सोशल मीडिया के ज़हरीले डंक..... ज़हीर अंसारी

आज तक चैनल पर एक प्रोग्राम आता है 'अद्भुत, अविश्वसनीय, अकल्पनीय,। अमूमन यह प्रोग्राम रविवार को आता है जिसे प्रस्तुत करती हैं श्वेता सिंह। शायद उनकी रुचि रहस्य में ज़्यादा है। आज उन्होंने में साँपों के बारे में बताया। वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, वन्य जीव और झाड़-फूँक के विशेषज्ञों से बातचीत पर उन्होंने अपनी साँपों की स्टोरी तैयार की और दर्शकों को परोस दी। श्वेता सिंह ने अपनी स्टोरी में कई पहलुओं पर प्रकाश डाला लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात उन्होंने ने बताई कि साँप की मेमोरी इतनी पुख़्ता नहीं होती कि वह बदले के भावना सालों पाल सके।
लेकिन इंसानों की मेमोरी बहुत पुख़्ता होती है। वो शताब्दी पुरानी बातें भी उखाड़कर निकाल लाता है जिसका प्रमाण सोशल मीडिया पर आसानी से देखने मिल जाता है। कुछेक इंसान रूपी साँप अतीत को बातों को याद करके फुँफकारते या डसते रहते हैं। वजह साफ़ है ये साँप नहीं इंसान हैं परंतु इनके भीतर का स्वभाव ज़हरीला बन गया है। जीते वर्तमान में हैं, परिकल्पना भविष्य की करते हैं किंतु अतीत की घटनाओं को लेकर फुँफकारते रहते हैं। सोशल मीडिया पर साधारणदृष्टि डाले तो कोई न कोई किसी न किसी को काटता दिखेगा। कोई अतीत में घटित घटनाओं पर फुँफकारते मिलेगा तो कोई पूर्ववर्ती सरकार को तो कोई हाल-फ़िलहाल की सरकार को डँसता मिल जाएगा। कमाल इस बात है कि इन कथित इंसान रूपी सापों को अपने कृत्य व अपने बाबा-दादा का अतीत ठीक से याद नहीं हैं लेकिन सैकड़ों साल पहले की बातें ऐसे याद हैं जैसे उस वक़्त ये वहाँ मौजूद रहे हों। डसने का काम कोई सामान्य या अल्प-शिक्षित वर्ग करे तो समझ में आता है परंतु यह काम कतिपय प्रबुद्ध वर्ग कर रहा है। ऐसे लोगों का डंक कोबरा और वाईपर से भी ज़हरीला है।
भले ही साँप की प्रवृति अभी भी अनुसंधान के दायरे में हों परंतु इंसानी प्रवृति अनुसंधान की सीमा से आज भी परे है। कोबरा या वाईपर के काटे को अगर तत्काल इलाज मिल जाए तो उसे बचाया जा सकता है परंतु इंसान रूपी साँप का काटा तिलमिलाता रहता है। ताज्जुब तो इस बात पर होता है कि उस तरह का ज़हर भरने वाले कितने अद्भुत, अकल्पनीय और अविश्वसनीय हैं, इन पर कैसे और किस तरह विश्वास किया जाए। इस तरह की ज़हरीली सोच के सहारे न्यू इंडिया का भविष्य कैसे सुनहरा बनेगा, यह चिंतनीय और विचारणीय प्रश्न है।

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