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रविवार, मई 31, 2015

हीट स्ट्रोक के मामलों में इज़ाफ़ा, एहतियात बरतने की सलाह :सरफ़राज़ ख़ान

भीषण गर्मी के कारण देश में हीट स्ट्रोक के मामलों में इज़ाफ़ा हो रहा है. हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने गर्मी में मरीजों द्वारा की जाने वाली गलतियों और प्रबंध के बारे में दिशा-निर्देश जारी किए हैं.
हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल के मुताबिक़ हीट स्ट्रोक दो तरह के होते हैं। पहला, वे जो युवा काफ़ी समय तक गर्मी के दौरान मेहनत वाले काम में संलिप्त होते हैं, हीट स्ट्रोक के षिकार होते हैं. हालांकि नॉन एक्जरशनल हीट स्ट्रोक कम सक्रिय रहने वाले वृध्दों या ऐसे लोगों पर अधिक असर डालती है जो बीमार होते हैं या कम उम्र वाले बच्चों में होती हैं.
अगर इस पर समय पर ध्यान नहीं दिया जाए तो सैकड़ों लोग 72 घंटों में जान गंवा सकते हैं. अगर उपचार में देरी हुई तो मृत्यु की संभावना 80 फ़ीसदी तक होती है, इसमें भी दस फ़ीसदी की कमी की जा सकती है अगर संभावित गलतियों से बचा जाए व जल्द ज़रूरी उपाय कर लिए जाएं।
बीमारी का पता न लगा पाना : यह रेक्टल तापमान है जो कि एग्जिलरी या ओरल तापमान से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है। व्यक्ति को हीट स्ट्रोक हो सकता है जिसमें उपचार न करा पाने की वजह रेक्टल तापमान ना लेना हो सकता है। हीट स्ट्रोक की स्थिति तब होती है जब तापमान 41 डिग्री सेंटीग्रेड (106 डिग्री फारेनहाइट) से अधिक हो और पसीना न आए।
हीट स्ट्रोक को हीट एग्जाशन समझने की भूल : दोनों में फर्क यह है कि हीट स्ट्रोक के दौरान मरीज को पसीना नहीं आता।
धीरे-धीरे तापमान कम होना : उपचार के तौर पर तापमान में कमी का लक्ष्य कम से कम 0.2 डिग्री सेंटीग्रेड प्रति मिनट कम करते हुए करीब 39 डिग्री सेंटीग्रेड (102 डिग्री फारेनहाइट) तक पहुंचाना होता है।
39 डिग्री से परे लगातार ठंड में रहना : हाइपोथर्मिया से बचाव के लिए 39 डिग्री सेंटीग्रेड के तापमान से कम के वातावरण में रहना चाहिए।
