देशभर में 15 अगस्त को जश्ने-आज़ादी के तौर पर मनाया
जाता है, लेकिन घुमंतू जातियां के लोग 31 अगस्त को आज़ादी भी का जश्न मनाते हैं.
ऑल इंडिया विमुक्त जाति मोर्चा के सदस्य भोला का कहना है कि
ऐसा नहीं कि हम स्वतंत्रता दिवस नहीं मनाते, लेकिन सच तो यही है कि हमारे लिए 15 अगस्त
की बजाय 31 अगस्त का ज़्यादा महत्व है. वे बताते हैं कि 15 अगस्त 1947 को जब देश आज़ाद हुआ था और लोग खुली फ़िज़ा
में सांस ले रहे थे, तब भी घुमंतू जातियों के लोगों को दिन में तीन बार पुलिस थाने में हाज़िरी
लगानी पड़ती थी. अगर कोई व्यक्ति बीमार होने पर या किसी दूसरी वजह से थाने में
उपस्थित नहीं हो पाता, तो पुलिस द्वारा उसे प्रताड़ित किया जाता था. इतना ही नहीं चोरी या कोई अन्य अपराधिक
घटना होने पर भी पुलिस क़हर उन पर टूटता था. यह सिलसिला लंबे अरसे तक चलता रहा.
आख़िरकार तंग आकर प्रताड़ित लोगों ने इस प्रशासनिक कुप्रथा के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की
और फिर शुरू हुआ सिलसिला लोगों में जागरूकता लाने का. लोगों का संघर्ष रंग लाया और
फिर वर्ष 1952 में अंग्रेज़ों द्वारा 1871 में बनाए गए एक्ट संशोधन किया गया. इसी साल 31 अगस्त को घुमंतू जातियों के लोगों को थाने
में हाज़िरी लगाने से निजात मिली.
इस समय देशभर में विमुक्त जातियों के 192 कबीलों
के क़रीब 20 करोड़ लोग हैं. हरियाणा की क़रीब साढ़े सात फ़ीसद आबादी इन्हीं जातियों की है.
इन विमुक्त जातियों में सांसी, बावरिये, भाट, नट, भेड़कट और किकर आदि जातियां शामिल हैं. भाट
जाति से संबंध रखने वाले प्रभु बताते हैं कि 31 अगस्त के दिन क़बीले के रस्मो-रिवाज के
मुताबिक़ सामूहिक नृत्य का आयोजन किया जाता है. महिलाएं इकट्ठी होकर पकवान बनाती
हैं और उसके बाद सामूहिक भोज होता है. बच्चे भी अपने-अपने तरीक़ों से खुशी ज़ाहिर
करते हैं. कई क़बीलों में पतंगबाज़ी का आयोजन किया जाता है. जीतने वाले व्यक्ति को
समारोह की शोभा माना जाता है. लोग उसे बधाइयां के साथ उपहार पेश करते हैं. इन
जातियों के लोगों के संस्थानों में भी 31 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस समारोह मनाए
जाते हैं. इन कार्यक्रमों में केंद्रीय मंत्रियों से लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों
के प्रतिनिधि और प्रशासनिक अधिकारी भी शिरकत करते हैं. इसकी तैयारियों के लिए
संगठन के पदाधिकारी इलाक़े के गांव-गांव का दौरा कर लोगों को समारोह के लिए
आमंत्रित करते हैं.
हरियाणा के अलावा देश के अन्य राज्यों में भी आदिवासी समाज
की अनेक जातियां निवास करती हैं, जिनमें आंध प्रदेश में भील, चेंचु, गोंड, कांडा, लम्बाडी, सुंगली
और नायक, असम में बोषे, कचारी मिकिर यानी कार्बी, लंलुग, राथा, दिमासा, हमर और हजोंग, बिहार
और झारखंड में झमुर, बंजारा, बिरहोर, कोर्वा, मुंडा, ओरांव, संथाल, गोंड और खंडिया, गुजराज में भील, ढोडिया, गोंड, सिद्दी, बोर्डिया और भीलाला, हिमाचल प्रदेश में गद्दी, लाहुआला और स्वांगला, कर्नाटक
में भील, चेंचु, गाउड, कुरूबा, कम्मारा, कोली, कोथा, मयाका और टोडा, केरल में आदियम, कोंडकप्पू, मलैस और पल्लियार, मध्य प्रदेश में भील, बिरहोर, उमर, गोंड, खरिआ, माझी, मुंडा और ओरांव, छत्तीसगढ़ में परही, भीलाला, भीलाइत, प्रधान, राजगोंड, सहरिया, कंवर, भींजवार, बैगा, कोल और कोरकू, महाराष्ट्र में भील, भुंजिआ, चोधरा, ढोडिया, गोंड, खरिया, नायक, ओरावं, पर्धी और पथना, मेघालय में गारो, खासी और जयंतिया, उड़ीसा में जुआंग, खांड, करूआ, मुंडारी, ओरांव, संथाल, धारूआ और नायक, राजस्थान में भील, दमोर, गरस्ता, मीना और सलरिया, तमिलनाडू में इरूलर, कम्मरार, कोंडकप्पू, कोटा, महमलासर, पल्लेयन और टोडा, त्रिपुरा में चकमा, गारो, खासी, कुकी, लुसाई, लियांग और संताल, पश्चिम बंगाल में असुर, बिरहोर, कोर्वा, लेपचा, मुंडा, संथाल और गोंड, मिजोरम में लुसई, कुकी, गारो, खासी, जयंतिया और मिकिट, गोवा में टोडी और नायक, दमन व द्वीप में ढोडी, मिक्कड़ और वर्ती, अंडमान में जारवा, निकोबारी, ओंजे, सेंटीनेलीज, शौम्पेंस और ग्रेट अंडमानी, उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में भाटी, बुक्सा, जौनसारी
और थारू, नागालैंड में नागा, कुकी, मिकिट और गारो, सिक्किम में भुटिया और लेपचा तथा जम्मू व कश्मीर में चिद्दंपा, गर्रा, गाुर
और गड्डी आदि शामिल हैं. इनमें से अनेक जातियां अपने अधिकारों को लेकर संघर्षरत
हैं.
