28.6.15

हिंसा क्यों.....?


पोस्टर कविता : शशांक गर्ग 
हिंसा के बारे में सामान्य सोच ये है कि – हिंसा में  किसी के खिलाफ शारीरिक मानसिक यंत्रणा के लिए शारीरिक बल प्रयोग निरायुध एवं सायुध अथवा  शाब्दिक बल प्रयोग किया जाता है . सत्य ही है ऐसा होता ही इस बिंदु पर किसी की असहमति नहीं यहाँ चिंतन का विषय है -  “हिंसा क्यों ?”
      हिंसा कायिक एवं मानसिक विकृति है . जो भय के कारण जन्म लेती है . भय से असुरक्षा ... असुरक्षा से सुरक्षित होने के उपायों की तलाश की जाती है . तब व्यक्ति के मानस में तीन  बातें विकल्प के रूप में सामने आनी चाहिए –
1.    परिस्थिति से परे हटना
2.    सामने रहकर प्रतिरोध को जन्म देना
3.    आसन्न भय के स्रोत को क्षतिग्रस्त करना  
 प्रथम द्वितीय विकल्प समझदार एवं विचारक चिन्तक उठाते हैं किन्तु सहज आवेग में आने वाले  लोग तीसरे विकल्प को अपनाते हैं . विश्व मिथकों में, इतिहास में ऐसे लोगों की संख्या का विवरण मौजूद  है . इससे मनुष्य प्रजाति में पशुत्वगुण की मौजूदगी की भी पुष्टि होती है . पशु विशेष रूप से कुत्ता जिसे आप स्वामिभक्त मानते हैं महाभारत काल से  तो उसके स्वामिभक्ति के गुण को सर्वोत्तम कहा जाने लगा .
कुत्ता किसी अज्ञात आसन्न आहट से भयभीत होकर भौंकता है आक्रमण भी कर देता है अपने टारगेट पर जिसे आप स्वामीभक्ति मान  बैठें हैं !
हम हिंसा स्वयं में उसी कथित स्वामिभक्त कुत्ते की तरह पालते हैं . दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि हम-“खुद में हिंसा पालते हैं ”... ये क्रम बरसों से जारी है जब से सभ्यता शुरू हुई होगी तब से हाँ शायद तभी से ...! 
हिंसा एक मानवीय गुण है ... जिसे पराभाव के प्रतिकार के रूप में देखा जा सकता है . व्यक्ति एवं  समाज सदा सुरक्षित रहना चाहते हैं . सबसे पहले हम अपना शरीर फिर प्रतिष्ठा और  फिर सम्पति को बचाने की कोशिश करते हैं परन्तु कुछ अति भावुक लोग जो ये समझते हैं कि वे अपने “ब्रह्म” की रक्षा करेंगें क्योंकि उनने उस ब्रह्म को सृजा है वे भी हिंसक हो जाते हैं . शरीर, प्रतिष्ठा और संपदा को बचाना हर व्यक्ति का अधिकार है केवल तानाशाही को छोड़ दें तो हर देश में क़ानून होते हैं इसकी रक्षा के लिए परन्तु जहां तक   अपने “ब्रह्म” की रक्षा का प्रश्न है व्यक्ति/समुदाय  अति संवेदित है इसकी रक्षा को लेकर . अब आप सोचेंगे कि सीधे वार्ता को इस मुहाने पर लाने की ज़रुरत क्यों आन पड़ी..?