एंटी फीवर दवाएं देना : एंटी फीवर दवाएं पैरासीटामॉल, एस्प्रिन और नॉन स्टीरायॅडल एंटी इन्फ्लेमैटरी की कोई भूमिका नहीं होती। यह दवाएं अगर मरीज लीवर, ब्लड और गुर्दे की समस्या से ग्रसित है तो नुकसानदायक साबित हो सकती हैं। इनकी वजह से रक्तस्राव भी हो सकता है।
बार बार तापमान की जांच न करना : व्यक्ति को चाहिए कि वह लगातार रेक्टल तापमान को जांच करता रहे।
एक बार तापमान गिरने के बाद बुखार की जांच न करना : हीट स्ट्रोक के बाद कुछ दिनों तक बुखार रह सकता है। इसलिए जरूरी है कि इस दौरान लगातार शरीर के तापमान की जांच करते रहें।
कपड़े न उतारना : मरीज के सारे कपड़े उतार देने चाहिए ताकि इवेपोरेषन से तापमान में कमी की जा सके।
सीज़र में फिनाइटॉइन देना : हीट स्ट्रोक में सीजर को काबू करने के लिए फिनाइटॉइन असरकारी नहीं होती।
तापमान को कम करने के लिए क्लोरप्रोमौजीन देना : पहले यह मुख्य उपचार के तौर पर इस्तेमाल होती थी, लेकिन अब इससे परहेज किया जाता है क्योंकि इससे सीजर की आषंका बढ़ जाती है।
मरीज़ के लिए खुद से एंटी कोलीनेर्जिक एंव एंटी हिस्टेमिनिक दवाए लेना : इस मौसम में खुद से एंटी एलर्जी और नाक बहने जैसी समस्याओं में दवाएं लेना हानिकारक साबित हो सकता है। इससे गर्मी का संतुलन गड़बड़ाने के साथ ही जल्द हाइपोथर्मिया भी हो सकता है।
हृदय रोगियों का सावधानी न बरतना : बूढ़े हृदय रोगियों में कार्डियोवैस्कुलर दवाएं जैसे- बीटा ब्लॉकर्स, कैल्शियम चैनल ब्लॉकर्स और डयूरेटिक्स हाइपरथर्मिया को बढ़ा सकता है।
मरीज़ द्वारा ली गई ड्रग्स के बारे में न बताना : कोकीन और एम्फेटामाइन्स जैसी ड्रग्स लेने पर मेटाबॉलिज्म बढ़ने से अधिक गर्मी हो सकती है। ऐसी स्थिति में हीट स्ट्रोक कहीं ज़्यादा घातक साबित हो सकता है।
हल्के तापमान को नज़र अंदाज़ करना : हर व्यक्ति को यह याद रखना चाहिए कि उच्च तापमान तभी आता है जब हल्के बुखार को नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है। अगले कुछ दिनों तक अचानक बुखार को स्ट्रोक ही माना जाना चाहिए जब तक कि कुछ और साबित न हो जाए।
ज़्यादा तरल पदार्थ न देना : याद रखें कि ऐसे में आंतरिक अंग जलने की स्थिति में होते हैं और यह आग सिर्फ़ फीवर के साथ ही निकल सकती है। ऐसे मरीज़ों को चाहिए कि वे आंतरिक अंगों को ठंडक पहुंचाने के लिए अधिक से अधिक तरल पदार्थों का सेवन करें।

