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गुरुवार, मई 28, 2015

रेवा तट के बच्चे

माँ रेवा देती है इनको नारियल चुनरी ..
फोटो:- तिलवाराघाट , जबलपुर 
भेडाघाट के धुआंधार पर यूं तो बरसों से सुनाई देती आवाज़ कि  सा'ब चौअन्नी मैको हम निकाल हैं...!!  अब फ़र्क ये है कि बच्चे अब दस रूपए की मांग करते हैं भगत लोग बड़े दिलदार हैं दस का तो क्या पचार रूपए का सिक्का धुंआधार में फैंकने में आनाकानी  नहीं करते करें भी क्यों परसाई दद्दा वाली अफीम जो दबा रखी है . टुन्न हैं टुन्न और टुन्नी में (ठेठ जबलईपुरी मेंकहूं तो ये कहूंगा ..सा'ब... सब चलत है वोट.... रेप.... लड़ाई....... झगड़ा .... हओ...! सब कछु  ....!!  गलत तौ है मनो चलत है . 
हमारा नज़रिया गरीबों के लिए साफ़ तौर पर सामाजिक कम धार्मिक अधिक होता है . जिसके चलते बच्चे दस-पांच रुपयों के पीछे दिन भर नर्मदा तटों पर लहरों से गलबहियां करते हुए गोताखोरी किया करते हैं . चाहे ग्वारीघाट वाले ढीमर-कहारों के बच्चे हों या तिलवारा के पटेलों के ... सब जन्म के बाद बड़े होते हैं फिर नदी को पढ़ते हैं तट पर खेलते हैं . अनुशासित पाठ्यक्रम से दूर 
का नाम है....?
गुलाब.....
स्कूल ........
छुट्टी चल रई है ...
स्कूल में नाम लिखो है 
हओ लिक्खो है ... 
पढ्त हो 
".............दीर्घ मौन"
कछु मिलत है उतै .....?
मिलत है .......
का मिलत है ....?
स्कालर मिलत है ....... किताब सुई मिलत दार -चौर (दाल-चावल )
पढ़ाई .......
टैम-टैम से जात हैं हम ...
                    साफ़ है स्कूल इनको केवल एम डी एम तक बाँध पाता है . शाम को दारू पीने वाला बाप आएगा दारू पीके गाली-गुफ्तार होगी ... माँ पिटेगी एकाध बच्चा भी पिटेगा ये रोजिन्ना होता है इनके घरों में . जो भी हो बच्चों का किसे फर्क पड़ता है ........ न गुरूजी को न माँ बाप को दृश्य कब बदलेगा कौन बदलेगा पता नहीं विकास का पहिया सरपट दौड़ेगा मज़दूर का बेटा मज़दूर रहेगा उसका नाता स्कूल से बहुत अल्प-कालिक जो है . बरसों बरस से यही होता चला आ रहा है . आज गंगा दशहरा पर्व के मौके पर तिलवाराघाट में भी मुझे कुछ नहीं बदला नज़र न आया .  मुझे यकीन है  गंगा गोमती क्षिप्रा जमुना सतालत कावेरी कहीं भी कुछ न बदला होगा . 
बदलेगा कैसे ......... मास्साब के काम बदल गए पिता के अनुमान बदल गए बच्चे रात घर पर नदी से बटोरे नारियल न बेचेगा तो कल रोटी कैसे मिलेगी . बाप तो शहर से हुई कमाई की दारू पी लेगा ... 
रही बात  मास्साब-बहनजी की बात  उनकी तो छोडो स्कूल चलो अभियान के बाद सवा दो की बस अथवा स्कूटी  या बैक से घर आना ज़रूरी है शहर में उनके बच्चे पढ़ते हैं कान्वेंट में अकेले की कमाई से क्या होगा ट्यूशन भी तो करनी है ... फिर स्टेटस का खयाल भी रखना होता है . यानी कुल मिला कर सब कुछ भगवान भरोसे .. और जो नास्तिक हैं वो जान लें कि भगवान नामक कोई शक्ति अवश्य है जो दुनिया चला रही है ... भरोसा करो भगवान पर विश्वास करो ............. 