          सुधि पाठको आज का दौर बेहद तनाव युक्त है . यहाँ सामाजिक कुरीतियों को सुधारना भी धर्म का विरोध माना जाता है . विकास के इस पड़ाव पर आकर विश्व अपने अपने “ब्रह्म” को लेकर आतंकित महसूस कर रहा है . धर्मों को लेकर बेहद तनाव की स्थिति बनी हुई है . धर्म की न तो सही व्याख्या समझी जा रही है न ही धर्म की सही व्याख्या की जा रही है . जिसका मूल  कारण है  तीव्रता से नकारात्मक संदेशों को जाहिल गंवारों तक पहुंचाना  ताकि उनके मन में खिलाफत का बीजारोपण किया जा सके .  सनातन इसका पक्षधर नहीं है न ही कभी था ... सनातन व्यवस्था है जिसमें विशालता है  प्रजातांत्रिक तत्व हैं .. उसमें आस्था है . बदलाव की सतत गुंजाइश है किन्तु जहां ऐसा नहीं वहां हिंसा की गुंजाइश को नकारना नामुमकिन है . यहाँ यह कहा जा सकता है जो लचीला नहें वो परिवर्तनशील नहीं और जो परिवर्तनशील नहीं वो सहज टूटता है . अर्थात धर्म देश  काल परिस्थिति के अनुसार संयोजित व्यवस्थाएं  हैं . जिनके स्वरुप में सहज ही बदलाव संभव होते हैं . पर आस्थागत परिवर्तन नहीं होते . जब आस्था गत बदलाव नहीं तो “ब्रह्म” के स्वरुप में बदलाव से भयभीत क्यों हुआ जाए . चलिए मैं पत्थर में अपना प्रभू देखता हूँ अथवा निरंकार ये मेरा हक़ है कि मैं किस रूप में देख रहा हूँ “ब्रह्म” को . अगर में शून्य में उसे निहार पा रहा हूँ तो आपको आपत्ति नहीं होना चाहिए अगर पत्थर में जड़ में चेतन में अथवा अन्य किसी रूप में देखना चाहूँ तो न मैं काफिर हूँ न म्लेच्छ .
          झगड़ा बस इस बात  है है न कि कुछ मानते हैं  “ब्रह्म में मैं हूँ “ और कुछ  “मुझमें ब्रह्म है ” मानते हैं .. !
युद्ध जिस “ब्रह्म” के नाम पर जारी है उसे न तो किसी ने देखा है न ही वो स्वयं किसी को दिखा है . जिसे दिखा भी है तो वो ब्रह्म में खो गया आपको उसका गुणानुवाद न कर सका . अगर उस साधक ने  गुणानुवाद किया भी तो  “परा-ध्वनियों” से जो आप हम सब की समझ से परे है .
हममें ब्रह्म या ब्रह्म हममें ये बहस बेमानी है . सच तो ये है कि मानवता की रक्षा के लिए वो सब करो जो आज की परिस्थिति में जायज़ है . रहा ईश्वर की रक्षा का प्रश्न वो हम आपसे अधिक बलवान है . उसे न तो तलवार की ज़रुरत है न जेहाद की न उसके पास कोई स्वर्ग हैं न अप्सराएं जिनके भोग की लालसा खून बहा रहे हो ..... बिना जेहाद के ब्रह्म से मिलो आस्था की सीढ़ियों के ज़रिये चढो वो सहज उठा लेगा जैन मतावलंबीयों की मान्यता से सहमत होना ही होगा कि – “ब्रह्म से मिलना है तो निर्विकार वीतरागी भाव से मिलो हिंसक को ब्रह्म कभी न मिला है न मिलेगा ”           
जब बिना हिंसा के आप प्रभू से मिल सकते हो तो हिंसा क्यों ? 