सिर्फ़ सिर को ठंडा करना : मरीज़ों को बहते हुए नल के नीचे बैठाकर नहलाना चाहिए ना कि सिर्फ पानी लेकर हाथ या सिर को ठंडक पहुंचाएं। आइस मसाज से परहेज़ करना चाहिए, क्योंकि इससे आंतरिक तापमान में कोई कमी नहीं आती ।
( स्टार न्यूज़ एजेंसी से साभार )

फास्ट एरा बनाम फेसबुक, टिवटर और व्हाट्सएप : डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

समीक्षक का काम टिप्पणी करना होता है। उसकी समझ से वह जो भी कर रहा है, ठीक ही है। मैं यह कत्तई नहीं मान सकता, क्योंकि टिप्पणियाँ कई तरह की होती हैं। कुछेक लोग उसे पसन्द करते हैं, बहुतेरे नकार देते हैं। पसन्द और नापसन्द करना यह समीक्षकों की टिप्पणियाँ पढ़ने वालों पर निर्भर हैं। बहरहाल कुछ भी हो आजकल स्वतंत्र पत्रकार बनकर टिप्पणियाँ करने वालों की संख्या में वृद्धि हुई हैं, जिनमें कुछ नए हैं तो बहुत से वरिष्ठ (उम्र के लिहाज से) होते हैं। 21वीं सदी फास्ट एरा कही जाती है, इस जमाने में सतही लेखन को बड़े चाव से पढ़ा जाता हैं। बेहतर यह है कि वही लिखा जाये जो पाठको को पसन्द हो! आकरण अपनी विद्वता कर परिचय देना सर्वथा उपयुक्त नहीं हैं।
चार दशक से ऊपर की अवधि में मैने भी सामयिकी लिखने में अनेकों बार रूचि दिखाई, परिणाम यह होता रहा कि पाठकों के पत्र आ जाते थे, वे लोग स्पष्ट कहते थे कि मैं अपनी मौलिकता न खोऊँ। तात्पर्य यह कि वही लिखूँ जिसे हर वर्ग का पाठक सहज ग्रहण कर ले। जब जब लेखक साहित्यकार बनने की कोशिश करता है, वह नकार दिया जाता है। जिसे साहित्य ही पढ़ना होगा, वह अखबार/पोर्टल क्यों सब्सक्राइब करेगा? लाइब्रेरी जाकर  दीमक लगी पुरानी सड़ी-गली जिल्द वाली पुस्तकें लेकर अध्ययन करेगा। मीडिया के आलेख अध्ययन के लिये नहीं अपितु मनोरंजनार्थ होने चाहिये।
वर्तमान में जब हर कोई भौतिकवादी है तब उसके शरीर में अनेकानेक बीमारियाँ होने लगी हैं। तनावों से उबरने के लिये वह ऐसे आलेखों का चयन करता है जो कम से कम उसे थोड़ी देर के लिये तनावमुक्त कर सके। मैने ऐसे लोगों को भी देखा है जिन्होने अपनी स्टडीबना रखी है उसमें करीने से मोटी-मोटी पुस्तकों को सजा कर रखा हैं लेकिन पढ़ा कभी नहीं ऐसा मैने जब उनसे पूँछा तब उन सभी ने कहा कि यह एक दिखावा है ताकि लोग उन्हें पढ़ा-लिखा समझें।
हालाँकि जब मैने अपने अनुभवों को विषय वस्तु बनाकर लिखा तब कथिक स्तरीय प्रकाशकों ने उसे नकार दिया। संभवतः ऐसे आलेख उनके प्रकाशन के लिये उपयुक्त नहीं होते रहे होंगे। इन्टरनेट के युग मंे फेसबुक पर लिखे गये संक्षिप्त आलेखों को हजारों/लाखों लोग पसन्द करते हैं। यही पाठक अखबारों/पोर्टलों पर छपे समीक्षात्मक आलेखो की तरफ ध्यान ही नहीं देते हैं। कई प्रकाशको को देखा है कि वह लोग ऐसे लोगों के आलेखों को’ ‘लिफ्टकरके अपने प्रकाशन में स्थान देते हैं जिसे लोग बड़े चाव से पढ़ते हैं।
