवं कर्मचारियों ने बिदाई दी. इस अवसर पर बच्चों के अभिभावक भी उपस्थित थे . 

गुरुवार, नवंबर 09, 2017

प्रमुख सचिव श्री जे एन कंसौटिया का बालभवन का दौरा

  
 `प्रमुख सचिव जी माननीय श्रीयुत जे एन कंसौटिया जी आदरणीया मनिषा लुम्बा जी ने संभागीय बालभवन जबलपुर का आज दिनाँक नवम्बर 2017 को भ्रमण किया ।

 भ्रमण के दौरान प्रमुख सचिव महोदय से भवन निर्माण हेतु भूमि वित्तीय मदद आदि स्थितियों पर विस्तृत चर्चा हुई । श्री कंसौटिया सर द्वारा आयुक्त नगर निगम से फोन पर चर्चा कर भूमि आवंटन अथवा स्मार्ट सिटी परियोजना में बालभवन को शामिल करने के लिए कहा गया ।
बालभवन की गतिविधियों को संप्रेक्षण ग्रहबालगृहदिव्यांग बच्चों के विशेष स्कूलों अजा जजा आवासीय स्कूलों तक गतिविधियों को जोड़ने के निर्देश संचालक को दिए ।

प्रमुख सचिव जी द्वारा बालिकाओं के लिए चलाए जा रहे *30 शौर्या शक्ति आत्मरक्षा प्रशिक्षण* कार्यक्रम की तारीफ की ।
 निरीक्षण के दौरान *चित्रकला एवम गायन वादन के दिव्यांग छात्र बालक मास्टर गौतम सोनी* के बारे में जानकर बेहद प्रसन्नता व्यक्त की गई तथा यह निर्देश दिए कि दिव्यांगता से ग्रसित बच्चो की संस्थाओं के बच्चों के लिए बालभवन की सेवा देने के लिए संचालक बालभवन संस्थाओं के साथ संपर्क कर सेवाएँ विस्तारित करें ।
 इस मौके पर संचालक बालभवन गिरीश बिल्लोरेश्री मनीष शर्मा जिला कार्यक्रम अधिकारी जबलपुरश्री अखिलेश मिश्र डॉ शिप्रा सुल्लेरे श्री इंद्र पांडे श्रीमती विजयलक्ष्मी अय्यर मीना सोनी श्री देवेन्द्र यादव श्री सोमनाथ सोनी के साथ कार्यालयीन स्टाफ उपस्थित था ।
   और कहां कहां भ्रमण किया प्रमुख सचिव श्री कंसौटिया जी ने

आदरणीय प्रमुख सचिव महोदय द्वारा जबलपुर में बालभवन के अलावा शिशुगृहआंगनवाड़ी केंद्रआई एल ए ट्रेनिंग आदि का भ्रमण/निरीक्षण किया गया तथा योजनाओं को प्रभावी तरीके से लागू करने के निर्देश दिए ।  शिशु गृह के भ्रमण के दौरान दिव्यांग बच्चों के गोदनामे के लिए अंतरजिला समन्वय के लिए निर्देशित किया और कहा कि - सबसे अधिक ज़रूरत मंद तक हमारी शीघ्र पंहुंच होनी चाहिए .







                  