बुधवार, मई 27, 2015

पोट्रेट्स

 अक्सर उसे किसी न किसी को अपमानित करते अथवा किसी की चुगली करते देखना लोंगों का अभ्यास सा बन गया था .  सुबह दोपहर शाम निंदा और चुगलियाँ करना  उसके जीवन का मौलिक उद्देश्य था . कई लोगों ने कई बार सोचा कि उसे नसीहत दी जावे पर इस प्रकार का काम करने का लोग जोखिम इस वज़ह से नहीं उठाना चाहते क्योंकि वे जानते हैं कि अति के दुःखद परिणामों का आना निश्चित ही होता है .
  संस्थानों में ऐसे दुश्चरित्रों से लोग बाकायदा सुविधाजनक अंतराल स्थापित कर ही लेते हैं . करना भी चाहिए नगर निगम की नालियों से बहने वाली गन्दगी में कोई पत्थर फैंक कर अपने वस्त्र क्यों खराब करे ..भला  !  
समय के साथ साथ फतेहचंद का चेहरा  गुणानुरूप विकृत सा दिखाई देने लगा था सामने से टूटे हुए दांत ये साबित कर रहे थे कि बाह्य शारीरिक बल के प्रयोग से यह बदलाव आया है . ये लग बात है कि उसे किस रूप में परिभाषित किया जा रहा था किन्तु ज्ञान सभी को था . फिर भी बुद्धि चातुर्य के सहारे फ़तेह अक्सर अपनी मजिल फतह कर ही लेता था .
मित्रो किसी ने उसे सुझाया कि वो एक बेहतरीन विश्लेषक है तो क्यों नहीं चित्रकारी करे लोगों को पोट्रेट करे . चित्रांकन प्रारम्भ हुआ . एक दो ही चित्र में उसे अपनी प्रतिभा पर गर्व सा होने लगा . गर्व घोर घमंड में तब्दील हुआ . मित्रों के पोट्रेट बनाने लगा था वह ... भयंकर अति विद्रूप उसका अपना स्टूडियो घनिष्ट मित्रों के विद्रूप पोट्रेट्स से अता पड़ा था . उन छवियों की और अपलक निहारता विकृत खबीस से चित्रों के देखता अट्टहास करता . 
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      सुधि पाठको , एक रात कला का चितेरा गंधर्व जब भू-विचरण को निकला तो देखा कि कलाकार फतेहचंद अपने बनाए  पोट्रेट्स को निहार के मुस्कुराता है हँसता है  अट्टहास करता है .
एक कला साधक का सहज मानवीय रूप रख गंधर्व जिज्ञासावश उसके स्टूडियो में प्रवेश करता है . छद्म नाम से परिचय देकर गंधर्व ने पूछा – मित्र, ये किनके पोट्रेट हैं ?   
         पूरे अहंकार से फ़तेह का उत्तर था – मेरे कुलीग्स हैं ... ?
         गंधर्व – इतने विकृत ... चेहरे हैं इनके ?
         फतेहचन्द्र -  हैं तो नहीं पर जैसा मैं इनको परिभाषित करता हूँ वैसे बना लिए ... यही तो कला है ... हा हा हा
गंधर्व को  सारा मामला समझ में आ गया उसने प्रतिप्रश्न किया – क्या तुम इनको इसी स्वरुप में सप्राण देखना चाहोगे ...?
क्यों नहीं मित्र ..!
         गंधर्व ने तुरंत भ्रमण करने वाली आत्माओं का आह्वान किया . सारी तस्वीरें सजीव हो गईं उसी रूप में जिस रूप में फ़तेह उनको देखता था . गंधर्व अंतर्ध्यान हो गया .... आर्टिस्ट दीवारों पर लगे पोट्रेट्स की और देखता पर विकृतियाँ उसे आतंकित करतीं  थर थर कांपता स्टूडियो से बाहर भागा आज भी भाग रहा है .. भागेगा क्यों नहीं . फ़तेह  हर व्यक्ति उस व्यक्ति का नाम है जो अपने अनुमानों से  सृजित  विकृतियों के जीवंत होने से भागता है भयातुर होकर
गिरीश बिल्लोरे मुकुल

