(1)
ज़्यादातर मौलिक नहीं
“सोच”
सोच रहा होता हूँ
सोचता भी कैसे
प्रगतिशीलता के खेत में
मौलिक सोच
की फसल उगती ही नहीं .
|
(2)
सोचता हूँ
गालियाँ देकर
उतार लूं भड़ास ..?
पर रोज़िन्ना सुनता हूँ
तुम गरियाते हो किसी को
बदलाव
फिर भी
नज़र नहीं आता !!
|
(3)
जिस दूकान पर मैं बिका
सुना है ..
तुम भी
उसी दूकान से बिके थे ?
बिको जितना संभव हो
वरना
जब मरोगे तब कौन खरीदेगा
सिर्फ जलाने
दफनाने के लायक ही रहोगे
आज बिको
पैसा काम आएगा !
|
(4)
पापा
आप जो रजिस्टर
दफ्तर से लाए थे
बहुत काम आया
कल उसमें मैंने लिखी थी
ईमानदारी पर एक कविता
सबको बहुत अच्छी लगी
मुझे एवार्ड भी मिला
ये देखो ?
मैं उसका एवार्ड
देख न पाया !!
|
Ad
रविवार, जून 21, 2015
चार कविताएँ
शुक्रवार, जून 19, 2015
रमज़ान मुबारक हो : बहन फिरदौस की कलम से
खिल उठे मुरझाए दिल, ताज़ा हुआ ईमान है
हम गुनाहगारों पे ये कितना बड़ा अहसान है
या ख़ुदा तूने अता फिर कर दिया रमज़ान है...
माहे-रमज़ान इबादत, नेकियों और रौनक़ का महीना है. यह हिजरी कैलेंडर का नौवां महीना होता है. इस्लाम के मुताबिक़ अल्लाह ने अपने बंदों पर पांच चीज़ें फ़र्ज क़ी हैं, जिनमें कलमा, नमाज़, रोज़ा, हज और ज़कात शामिल है. रोज़े का फ़र्ज़ अदा करने का मौक़ा रमज़ान में आता है. कहा जाता है कि रमज़ान में हर नेकी का सवाब 70 नेकियों के बराबर होता है और इस महीने में इबादत करने पर 70 गुना सवाब हासिल होता है. इसी मुबारक माह में अल्लाह ने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर क़ु़रआन नाज़िल किया था. यह भी कहा जाता है कि इस महीने में अल्लाह शैतान को क़ैद कर देता है.
इबादत
रमज़ान से पहले मस्जिदों में रंग-रोग़न का काम पूरा कर लिया जाता है. मस्जिदों में शामियाने लग जाते हैं. रमज़ान का चांद देखने के साथ ही इशा की नमाज़ के बाद तरावीह पढ़ने का सिलसिला शुरू हो जाता है. रमज़ान के महीने में जमात के साथ क़ियामुल्लैल (रात को नमाज़ पढ़ना) करने को 'तरावीह' कहते हैं. इसका वक्त रात में इशा की नमाज़ के बाद फ़ज्र की नमाज़ से पहले तक है. हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने रमज़ान में क़ियामुल्लैल में बेहद दिलचस्पी ली. आपने फ़रमाया कि ''जिसने ईमान के साथ और अज्र व सवाब (पुण्य) हासिल करने की नीयत से रमज़ान में क़ियामुल्लैल किया, उसके पिछले सारे गुनाह माफ़ कर दिए जाएंगे.''उन्होंने फ़रमाया कि ''यह ऐसा महीना है कि इसका पहला हिस्सा अल्लाह की रहमत है, दरमियानी हिस्सा मग़फ़िरत है और आख़िरी हिस्सा जहन्नुम की आग से छुटकारा है.'' रमज़ान के तीसरे हिस्से को अशरा भी कहा जाता है. आपने फ़रमाया कि ''रमज़ान के आख़िरी अशरे की ताक़ (विषम) रातों में लैलतुल क़द्र की तलाश करो.'' लैलतुल क़द्र को शबे-क़द्र भी कहा जाता है. शबे-क़द्र के बारे में क़ुरआन में कहा गया है कि यह हज़ार रातों से बेहतर है, यानि इस रात में इबादत करने का सवाब एक हज़ार रातों की इबादत के बराबर है. मुसलमान रमज़ान की 21, 23, 25, 27 और 29 तारीख़ को पूरी रात इबादत करते हैं.
ख़ुशनूदी ख़ान कहती हैं- इस महीने में क़ुरआन नाज़िल हुआ, इसलिए रमज़ान बहुत ख़ास है. हर मुसलमान के लिए यह महीना मुक़द्दस और आला है. हमें इस महीने की अहमियत को समझते हुए ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त इबादत में गुज़ारना चाहिए. वैसे भी रमज़ान में हर नेकी और इबादत का सवाब साल के दूसरे महीनों से ज़्यादा ही मिलता है. वे कहती हैं कि शबे-क़द्र को उनके ख़नदान के सभी लोग रातभर जागते हैं. मर्द इबादत के लिए मस्जिदों में चले जाते हैं और औरतें घर पर इबादत करती हैं.
वहीं, ज़ुबैर कहते हैं कि काम की वजह से पांचों वक़्त क़ी नमाज़ नहीं हो पाती, लेकिन रमज़ान में उनकी कोशिश रहती है कि नमाज़ और रोज़ा क़ायम हो सके. दोस्तों के साथ मस्जिद में जाकर तरावीह पढ़ने की बात ही कुछ और है. इस महीने की रौनक़ों को देखकर कायनात की ख़ूबसूरती का अहसास होता है. रमज़ान हमें नेकियां और इबादत करने का सबक़ देता है और हमें अल्लाह के क़रीब करता है.