बुधवार, नवंबर 08, 2017

पुश्तैनी मकान , मकान नहीं घर होते थे

पुश्तैनी मकान , मकान नहीं घर होते थे
गोबर से लिपे सौंधी खुशबू वाले
आधा फीट छुई की ढीग से सजे
पुश्तैनी मकान ... दरवाजों पर खनकती कुण्डियाँ
देर रात जब बजतीं  चर्र से खुलते दरवाजे
दो घर दूर  वाले रामदीन के दादा
खांसते खकारते पूछते – बहू कालू आया क्या ..
हओ दद्दा हम आ गए ...
पूरा मुहल्ला जो रात नौ बजे सोता था पर
जागता एक साथ
सामान्य दशा में सुबह चार बजे या
रात को किसी अनियमित स्थिति में .,.
सभी मकान सिर्फ मकान थे ..?
न सभी मकान भर थे .. घरों का नाता थी
कॉमन दीवार ... जो मुहल्ले को किले में बदल देती थी...!
पुश्तैनी मकानों के वाशिंदे  प्रजा थे ..
जिनपर राज  था ......... राजा  प्रेम और रानी स्नेह का ..
किसी एक का शोक हर्ष सब पर लागू होता ..
जब कालू हँसता तो सब हँसते जब दुर्गा रोती तो सब रोते
तुलसी क्यारे में
कभी हवा से तो कभी तेल चुकने तक
दीपशिखा नाचती
मोहल्ले वाले पटवारी को न बुलाते
घरों को नापवाने ..
पुश्तैनी घर ज़िंदा देह थे
ज़िंदा देहों को कोई पटवारी मापता है क्या.. ?
पुश्तैनी मकान अमर होते
हमने मारा है उनको ..
बिलखते होंगे पुरखे
हमारे मुकद्दमों ने ..
काश तुम न मरते पुश्तैनी मकान ..
हम अभी किराए के मकानों में
किश्तों के साथ
जिन्दगी जी रहे हैं.. क्योंकि
हम हत्यारे हैं हमने मारा है
पुराने चरमराते दरवाजों वाले जीव-वान घरों को
अरे हाँ ...... पुश्तैनी मकानों को
     

   

सोमवार, नवंबर 06, 2017

तो फिर महिलाओं को मुफ़्त दो सेनेटरी नैप्किन.. ज़हीर अंसारी

ज़हीर भाई का यह आलेख उनकी सरोकारी पत्रकार होने का सजीव प्रमाण है । भाई साहब की चिंता अक्षरश: दे रहा हूँ पर आप सब ये जानिए कि मध्यप्रदेश सरकार ने उदिता प्रोजेक्ट के तहत नॉमिनल शुल्क पर सैनेटरी नैपकिन देने की व्यवस्था की है ।
      इतने साल उतने साल सुनकर देश थक गया है। जिसे देखो अतीत के किससे कहानियां सुना जाता है। ये नहीं हुआ, वो नहीं हुआ। ऐसा होना चाहिए वैसा होना चाहिए। उन्होंने ये नहीं किया, उन्होनें वो नहीं किया। इसी में सब वक्त बर्बाद कर रहे हैं| किसी को भी मातृशक्ति की तरफ देखने-सोचने की फुर्सत नहीं है| सभी राजनैतिक दल सत्ता के हवन में जनता की भावनाओं का 'होम' लगा रहे हैं| हवन का सुफल सत्ता के रुप में जब मिल जाता है तो 'होम' के रुप में इस्तेमाल की गई जनता की अपेक्षाओं और भावनाओं को हवन की राख समझकर फेंक दिया जाता है| यह कितने अफसोस का विषय है कि आजादी के 70 साल बाद भी देश की मातृशक्ति को सैनेटरी नैप्किन उपलब्ध नहीं है| यह कितने शर्मसार करने वाली बात है कि लगभग 43 करोड़ महिलाएं सैनेटरी नैप्किन खरीदने के काबिल नहीं है| 23 फीसदी बेटियां माहवारी शुरु होने पर स्कूल जाना छोड़ देती हैं|
मां दुर्गा, मां काली, मां पार्वती और सीता मैया की धरती पर जननी की इतनी खराब हालत क्यों है| इस पर किसी ने आज तक गौर नहीं किया| न ही धर्म गुरुओं ने, न ही सामाजिक संगठनों ने और न ही राजनैतिक दलों ने| अलबत्ता कुछ एनजीओ ने इस विषय पर अध्ययन किया है| रिपोर्टस तैयार कर केन्द्र और राज्य सरकारों को जमा की हैं| कुर्सी के मद में चूर अफसरों को जनसरोकार से जुड़ी रिपोर्टस देखने और उस पर निर्णय कराने का वक्त नहीं मिलता उन्हें तो नेताओं और खुद के फायदे वाली योजनाएं और रणनीतियों को अमलीजामा पहनाने में मजा आता है|