21 वीं सदी फास्ट युग कही जाती है। अब जो लगभग हर हाथ मे ऐसे लेटेस्ट मोबाइल सेट्स है जिनमे इन्टरनेट के जरिये फेसबुक, टिवटर और व्हाट्सएप पर कुछ न कुछ लिखने वालों की तदाद बढ़ गयी हैं। ऐसे लोग चर्चा में भी रहते हैं। प्रिन्ट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में अपनी समीक्षाएँ छपवाने वाले टिप्पणीकारों के दिन लद रहे हैं। इसलिए अब उन्हें होशियार  हो जाना चाहिए और फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप पर लिखना शुरू करें। फेसबुक पर लोगों के चेहरे (खिले हुए) देखकर मुझे इर्ष्या होने लगी है। लेकिन क्या करूँ मेरे साथ दिक्कत यह है कि दृष्टिदोषहोने की वजह से मैं वह सब नहीं लिख सकता और न ही फोटो अपलोड कर सकता हूँजैसा कि अन्य लोग कर रहे हैं।
कहने को पिछले कई वर्षों से एक वेबपोर्टल रेनबोन्यूज डॉट इन के नाम से ऑपरेटकर रहा हूँ  लेकिन तकनीकी ज्ञान के अभाव में कागज पर लिखता हूँ  और आलेखों को टाइप करवाकर उस पर पोस्ट करवाता हूँ। दो वर्ष पूर्व तक उस पर छपे लेखों/संवादो पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ भी आती थीं, लेकिन जब से सोशल साइट्स जैसे फेसबुक/ट्विटर/वहाट्सएप का प्रचलन बढ़ने लगा पोर्टल/ब्लाग्स भी महत्वहीन होने लगे हैं।
बड़े-बड़े जानकर समीक्षक-टिप्पणीकार-कलमकार फेसबुक पर मिलते हैं। अब तो राजनेता-प्रशासनिक अधिकारी नित्य की अपनी गतिविधियों को बखूबी विस्तार से फेसबुक पर लिखकर हजारो-लाखों मित्रों को शेयरकरते हैं। नेट/वेब की तकनीकी जानकारी भी फेसबुक पर देने वालों की काफी तदाद है। बड़ी मेहनत करते हैं ये लोग। रात-रात भर जागकर रोचक आप बीती शेयरकरने वालों की संख्या वृद्धि ने प्रिन्ट पर समीक्षाएँ लिखने वालों को हाशिए पर लाना शुरू कर दिया है। ऐसा मुझे प्रतीत होता है- यह आप पर लागू हो इसकी कोई गारण्टी नहीं।
एक जानकार ने मेरे नाम से फेसबुक एकाउण्ट बना दिया है। कभी कभार उसमें मेरे आलेख पोस्ट कर दिये जाते है। ऊपर वाला गवाह है कि उसे कोई पसन्द तक नहीं करता है। इसका दोषारोपण किस पर करूँ? शायद  मुझमें तकनीकी ज्ञान का अभाव है, इसलिये अपने विचारों को प्रसारित करने में चूक जा रहा हूँ । मेरे फेसबुक एकाउण्ट में पोस्ट किये गये आलेख/विचारों पर किसी प्रकार की टिप्पणियाँ नहीं होती हैं। इसका सीधा सा कारण है कि मेरे फेसबुक मित्रो की संख्या नगण्य है, जो हैं भी उन्हें मेरे विचार पसन्द नहीं होते होंगे। 
बहरहाल! मुझे प्रतीत हो रहा है कि अब वह दिन दूर नहीं जब समीक्षकों के  लेखादि जो पत्र-पत्रिकाओं में छपे होंगें उन पर किसी भी प्रकार की प्रतिक्रियाँए देखने/सुनने/पढ़ने को नहीं मिलेगी। तब क्या करेंगे ये लोग......? इसीलिए इन लोगों ने सोशल साइट्स का सहारा लेना शुरू कर दिया है। किराये पर आर्टकिल अपलोडर्स/अपडेटर्स रखकर ये लोग अपने विचारों को इन साइट्स पर अपलोड करवाते है और वाह-वाही लूट रहें हैं।