ज़ायक़ा
माहे-रमज़ान में हर तरफ़ ज़ायक़ेदार व्यंजनों की भरमार रहती है. रमज़ान का ज़िक्र लज़ीज़ व्यंजनों के बग़ैर मुकम्मल नहीं होता. रमज़ान का ख़ास व्यंजन हैं फैनी, सेवइयां और खजला. सुबह सहरी के वक़्त फ़ैनी को दूध में भिगोकर खाया जाता है. इसी तरह सेवइयों को दूध और मावे के साथ पकाया जाता है. फिर इसमें चीनी और सूखे मेवे मिलाकर परोसा जाता है. इसके अलावा मीठी डबल रोटी भी सहरी का एक ख़ास व्यंजन है. ख़ास तरह की यह मीठी डबल रोटी अमूमन रमज़ान में ही ज़्यादा देखने को मिलती है.
इफ़्तार के पकवानों की फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है. अमूमन रोज़ा खजूर के साथ खोला जाता है. दिनभर के रोज़े के बाद शिकंजी और तरह-तरह के शर्बत गले को तर करते हैं. फलों का चाट इफ़्तार के खाने का एक अहम हिस्सा है. ताज़े फलों की चाट रोज़े के बाद ताज़गी का अहसास तो कराती ही है, साथ ही यह पौष्टिक तत्वों से भी भरपूर होती है. इसके अलावा ज़ायक़ेदार पकौड़ियां और तले मसालेदार चने भी रोज़ेदारों की पसंद में शामिल हैं. खाने में बिरयानी, नहारी, क़ौरमा, क़ीमा, नरगिसी कोफ़्ते, सींक कबाब और गोश्त से बने दूसरे लज़ीज़ व्यंजन शामिल रहते हैं. इन्हें रोटी या नान के साथ खाया जाता है. रुमाली रोटी भी इनके ज़ायके को और बढ़ा देती है. इसके अलावा बाकरखानी भी रमज़ान में ख़ूब खाई जाती है. यह एक बड़े बिस्कुट जैसी होती है और इसे क़ोरमे के साथ खाया जाता है. बिरयानी में हैदराबादी बिरयानी और मुरादाबादी बिरयानी का जवाब नहीं. मीठे में ज़र्दा, शाही टुकड़े, फिरनी और हलवा-परांठा दस्तरख़ान पर की शोभा बढ़ाते हैं.
ज़ीनत कहती हैं कि रमज़ान में यूं तो दिन में ज़्यादा काम नहीं होता, लेकिन सहरी के वक़्त और शाम को काम बढ़ जाता है. इफ़्तार के लिए खाना तो घर में ही तैयार होता है, लेकिन रोटियों की जगह हम बाहर से नान या रुमाली रोटियां मंगाना ज़्यादा पसंद करते हैं.
रमज़ान में रोटी बनाने वालों का काम बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है. दिल्ली में जामा मस्जिद के पास रोटी बनाने वालों की कई दुकानें हैं. यहां तरह-तरह की रोटियां बनाई जाती हैं, जैसे रुमाली रोटी, नान, बेसनी रोटी आदि. अमूमन इस इलाके क़े होटल वाले भी इन्हीं से रोटियां मंगाते हैं.
हदीस
जो साहिबे-हैसियत हैं, रमज़ान में उनके घरों में लंबे-चौड़े दस्तरख़्वान लगते हैं. इफ़्तार और सहरी में लज़ीज़ चीज़ें हुआ करती हैं, लेकिन जो ग़रीब हैं, वो इन नेअमतों से महरूम रह जाते हैं. हमें चाहिए कि हम अपने उन रिश्तेदारों और पड़ौसियों के घर भी इफ़्तार और सहरी के लिए कुछ चीज़ें भेजें, जिनके दस्तरख़्वान कुशादा नहीं होते. ये हमारे हुज़ूर हज़रत मुहम्मद सल्लललाहू अलैहिवसल्लम का फ़रमान है.
आप (सल्लललाहू अलैहिवसल्लम) फ़रमाते हैं- रमज़ान सब्र का महीना है यानी रोज़ा रखने में कुछ तकलीफ़ हो, तो इस बर्दाश्त करें. फिर आपने कहा कि रमज़ान ग़म बांटने का महीना है यानी ग़रीबों के साथ अच्छा बर्ताव किया जाए. अगर दस चीज़ें अपने रोज़ा इफ़्तार के लिए लाए हैं, तो दो-चार चीज़ें ग़रीबों के लिए भी लाएं.
यानी अपने इफ़्तार और सहरी के खाने में ग़रीबों का भी ख़्याल रखें. अगर आपका पड़ौसी ग़रीब है, तो उसका ख़ासतौर पर ख़्याल रखें कि कहीं ऐसा न हो कि हम तो ख़ूब पेट भर कर खा रहे हैं और हमारा पड़ौसी थोड़ा खाकर सो रहा है.
ख़रीददारी
रमज़ान में बाज़ार की रौनक़ को चार चांद लग जाते हैं. रमज़ान में दिल्ली के मीना बाज़ार की रौनक़ के तो क्या कहने. दुकानों पर चमचमाते ज़री वाले व अन्य वैरायटी के कपड़े, नक़्क़ाशी वाले पारंपरिक बर्तन और इत्र की महक के बीच ख़रीददारी करती औरतें, साथ में चहकते बच्चे. रमज़ान में तरह-तरह का नया सामान बाज़ार में आने लगता है. लोग रमज़ान में ही ईद की ख़रीददारी शुरू कर देते हैं. आधी रात तक बाज़ार सजते हैं. इस दौरान सबसे ज़्यादा कपड़ों की ख़रीददारी होती है. दर्ज़ियों का काम बढ़ जाता है. इसलिए लोग ख़ासकर महिलाएं ईद से पहले ही कपड़े सिलवा लेना चाहती हैं. अलविदा जुमे को भी नये कपड़े पहनकर नमाज़ पढ़ने का दस्तूर है. हर बार नये डिज़ाइनों के कपड़े बाज़ार में आते हैं. नेट, शिफ़ौन, जॉरजेट पर कुन्दन वर्क, सिक्वेंस वर्क, रेशम वर्क और मोतियों का काम महिलाओं को ख़ासा आकर्षित करता है. दिल्ली व अन्य शहरों के बाज़ारों में कोलकाता, सूरत और मुंबई के कपड़ों की धूम रहती है. इसके अलावा सदाबहार चिकन का काम भी ख़ूब पसंद किया जाता है। पुरानी दिल्ली के कपड़ा व्यापारी शाकिर अली कहते हैं कि बाज़ार में जिस चीज़ का मांग बढ़ने लगती है हम उसे ही मंगवाना शुरू कर देते हैं. ईद के महीने में शादी-ब्याह भी ज़्यादा होते हैं. इसलिए माहे-रमज़ान में शादी की शॉपिंग भी जमकर होती है. शादियों में आज भी पारंपरिक पहनावे ग़रारे को ख़ासा पसंद किया जाता है.
