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मंगलवार, सितंबर 29, 2009

ब्लागवाणी "बवाल की मनुहार या धमाल"

प्रिय
बवाल जी
आपका आलेख देखा समीर भाई की आपके आलेख पर चिन्ता जायज है. आप स्पष्ट कीजिए अपने कथन को..........?
सूरज तो रोज़ निकलेगा दिनचर्या सामान्य सी रहेगी, किन्तु सूर्योदय पर "करवा-चौथ" की पारणा का संकल्प लेना कहां तक बुद्धिमानी होगी. ब्लागवाणी का बंद होना हिन्दी ब्लागिंग के नेगेटिव पहलू का रहस्योदघाट्न करता है.
हिन्दी चिट्ठों के संकलकों की सेवाएं पूर्णत: नि:शुल्क अव्यवसायिक है जिसकी वज़ह से आज़ सोलह हज़ार से ज़्यादा चिट्ठे सक्रिय हैं......न केवल ब्लागवाणी बल्कि चिट्ठाजगत का भी विशेष अविस्मरणीय अवदान है.जो साधारण ब्लागर के लिए उस मां के अवदान की तरह है जो सेवाएं तो देती है किंतु इस सेवा के पेटे कोई शुल्क कभी नहीं लेती..... यदि यह बुरा है तो संकलकों के विरोधी सही हैं....उनकी बात मान के सब कुछ तहस नहस कर दिया जाए
मुझे लगता है कि संकलकों के पीछे जो लोग काम करतें हैं वे समय-धन-उर्ज़ा का विनियोग इस अनुत्पादक कार्य के लिए क्यों कर रहें हैं........... शायद उनकी भावना "हिन्दी-ब्लागिंग" को उंचाईयां देना ही है......... मेरी तुच्छ बुद्धि तो यही कह रही है आपकी पोस्ट में आपने जो सवाल खडे किए हैं उससे आपकी तकनीकि मालूमात तो उज़ागर हो रही है...? किंतु छोटे भाई रचनात्मकता-सतत सृजन की आदतें भी एक पहलू है जिसका अनदेखा आपसे होगा शायद पोष्ट लिखते वक्त आप थके हुए होंगें.... कोई बात नहीं.......... सुधार कर लीजिए ..............
जहां तक मेरी पोष्ट पर प्रकाशित एक अनाम टिप्पणीकर्ता{जिसे मैं जबलपुरिया बोली में "......"मानता हूं} की टिप्पणी का सवाल है उनकी हीनता का परिचय है.
आपका आलेख आपके आपके स्पष्ट विचारों का होना ज़रूरी है .
साफ़ साफ़ कहो न "ब्लागवाणी हमारी पसंद है उसे हमें वापस लाने मैथिली जी सिरिल जी के पास दिल्ली चलना है टिकट बुक करा रहा हूं चलोगे बवाल "
ताज़ा खबर :- ब्लागवाणी वापस आई : सभी मित्रों को बधाई 

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