24.6.15

मत पालो किसी में ज़रा सा भी ज्वालामुखी

मैं अपराजित हूँ 
वेदनाओं से 
चेहरे पर चमक 
लब पर मुस्कान 
अश्रु सागर शुष्क
 नयन मौन  
पीढ़ा जो नित्याभ्यास है 
पीढ़ा जो मेरा विश्वास है . 
जागता हूँ 
सोता हूँ 
किन्तु
खुद में नहीं 
खोता हूँ !
इस कारण 
मैं अपराजित हूँ 
जीता हूँ जिस्म की अधूरी 
संरचना के साथ 
जीतीं हैं कई 
स्पर्धाएं और प्रतिघात 
विस्मित हो मुझे क्यों देखते हो ?
तुम क्या जानो 
जब ज्वालामुखी सुप्त है 
लेलो मेरी परीक्षा ...!
याद रखो जब वो फटता है तो 
.......... जला देता है जड़ चेतन सभी को 
मत पालो किसी में ज़रा सा भी ज्वालामुखी 
   

22.6.15

मुझे चट्टानी साधना करने दो

 रेवा तुम ने जब भी
तट सजाए होंगे अपने
तब से नैष्ठिक ब्रह्मचारिणी चट्टाने मौन हैं
कुछ भी नहीं बोलतीं
हम रोज़ दिन दूना राज चौगुना बोलतें हैं
अपनों की गिरह गाँठ खोलते हैं !
पर तुम्हारा सौन्दर्य बढातीं
ये चट्टानें
  हाँ रेवा माँ                                          
ये चट्टानें  बोलतीं नहीं
कुछ भी कभी भी कहीं भी
बोलें भी क्यों ...!
कोई सुनाता है क्या ?
दृढ़ता अक्सर मौन रहती है
मौन जो हमेशा समझाता है
कभी उकसाता नहीं
मैंने सीखा आज
संग-ए-मरमर की वादियों में
इन्ही मौन चट्टानों से ... "मौन"
देखिये कब तक रह पाऊंगा "मौन"
इसे चुप्पी साधने का
आरोप मत देना मित्र
मुझे चट्टानी साधना करने दो
खुद को खुद से संवारने दो !!

 

21.6.15

चार कविताएँ

(1) 
ज़्यादातर मौलिक नहीं
“सोच”  
सोच रहा होता हूँ
सोचता भी कैसे
प्रगतिशीलता के खेत में
मौलिक सोच
की फसल उगती ही नहीं .
(2)
सोचता हूँ
गालियाँ देकर
उतार लूं भड़ास ..?
पर रोज़िन्ना सुनता हूँ
तुम गरियाते हो किसी को
बदलाव
फिर भी
नज़र नहीं आता !!
(3)
जिस दूकान पर मैं बिका
सुना है ..
तुम भी
उसी दूकान से बिके थे ?
बिको जितना संभव हो
वरना
जब मरोगे तब कौन खरीदेगा
सिर्फ जलाने
दफनाने के लायक ही रहोगे
आज बिको
पैसा काम आएगा  !

(4)
पापा
आप जो रजिस्टर
दफ्तर से लाए थे
बहुत काम आया
कल उसमें मैंने लिखी थी
ईमानदारी पर एक कविता
सबको बहुत अच्छी लगी
मुझे एवार्ड भी मिला
ये देखो ?
मैं उसका एवार्ड  
देख न पाया !!   

19.6.15

रमज़ान मुबारक हो : बहन फिरदौस की कलम से

खिल उठे मुरझाए दिल, ताज़ा हुआ ईमान है
हम गुनाहगारों पे ये कितना बड़ा अहसान है
या ख़ुदा तूने अता फिर कर दिया रमज़ान है...
माहे-रमज़ान इबादत, नेकियों और रौनक़ का महीना है. यह हिजरी कैलेंडर का नौवां महीना होता है. इस्लाम के मुताबिक़ अल्लाह ने अपने बंदों पर पांच चीज़ें फ़र्ज क़ी हैं, जिनमें कलमा, नमाज़, रोज़ा, हज और ज़कात शामिल है. रोज़े का फ़र्ज़ अदा करने का मौक़ा रमज़ान में आता है. कहा जाता है कि रमज़ान में हर नेकी का सवाब 70 नेकियों के बराबर होता है और इस महीने में इबादत करने पर 70 गुना सवाब हासिल होता है. इसी मुबारक माह में अल्लाह ने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर क़ु़रआन नाज़िल किया था. यह भी कहा जाता है कि इस महीने में अल्लाह शैतान को क़ैद कर देता है.