चूड़ियों और मेहंदी के बिना ईद की ख़रीददारी अधूरी है. रंग-बिरंगी चूड़ियां सदियों से औरतों को लुभाती रही हैं. चूड़ियों के बग़ैर सिंगार पूरा नहीं होता. बाज़ार में तरह-तरह की चूड़ियों की बहार है, जिनमें कांच की चूड़ियां, लाख की चूड़ियां, सोने-चांदी की चूड़िया, और मेटल की चूड़ियां शामिल हैं. सोने की चूड़ियां तो अमीर तबक़े तक ही सीमित हैं. ख़ास बात यह भी है कि आज भी महिलाओं को पारंपरिक कांच की रंग-बिरंगी चूड़ियां ही ज़्यादा आकर्षित करती हैं. बाज़ार में कांच की नगों वाली चूड़ियों की भी ख़ासी मांग है. कॉलेज जाने वाली लड़कियां और कामकाजी महिलाएं मेटल और प्लास्टिक की चूड़ियां ज़्यादा पसंद करती हैं, क्योंकि यह कम आवाज़ करती हैं और टूटती भी नहीं हैं, जबकि कांच की नाज़ुक चूड़ियां ज़्यादा दिनों तक हाथ में नहीं टिक पातीं.
इसके अलावा मस्जिदों के पास लगने वाली हाटें भी रमज़ान की रौनक़ को और बढ़ा देती हैं. इत्र, लोबान और अगरबत्तियों से महक माहौल को सुगंधित कर देती है. इत्र जन्नतुल-फ़िरदौस, बेला, गुलाब, चमेली और हिना का ख़ूब पसंद किया जाता है. रमज़ान में मिस्वाक से दांत साफ़ करना सुन्नत माना जाता है. इसलिए इसकी मांग भी बढ़ जाती है. रमज़ान में टोपियों की बिक्री भी ख़ूब होती है. पहले लोग लखनवी दुपल्ली टोपी ज्यादा पसंद करते थे, लेकिन अब टोपियों की नई वैरायटी पेश की जा रही हैं. अब तो लोग विभिन्न राज्यों की संस्कृतियों से सराबोर पारंपरिक टोपी भी पसंद कर रहे हैं. इसके अलावा अरबी रुमाल भी ख़ूब बिक रहे हैं. रमज़ान के मौक़े पर इस्लामी साहित्य, तक़रीरों, नअत, हम्द,क़व्वालियों की कैसेट सीटी और डीवीडी की मांग बढ़ जाती है.
यूं तो दुनियाभर में ख़ासकर इस्लामी देशों में रमज़ान बहुत अक़ीदत के साथ मनाया जाता है, लेकिन हिन्दुस्तान की बात ही कुछ और है. विभिन्न संस्कृतियों के देश भारत में मुसलमानों के अलावा ग़ैर मुस्लिम लोग भी रोज़े रखते हैं. कंवर सिंह का कहना है कि वे पिछले कई सालों से रमज़ान में रोज़े रखते आ रहे हैं. रमज़ान के दौरान वे सुबह सूरज निकलने के बाद से सूरज छुपने तक कुछ नहीं खाते. उन्हें विश्वास है कि अल्लाह उनके रोज़ों को ज़रूर क़ुबूल करेगा. भारत देश की यही महानता है कि यहां सभी धर्मों के लोग मिलजुल कर त्योहार मनाते हैं. यही जज़्बात गंगा-जमुनी तहज़ीब को बरक़रार रखते हैं.
हम गुनाहगारों पे ये कितना बड़ा अहसान है
या ख़ुदा तूने अता फिर कर दिया रमज़ान है...
माहे-रमज़ान इबादत, नेकियों और रौनक़ का महीना है. यह हिजरी कैलेंडर का नौवां महीना होता है. इस्लाम के मुताबिक़ अल्लाह ने अपने बंदों पर पांच चीज़ें फ़र्ज क़ी हैं, जिनमें कलमा, नमाज़, रोज़ा, हज और ज़कात शामिल है. रोज़े का फ़र्ज़ अदा करने का मौक़ा रमज़ान में आता है. कहा जाता है कि रमज़ान में हर नेकी का सवाब 70 नेकियों के बराबर होता है और इस महीने में इबादत करने पर 70 गुना सवाब हासिल होता है. इसी मुबारक माह में अल्लाह ने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर क़ु़रआन नाज़िल किया था. यह भी कहा जाता है कि इस महीने में अल्लाह शैतान को क़ैद कर देता है.