मंगलवार, मई 26, 2015

अपाहिजों के सापेक्ष नहीं है समाज एवम् व्यवस्था


विश्व में अपाहिज आबादी के लिए जितने प्रयास किये जा रहे हैं उन सब को देख के लगता है कि वैश्विक समाज और  सरकारें विकलांगता को उत्पादकता का भाग न मानकर व्ययभार मानतीं है । इस परिपेक्ष्य में अन्य वीकर सैगमेंट की अपेक्षा कम तरज़ीह दी जा रही है । भारत उपमहाद्वीप में स्थिति सामाजिक एवम् पारिवारिक संरचना में धार्मिक दबावों के चलते इस वीकर सैगमेंट को सामाजिक तौर पर नकारा तो नहीं जाता पर पारिवारिक महत्व भी उतना नहीं है जितना कि सर्वांग सदस्य को है ।   सरकार ही भूमिका :- अपाहिज जीवन के लिए सरकारी स्तर पर दी जाने वाली सुविधा में पुनर्विचारण की ज़रुरत है । हालिया प्राप्त हो रही खबरों से स्पष्ट हो रहा है कि इस वर्ग के लोगों को मेडिकल प्रमाण पत्र प्राप्त करना सहज नहीं । इस बात की पुष्टि किसी भी सरकारी अस्पताल के बोर्ड के कामकाज से लगाईं जा सकती है । सरकार के संज्ञान में कमोबेश ये बिंदु अवश्य ही होगा कि यहाँ  भ्रष्टाचार गहरी जड़ें जमा चुका है ।
सहकर्मियों का नजरिया :- सहकर्मियों का नज़रिया बेहद अजीब सा हुआ करता है । हालिया दिनों में इसके कई उदाहरण सामने आए हैं किन्तु इन पर त्वरित दंडात्मक कार्रवाई न करना उल्टे शिकायत कर्ता को प्रताड़ित करने का प्रयास करना बेहद मार्मिक स्थिति है । कमी का लाभ उठा कर झूठे मनगढ़ंत आरोप लगा कर प्रताड़ित करने में सहकर्मी भी पीछे नहीं रहते । परंतु शिकायतों का विभागीय तोर पर निपटान न तो किया जा रहा है न ही इस कार्य में किसी की कोई रूचि ही है । विकलांगों के प्रति घृणाभाव वश किये गए मामलों की जांच हेतु स्वतंत्र राज्य के आयुक्त से कार्रवाई करानी चाहिए । राज्य के विकलांग आयुक्त :- महिला आयोग बाल आयोग अजा अजजा के सापेक्ष इस वर्ग के लिए आयोग की गतिविधियाँ तेज़ एवम् अधिक सुस्पस्ट कर देने की ज़रुरत है । यहाँ स्पस्ट करना चाहूँगा खुद को निर्दोष साबित करने का भार अधिक प्रभाव कारी हो न कि अपाहिज शिकायत कर्ता को अपराध साबित करने का अधिक भार हो ।
गिरीश बिल्लोरे "मुकुल"
(स्वतंत्र लेखक हिंदी ब्लॉग लेखक एवम् टिप्पणीकार)

सोमवार, मई 18, 2015

माँ अरुणा तुम कब कब कहाँ कहाँ

27 नवंबर, 1973 को अस्पताल के स्वीपर के हाथों यौन हिंसा की शिकार होने के बाद से ही माँ अरुणा कोमा में थी आज वे हमें छोड़ गईं सैकड़ों सवालों के साथ .... पर माँ के लिए केवल अश्रु बहाना चर्चा करा लेना कविता लिख देना श्रृद्धांजलि  तो है पर सच्ची- श्रृद्धांजलि शायद नहीं
इस श्रृद्धांजलि में सुनिए कल का भयावह स्वरुप ............  
माँ अरुणा
 तुम कब कब कहाँ कहाँ
कैसे कैसे छली जाती रही  हो
बोलो न....?
बोलती क्यों नहीं
४२ साल तक मौन व्रत..?
नि:शब्द रहने का तप.....?
तापसी माँ तुम चुप क्यों थी ...
तुम्हारे लिए मोमबत्तियां
जलीं थीं या नहीं इससे मुझे कोई सरोकार नहीं
पर तुम्हारा अस्तित्व वो अनाचारी जला गया
आज भी जलाता है ...... रोज़िन्ना जलाता है माँ ....
तुमको .......... अस्पतालों में
तबेलों में घुड़सालों में
रेल बस स्कूल कॉलेज़ में
हर कहीं ....... जिधर देखो वहीं
फ्रायडी-नज़र लिए घूमते भेड़िए को
आज भी बेखौफ़ घूमता...
न क़ानून बांध सका
कोई कृष्ण शस्त्रसंधान न सका
क़ानून व्यवस्था समाज
सबको अब जान लेना चाहिए
आने वाली धीमी ध्वनियाँ
जो नि:शब्द जीवन के  शस्त्र से उपजतीं  हैं

एक प्रतिकार भरा कल इन्हीं से भरा होगा   

ज़रा सोचें ये सब आजकल कहाँ नहीं है ?

