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सोमवार, जुलाई 27, 2020

गुमशुदा हैं हम, ख़ुद अपने बाज़ार में ।

ग़ज़ल 
गुमशुदा हैं हम, ख़ुद अपने बाज़ार में ।
ये हादसा हुआ है, किसी ऐतबार में ।।
कुछ मर्तबान हैं, तुम रखना सम्हाल के -
पड़ जाए है फफूंद भी, खुले अचार में ।।
रोटियों पे साग थी , खुश्बू थी हर तरफ -
गूँथा है गोया आटा, तुमने अश्रुधार में ।।
अय माँ तुम्हारे हाथ की रोटियाँ कमाल थीं-
बिन घी की मगर तर थीं तुम्हारे ही प्यार में ।।
हाथों पे हाथ, सर पे दूध की पट्टियाँ-
जाती न थी माँ जो हम हों बुखार में ।।

रविवार, जुलाई 26, 2020

चीन के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध एवम कारपोरेट सेक्टर

ताहिर गोरा के टैग टीवी पर आज पामपियो के हवाले से निक्सन के दौर से ओबामा तक जिस प्रकार चीन को बारास्ता पाकिस्तान सपोर्ट दिया वो चीन के पक्ष में रहा । अब उसका उसका दुष्परिणाम भी देखा भारतीय सन्दर्भ में एक  एक दम साफ है कि हमारे  विदेशी कारपोरेट केे लिए अधिक वफादार हैैं  चीन के सापेक्ष । अगर इम्पोर्टेड विचारों ने कोई हरकत न की और भारत में अस्थिरता पैदा न की । कास्टिज़्म को रीओपन करने वाली एकमात्र विचारधारा यही है । 

बुधवार, जुलाई 22, 2020

बक रहा हूँ जुनूँ में क्या-क्या कुछ कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई..!

बक रहा हूँ जुनूँ में क्या-क्या कुछ
कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई..!
इस शेर में ग़ालिब ने जो कहा है हुबहू ऐसा ही कुछ हो गया हूं। ना तो अदब की समझ से वाकिफ हूँ न ही कोई धीरज बचा है । उन दिनों का क्या जब रिसाले पढ़कर समझ लेता था कि वतन में खुशनुमा सदा बहती है । उस हिमालय से दक्कन तलक हिन्दुतान पूरब से मगरिब तलक कुछ भी जुड़ा नहीं । शायद यह सब कुछ किताबों में भी पढ़ाया था हमको और इसकी तस्दीक करते थे यह रिसाले हमें नहीं मालूम कि असलम मंदिर में क्यों नहीं जाता और ना ही असलम यह जानता था कि मैं मंदिर क्यों जाता हूं ?
संग साथ पढ़े सुना था कुछ दिनों पहले वह स्कूल में मास्टर हो गया था । हमें हाकिम बनना था सो बन गए । अब वो कहां हम कहां मालूम नहीं किस हाल में होगा । पता नहीं जफर मुझे पहचानेगा कि नहीं । कभी-कभी अजय का पता मिल जाता है सुनते हैं वह भी टीचर है ।
जाने क्या शाम को हो जाता है दीवार पर टंगी टीवी में... गोया आग उगलती है यह टीवी । आठ-दस लोग बैठ कर लड़ा करते हैं । इतनी कहासुनी तो जुए के फड़ों में भी नहीं होती ।
अखबार ऐसी आग ना लगाया करते थे और अब तो हर शाम दीवार जला करती है ।
देखिए लपटें बहुत से रंग की है लाल हैं, हरी हैं, सुफेद भी तो हैं । अब इन लपटों को देख कर कौन चुप रहेगा ।
रोजिन्ना यही होता है लगता है रोम जल रहा है.. और में हूँ कि नीरो बन जाना चाहता हूँ....! हरिप्रसाद जी की बांसुरी सुनने लगता हूँ , मिर्ज़ा ग़ालिब कबीर मीरा से मिल आता हूँ । मिलता तो बुद्ध से भी हूँ, बुद्ध को कभी किसी किताब को जलाते नहीं देखा । बुद्ध और बख्तावर ख़िलज़ी में यही तो फ़र्क़ है ।
कहते हैं कि यह पत्थरों का शहर है । यकीनन पत्थरों का शहर है बेहतरीन शहर है । यहां कि पत्थर नरम है वादियां भेड़ाघाट की देखता हूं तो लगता है इतना नरम पत्थर कैसे हो सकता है कोई...! टोटल लॉकडाउन के दिनों में देखा था... जिनको मवाली समझता था शहर लोगों के घर जा जाकर उनके हालात पूछते और उनकी सेवा करते । चारों तरफ चौकस निगाहें रखें ये लड़के साबित कर रहे थे वे कितने नर्म हैं । जानते हैं जिस्म खुशी रोम रोम खड़ा हो गया जब यह सुना कि मेरे महल्ले में कोई परिवार भूखा नहीं सोता । वो माँ जिसके जचकी हुई है ये लड़के अपने आइकॉन के साथ लड्डू दे आये । अब तो समझ गए न कि मेरा शहर इतना नर्म क्यों है ।
चलते चलते ग़ालिब की ग़ज़ल पूरी देखिए