इबादत
रमज़ान से पहले मस्जिदों में रंग-रोग़न का काम पूरा कर लिया जाता है. मस्जिदों में शामियाने लग जाते हैं. रमज़ान का चांद देखने के साथ ही इशा की नमाज़ के बाद तरावीह पढ़ने का सिलसिला शुरू हो जाता है. रमज़ान के महीने में जमात के साथ क़ियामुल्लैल (रात को नमाज़ पढ़ना) करने को 'तरावीह' कहते हैं. इसका वक्त रात में इशा की नमाज़ के बाद फ़ज्र की नमाज़ से पहले तक है. हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने रमज़ान में क़ियामुल्लैल में बेहद दिलचस्पी ली. आपने फ़रमाया कि ''जिसने ईमान के साथ और अज्र व सवाब (पुण्य) हासिल करने की नीयत से रमज़ान में क़ियामुल्लैल किया, उसके पिछले सारे गुनाह माफ़ कर दिए जाएंगे.''उन्होंने फ़रमाया कि ''यह ऐसा महीना है कि इसका पहला हिस्सा अल्लाह की रहमत है, दरमियानी हिस्सा मग़फ़िरत है और आख़िरी हिस्सा जहन्नुम की आग से छुटकारा है.'' रमज़ान के तीसरे हिस्से को अशरा भी कहा जाता है. आपने फ़रमाया कि ''रमज़ान के आख़िरी अशरे की ताक़ (विषम) रातों में लैलतुल क़द्र की तलाश करो.'' लैलतुल क़द्र को शबे-क़द्र भी कहा जाता है. शबे-क़द्र के बारे में क़ुरआन में कहा गया है कि यह हज़ार रातों से बेहतर है, यानि इस रात में इबादत करने का सवाब एक हज़ार रातों की इबादत के बराबर है. मुसलमान रमज़ान की 21, 23, 25, 27 और 29 तारीख़ को पूरी रात इबादत करते हैं.
ख़ुशनूदी ख़ान कहती हैं- इस महीने में क़ुरआन नाज़िल हुआ, इसलिए रमज़ान बहुत ख़ास है. हर मुसलमान के लिए यह महीना मुक़द्दस और आला है. हमें इस महीने की अहमियत को समझते हुए ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त इबादत में गुज़ारना चाहिए. वैसे भी रमज़ान में हर नेकी और इबादत का सवाब साल के दूसरे महीनों से ज़्यादा ही मिलता है. वे कहती हैं कि शबे-क़द्र को उनके ख़नदान के सभी लोग रातभर जागते हैं. मर्द इबादत के लिए मस्जिदों में चले जाते हैं और औरतें घर पर इबादत करती हैं.
वहीं, ज़ुबैर कहते हैं कि काम की वजह से पांचों वक़्त क़ी नमाज़ नहीं हो पाती, लेकिन रमज़ान में उनकी कोशिश रहती है कि नमाज़ और रोज़ा क़ायम हो सके. दोस्तों के साथ मस्जिद में जाकर तरावीह पढ़ने की बात ही कुछ और है. इस महीने की रौनक़ों को देखकर कायनात की ख़ूबसूरती का अहसास होता है. रमज़ान हमें नेकियां और इबादत करने का सबक़ देता है और हमें अल्लाह के क़रीब करता है.
ज़ायक़ा
माहे-रमज़ान में हर तरफ़ ज़ायक़ेदार व्यंजनों की भरमार रहती है. रमज़ान का ज़िक्र लज़ीज़ व्यंजनों के बग़ैर मुकम्मल नहीं होता. रमज़ान का ख़ास व्यंजन हैं फैनी, सेवइयां और खजला. सुबह सहरी के वक़्त फ़ैनी को दूध में भिगोकर खाया जाता है. इसी तरह सेवइयों को दूध और मावे के साथ पकाया जाता है. फिर इसमें चीनी और सूखे मेवे मिलाकर परोसा जाता है. इसके अलावा मीठी डबल रोटी भी सहरी का एक ख़ास व्यंजन है. ख़ास तरह की यह मीठी डबल रोटी अमूमन रमज़ान में ही ज़्यादा देखने को मिलती है.
इफ़्तार के पकवानों की फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है. अमूमन रोज़ा खजूर के साथ खोला जाता है. दिनभर के रोज़े के बाद शिकंजी और तरह-तरह के शर्बत गले को तर करते हैं. फलों का चाट इफ़्तार के खाने का एक अहम हिस्सा है. ताज़े फलों की चाट रोज़े के बाद ताज़गी का अहसास तो कराती ही है, साथ ही यह पौष्टिक तत्वों से भी भरपूर होती है. इसके अलावा ज़ायक़ेदार पकौड़ियां और तले मसालेदार चने भी रोज़ेदारों की पसंद में शामिल हैं. खाने में बिरयानी, नहारी, क़ौरमा, क़ीमा, नरगिसी कोफ़्ते, सींक कबाब और गोश्त से बने दूसरे लज़ीज़ व्यंजन शामिल रहते हैं. इन्हें रोटी या नान के साथ खाया जाता है. रुमाली रोटी भी इनके ज़ायके को और बढ़ा देती है. इसके अलावा बाकरखानी भी रमज़ान में ख़ूब खाई जाती है. यह एक बड़े बिस्कुट जैसी होती है और इसे क़ोरमे के साथ खाया जाता है. बिरयानी में हैदराबादी बिरयानी और मुरादाबादी बिरयानी का जवाब नहीं. मीठे में ज़र्दा, शाही टुकड़े, फिरनी और हलवा-परांठा दस्तरख़ान पर की शोभा बढ़ाते हैं.
ज़ीनत कहती हैं कि रमज़ान में यूं तो दिन में ज़्यादा काम नहीं होता, लेकिन सहरी के वक़्त और शाम को काम बढ़ जाता है. इफ़्तार के लिए खाना तो घर में ही तैयार होता है, लेकिन रोटियों की जगह हम बाहर से नान या रुमाली रोटियां मंगाना ज़्यादा पसंद करते हैं.
रमज़ान में रोटी बनाने वालों का काम बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है. दिल्ली में जामा मस्जिद के पास रोटी बनाने वालों की कई दुकानें हैं. यहां तरह-तरह की रोटियां बनाई जाती हैं, जैसे रुमाली रोटी, नान, बेसनी रोटी आदि. अमूमन इस इलाके क़े होटल वाले भी इन्हीं से रोटियां मंगाते हैं.