विकास की जब भी बात होती है तो सब विकसित या विकासशील देशों के आईने में अपनी शक्ल देखकर तुलना करते हैं| शक्ल तो बड़े गर्व से देखते हैं लेकिन उनकी सीरत से अपनी सीरत का मिलान नहीं करते| उनके सिस्टम, कार्यप्रणाली और नैतिक ईमारदारी का अनुसरण नहीं करते हैं| इन्हीं मक्कारियों की वजह से देश की 80 फीसदी महिलाएं सैनेटरी नैप्किन का इस्तेमाल नहीं कर पा रही हैं| बाजार में मिलने वाली सैनेटरी नैप्किन की कीमत इतनी होती है कि गरीब, निम्न मध्यम वर्गीय और मजदूर वर्ग की महिलाएं इसे खरीद ही नहीं पातीं| बहुतेरी महिलाएं अभी भी शर्म-हया की जकड़न में जकड़ी हुई हैं| संकोचवश अपनों को बोल नहीं पातीं और न बाजार से खरीद पाती हैं| बाजार में इनकी कीमत कोई कम नहीं है| सैनेटरी नैप्किन का एक पैकेट 25 से 35 रुपये में आता है| जिसमें 6 से 8 पैड होते हैं|

यह सर्वविदित है कि बच्चियों में 10 से 14 वर्ष की आयु में माहवारी शुरु हो जाती है और अमूमन 45-47 साल की उम्र तक रहती है जोकि प्राकृतिक प्रक्रिया है| सैनेटरी नैप्किन की जगह कुछ भी इस्तेमाल कर लेने की प्रवृत्ति महिलाओं के लिए द्यातक बन जाती है| अधिकांश महिलाएं एंडोमीट्रिओसिस, पेल्विक इंफेक्शन और रिप्रोडक्टिव ट्रेक्ट इंफेक्शन जैसी बीमारी से ग्रसित हो जाती हैं| उपयुक्त समय पर ध्यान न देने पर यही कैंसर जैसे द्यातक रोगों का कारण बन जाते हैं|

अफसोस इस बात है कि हम उन माताओं के लिए अपनी जान कुर्बान करने तैयार रहते हैं जो हमारी आस्था का प्रतीत है पर उन जननी माताओं के स्वास्थ्य पर कभी गौर नहीं करते जो साक्षात हमारे बीच विद्यमान हैं| यही साक्षात माता-बहनें अपने परिवार में ऐसे बच्चों को जन्म देती हैं और उनका पालन-पोषण करती हैं जो बढ़े होकर देश के भागीदार बनते हैं|
सरकारें वोट की ख़ातिर तरह-तरह की मुफ़्तख़ोरी वाली योजनाएँ चलाती हैं। कर्मठ को अकर्मणय बनाने में जी-तोड़ मेहनत करते हैं तो मातृशक्ति के लिए मुफ़्त सेनेटरी नैप्किन क्यों नहीं बाँट सकते?मातृशक्ति के स्वास्थ्य की चिंता की ही जाना चाहिए भले इसके लिए नया 'सेस' वसूल ले सरकार।
O
जय हिन्द
ज़हीर अंसारी

शुक्रवार, अक्टूबर 27, 2017

एम्पायर टाकीज़ के लिए दुःखी हुई शेकटकर जी की कलम

स्व प्रेमनाथ के ऐतिहासिक एम्पायर का खण्डर हो जाना
स्मार्ट सिटी जबलपुर के नाम पर बड़ा कलंक है।
            ब्रिटेन के एलप्रसेड  शेरा के वार एल्बम में आज भी जबलपुर के ऐतिहासिक एम्पायर थियेटर की तस्वीर आज भी मौजूद है। पुरानी तस्वीर बता रही हैं कि यह थियेटर कितना आकर्षक रहा। अंग्रेजी शासन में १९१४ में बना ब्रिटिश शैली में बना अर्ध वृताकार एम्पायर थियेटर पहले नाटकों के लिए बना था। इस थियेटर में ब्रिटेन से आने वाले नाट्य दल अंग्रेजी नाटक का मंचन करते थे।
           शेक्सपियर के रोमियो और जूलियट और मेकबेल जैसे नाटक भी इसी एम्पायर थियेटर में मंचित हुए।बाद में इस थियेटर में मूक अंग्रेजी फिल्में भी दिखाई जाने लगी।
            फिल्म इंडस्ट्री में जबलपुर को पहचान देने वाले अभिनेता प्रेमनाथ जब पढ़ते थे तब वे एक दिन दीवार फांदकर थियेटर में कूद गये और टिकट की मांग की तो मैनैजर ने उनको कान पकड़कर दीवाल फांदकर ही बाहर जाने के लिए कहा।तब प्रेमनाथ ने जातें जाते मैनेजर से कहा कि देखना मैं बड़ा होकर इस थियेटर को खरीदूंगा ‌
         जज्बा जिद्द और जुनून पाले प्रेमनाथ ने २४ फरवरी १९५२ को एम्पायर थियेटर की महिला संचालिका से एम्पायर थियेटर खरीद लिया।बाद में भी इस थियेटर में अंग्रेजी फिल्में ही दिखाई जाती रही।
          प्रेमनाथ के निधन के बाद उनके वारिसों ने समय पर लीज  और नामांतरण की कार्यवाही नहीं कराई तो केंट बोर्ड ने एम्पायर थियेटर को अपने कब्जे में ले लिया। कुछ दिन बाद  थियेटर खंडहर हो गया। आठ सौ से ज्यादा कुर्सियां भी गायब हो गई और सिनेमा दिखाने वाली मशीनें भी गायब हो गई।।
     एम्पायर थियेटर का खण्डर स्मार्ट सिटी के नाम पर कलंक लगा रहा है। प्रेमनाथ की ऐतिहासिक धरोहर को बचाने शहर वासियों को आगे आना होगा।

