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गुरुवार, अप्रैल 30, 2015

काबुल की फर्खुन्दा

काबुल की फर्खुन्दा 
मरने के बाद जी उठती है
आती है मेरे
ज़ेहन में अक्सर
जब किसी बेटी के हाथों में किताब देखता हूँ
डर जाता हूँ घबराता हूँ
अकेले रो भी लेता हूँ
अनजानी फर्खुन्दा के लिए
तब आती है हौले से सिहाने मेरे माथे पे
सव्यसाची की तरह हाथ फेरती है
यकीन दिलाती है
कि उसने किताब नहीं जलाई ............ सच वो बेगुनाह है ..........
किताबें जो सेल्फ में सजी होती हैं
किताबें जो पूजा घर में रखी होतीं हैं
किसी ज़लज़ले में
पुर्जा पुर्जा होती हैं
किताबें जो दीमकें खा जातीं हैं
किताबें जो रिसते हुए पानी में गल जातीं हैं
किताबें जो बच्चे फाड़ देतें हैं
उन का हिसाब रखते हो तुम ?
न कभी नहीं ......... तो फिर फर्खुन्दा की जान लेना किस किताब के हिसाब से जायज़ था ...
किताबें बनातीं हैं
इंसान को इंसान बनातीं हैं
फर्खुन्दा पर  पत्थर पटक कर
उसे ज़लाकर तुमको क्या मिला ..........
क्यों जलाते हो ज़ेहनों में
कभी न बुझाने वाली आग ..........
मरी फर्खुन्दा पर  बड़े बड़े पत्थर बरसा कर
फिर सरे आम जलाकर
उस किताब में ये तो लिक्खा ही न था
Farkhunda was killed in Kabul on 19th of March 2015 in a really bad way, , 

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