15.8.15

आज़ाद तमन्नाओं के पंख

अपनी आज़ाद तमन्नाओं के पंख लिए
उड़ चला मैं ......... उस उंचाई को छूने
जिसे हिमालय कहते हैं ?
न...
तो आकाश कहते हैं ...?  न....
जिसे विश्वास कहते हैं ....
हाँ .... आज़ादी उनके साहस का
जो मर मिटे ... 47 से पहले ...
जो हर पल मर मिटने पर आमादा हैं
सहदों पर ... सरहदों के भीतर ....
हर तरफ विकृतियों से जूझना सिखाते हैं
हाँ वे रणबांकुरे ...
जो आज़ादी की पल प्रति पल
कीमत चुकाते हैं
और मैं ..तुम ..हम सब
जब ... अपना हक़ जताते हैं ...
तब वे वीर बाँकुरे .... सीने पर गोलियां खाते हैं ...
हिमगिरि की बर्फ में पैरों को गलाते हैं
तब जब अपने स्वार्थ के लिए संसद तक रोकते हैं
तब वे सीमा पर
सांस रोककर सीने दुश्मन को छकाते हैं ...
हाँ तब जब हम अपना ज़मीर बेचते हैं
तब वो वहां सरहदों पर मर जाने की हद तक जाकर आज़ादी बचाते हैं ...



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