हदीस
जो साहिबे-हैसियत हैं, रमज़ान में उनके घरों में लंबे-चौड़े दस्तरख़्वान लगते हैं. इफ़्तार और सहरी में लज़ीज़ चीज़ें हुआ करती हैं, लेकिन जो ग़रीब हैं, वो इन नेअमतों से महरूम रह जाते हैं. हमें चाहिए कि हम अपने उन रिश्तेदारों और पड़ौसियों के घर भी इफ़्तार और सहरी के लिए कुछ चीज़ें भेजें, जिनके दस्तरख़्वान कुशादा नहीं होते. ये हमारे हुज़ूर हज़रत मुहम्मद सल्लललाहू अलैहिवसल्लम का फ़रमान है.
आप (सल्लललाहू अलैहिवसल्लम) फ़रमाते हैं- रमज़ान सब्र का महीना है यानी रोज़ा रखने में कुछ तकलीफ़ हो, तो इस बर्दाश्त करें. फिर आपने कहा कि रमज़ान ग़म बांटने का महीना है यानी ग़रीबों के साथ अच्छा बर्ताव किया जाए. अगर दस चीज़ें अपने रोज़ा इफ़्तार के लिए लाए हैं, तो दो-चार चीज़ें ग़रीबों के लिए भी लाएं.
यानी अपने इफ़्तार और सहरी के खाने में ग़रीबों का भी ख़्याल रखें. अगर आपका पड़ौसी ग़रीब है, तो उसका ख़ासतौर पर ख़्याल रखें कि कहीं ऐसा न हो कि हम तो ख़ूब पेट भर कर खा रहे हैं और हमारा पड़ौसी थोड़ा खाकर सो रहा है.
ख़रीददारी
रमज़ान में बाज़ार की रौनक़ को चार चांद लग जाते हैं. रमज़ान में दिल्ली के मीना बाज़ार की रौनक़ के तो क्या कहने. दुकानों पर चमचमाते ज़री वाले व अन्य वैरायटी के कपड़े, नक़्क़ाशी वाले पारंपरिक बर्तन और इत्र की महक के बीच ख़रीददारी करती औरतें, साथ में चहकते बच्चे. रमज़ान में तरह-तरह का नया सामान बाज़ार में आने लगता है. लोग रमज़ान में ही ईद की ख़रीददारी शुरू कर देते हैं. आधी रात तक बाज़ार सजते हैं. इस दौरान सबसे ज़्यादा कपड़ों की ख़रीददारी होती है. दर्ज़ियों का काम बढ़ जाता है. इसलिए लोग ख़ासकर महिलाएं ईद से पहले ही कपड़े सिलवा लेना चाहती हैं. अलविदा जुमे को भी नये कपड़े पहनकर नमाज़ पढ़ने का दस्तूर है. हर बार नये डिज़ाइनों के कपड़े बाज़ार में आते हैं. नेट, शिफ़ौन, जॉरजेट पर कुन्दन वर्क, सिक्वेंस वर्क, रेशम वर्क और मोतियों का काम महिलाओं को ख़ासा आकर्षित करता है. दिल्ली व अन्य शहरों के बाज़ारों में कोलकाता, सूरत और मुंबई के कपड़ों की धूम रहती है. इसके अलावा सदाबहार चिकन का काम भी ख़ूब पसंद किया जाता है। पुरानी दिल्ली के कपड़ा व्यापारी शाकिर अली कहते हैं कि बाज़ार में जिस चीज़ का मांग बढ़ने लगती है हम उसे ही मंगवाना शुरू कर देते हैं. ईद के महीने में शादी-ब्याह भी ज़्यादा होते हैं. इसलिए माहे-रमज़ान में शादी की शॉपिंग भी जमकर होती है. शादियों में आज भी पारंपरिक पहनावे ग़रारे को ख़ासा पसंद किया जाता है.
चूड़ियों और मेहंदी के बिना ईद की ख़रीददारी अधूरी है. रंग-बिरंगी चूड़ियां सदियों से औरतों को लुभाती रही हैं. चूड़ियों के बग़ैर सिंगार पूरा नहीं होता. बाज़ार में तरह-तरह की चूड़ियों की बहार है, जिनमें कांच की चूड़ियां, लाख की चूड़ियां, सोने-चांदी की चूड़िया, और मेटल की चूड़ियां शामिल हैं. सोने की चूड़ियां तो अमीर तबक़े तक ही सीमित हैं. ख़ास बात यह भी है कि आज भी महिलाओं को पारंपरिक कांच की रंग-बिरंगी चूड़ियां ही ज़्यादा आकर्षित करती हैं. बाज़ार में कांच की नगों वाली चूड़ियों की भी ख़ासी मांग है. कॉलेज जाने वाली लड़कियां और कामकाजी महिलाएं मेटल और प्लास्टिक की चूड़ियां ज़्यादा पसंद करती हैं, क्योंकि यह कम आवाज़ करती हैं और टूटती भी नहीं हैं, जबकि कांच की नाज़ुक चूड़ियां ज़्यादा दिनों तक हाथ में नहीं टिक पातीं.
इसके अलावा मस्जिदों के पास लगने वाली हाटें भी रमज़ान की रौनक़ को और बढ़ा देती हैं. इत्र, लोबान और अगरबत्तियों से महक माहौल को सुगंधित कर देती है. इत्र जन्नतुल-फ़िरदौस, बेला, गुलाब, चमेली और हिना का ख़ूब पसंद किया जाता है. रमज़ान में मिस्वाक से दांत साफ़ करना सुन्नत माना जाता है. इसलिए इसकी मांग भी बढ़ जाती है. रमज़ान में टोपियों की बिक्री भी ख़ूब होती है. पहले लोग लखनवी दुपल्ली टोपी ज्यादा पसंद करते थे, लेकिन अब टोपियों की नई वैरायटी पेश की जा रही हैं. अब तो लोग विभिन्न राज्यों की संस्कृतियों से सराबोर पारंपरिक टोपी भी पसंद कर रहे हैं. इसके अलावा अरबी रुमाल भी ख़ूब बिक रहे हैं. रमज़ान के मौक़े पर इस्लामी साहित्य, तक़रीरों, नअत, हम्द,क़व्वालियों की कैसेट सीटी और डीवीडी की मांग बढ़ जाती है.
