(1)
ज़्यादातर मौलिक नहीं
“सोच”
सोच रहा होता हूँ
सोचता भी कैसे
प्रगतिशीलता के खेत में
मौलिक सोच
की फसल उगती ही नहीं .
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(2)
सोचता हूँ
गालियाँ देकर
उतार लूं भड़ास ..?
पर रोज़िन्ना सुनता हूँ
तुम गरियाते हो किसी को
बदलाव
फिर भी
नज़र नहीं आता !!
|
(3)
जिस दूकान पर मैं बिका
सुना है ..
तुम भी
उसी दूकान से बिके थे ?
बिको जितना संभव हो
वरना
जब मरोगे तब कौन खरीदेगा
सिर्फ जलाने
दफनाने के लायक ही रहोगे
आज बिको
पैसा काम आएगा !
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(4)
पापा
आप जो रजिस्टर
दफ्तर से लाए थे
बहुत काम आया
कल उसमें मैंने लिखी थी
ईमानदारी पर एक कविता
सबको बहुत अच्छी लगी
मुझे एवार्ड भी मिला
ये देखो ?
मैं उसका एवार्ड
देख न पाया !!
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रविवार, जून 21, 2015
चार कविताएँ
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