वाटसएप  महाराज के ज़रिये मिली कहानी के लेखक जहां भीं हों उनको मेरा नमन वास्तव में विचार सम्प्रेषण में इन नए संचार माध्यमों का बड़ा अवदान है . ये कथा मुझे बेहद प्रभावित कर गई अतएव पेश कर हूं उन अज्ञात लेखक मौन सहमति माँ कर जिनको मैं जानता भी नहीं........
एक नन्हीं चींटी रोज अपने काम पर समय से आती थी और अपना काम अपना काम समय पर करती थी.....
वे जरूरत से ज्यादा काम करके भी खूब खुश थी.......ज्ंगल के राजा शेर नें एक दिन चींटी को काम करते हुए देखा, और आश्चर्यचकित हुआ कि चींटी बिना किसी निरीक्षण के काम कर रही थी........ उसने सोचा कि अगर चींटी बिना किसी सुपरवाईजर के इतना काम, कर रही थी तो जरूर सुपरवाईजर के साथ वो अधिक काम कर सकती थी. उसनें काक्रोच को नियुक्त किया जिसे सुपर्वाईजरी का 10 साल का अनुभव था,   और वो रिपोर्टों का बढ़िया अनुसंधान करता था . काक्रोच नें आते ही साथ सुबह आने का टाइम, लंच टाईम और जाने का टाईम निर्धारित किया, और अटेंडेंस रजिस्टर बनाया. उसनें अपनी रिपोर्टें टाईप करने के लिये, सेकेट्री भी रखी.... उसनें मकड़ी को नियुक्त किया जो सारे फोनों का जवाब देता था और सारे रिकार्डों को मेनटेन करता था...... शेर को काक्रोच की रिपोर्टें पढ़ कर बड़ी खुशी हुई, उसने काक्रोच से कहा कि वो प्रोडक्शन एनालिसिस करे और, बोर्ड मीटिंग में प्रस्तुत करने के लिये ग्राफ बनाए...... इसलिये काक्रोच को नया कम्प्यूटर और लेजर प्रिंटर खरीदना पड़ा......... और उसनें आई टी डिपार्टमैंट संभालने के लिए मक्खी को नियुक्त किया........
चींटी जो शांति के साथ अपना काम पूरा करना चाहती थी इतनी रिपोर्टों को लिखकर और मीटिंगों से परेशान होने लगी.......
शेर ने सोचा कि अब वक्त आ गया है कि जहां चींटी काम करती है वहां डिपार्टमेंट का अधिकारी नियुक्त किया जाना चाहिये....
उसनें  झींगुर को नियुक्त किया, झींगुर ने आते ही साथ अपने आॅफिस के लिये कार्पेट और ए.सी. खरीदा.....
नये बॉस झींगुर को भी कम्प्यूटर की जरूरत पड़ी और उसे चलाने के लिये वो अपनी पिछली कम्पनी में काम कर रही सहायक  को भी नई कम्पनी में ले आया......... चींटी जहां काम कर रही थी वो दुःख भरी जगह हो गयी जहां सब एक दूसरे पर आदेश चलाते थे और चिल्लाते रहते थें...... झींगुर ने शेर को कुछ समय बाद बताया कि आॅफिस मे टीमवर्क कमजोर हो गया है और माहौल बदलने के लिए कुछ करना चाहिये...... चींटी के डिपार्टमेंट की रिव्यू करते वक्त शेर ने देखा कि पहले से उत्पादकता बहुत कम हो गयी थी....... उत्पादकता बढ़ाने के लिये शेर ने एक प्रसिद्ध कंसलटेंट उल्लू को नियुक्त किया.......
उल्लू नें चींटी के विभाग का गहन अघ्ययन तीन महीनों तक किया फिर उसनें अपनी 1200 पेज की रिपोर्ट दी जिसका निष्कर्ष था कि विभाग में बहुत ज्यादा लोग हैं..... जो कम करने की आवश्यकता है......सोचिये शेर ने नौकरी से किसको निकाला......
नन्हीं चींटी को.......... क्योंकि उसमें नेगेटिव एटीट्यूड, बेमक़सद के टीमवर्क, और कभी न महसूस होने वाले मोटिवेशन की कमी थी.......
ज़रा सोचें ये सब आजकल कहाँ नहीं है ??