यूं तो दुनियाभर में ख़ासकर इस्लामी देशों में रमज़ान बहुत अक़ीदत के साथ मनाया जाता है, लेकिन हिन्दुस्तान की बात ही कुछ और है. विभिन्न संस्कृतियों के देश भारत में मुसलमानों के अलावा ग़ैर मुस्लिम लोग भी रोज़े रखते हैं. कंवर सिंह का कहना है कि वे पिछले कई सालों से रमज़ान में रोज़े रखते आ रहे हैं. रमज़ान के दौरान वे सुबह सूरज निकलने के बाद से सूरज छुपने तक कुछ नहीं खाते. उन्हें विश्वास है कि अल्लाह उनके रोज़ों को ज़रूर क़ुबूल करेगा. भारत देश की यही महानता है कि यहां सभी धर्मों के लोग मिलजुल कर त्योहार मनाते हैं. यही जज़्बात गंगा-जमुनी तहज़ीब को बरक़रार रखते हैं.
मंगलवार, जून 16, 2015
प्राप्ति और प्रतीति : गिरीश बिल्लोरे मुकुल
परिंदों,
तुम आज़ाद हो,
उड़ो, ऊँचे और ऊँचे,
जहाँ, सफलता का दृश्य,
बाट जोहता है।
जहाँ से कोई योगी,
पहले पहल सोचता है ?
इस आव्हान का असर,
एक पाखी ने फड़फड़ाए पर,
टकराकर, जाने किस से -
गिर गया -विस्तृत बयाबान में,
और
तब से अब तक हम,
आप और मैं. . .
ताड़ के पत्तों से,
किताबों के जंगल तक-
अन्वेषणरत-
खोजते-
कराहों का कारण
इसे सुनिए यहाँ :- प्राप्ति और प्रतीति
तुम आज़ाद हो,
उड़ो, ऊँचे और ऊँचे,
जहाँ, सफलता का दृश्य,
बाट जोहता है।
जहाँ से कोई योगी,
पहले पहल सोचता है ?
इस आव्हान का असर,
एक पाखी ने फड़फड़ाए पर,
टकराकर, जाने किस से -
गिर गया -विस्तृत बयाबान में,
और
तब से अब तक हम,
आप और मैं. . .
ताड़ के पत्तों से,
किताबों के जंगल तक-
अन्वेषणरत-
खोजते-
कराहों का कारण
इसे सुनिए यहाँ :- प्राप्ति और प्रतीति
बुधवार, जून 10, 2015
दो दिन की लघुकथा
पहला-दिन
रत्तू भिखारी बहुत देर तक चीखता चिल्लाता रहा ..........
पॉश कालोनी में दो दिनों से मिला तो पर पेट भरने के लिए पानी अधिक पीना पड़ा था आज
पॉश कालोनी में मिलने की उम्मीद जो थी . रंग बिरंगे परन्तु बड़े बड़े गेट थे कि
खुलने का नाम न ले रहे थे . जिस गेट के
सामने पहुँचा किसी दरवाज़े से सफ़ेद झक्क वाला कुता भुक्क भुक्क कर भगाता नज़र आया तो
किसी गेट पर बड़ी नस्ल वाले कुत्ते ने दुत्कारा ... पर भिखारी ने रटी-रटाई पुकार
लगानी न छोड़ी .
निरंतर पुकार रहा था सीता मैया राधा जी , देवकी मैया भूखे
को भोजन दे दे माँ .. दो दिनों का भूखा हूँ माँ ....... सीता ........... देवकी
दोरे खोल लो अब मैया जी ......
एक भी दरवाज़ा न खुला ...... थक हार कर बेचारा भिखारी मंदिर
के आहाते में सो गया .... रात कोई आया सपने में . क्या समझाया रत्तू को मालूम होगा
अपन को कुच्छ नई मालूम..
दूसरा-दिन
आज भिखारी पूरे उत्साह से उठा मंदिर के पास वाले बंगले के
पास चिल्लाया....... देवी श्री देवी भगवान तुम्हारा भला करेगा .
भुक्क-भुक्क करने वाले कुत्ते को डपटते हुए प्रौढ़ा ने नौकर
को आवाज़ लगाईं .... बहादुर एक पेपर प्लेट में पोहे जलेबी ले आ ..
इस पुकार ने उसे गज़ब परोसा दिलवाया. जिस घर के सामने उसने
कंगना रनौत पुकारा उधर तो उसे रोटी, पानी, पचास रुपए मिले ...
एक घर के सामने गलती से आलिया क्या पुकार बैठा......... घर
की तरुणियों ने जिस कदर डपटा कि रत्तू की हवा निकस गई.........