अब मैंने भी निश्चय कर लिया है कि यदि पढ़े-लिखे लोगों में चर्चित रहकर जिन्दा रहना है तो फेसबुक.... आदि सोशल साइट्स पर कुछ न कुछ अपलोड कराया जाए। एक सज्जन ने मुझे एन्ड्रायड मोबाइल फोन गिफ्ट करने को कहा है और बताया कि इसमें लिखकर अपलोड करना आसान होता है। अब मैं बेसब्री से इंतजार कर रहा हँू उस दिन का जब मुझे एन्ड्रायड फोन गिफ्ट में मिलेगा।

गुरुवार, मई 28, 2015

रेवा तट के बच्चे

माँ रेवा देती है इनको नारियल चुनरी ..
फोटो:- तिलवाराघाट , जबलपुर 
भेडाघाट के धुआंधार पर यूं तो बरसों से सुनाई देती आवाज़ कि  सा'ब चौअन्नी मैको हम निकाल हैं...!!  अब फ़र्क ये है कि बच्चे अब दस रूपए की मांग करते हैं भगत लोग बड़े दिलदार हैं दस का तो क्या पचार रूपए का सिक्का धुंआधार में फैंकने में आनाकानी  नहीं करते करें भी क्यों परसाई दद्दा वाली अफीम जो दबा रखी है . टुन्न हैं टुन्न और टुन्नी में (ठेठ जबलईपुरी मेंकहूं तो ये कहूंगा ..सा'ब... सब चलत है वोट.... रेप.... लड़ाई....... झगड़ा .... हओ...! सब कछु  ....!!  गलत तौ है मनो चलत है . 
हमारा नज़रिया गरीबों के लिए साफ़ तौर पर सामाजिक कम धार्मिक अधिक होता है . जिसके चलते बच्चे दस-पांच रुपयों के पीछे दिन भर नर्मदा तटों पर लहरों से गलबहियां करते हुए गोताखोरी किया करते हैं . चाहे ग्वारीघाट वाले ढीमर-कहारों के बच्चे हों या तिलवारा के पटेलों के ... सब जन्म के बाद बड़े होते हैं फिर नदी को पढ़ते हैं तट पर खेलते हैं . अनुशासित पाठ्यक्रम से दूर 
का नाम है....?
गुलाब.....
स्कूल ........
छुट्टी चल रई है ...
स्कूल में नाम लिखो है 
हओ लिक्खो है ... 
पढ्त हो 
".............दीर्घ मौन"
कछु मिलत है उतै .....?
मिलत है .......
का मिलत है ....?
स्कालर मिलत है ....... किताब सुई मिलत दार -चौर (दाल-चावल )
पढ़ाई .......
टैम-टैम से जात हैं हम ...
                    साफ़ है स्कूल इनको केवल एम डी एम तक बाँध पाता है . शाम को दारू पीने वाला बाप आएगा दारू पीके गाली-गुफ्तार होगी ... माँ पिटेगी एकाध बच्चा भी पिटेगा ये रोजिन्ना होता है इनके घरों में . जो भी हो बच्चों का किसे फर्क पड़ता है ........ न गुरूजी को न माँ बाप को दृश्य कब बदलेगा कौन बदलेगा पता नहीं विकास का पहिया सरपट दौड़ेगा मज़दूर का बेटा मज़दूर रहेगा उसका नाता स्कूल से बहुत अल्प-कालिक जो है . बरसों बरस से यही होता चला आ रहा है . आज गंगा दशहरा पर्व के मौके पर तिलवाराघाट में भी मुझे कुछ नहीं बदला नज़र न आया .  मुझे यकीन है  गंगा गोमती क्षिप्रा जमुना सतालत कावेरी कहीं भी कुछ न बदला होगा . 
बदलेगा कैसे ......... मास्साब के काम बदल गए पिता के अनुमान बदल गए बच्चे रात घर पर नदी से बटोरे नारियल न बेचेगा तो कल रोटी कैसे मिलेगी . बाप तो शहर से हुई कमाई की दारू पी लेगा ... 
रही बात  मास्साब-बहनजी की बात  उनकी तो छोडो स्कूल चलो अभियान के बाद सवा दो की बस अथवा स्कूटी  या बैक से घर आना ज़रूरी है शहर में उनके बच्चे पढ़ते हैं कान्वेंट में अकेले की कमाई से क्या होगा ट्यूशन भी तो करनी है ... फिर स्टेटस का खयाल भी रखना होता है . यानी कुल मिला कर सब कुछ भगवान भरोसे .. और जो नास्तिक हैं वो जान लें कि भगवान नामक कोई शक्ति अवश्य है जो दुनिया चला रही है ... भरोसा करो भगवान पर विश्वास करो ............. 