इबादत
रमज़ान से पहले मस्जिदों में रंग-रोग़न का काम पूरा कर लिया जाता है. मस्जिदों में शामियाने लग जाते हैं. रमज़ान का चांद देखने के साथ ही इशा की नमाज़ के बाद तरावीह पढ़ने का सिलसिला शुरू हो जाता है. रमज़ान के महीने में जमात के साथ क़ियामुल्लैल (रात को नमाज़ पढ़ना) करने को 'तरावीह' कहते हैं. इसका वक्त रात में इशा की नमाज़ के बाद फ़ज्र की नमाज़ से पहले तक है. हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने रमज़ान में क़ियामुल्लैल में बेहद दिलचस्पी ली. आपने फ़रमाया कि ''जिसने ईमान के साथ और अज्र व सवाब (पुण्य) हासिल करने की नीयत से रमज़ान में क़ियामुल्लैल किया, उसके पिछले सारे गुनाह माफ़ कर दिए जाएंगे.''उन्होंने फ़रमाया कि ''यह ऐसा महीना है कि इसका पहला हिस्सा अल्लाह की रहमत है, दरमियानी हिस्सा मग़फ़िरत है और आख़िरी हिस्सा जहन्नुम की आग से छुटकारा है.'' रमज़ान के तीसरे हिस्से को अशरा भी कहा जाता है. आपने फ़रमाया कि ''रमज़ान के आख़िरी अशरे की ताक़ (विषम) रातों में लैलतुल क़द्र की तलाश करो.'' लैलतुल क़द्र को शबे-क़द्र भी कहा जाता है. शबे-क़द्र के बारे में क़ुरआन में कहा गया है कि यह हज़ार रातों से बेहतर है, यानि इस रात में इबादत करने का सवाब एक हज़ार रातों की इबादत के बराबर है. मुसलमान रमज़ान की 21, 23, 25, 27 और 29 तारीख़ को पूरी रात इबादत करते हैं.

ख़ुशनूदी ख़ान कहती हैं- इस महीने में क़ुरआन नाज़िल हुआ, इसलिए रमज़ान बहुत ख़ास है. हर मुसलमान के लिए यह महीना मुक़द्दस और आला है. हमें इस महीने की अहमियत को समझते हुए ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त इबादत में गुज़ारना चाहिए. वैसे भी रमज़ान में हर नेकी और इबादत का सवाब साल के दूसरे महीनों से ज़्यादा ही मिलता है. वे कहती हैं कि शबे-क़द्र को उनके ख़नदान के सभी लोग रातभर जागते हैं. मर्द इबादत के लिए मस्जिदों में चले जाते हैं और औरतें घर पर इबादत करती हैं.

वहीं, ज़ुबैर कहते हैं कि काम की वजह से पांचों वक़्त क़ी नमाज़ नहीं हो पाती, लेकिन रमज़ान में उनकी कोशिश रहती है कि नमाज़ और रोज़ा क़ायम हो सके. दोस्तों के साथ मस्जिद में जाकर तरावीह पढ़ने की बात ही कुछ और है. इस महीने की रौनक़ों को देखकर कायनात की ख़ूबसूरती का अहसास होता है. रमज़ान हमें नेकियां और इबादत करने का सबक़ देता है और हमें अल्लाह के क़रीब करता है.

ज़ायक़ा
माहे-रमज़ान में हर तरफ़ ज़ायक़ेदार व्यंजनों की भरमार रहती है. रमज़ान का ज़िक्र लज़ीज़ व्यंजनों के बग़ैर मुकम्मल नहीं होता. रमज़ान का ख़ास व्यंजन हैं फैनी, सेवइयां और खजला. सुबह सहरी के वक़्त फ़ैनी को दूध में भिगोकर खाया जाता है. इसी तरह सेवइयों को दूध और मावे के साथ पकाया जाता है. फिर इसमें चीनी और सूखे मेवे मिलाकर परोसा जाता है. इसके अलावा मीठी डबल रोटी भी सहरी का एक ख़ास व्यंजन है. ख़ास तरह की यह मीठी डबल रोटी अमूमन रमज़ान में ही ज़्यादा देखने को मिलती है.