शुक्रवार, जून 05, 2015
पुरस्कृत होकर प्रसन्न हुए बालभवन जबलपुर के बच्चे
म.प्र. प्रदूषण बोर्ड
जबलपुर,
हिन्दुस्तान इको सॉफ्ट जबलपुर एवं संभागीय बाल भवन जबलपुर द्वारा
पर्यावरण दिवस पर चित्रकला प्रतियोगिता का पुरस्कार वितरण समारोह शुभारम्भ दीप
प्रज्जवल एवं शिप्रा सुल्लेरे के संगीत निर्देशन में बालभवन के बच्चों द्वारा पर्यावरण गीत से हुआ ।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री एच. के. शर्मा संयुक्त
संचालक,एकीकृत बाल विकास सेवाएं , जबलपुर तथा कार्यक्रम की अध्यक्षता श्री व्ही के अहिरवार ,वरिष्ठ अधीक्षण अभियन्ता, म.प्र.प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ( भोपाल ) रहे । संभागीय उपंसचालक श्रीमती मनीषा लुम्बा (महिला सशक्त्किरण) एवं क्षेत्रीय समन्वयक ,महिला संसाधन केन्द्र ,जबलपुर श्रीमती शालिनी तिवारी विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थिति
थीं ।
मुख्य
अतिथि श्री एच. के. शर्मा सयुक्त संचालक ने कहा कि बाल भवन द्वारा सामाजिक एवं
ज्वलंत मुद्दों पर जो कार्य किया जा रहा है इसकी जितनी तारीफ की जावे कम है उससे
अधिक तारीफ प्रशंसा उनकी करना होगी जो स्पर्धा में शामिल होते हैं . अपनी
अभिव्यक्ति में राष्ट्रीय बालश्री
पुरस्कार हेतु चयनित शुभमराज अहिरवार
एवं महिला पंचायत भोपाल में गहरी छाप छोड़ने वाली बाल-गायिका इशिता का
उदाहरण देते हुए श्री शर्मा ने बच्चों से लक्ष्य को सपनों में देखने फिर लक्ष्य की
पूर्ती के लिए सतत जुटाने की सलाह दी .
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे श्री व्ही एस अहिरवार वरिष्ठ अधीक्षण अभियन्ता
द्वारा बच्चों द्वारा रचित चित्रों की भूरि-भूरि प्रसंशा की गई एवं बच्चों को यह
प्रण लेने को कहा कि वे पर्यावरण सरंक्षण कर मानव जीवन को बचाने का संदेश
दिया। वे बच्चे जिन्होन पर्यावरण को बचाने
पर केन्द्रित रचनात्कता प्रदर्षित की है उन बच्चों को विशेष रुप से बधाई दी साथ ही
श्री अहिरवार ने बच्चों के प्रश्नों के उत्तर भी दिए तथा यह भी कहा कि बाल भवन द्वारा निराश्रित एवं निषक्त बच्चों कों
प्रोत्साहित कर सामाजिक सरोकारों को जोड़ने
का बीड़ा उठाया है जो निःसदेह सराहनीय है ।
हिन्दुस्तान
ईको सॉफ्ट की ओर से श्री राजेश दुबे ने
एवं संभागीय बालभवन की ओर से श्री पियूष खरे ,श्रीमति रेणु पांडे एवं
श्रीमति मीना सोनी का कार्यक्रम में शिप्रा सुल्लेरे,सोमनाथ सोनी ,देवेन्द्र यादव एवं इन्द्र पाण्डे का सहयोग रहा ।
पुरस्कृत होकर प्रसन्न हुए ये बच्चे
जूनियर वर्ग - प्रथम स्थान-आदित्य
सिंह ठाकुर,द्वितीय स्थान-हर्षिता गुप्ता एवं
तृतीय स्थान-अनुराग सीनियर वर्ग - प्रथम स्थान-यशी पचैरी ,द्वितीय स्थान-आस्था गुप्ता एवं
तृतीय स्थान-सुनीता केवट विशेष श्रेणी
{मानसिक विकलांग/नि:शक्त} - प्रथम
स्थान-मानसी साहू ,द्वितीय स्थान-गोलू एवं तृतीय
स्थान-राजेश कुशवाहा
म.प्र.प्रदूषण नियंत्रण
बोर्ड की ओर से रीजनल मैनेजर श्री एस एन द्विवेदी एवं वैज्ञानिक श्री खरे बालभवन
संचालक गिरीश बिल्लोरे , के अनुसार 5 जून तक आयोजित कार्यक्रमों में संभागीय
बाल-भवन एवं म.प्र.प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड
की सतत भागीदारी रहेगी तथा आगामी वर्षों में पर्यावरण की जनजागरूकता हेतु
बाल-प्रतिभाओं का सहयोग सुनिश्चित किया जावेगा .
मंगलवार, जून 02, 2015
“क्यों नहीं कर पा रहे हैं भारतीय पूंजी निर्माण”
उत्सव एवं मुदिता के मुद्दों पर उसे धन खर्चना सर्वाधिक
पसंद है . अवकाश भी उसे निरंतर ज़रूरी होते हैं पर सामान्य रूप से अपेक्षाकृत अधिक
कर्मठ होने के गुण एवं तीव्र उत्पादन क्षमता के कारण भारतीय व्यक्ति कभी पराजित नहीं
होता . जब वो पूंजी बनाने के लिए आमादा हो जाता है तो शुद्ध रूप से कर्मठता के
सहारे जीतता है आगे बढ़ता है समृद्धि के
करीब जाता है .. समृद्ध भी होता है इसके कई उदाहरण हैं . जिनका यहाँ ज़िक्र तुरंत
करना आवश्यक नहीं है .
संक्षेप में यह संकेत है कि भारतीय अगर पूंजी-निर्माता हो
जाए तो तय है कि उसकी उद्यमिता उसे आगे ले जाने में सहायक होगी . किन्तु पूंजी
निर्माण की अपनी बाधाएं हैं रोज़ रोज़ मूल्यों में अस्थिरता भारतीयों को पूंजी
निर्माण से रोक रही है .
फिर कराधान एवं लाभ के व्यापारिक दुश्चक्र को ले लीजिये एक रूपए मूल्य की वस्तु का बाज़ार
मूल्य तीन से दस गुना होता है . कभी कभी बीस-तीस गुना अधिक होना भी भारतीय के जेब
से धन बाहर लाने का प्रमुख कारण हो जाती है जिससे उसकी बचत बनाम पूंजी निर्माण की
स्थिति नकारात्मक दिशा में चली जाती है .