बुधवार, मई 27, 2015

पोट्रेट्स

 अक्सर उसे किसी न किसी को अपमानित करते अथवा किसी की चुगली करते देखना लोंगों का अभ्यास सा बन गया था .  सुबह दोपहर शाम निंदा और चुगलियाँ करना  उसके जीवन का मौलिक उद्देश्य था . कई लोगों ने कई बार सोचा कि उसे नसीहत दी जावे पर इस प्रकार का काम करने का लोग जोखिम इस वज़ह से नहीं उठाना चाहते क्योंकि वे जानते हैं कि अति के दुःखद परिणामों का आना निश्चित ही होता है .
  संस्थानों में ऐसे दुश्चरित्रों से लोग बाकायदा सुविधाजनक अंतराल स्थापित कर ही लेते हैं . करना भी चाहिए नगर निगम की नालियों से बहने वाली गन्दगी में कोई पत्थर फैंक कर अपने वस्त्र क्यों खराब करे ..भला  !  
समय के साथ साथ फतेहचंद का चेहरा  गुणानुरूप विकृत सा दिखाई देने लगा था सामने से टूटे हुए दांत ये साबित कर रहे थे कि बाह्य शारीरिक बल के प्रयोग से यह बदलाव आया है . ये लग बात है कि उसे किस रूप में परिभाषित किया जा रहा था किन्तु ज्ञान सभी को था . फिर भी बुद्धि चातुर्य के सहारे फ़तेह अक्सर अपनी मजिल फतह कर ही लेता था .
मित्रो किसी ने उसे सुझाया कि वो एक बेहतरीन विश्लेषक है तो क्यों नहीं चित्रकारी करे लोगों को पोट्रेट करे . चित्रांकन प्रारम्भ हुआ . एक दो ही चित्र में उसे अपनी प्रतिभा पर गर्व सा होने लगा . गर्व घोर घमंड में तब्दील हुआ . मित्रों के पोट्रेट बनाने लगा था वह ... भयंकर अति विद्रूप उसका अपना स्टूडियो घनिष्ट मित्रों के विद्रूप पोट्रेट्स से अता पड़ा था . उन छवियों की और अपलक निहारता विकृत खबीस से चित्रों के देखता अट्टहास करता . 
*******************
      सुधि पाठको , एक रात कला का चितेरा गंधर्व जब भू-विचरण को निकला तो देखा कि कलाकार फतेहचंद अपने बनाए  पोट्रेट्स को निहार के मुस्कुराता है हँसता है  अट्टहास करता है .
एक कला साधक का सहज मानवीय रूप रख गंधर्व जिज्ञासावश उसके स्टूडियो में प्रवेश करता है . छद्म नाम से परिचय देकर गंधर्व ने पूछा – मित्र, ये किनके पोट्रेट हैं ?   
         पूरे अहंकार से फ़तेह का उत्तर था – मेरे कुलीग्स हैं ... ?
         गंधर्व – इतने विकृत ... चेहरे हैं इनके ?
         फतेहचन्द्र -  हैं तो नहीं पर जैसा मैं इनको परिभाषित करता हूँ वैसे बना लिए ... यही तो कला है ... हा हा हा
गंधर्व को  सारा मामला समझ में आ गया उसने प्रतिप्रश्न किया – क्या तुम इनको इसी स्वरुप में सप्राण देखना चाहोगे ...?
क्यों नहीं मित्र ..!
         गंधर्व ने तुरंत भ्रमण करने वाली आत्माओं का आह्वान किया . सारी तस्वीरें सजीव हो गईं उसी रूप में जिस रूप में फ़तेह उनको देखता था . गंधर्व अंतर्ध्यान हो गया .... आर्टिस्ट दीवारों पर लगे पोट्रेट्स की और देखता पर विकृतियाँ उसे आतंकित करतीं  थर थर कांपता स्टूडियो से बाहर भागा आज भी भाग रहा है .. भागेगा क्यों नहीं . फ़तेह  हर व्यक्ति उस व्यक्ति का नाम है जो अपने अनुमानों से  सृजित  विकृतियों के जीवंत होने से भागता है भयातुर होकर
गिरीश बिल्लोरे मुकुल

