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अब कसाब को ही लीजिये राजेश चौधरी (नवभारत-टाइम्स) की माने तो दस बरस और ज़िंदा रह सकता है कसाब ..?
यदी आम आदमीयों से ज़्यादा ज़रूरी है कसाब का जीना तो होने दीजिये धमाके हमारी कीमत की क्या है. फ़िर दाग दीजिये एक जुमला "हम आतंकियों को नहीं छोड़ेंगे " हम अपनी व्यवस्था के दयालू होने की क़ीमत भी चुका देंगे...आपके इस भारतीय-फ़लसफ़े को नुकसान न पहुंचाएंगे. क्योंकि आप को हमारी बड़ी चिंता है जिसका उदाहरण ये भी है. हम तो वोट हैं जो एक टुकड़ा है कागज़ का, हम तो बाबू,मास्टर,स्कूली बच्चे, मिस्त्री, मुंशी, वगैरा वगैरा, हमारी कीमत ही क्या है.. हो जाने दो हमारी देह को चीथड़ों में तक़सीम किसी हम जो रोटी के लिये पसीने को बहा देना अपना धर्म मानते हैं हम जो तुम सब की नीयत को पहचानते हैं तुम्हारे लिये हमसे कीमती जान उस आतंकी की है तो ठीक है बचा लो उसे पर याद रखना ये सौदा मंहगा साबित होगा यदी एक बार हमें मौका मिला तो सच बता देंगे सच-झूठ, न्याय-अन्याय का अर्थ. देखो हमारे तेवर अब असाधारण हैं. हमारी खामोशी के पीछे पनपता क्रांति का वातावरण है.. उसे देख शायद होश में आ जाओगे.. मुझे फ़िर भी यक़ीन नहीं कि तुम मुझे आज़ाद भारत में आज़ादी का गीत सुनाओगे.