उदाहरण के तौर पर आप आलू चिप्स लीजिये – मेरी माँ मेरे
बच्चों की माँ से अधिक समझदार थीं . आलू के विभिन्न प्रकार के चिप्स घर में तैयार
रखतीं थीं . जिसका परम्परागत प्रसंस्करण होता था वर्षों तक यह कमोडिटी सुरक्षित
रहती थी शुद्धता के बारे में कोई चुनौती न थी . अधिकतम 70-80 रुपयों में साल भर के
सुस्वादु आहार का स्थान कास्ट-एन्हांसमेंट के सिद्धांत पर बाज़ार में प्रस्तुत टी
वी विज्ञापन वाले चिप्सों से कहीं आगे था . आज वर्ष भर के लिए चिप्स पर कम से कम
आठ हज़ार रूपए खर्च किये जाना सामान्य सी बात हो गई है . तीस बरस में हमने न केवल
चिप्स खोया बल्कि फास्ट लाइव मूव के लिए पूंजी निर्माण की गति को धीमा भी कर दिया
. यानी हम व्यावसायिक षडयंत्र के शिकार हो गए . पर मानें या न मानें युवा ऐसी
स्थितियों से उकताने लगेंगें जैसे ही उनके ज़ेहन में पूंजी निर्माण की बात आती है
तो बेशक वो परम्परा के पुनरीक्षण (रीव्यू) में जुट जाएगा ऐसा मेरा मानना है .
टेक्स पर भी सरकारों को विशेष रूप से ध्यान देना होगा . अगर
एक व्यक्ति मान लीजिये पांच लाख आय अर्जित करता है तो उसे शुद्ध रूप से सेवा,
स्वास्थ्य, शिक्षा , उर्जा, उत्सव मनोरंजन, यात्रा , पर सब कुछ ख़त्म कर देना होता है . वार्षिक बचत के नाम पर
अगर दस बीस हज़ार बचा भी लिए तो वह उसका भाग्य ही मानिए . यहाँ यह बता दूं कि आय से
क्रय की गई सेवाओं एवं वस्तुओं का वास्तविक मूल्य व्यय के सापेक्ष 70% से 80% मात्र
होता है . यानी कराधान एवं बेलगाम लाभ अर्जन की व्यावसायिक प्रणाली के चलते भारतीय
नागरिक 70 प्रतिशत मूल्य की सेवा अथवा कमोडिटी भुगतान के सापेक्ष चुका रहा है ऐसे
में पूंजी निर्माण का स्वप्न मारीचिका ही है .
रविवार, मई 31, 2015
नदियों के घाटों पर महिलाओं की सुरक्षा : कुछ सुझाव
नदियों के तटों पर परिवार सहित भक्त जन भक्ति भाव से आते हैं अपने बेटे बेटियों बहुओं महिलाओं के साथ . कल शाम
ग्वारीघाट पर आध्यामिक भ्रमण के दौरान मैंने भी स्नान किया देखा
जहां
महिलाएं स्नान कर रहीं थीं वहां शोहदे टाइप के लोग अधिक सक्रीय थे . बाकायदा अपने
सेलफोन से फोटोग्राफी में मशगूल भी थे.
कुछ
परिवारों ने विरोध भी जताया जो जायज था . भद्र मीडिया जिताना समय और स्पेस सनी लियोनी को अथवा सियासत को
दे रहा है उससे आधा समय भी दे दे तो महिलाओं के खिलाफ होते इस सामाजिक नज़रिए को बदला जा सकता है.
मेरी तस्वीर को देखिये क्या मैंने ग़दर फिल्म में काम किया है ? |
न्यू-मीडिया एरा में सबसे फास्ट-इन्फार्मेशन स्प्रेड करने वाले
सारे संसाधन मौजूद हैं . पलक झपकते ही आप की तस्वीर कहाँ जाएगी इस बात का आपको गुमान
भी नहीं हो पाता. फिर आपकी तस्वीर को
सेलफोन पर मौजूद सॉफ्टवेयर के ज़रिये क्या से क्या बनाया जा सकता है इस बात का तो
अंदाजा कोई भी नहीं लगा सकता . मेरी तस्वीर को देखिये क्या मैंने ग़दर फिल्म में
काम किया है ... न फिर भी हीरो की ज़गह मेरी तस्वीर चस्पा है ... ये सॉफ्टवेयर का करिश्मा
है . तो क्या कोई शोहदा महिलाओं बेटियों के चित्र के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकता . मित्रो मेरे इस विचार पर चिंतन अवश्य कीजिये तथा सरकार से नदियों के किनारे वाले घाटों पर सेलफोन से चित्र लेना वर्जित करने के नियम बनाने के लिए अनुरोध अवश्य कीजिये . तब तक जब भी घाटों पर जाएं तो स्नान करने वाले घाटों पर न खुद सेलफोन कैमरों अथवा अन्य कैमरों से फोटो लें न ही फोटो लेने दें . घाटों पर सेवा समितियां भी इस तरह की हरकतों को रोक सकती है .
जहां तक जबलपुर का सवाल है यहाँ ग्वारीघाट, भेडाघाट, तिलवारा , आदि की प्रबंधन इकाइयों जैसे नगरपालिक निगम जबलपुर , नगर-पंचायत भेड़ाघाट, आदि से अपेक्षा है कि वे महिलाओं के स्नान के लिए सुरक्षित स्थान का आरक्षण करें एवं महिलाओं को कपडे बदलने के लिए कवर्ड ढांचा बनाने की प्रक्रिया सबसे पहले करना चाहिए .
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
Ad
यह ब्लॉग खोजें
-
सांपों से बचने के लिए घर की दीवारों पर आस्तिक मुनि की दुहाई है क्यों लिखा जाता है घर की दीवारों पर....! आस्तिक मुनि वासुकी नाम के पौरा...
-
संदेह को सत्य समझ के न्यायाधीश बनने का पाठ हमारी . "पुलिस " को अघोषित रूप से मिला है भारत / राज्य सरकार को चा...
-
मध्य प्रदेश के मालवा निमाड़ एवम भुवाणा क्षेत्रों सावन में दो त्यौहार ऐसे हैं जिनका सीधा संबंध महिलाओं बालिकाओं बेटियों के आत्मसम्मान की रक...