इफ़्तार के पकवानों की फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है. अमूमन रोज़ा खजूर के साथ खोला जाता है. दिनभर के रोज़े के बाद शिकंजी और तरह-तरह के शर्बत गले को तर करते हैं. फलों का चाट इफ़्तार के खाने का एक अहम हिस्सा है. ताज़े फलों की चाट रोज़े के बाद ताज़गी का अहसास तो कराती ही है, साथ ही यह पौष्टिक तत्वों से भी भरपूर होती है. इसके अलावा ज़ायक़ेदार पकौड़ियां और तले मसालेदार चने भी रोज़ेदारों की पसंद में शामिल हैं. खाने में बिरयानी, नहारी, क़ौरमा, क़ीमा, नरगिसी कोफ़्ते, सींक कबाब और गोश्त से बने दूसरे लज़ीज़ व्यंजन शामिल रहते हैं. इन्हें रोटी या नान के साथ खाया जाता है. रुमाली रोटी भी इनके ज़ायके को और बढ़ा देती है. इसके अलावा बाकरखानी भी रमज़ान में ख़ूब खाई जाती है. यह एक बड़े बिस्कुट जैसी होती है और इसे क़ोरमे के साथ खाया जाता है. बिरयानी में हैदराबादी बिरयानी और मुरादाबादी बिरयानी का जवाब नहीं. मीठे में ज़र्दा, शाही टुकड़े, फिरनी और हलवा-परांठा दस्तरख़ान पर की शोभा बढ़ाते हैं.
ज़ीनत कहती हैं कि रमज़ान में यूं तो दिन में ज़्यादा काम नहीं होता, लेकिन सहरी के वक़्त और शाम को काम बढ़ जाता है. इफ़्तार के लिए खाना तो घर में ही तैयार होता है, लेकिन रोटियों की जगह हम बाहर से नान या रुमाली रोटियां मंगाना ज़्यादा पसंद करते हैं.
रमज़ान में रोटी बनाने वालों का काम बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है. दिल्ली में जामा मस्जिद के पास रोटी बनाने वालों की कई दुकानें हैं. यहां तरह-तरह की रोटियां बनाई जाती हैं, जैसे रुमाली रोटी, नान, बेसनी रोटी आदि. अमूमन इस इलाके क़े होटल वाले भी इन्हीं से रोटियां मंगाते हैं.

हदीस
जो साहिबे-हैसियत हैं, रमज़ान में उनके घरों में लंबे-चौड़े दस्तरख़्वान लगते हैं. इफ़्तार और सहरी में लज़ीज़ चीज़ें हुआ करती हैं, लेकिन जो ग़रीब हैं, वो इन नेअमतों से महरूम रह जाते हैं. हमें चाहिए कि हम अपने उन रिश्तेदारों और पड़ौसियों के घर भी इफ़्तार और सहरी के लिए कुछ चीज़ें भेजें, जिनके दस्तरख़्वान कुशादा नहीं होते. ये हमारे हुज़ूर हज़रत मुहम्‍मद सल्‍लललाहू अलैहिवसल्‍लम का फ़रमान है.
आप (सल्‍लललाहू अलैहिवसल्‍लम) फ़रमाते हैं- रमज़ान सब्र का महीना है यानी रोज़ा रखने में कुछ तकलीफ़ हो, तो इस बर्दाश्‍त करें. फिर आपने कहा कि रमज़ान ग़म बांटने का महीना है यानी ग़रीबों के साथ अच्‍छा बर्ताव किया जाए. अगर दस चीज़ें अपने रोज़ा इफ़्तार के लिए लाए हैं, तो दो-चार चीज़ें ग़रीबों के लिए भी लाएं.
यानी अपने इफ़्तार और सहरी के खाने में ग़रीबों का भी ख़्याल रखें. अगर आपका पड़ौसी ग़रीब है, तो उसका ख़ासतौर पर ख़्याल रखें कि कहीं ऐसा न हो कि हम तो ख़ूब पेट भर कर खा रहे हैं और हमारा पड़ौसी थोड़ा खाकर सो रहा है.