इंडियन
नेशनल लोकदल के टपरीवास विमुक्त जाति मोर्चा के ज़िलाध्यक्ष बहादुर सिंह का कहना है
कि आज़ादी के छह दशक बाद भी आदिवासी समाज की घुमंतू जातियां विकास से कोसों दूर
हैं. वे कहते हैं कि घुमंतू जातियों के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए सरकार को
चाहिए कि वे इन्हें स्थाई रूप से आबाद करे. इनके लिए बस्तियां बनाई जाएं और उन्हें
आवास मुहैया कराए जाएं. बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा दी जाए. उन्हें एसटी का दर्जा
दिया जाए, ताकि उन्हें भी आरक्षण का लाभ मिल सके.
ग़ौरतलब है कि आदिवासी समाज की अधिकतर जातियां आज भी बदहाली
की ज़िन्दगी गुज़ारने का मजबूर हैं. ग्रामीण विकास मंत्रालय के एक सर्वेक्षण के
मुताबिक़ इन जातियों का आधे से ज़्यादा हिस्सा गरीबी की रेखा से नीचे पाया गया है. इनकी
प्रति व्यक्ति आय देश में सबसे नीचे रहती है. एक रिपोर्ट के मुताबिक़ जनजातियों की
9,17,590 एकड़ जनजातीय भूमि हस्तांतरित की गई और ऐसी भूमि का महज़ 5,37,610 एकड़ भूमि ही उन्हें वापस दिलाई गई है.
घुमंतू जातियों की बदहाली के अनेक कारण हैं, जिनमें
वनों का विनाश मुख्य रूप से शामिल है. वन जनजातियों के जीवनयापन का एकमात्र साधन
हैं, लेकिन वन परिस्थितिकी तंत्रों में जनजातियों और वन के बीच एक अटूट रिश्ता है.
ख़त्म हो रहे वन संसाधन, वन जनसंख्या के एक बड़े हिस्से के लिए खाद्य सुरक्षा को जोखिम में डाल रहे हैं.
जागरूकता की कमी भी इन जातियों के विकास में रुकावट बनी है. केंद्र सरकार और
प्रदेश सरकारों द्वारा शुरू किए गए विभिन्न विकास संबंधी कार्यक्रमों के बारे में
घुमंतू जातियों के लोगों को जानकारी नहीं है, जिसके कारण उन्हें योजनाओं का समुचित लाभ
नहीं मिल पाता.
ग़ौरतलब है कि पांचवीं पंचवर्षीय योजना से देशभर में
जनजातियों के विकास के लिए जनजातीय उप योजना कार्यनीत टीएसपी भी अपनाई गई. इसके
तहत अमूमन जनजातियों से बसे संपूर्ण क्षेत्र को उनकी आबादी के हिसाब से कई वर्गों
में शामिल किया गया है. इन वर्गों में समेकित क्षेत्र विकास परियोजना टीडीपी, संशोधित
क्षेत्र विकास .ष्टिकोण माडा, क्लस्टर और आदिम जनजातीय समूह शामिल हैं.
जनजातीय उप योजना दृष्टिकोण कम से कम राज्य में राज्य योजना से जनजातियों की आबादी
के अनुपात में और केंद्रीय मंत्रालयों और वित्तीय संस्थाओं के बजट से देश के लिए
जनजातीय आबादी के समग्र समानुपात में राज्य योजना के साथ-साथ केंद्रीय मंत्रालयों
से जनजातीय क्षेत्रों के लिए निधि आबंटन सुनिश्चित करता है. जनजातीय कार्य
मंत्रालय ने अनुसूचित जनजातियों के कल्याण और विकास पर लक्षित विभिन्न योजनाओं करे
कार्यान्वित करना जारी रखा है, लेकिन अफ़सोस की बात यही है कि अज्ञानता, भ्रष्टाचार
और लालफ़ीताशाही के चलते ये जातियां सरकारी योजनाओं के लाभ से महरूम हैं. इसके लिए
ज़रूरी है कि इन जातियों में जागरूकता अभियान चलाकर उनके चहुंमुखी विकास के लिए
कारगर क़दम उठाए जाएं, वरना सरकार की कल्याणकारी योजनाएं कागज़ों तक ही सिमट कर रह जाएंगी.