मंगलवार, मई 26, 2015

अपाहिजों के सापेक्ष नहीं है समाज एवम् व्यवस्था


विश्व में अपाहिज आबादी के लिए जितने प्रयास किये जा रहे हैं उन सब को देख के लगता है कि वैश्विक समाज और  सरकारें विकलांगता को उत्पादकता का भाग न मानकर व्ययभार मानतीं है । इस परिपेक्ष्य में अन्य वीकर सैगमेंट की अपेक्षा कम तरज़ीह दी जा रही है । भारत उपमहाद्वीप में स्थिति सामाजिक एवम् पारिवारिक संरचना में धार्मिक दबावों के चलते इस वीकर सैगमेंट को सामाजिक तौर पर नकारा तो नहीं जाता पर पारिवारिक महत्व भी उतना नहीं है जितना कि सर्वांग सदस्य को है ।   सरकार ही भूमिका :- अपाहिज जीवन के लिए सरकारी स्तर पर दी जाने वाली सुविधा में पुनर्विचारण की ज़रुरत है । हालिया प्राप्त हो रही खबरों से स्पष्ट हो रहा है कि इस वर्ग के लोगों को मेडिकल प्रमाण पत्र प्राप्त करना सहज नहीं । इस बात की पुष्टि किसी भी सरकारी अस्पताल के बोर्ड के कामकाज से लगाईं जा सकती है । सरकार के संज्ञान में कमोबेश ये बिंदु अवश्य ही होगा कि यहाँ  भ्रष्टाचार गहरी जड़ें जमा चुका है ।
सहकर्मियों का नजरिया :- सहकर्मियों का नज़रिया बेहद अजीब सा हुआ करता है । हालिया दिनों में इसके कई उदाहरण सामने आए हैं किन्तु इन पर त्वरित दंडात्मक कार्रवाई न करना उल्टे शिकायत कर्ता को प्रताड़ित करने का प्रयास करना बेहद मार्मिक स्थिति है । कमी का लाभ उठा कर झूठे मनगढ़ंत आरोप लगा कर प्रताड़ित करने में सहकर्मी भी पीछे नहीं रहते । परंतु शिकायतों का विभागीय तोर पर निपटान न तो किया जा रहा है न ही इस कार्य में किसी की कोई रूचि ही है । विकलांगों के प्रति घृणाभाव वश किये गए मामलों की जांच हेतु स्वतंत्र राज्य के आयुक्त से कार्रवाई करानी चाहिए । राज्य के विकलांग आयुक्त :- महिला आयोग बाल आयोग अजा अजजा के सापेक्ष इस वर्ग के लिए आयोग की गतिविधियाँ तेज़ एवम् अधिक सुस्पस्ट कर देने की ज़रुरत है । यहाँ स्पस्ट करना चाहूँगा खुद को निर्दोष साबित करने का भार अधिक प्रभाव कारी हो न कि अपाहिज शिकायत कर्ता को अपराध साबित करने का अधिक भार हो ।
गिरीश बिल्लोरे "मुकुल"
(स्वतंत्र लेखक हिंदी ब्लॉग लेखक एवम् टिप्पणीकार)

सोमवार, मई 18, 2015

माँ अरुणा तुम कब कब कहाँ कहाँ

27 नवंबर, 1973 को अस्पताल के स्वीपर के हाथों यौन हिंसा की शिकार होने के बाद से ही माँ अरुणा कोमा में थी आज वे हमें छोड़ गईं सैकड़ों सवालों के साथ .... पर माँ के लिए केवल अश्रु बहाना चर्चा करा लेना कविता लिख देना श्रृद्धांजलि  तो है पर सच्ची- श्रृद्धांजलि शायद नहीं
इस श्रृद्धांजलि में सुनिए कल का भयावह स्वरुप ............  
माँ अरुणा
 तुम कब कब कहाँ कहाँ
कैसे कैसे छली जाती रही  हो
बोलो न....?
बोलती क्यों नहीं
४२ साल तक मौन व्रत..?
नि:शब्द रहने का तप.....?
तापसी माँ तुम चुप क्यों थी ...
तुम्हारे लिए मोमबत्तियां
जलीं थीं या नहीं इससे मुझे कोई सरोकार नहीं
पर तुम्हारा अस्तित्व वो अनाचारी जला गया
आज भी जलाता है ...... रोज़िन्ना जलाता है माँ ....
तुमको .......... अस्पतालों में
तबेलों में घुड़सालों में
रेल बस स्कूल कॉलेज़ में
हर कहीं ....... जिधर देखो वहीं
फ्रायडी-नज़र लिए घूमते भेड़िए को
आज भी बेखौफ़ घूमता...
न क़ानून बांध सका
कोई कृष्ण शस्त्रसंधान न सका
क़ानून व्यवस्था समाज
सबको अब जान लेना चाहिए
आने वाली धीमी ध्वनियाँ
जो नि:शब्द जीवन के  शस्त्र से उपजतीं  हैं

एक प्रतिकार भरा कल इन्हीं से भरा होगा   

ज़रा सोचें ये सब आजकल कहाँ नहीं है ?

