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शुक्रवार, फ़रवरी 08, 2013

पता नहीं बांछैं होतीं कहां हैं पर खिल ज़रूर जातीं हैं

पुरातत्व विषाधारित ब्लाग लेखक ललित शर्मा की
प्रसन्नता का अर्थ मूंछों  के विस्तार से झलकी तो लगा कि
बांछैं यानी मूंछ 


हर कोई  कहता फ़िरता है भई क्या बात है मज़ा आ गया उसे उसने सुना और उसकी बांछैं खिल गईं.
       "बांछैं" शब्द का अर्थ पूछियेगा तो अच्छे अच्छों के होश उड़ जाते हैं . अर्थ तो हमको भी नहीं मालूम रागदरबारी  का एक  सँवाद जो हमारे तक हमारे श्री लाल शुक्ल जी ने  व्हाया  मित्र मनीष शर्मा के भेजा की " बाछैं शरीर के किस भाग में पाई जातीं हैं. पर इस बात से सहमत नज़र आते हैं कि बाछैं खिलती अवश्य हैं.  यानी कि जब वो नहीं जानते तो किसी और के जानने का सवाल ही नहीं खड़ा होता ". 

इसका अर्थ तपासने जब हम गूगल बाबा के पास गये तो हिंदी में लिख के सर्च करने पर गूगल बाबा ने हमको ठैंगा दिखा दिया. तब हमने प्रसन्नता के लिये इमेज सर्च  की तो पाया कि पुरातत्व विषाधारित ब्लाग लेखक ललित शर्मा  किन्ही महाशय के साथ हंस रहें हैं. तो हम समझ गये कि बांछौं का अर्थ मूंछ होता है . किंतु दूसरे ही छण याद आया कि पल्लवी मैडम एक बार  कह रहीं थीं कि खबर सुन कर हम सारी महिलाओं की बांछैं खिलनी हीं थीं . तो झट हमने खुद की अग्यानता पर माथा पीटा कि उनके मूंछ किधर होतीं है ? बताओ भला .. सही है न.
      तो फ़िर कहां होतीं हैं बाछैं जो खिलतीं हैं. तभी याद आया  कि मकान मालिकिन का कुत्ता हमारे भयवश उसको दुलारने पर दुम हिला रहा था और उसके कान भी खड़े हो रहे थे . कान खड़े होना बांछैं खिलने से इतर मामला निकला. हैरान हूं मेरे फ़ेसबुकिया दोस्तों में से एक और शर्मा जी बोले - बाछैं यानी बांहैं ही बांछैं हैंमुझे लगता है....बाछैं शारीर के दोनों ओर पाई जाती है.जिन्हें हम बाहे भी कहते है. और फ़िर सवाल दागा - क्या यह सही ?  तो राजीव तनेजा साहब फ़रमा रहे हैं कि - खुशी के मारे चेहरे पर पड़ने वाली लकीरें .. अब बताइये कभी लक़ीरें भी खिलती हैं.. 
 तो फ़िर कहां होतीं हैं बाछैं जो खिलतीं हैं.
        चलिये छोड़िये भी बांछैं जहां भी हों उससे क्या लेना देना . ..  प्रसन्नता की सूचना देने खिलतीं हैं जिसका सीधा सीधा ताल्लुक आपकी भाव भंगिमा आवर आंतरिक उछाह  से है  और उससे भी  आगे प्रसन्नता की नातेदारी  हमारे स्वास्थ्य से  है. प्रसन्नता आयु-वर्धक  होती है उसके पहले प्रसन्नता  काया को रोग हीन बनाती है. 
                                             प्रसन्नता ईश्वर सानिध्य है. ईश्वर का सानिध्य कौन नहीं चाहेगा. यक़ीनन सभी अपने इर्द गिर्द ईश्वर के अभिरक्षक कवच को महसूस करते हैं. पर खुश कितने लोग रहते हैं इसका आंकलन करने पर पता चलता है कि खुशी के रूप में ईश्वर के सानिध्य का एहसास बहुत ही कम लोग कर पाते हैं कारण यह है कि लोग दूसरों की बाछैं खिलना अब बर्दाश्त नहीं करते. आज़ हर किसी की प्रसन्नता पर ग्रहण लग गया है. एक दौर था कि लोग गांव खेडे़ में, शहरों की गलियों में एक विशाल पारिवारिक भाव के साथ जीते थे. पर अब अंतरंग मित्र भी आपकी प्रसन्नता का सबसे बड़ा दुश्मन है इस बात का एहसास आप कई मर्तबा कर चुके होंगे. मित्रों की बात चली तो अपने कुछ अनुभव से बताना चाहता हूं कि -अक्सर सबसे करीब वाला आपके चेहरे से कब मुस्कुराहट चुरा ले जाए आपको एहसास नहीं हो पाएगा. और अचानक आप अपना सब कुछ खो बैठेंगे. कभी कभी तो बात घोर अवसाद तक ले जा सकती है. इतना अवसाद कि आप आत्महंता भी बन सकते हैं. 
                                                              तनाव देने की प्रवृत्ति वाले लोग अक्सर एक जुमला दुहराते हैं " टेंशन लेने का नईं देने का ..क्या बोला देने का..!!" - जब सारे के सारे लोग इस फ़लसफ़े को अपनातें तो तय है कि आत्म-हत्याओं, अपराधों, अत्याचारों में इज़ाफ़ा ही होगा. क्या आपको  प्रसन्नता ईश्वर सानिध्य नहीं चाहिये वह भी लौकिक जीवन में चाहिये न तो फ़िर प्रसन्न रही मन को अकारण ही प्रसन्न रखिये और जीवन का सफ़ल प्रबंधन कीजिये. क्योंकि तनाव न तो लेने की वस्तु है न देने की ...... बस खोजते रहिये बांछों के खिलने के अर्थ और इस खोजबीन में प्रसन्नता का मार्ग प्रशस्त  कीजिये  हमारे अंतस की यही तो उर्जा है जो जीने का मक़सद बताती है. 

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