सोशल मीडिया के ज़हरीले डंक..... ज़हीर अंसारी

आज तक चैनल पर एक प्रोग्राम आता है 'अद्भुत, अविश्वसनीय, अकल्पनीय,। अमूमन यह प्रोग्राम रविवार को आता है जिसे प्रस्तुत करती हैं श्वेता सिंह। शायद उनकी रुचि रहस्य में ज़्यादा है। आज उन्होंने में साँपों के बारे में बताया। वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, वन्य जीव और झाड़-फूँक के विशेषज्ञों से बातचीत पर उन्होंने अपनी साँपों की स्टोरी तैयार की और दर्शकों को परोस दी। श्वेता सिंह ने अपनी स्टोरी में कई पहलुओं पर प्रकाश डाला लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात उन्होंने ने बताई कि साँप की मेमोरी इतनी पुख़्ता नहीं होती कि वह बदले के भावना सालों पाल सके।
लेकिन इंसानों की मेमोरी बहुत पुख़्ता होती है। वो शताब्दी पुरानी बातें भी उखाड़कर निकाल लाता है जिसका प्रमाण सोशल मीडिया पर आसानी से देखने मिल जाता है। कुछेक इंसान रूपी साँप अतीत को बातों को याद करके फुँफकारते या डसते रहते हैं। वजह साफ़ है ये साँप नहीं इंसान हैं परंतु इनके भीतर का स्वभाव ज़हरीला बन गया है। जीते वर्तमान में हैं, परिकल्पना भविष्य की करते हैं किंतु अतीत की घटनाओं को लेकर फुँफकारते रहते हैं। सोशल मीडिया पर साधारणदृष्टि डाले तो कोई न कोई किसी न किसी को काटता दिखेगा। कोई अतीत में घटित घटनाओं पर फुँफकारते मिलेगा तो कोई पूर्ववर्ती सरकार को तो कोई हाल-फ़िलहाल की सरकार को डँसता मिल जाएगा। कमाल इस बात है कि इन कथित इंसान रूपी सापों को अपने कृत्य व अपने बाबा-दादा का अतीत ठीक से याद नहीं हैं लेकिन सैकड़ों साल पहले की बातें ऐसे याद हैं जैसे उस वक़्त ये वहाँ मौजूद रहे हों। डसने का काम कोई सामान्य या अल्प-शिक्षित वर्ग करे तो समझ में आता है परंतु यह काम कतिपय प्रबुद्ध वर्ग कर रहा है। ऐसे लोगों का डंक कोबरा और वाईपर से भी ज़हरीला है।
भले ही साँप की प्रवृति अभी भी अनुसंधान के दायरे में हों परंतु इंसानी प्रवृति अनुसंधान की सीमा से आज भी परे है। कोबरा या वाईपर के काटे को अगर तत्काल इलाज मिल जाए तो उसे बचाया जा सकता है परंतु इंसान रूपी साँप का काटा तिलमिलाता रहता है। ताज्जुब तो इस बात पर होता है कि उस तरह का ज़हर भरने वाले कितने अद्भुत, अकल्पनीय और अविश्वसनीय हैं, इन पर कैसे और किस तरह विश्वास किया जाए। इस तरह की ज़हरीली सोच के सहारे न्यू इंडिया का भविष्य कैसे सुनहरा बनेगा, यह चिंतनीय और विचारणीय प्रश्न है।

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