मत कहो गीत गीले होते नहीं, अबके गीले हुये हैं वो बरसात में...
रास्ते खोजते भीगते भागते, जिसके दर पे थे उसने बचाया नहीं कागज़ों पे लिखे गीत सी ज़िंदगी- जाने क्या क्या हुआ उस रात में ? तेज़ धारा बहा ले गई ज़िंदगी रेत से बह रहे थे नगर के नगर – क्रुद्ध बूंदों ने छोड़ा नहीं एक भी, शिव की आखें खुलीं थी उस रात में ! हर तरफ़ चीखतीं भयातुर देहों को तिनका भी मिला न था इक हाथ में- बोलिये क्या लिखें क्या सुनें क्या कहें- जो बचा सोचता ! क्यूं बचा बाद में ? जो कुछ भी हुआ था वज़ह हम ही थे- पर सियासत को मुद्दों पे मुद्दे मिले. इधर चैनलों पे बेरहम लोग थे, उधर गिद्धों से आदमी थे जुटे- अंगुलियां काटकर मुद्रिका ले गये हाथ काटे गये चूड़ियों के लिये निर्दयी लोगों के इस नगर में कहो क्या लिखूं, शब्द छुपते हैं आघात में . मत कहो गीत गीले होते नहीं, अबके गीले हुये हैं वो बरसात में...