वाटसएप  महाराज के ज़रिये मिली कहानी के लेखक जहां भीं हों उनको मेरा नमन वास्तव में विचार सम्प्रेषण में इन नए संचार माध्यमों का बड़ा अवदान है . ये कथा मुझे बेहद प्रभावित कर गई अतएव पेश कर हूं उन अज्ञात लेखक मौन सहमति माँ कर जिनको मैं जानता भी नहीं........
एक नन्हीं चींटी रोज अपने काम पर समय से आती थी और अपना काम अपना काम समय पर करती थी.....
वे जरूरत से ज्यादा काम करके भी खूब खुश थी.......ज्ंगल के राजा शेर नें एक दिन चींटी को काम करते हुए देखा, और आश्चर्यचकित हुआ कि चींटी बिना किसी निरीक्षण के काम कर रही थी........ उसने सोचा कि अगर चींटी बिना किसी सुपरवाईजर के इतना काम, कर रही थी तो जरूर सुपरवाईजर के साथ वो अधिक काम कर सकती थी. उसनें काक्रोच को नियुक्त किया जिसे सुपर्वाईजरी का 10 साल का अनुभव था,   और वो रिपोर्टों का बढ़िया अनुसंधान करता था . काक्रोच नें आते ही साथ सुबह आने का टाइम, लंच टाईम और जाने का टाईम निर्धारित किया, और अटेंडेंस रजिस्टर बनाया. उसनें अपनी रिपोर्टें टाईप करने के लिये, सेकेट्री भी रखी.... उसनें मकड़ी को नियुक्त किया जो सारे फोनों का जवाब देता था और सारे रिकार्डों को मेनटेन करता था...... शेर को काक्रोच की रिपोर्टें पढ़ कर बड़ी खुशी हुई, उसने काक्रोच से कहा कि वो प्रोडक्शन एनालिसिस करे और, बोर्ड मीटिंग में प्रस्तुत करने के लिये ग्राफ बनाए...... इसलिये काक्रोच को नया कम्प्यूटर और लेजर प्रिंटर खरीदना पड़ा......... और उसनें आई टी डिपार्टमैंट संभालने के लिए मक्खी को नियुक्त किया........
चींटी जो शांति के साथ अपना काम पूरा करना चाहती थी इतनी रिपोर्टों को लिखकर और मीटिंगों से परेशान होने लगी.......
शेर ने सोचा कि अब वक्त आ गया है कि जहां चींटी काम करती है वहां डिपार्टमेंट का अधिकारी नियुक्त किया जाना चाहिये....
उसनें  झींगुर को नियुक्त किया, झींगुर ने आते ही साथ अपने आॅफिस के लिये कार्पेट और ए.सी. खरीदा.....
नये बॉस झींगुर को भी कम्प्यूटर की जरूरत पड़ी और उसे चलाने के लिये वो अपनी पिछली कम्पनी में काम कर रही सहायक  को भी नई कम्पनी में ले आया......... चींटी जहां काम कर रही थी वो दुःख भरी जगह हो गयी जहां सब एक दूसरे पर आदेश चलाते थे और चिल्लाते रहते थें...... झींगुर ने शेर को कुछ समय बाद बताया कि आॅफिस मे टीमवर्क कमजोर हो गया है और माहौल बदलने के लिए कुछ करना चाहिये...... चींटी के डिपार्टमेंट की रिव्यू करते वक्त शेर ने देखा कि पहले से उत्पादकता बहुत कम हो गयी थी....... उत्पादकता बढ़ाने के लिये शेर ने एक प्रसिद्ध कंसलटेंट उल्लू को नियुक्त किया.......
उल्लू नें चींटी के विभाग का गहन अघ्ययन तीन महीनों तक किया फिर उसनें अपनी 1200 पेज की रिपोर्ट दी जिसका निष्कर्ष था कि विभाग में बहुत ज्यादा लोग हैं..... जो कम करने की आवश्यकता है......सोचिये शेर ने नौकरी से किसको निकाला......
नन्हीं चींटी को.......... क्योंकि उसमें नेगेटिव एटीट्यूड, बेमक़सद के टीमवर्क, और कभी न महसूस होने वाले मोटिवेशन की कमी थी.......
ज़रा सोचें ये सब आजकल कहाँ नहीं है ??


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