इब्ने-मरियम [1] हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई

शरअ-ओ-आईन[2] पर मदार[3] सही
ऐसे क़ातिल का क्या करे कोई

चाल, जैसे कड़ी कमाँ का तीर
दिल में ऐसे के जा[4] करे कोई

बात पर वाँ ज़बान कटती है
वो कहें और सुना करे कोई

बक रहा हूँ जुनूँ में क्या-क्या कुछ
कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई

न सुनो गर बुरा कहे कोई
न कहो गर बुरा करे कोई

रोक लो, गर ग़लत चले कोई
बख़्श दो गर ख़ता करे कोई

कौन है जो नहीं है हाजतमंद[5]
किसकी हाजत[6] रवा[7] करे कोई

क्या किया ख़िज्र[8] ने सिकंदर से
अब किसे रहनुमा[9] करे कोई

जब तवक़्क़ो[10] ही उठ गयी "ग़ालिब"
क्यों किसी का गिला करे कोई
साभार कविता कोश
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

सोमवार, जुलाई 20, 2020

लमटेरा : शिवाराधना का एक स्वरूप



सुधि जन
आज कुछ कविताएं विभिन्न भावों पर आधारित हैं प्रस्तुत कर रहा हूँ । पसंद अवश्य ही आएगी । पहली कविता बुंदेलखंड की लोक गायकी लमटेरा पर केंद्रित है । इस कविता में शिव आराधना करते हुए नर्मदा यात्रा पर निकले यात्रियों का जत्था जिंदगी तो को गाता है वह ईश्वर एवं उसके मानने वालों के बीच एक अंतर्संबंध स्थापित करता है । कुल मिलाकर लमटेरा शिव आराधना का ही स्वरूप है । 

लमटेरा : -

नर्मदा के किनारे
ध्यान में बैठा योगी
सुनता है
अब रेवा की धार से
उभरती हुई कलकल कलकल
सुदूर घाट पर आते
लमटेरा सुन
भावविह्लल हो जाता
अन्तस् की रेवा छलकाता
छलछल....छलछल .
हो जाता है निर्मल...!
नदी जो जीवित है
मां कभी मरती नहीं
सरिता का सामवेदी प्रवाह !
खींच लाता है
अमृतलाल वेगड़ की
यादों को वाह !
सम्मोहित कर देता है
ऐसा सरित प्रवाह..!!
यह नदी नहीं बूंदों का संग्रह है..!
यह आपसी अंतर्संबंध और
प्रेम और सामंजस्य भरा अनुग्रह ..
शंकर याचक से करबद्ध..!
अंतत से निकली प्रार्थना
गुरु को रक्षित करने का अनुरोध
सच कहा मां है ना रुक जाती है
बच्चे की करुण पुकार सुन पाती है
मां कभी नहीं मरती मां अविरल है
मां रगों में दौड़ती है जैसे
बूंदें मिलकर दौड़ती हैं रेवा की तरह
आओ चलें
इस कैदखाने से मुक्त होते ही
नर्मदा की किनारे मां से मिलने
💐💐💐💐💐


प्रेरणा-गीत

नाहर के दंत गिनते कुमार
हर ओर मुखर भू के विचार
गीता जीवन का हर्ष राग
अरु राम कथा जीवन सिंगार ।
जय भरत भूमि जय राम भूमि जय कृष्ण भूमि ............ !
परबत अंगुल पर थाम खड़ा
जा बीच समर निष्काम अड़ा
दूजे ने वनचर साथ लिए –
रावण भू पर निष्प्राण पड़ा !!
जय कर्म भूमि जय धर्म भूमि जय भरत भूमि ............ !
जब जागा तो पूरब जागा
उसकी आहट से जग जागा
जो भोर किरन फिर मुसकाई
तो नेह नीति ने दिन तागा !
जय भरत भूमि जय भरत भूमि जय भरत भूमि ............ !
करुणा के सागर बुद्धा ने
शमशीर समर्पण दिखा दिया !
जिस वीतराग गुरु चिंतन ने –
सबको जिन दर्शन सिखा दिया !
जय बुद्ध भूमि जय आदि भूमि जय भरत भूमि ............ !



शनिवार, जुलाई 18, 2020

रूप ऐसा कि, दर्पन सह न सके

रूप ऐसा कि, दर्पन सह न सके
💐💐💐💐💐💐💐💐
दाम अपने न ऊंचे, बताया करो
टाट तुम न ज़री से सजाया करो !
तन है भीगा हुआ, प्रीत-बौछार से
छाछ से मन को, मत भिगाया करो ।
ताल स्वर लय, मौलिक न हो अगर
गीत मेरे बेवज़ह तुम न गाया करो ।
रूप ऐसा कि, दर्पन सह न सके
ऐसे दर्पन के सनमुख न जाया करो ।
ग़र भरोसा नहीं , मुकुल के प्यार पर
प्रेम गीत मुझको न, सुनाया करो ।।

  • *गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

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