जब माँ सोती तब अय
पलको
कुछ भी हो तुम झुंझलाना मत .
लब जैसे हो तुम वैसे ही रहना –
अनजाने में इतराना मत –..
वो थक के चूर हुई जब भी
सबकी चिंता से ताकत ले ।
मुस्काती अक्सर दिखती है –
ज्यों द्वार सजें हों स्वागत के
अय सपने मत जाना उन तक
जो सबके सपने दिनभर लखती .
वो देवी जो इस भोर से उस तक
सबका हो भला – यही तकती .
वो अनुभूति वो स्मृति से
जाए तो रोने लगता हूँ
उसकी गोदी में सर रखके
खुद को ही खोने लगता हूँ ।
उसकी यादों में डूबा तो -
नयनों से फिर माणिक छलके
अपनी बेटी को देख देख -
मीत हुए फिर हम हलके !!