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रविवार, फ़रवरी 03, 2013

इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत

इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तकाज़ा है बहुत
इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत !
                         बहुत उम्दा कहा है कृष्ण बिहारी नूर ने. एक अदद  बेचारा  दिमाग उस पर बाहरी वाहियाद बातों का दबाव तो ऐसा होना लाज़िमी भी है. आज़ का आदमी फ़ैंटेसी में जी रहा है वो खुद को धर्मराज और दूसरों को चोर मानता है. 
 इस बात को नक़ारना नामुमक़िन है. किसी से किसी को कुछ भी लेना देना न हो फ़िर भी अपेक्षाएं उफ़्फ़ यूं कि गोया आपस में एक दूसरे के बहुत बड़ा लेन-देन बाक़ी है गोया. कल दफ़्तर पहुंचते ही एक बीसेक बरस का नौजवान हमारे कमरे में तांक झांक कर रहा था पर हमें मीटिंग लेता देख वापस जाने लगा.  हमने सोचा इस युवक को हमारी ज़रूरत है सो बस हमने उसे बुला लिया. बिना दुआ सलाम किये लगभग टिर्राते हुए युवक ने सामने  हमारे सामने टेबल के उस पार वाली कुर्सी पर  अपना दक्षिणावर्त्य टिका दिया. हाथ से एक मैगजीन निकाली बिना कुछ कहे हमारे सामने पटक दी.
                 हमने सोचा चलो छोटी सी जगह में  कोई तो है जो मैगजीन लाएगा हमारी अध्ययन वृत्ति के लिये . 
                पहला पन्ना पलटते ही हमें उस मैगज़ीन का पीलापन साफ़ दिखाई देने लगा. युवक  ने  
बताया कि मैगजीन का लोकल करेस्पांडेस है.तो मुझे लगा कि  अगले कुछ पलों में ये मुझसे एड के नाम पर पैसे मांगेगा. हुआ भी ऐसा ही. हम भी पन्ने पलट कर उसे मैगज़ीन के रूप में मान्यता देने की ग़रज़ से उसमें "मैग्जीनिया तत्व" तलाश रहे थे. पर ऐसी पठन-सामग्री  हम खोज न सके   हक़ीकत में उस कथित  मैगज़ीन का हर पन्ना या तो किसी व्यक्ति विशेष की  अकारण तारीफ़ वाला था अथवा किसी को भ्रष्ट साबित कर रहा था. ऐसा लगा कि जिसकी तारीफ़ छपी है उसके जेब से कुछ निकला है जिसकी निंदा छपी उसके जेब से कुछ निकला नहीं. बस इसी की पुष्टि के लिये अचानक हमने उस युवक से पूछा- भई, ये मैगज़ीन है इसमें मैगज़ीन होने जैसी कोई बात नज़र नहीं आ रही है. ? हमारे सवाल पर भाई के तोते फुर्र हो गये. हमसे येन केन प्रकारेण सम्बंध बनाने की ग़रज से युवक पूछता है.. सर, सुना है आप लिखते हैं 
हां, सही सुना. तो
तो आप भी अपने लेख दीजिये ?
हां, मेरे ब्लाग से लिफ़्ट कर लिया करो. अलग से लिखने के लिये नोट लगेंगे, !
युवक बोला- सर, ये तो सम्भव नहीं. 
मैं- तो मैं भी छपास का भूखा नहीं. 
युवक- तो फ़िर सरकारी एड ही दे दिया कीजिये..!
मैं- क्यों, मुझे अधिकार नहीं हैं इसका. 
युवक- तो ये समाचार  देखिये.. कहते हुए उसने एक ऐसा  समाचार दिखाया जो किसी व्यक्ति  के   
दुर्गुणों की गाथा थी. जो युवक द्वारा भेजी गई थी छपी भी थी . 
          पत्रिका क्या मुझे तो पिस्टल नज़र आ रही थी वो क़िताब. दो वर्ना आपकी भी ... ये ही गत होगी. कमज़ोर दिलवाले डर जाते हैं. पर हम ठहरें जबलईपुर वाले हम भी बिंदास वक्तव्य जारी करते रहे 
          दाल गलती  न देख युवक खीज कर मुद्दे पे आया और बोला - तो तीन हज़ार की रसीद काट दूं.. 
मैने लगभग डपट दिया. तय है  उस युवक के लिये बुरा हो चुका हूं .. कल कुछ ज़रूर  होगा जो होगा उसके लिये  मैं ही ज़वाबदार रहूंगा तय है. बात निकली है  तो उसका दूर तलक़ जाना तय है, निकलने दीजिये बात है ही निकलते ही माउथ टू माउथ दूर तलक जावेगी ही. जाना भी चाहिये . ज़रूरी भी है कुछ खास चेहरे बेनाक़ाब करने का जोखिम उठाना ही है मुझे. वर्ना ये सत्यकथा मुझे सोने न देगी . 

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