रविवार, मई 17, 2015

100 वर्ग मीटर का वर्चुअल राष्ट्र "द किंगडम ऑफ़ एनक्लाव"


निर्माण हो रहा है एक ऐसे राष्ट्र का  जिसका क्षेत्र फल मात्र 100 वर्ग मीटर है आभासी दुनिया में तो स्थापित हो ही गया है . नाम प्यॉत्र वारजेंकीविज को जब पता लगा स्लोवेनिया के मेटलिका शहर के पास और क्रोएश्या की राजधानी जागरेब से करीब 50 किलोमीटर दूर एक ऐसी जगह के बारे में पता चला, जिस पर किसी का अधिकार नहीं है... बस फिर क्या था उस नो मैंस लैंड घोषित ज़मीन पर अधिकार घोषित कर दिया .
हुआ कुछ यूं कि 1991 में यूगोस्लाविया का विघटन हुआ के दौरान विवादित भूमि को सर्वामतेन नो मैंस लैंड घोषित किया गया . बस फिर क्या था एक विचार बना कि बिना टेक्स देकर, सम्पूर्ण स्वतन्त्रता के साथ विश्व के किसी व्यक्ति को किसी ऐसे देश में रखा जावे जहां  जिसमें रंग, जाति, धर्म, का भेदभाव किये बगैर किसी को भी रखा जा सकता है . मुफ्त अद्ध्ययन , मुक्त अभिव्यक्ति , टेक्स भी न हो .....

इस निर्माणाधीन राष्ट्र का बाकायदा फेसबुक पेज भी है . जिसका यू आर एल है : https://www.facebook.com/TheKingdomOfEnclava इस यूं आर एल के ज़रिये विश्व का कोई भी नागरिक  इस देश के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त कर सकता हैं .इतना ही नहीं इस बच्चा देश की वेब साईट भी है http://enclava.org/ . साथ ही  किंगडम ऑफ़ इन्क्लावा में 2015 के प्रथम चुनाव भी हो चुके हैं . तथा   अब तक हज़ारो आवेदन  नागरिकता  के लिए भेजे जा रहे हैं . जब भी किसी राष्ट्र को बच्चे का साथ खेलेन की इच्छा होगी तो सोचिये क्या होगा . 

गुरुवार, अप्रैल 30, 2015

काबुल की फर्खुन्दा

काबुल की फर्खुन्दा 
मरने के बाद जी उठती है
आती है मेरे
ज़ेहन में अक्सर
जब किसी बेटी के हाथों में किताब देखता हूँ
डर जाता हूँ घबराता हूँ
अकेले रो भी लेता हूँ
अनजानी फर्खुन्दा के लिए
तब आती है हौले से सिहाने मेरे माथे पे
सव्यसाची की तरह हाथ फेरती है
यकीन दिलाती है
कि उसने किताब नहीं जलाई ............ सच वो बेगुनाह है ..........
किताबें जो सेल्फ में सजी होती हैं
किताबें जो पूजा घर में रखी होतीं हैं
किसी ज़लज़ले में
पुर्जा पुर्जा होती हैं
किताबें जो दीमकें खा जातीं हैं
किताबें जो रिसते हुए पानी में गल जातीं हैं
किताबें जो बच्चे फाड़ देतें हैं
उन का हिसाब रखते हो तुम ?
न कभी नहीं ......... तो फिर फर्खुन्दा की जान लेना किस किताब के हिसाब से जायज़ था ...
किताबें बनातीं हैं
इंसान को इंसान बनातीं हैं
फर्खुन्दा पर  पत्थर पटक कर
उसे ज़लाकर तुमको क्या मिला ..........
क्यों जलाते हो ज़ेहनों में
कभी न बुझाने वाली आग ..........
मरी फर्खुन्दा पर  बड़े बड़े पत्थर बरसा कर
फिर सरे आम जलाकर
उस किताब में ये तो लिक्खा ही न था
Farkhunda was killed in Kabul on 19th of March 2015 in a really bad way, , 

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