ख़रीददारी
रमज़ान में बाज़ार की रौनक़ को चार चांद लग जाते हैं. रमज़ान में दिल्ली के मीना बाज़ार की रौनक़ के तो क्या कहने. दुकानों पर चमचमाते ज़री वाले व अन्य वैरायटी के कपड़े, नक़्क़ाशी वाले पारंपरिक बर्तन और इत्र की महक के बीच ख़रीददारी करती औरतें, साथ में चहकते बच्चे. रमज़ान में तरह-तरह का नया सामान बाज़ार में आने लगता है. लोग रमज़ान में ही ईद की ख़रीददारी शुरू कर देते हैं. आधी रात तक बाज़ार सजते हैं. इस दौरान सबसे ज़्यादा कपड़ों की ख़रीददारी होती है. दर्ज़ियों का काम बढ़ जाता है. इसलिए लोग ख़ासकर महिलाएं ईद से पहले ही कपड़े सिलवा लेना चाहती हैं. अलविदा जुमे को भी नये कपड़े पहनकर नमाज़ पढ़ने का दस्तूर है. हर बार नये डिज़ाइनों के कपड़े बाज़ार में आते हैं. नेट, शिफ़ौन, जॉरजेट पर कुन्दन वर्क, सिक्वेंस वर्क, रेशम वर्क और मोतियों का काम महिलाओं को ख़ासा आकर्षित करता है. दिल्ली व अन्य शहरों के बाज़ारों में कोलकाता, सूरत और मुंबई के कपड़ों की धूम रहती है. इसके अलावा सदाबहार चिकन का काम भी ख़ूब पसंद किया जाता है। पुरानी दिल्ली के कपड़ा व्यापारी शाकिर अली कहते हैं कि बाज़ार में जिस चीज़ का मांग बढ़ने लगती है हम उसे ही मंगवाना शुरू कर देते हैं. ईद के महीने में शादी-ब्याह भी ज़्यादा होते हैं. इसलिए माहे-रमज़ान में शादी की शॉपिंग भी जमकर होती है. शादियों में आज भी पारंपरिक पहनावे ग़रारे को ख़ासा पसंद किया जाता है.

चूड़ियों और मेहंदी के बिना ईद की ख़रीददारी अधूरी है. रंग-बिरंगी चूड़ियां सदियों से औरतों को लुभाती रही हैं. चूड़ियों के बग़ैर सिंगार पूरा नहीं होता. बाज़ार में तरह-तरह की चूड़ियों की बहार है, जिनमें कांच की चूड़ियां, लाख की चूड़ियां, सोने-चांदी की चूड़िया, और मेटल की चूड़ियां शामिल हैं. सोने की चूड़ियां तो अमीर तबक़े तक ही सीमित हैं. ख़ास बात यह भी है कि आज भी महिलाओं को पारंपरिक कांच की रंग-बिरंगी चूड़ियां ही ज़्यादा आकर्षित करती हैं. बाज़ार में कांच की नगों वाली चूड़ियों की भी ख़ासी मांग है. कॉलेज जाने वाली लड़कियां और कामकाजी महिलाएं मेटल और प्लास्टिक की चूड़ियां ज़्यादा पसंद करती हैं, क्योंकि यह कम आवाज़ करती हैं और टूटती भी नहीं हैं, जबकि कांच की नाज़ुक चूड़ियां ज़्यादा दिनों तक हाथ में नहीं टिक पातीं.

इसके अलावा मस्जिदों के पास लगने वाली हाटें भी रमज़ान की रौनक़ को और बढ़ा देती हैं. इत्र, लोबान और अगरबत्तियों से महक माहौल को सुगंधित कर देती है. इत्र जन्नतुल-फ़िरदौस, बेला, गुलाब, चमेली और हिना का ख़ूब पसंद किया जाता है. रमज़ान में मिस्वाक से दांत साफ़ करना सुन्नत माना जाता है. इसलिए इसकी मांग भी बढ़ जाती है. रमज़ान में टोपियों की बिक्री भी ख़ूब होती है. पहले लोग लखनवी दुपल्ली टोपी ज्यादा पसंद करते थे, लेकिन अब टोपियों की नई वैरायटी पेश की जा रही हैं. अब तो लोग विभिन्न राज्यों की संस्कृतियों से सराबोर पारंपरिक टोपी भी पसंद कर रहे हैं. इसके अलावा अरबी रुमाल भी ख़ूब बिक रहे हैं. रमज़ान के मौक़े पर इस्लामी साहित्य, तक़रीरों, नअत, हम्द,क़व्वालियों की कैसेट सीटी और डीवीडी की मांग बढ़ जाती है.

यूं तो दुनियाभर में ख़ासकर इस्लामी देशों में रमज़ान बहुत अक़ीदत के साथ मनाया जाता है, लेकिन हिन्दुस्तान की बात ही कुछ और है. विभिन्न संस्कृतियों के देश भारत में मुसलमानों के अलावा ग़ैर मुस्लिम लोग भी रोज़े रखते हैं. कंवर सिंह का कहना है कि वे पिछले कई सालों से रमज़ान में रोज़े रखते आ रहे हैं. रमज़ान के दौरान वे सुबह सूरज निकलने के बाद से सूरज छुपने तक कुछ नहीं खाते. उन्हें विश्वास है कि अल्लाह उनके रोज़ों को ज़रूर क़ुबूल करेगा. भारत देश की यही महानता है कि यहां सभी धर्मों के लोग मिलजुल कर त्योहार मनाते हैं. यही जज़्बात गंगा-जमुनी तहज़ीब को बरक़रार रखते हैं.

16.6.15

प्राप्ति और प्रतीति : गिरीश बिल्लोरे मुकुल

परिंदों,
तुम आज़ाद हो,
उड़ो, ऊँचे और ऊँचे,
जहाँ, सफलता का दृश्य,
बाट जोहता है।
जहाँ से कोई योगी,
पहले पहल सोचता है ?
इस आव्हान का असर,
एक पाखी ने फड़फड़ाए पर,
टकराकर, जाने किस से -
गिर गया -विस्तृत बयाबान में,
और
तब से अब तक हम,
आप और मैं. . .
ताड़ के पत्तों से,
किताबों के जंगल तक-
अन्वेषणरत-
खोजते-
कराहों का कारण


इसे सुनिए यहाँ :- प्राप्ति और प्रतीति 

10.6.15

दो दिन की लघुकथा


पहला-दिन
रत्तू भिखारी बहुत देर तक चीखता चिल्लाता रहा .......... पॉश कालोनी में दो दिनों से मिला तो पर पेट भरने के लिए पानी अधिक पीना पड़ा था आज पॉश कालोनी में मिलने की उम्मीद जो थी . रंग बिरंगे परन्तु बड़े बड़े गेट थे कि खुलने का नाम न ले रहे थे . जिस  गेट के सामने पहुँचा किसी दरवाज़े से सफ़ेद झक्क वाला कुता भुक्क भुक्क कर भगाता नज़र आया तो किसी गेट पर बड़ी नस्ल वाले कुत्ते ने दुत्कारा ... पर भिखारी ने रटी-रटाई पुकार लगानी न छोड़ी .
निरंतर पुकार रहा था सीता मैया राधा जी , देवकी मैया भूखे को भोजन दे दे माँ .. दो दिनों का भूखा हूँ माँ ....... सीता ........... देवकी दोरे खोल लो अब मैया जी ......
एक भी दरवाज़ा न खुला ...... थक हार कर बेचारा भिखारी मंदिर के आहाते में सो गया .... रात कोई आया सपने में . क्या समझाया रत्तू को मालूम होगा अपन को कुच्छ नई मालूम..    
दूसरा-दिन
आज भिखारी पूरे उत्साह से उठा मंदिर के पास वाले बंगले के पास चिल्लाया....... देवी श्री देवी भगवान तुम्हारा भला करेगा .
भुक्क-भुक्क करने वाले कुत्ते को डपटते हुए प्रौढ़ा ने नौकर को आवाज़ लगाईं .... बहादुर एक पेपर प्लेट में पोहे जलेबी ले आ ..
अगले गेट पे ..... रत्तू ने पुकार देवी प्रियंका कुछ दे दो दो दिन का भूखा हूँ ..
इस पुकार ने उसे गज़ब परोसा दिलवाया. जिस घर के सामने उसने कंगना रनौत पुकारा उधर तो उसे रोटी, पानी, पचास रुपए मिले ...

एक घर के सामने गलती से आलिया क्या पुकार बैठा......... घर की तरुणियों ने जिस कदर डपटा कि रत्तू की हवा निकस गई.........    

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